हिंदुओं के आदर्श कृष्ण की अर्धांगिनी सत्यभामा ने एक बार द्रौपदी से सवाल किया, ‘‘हे द्रौपदी, कैसे तुम अति बलशाली पांडुपुत्रों पर शासन करती हो? वे कैसे तुम्हारे आज्ञाकारी हैं तथा तुम से कभी नाराज नहीं होते? तुम्हारी इच्छाओं के पालन हेतु सदैव तत्पर रहते हैं? मु झे इस का कारण बताओ.’’

द्रौपदी ने उत्तर दिया, ‘‘हे सत्यभामा, पांडुपुत्रों के प्रति मेरे व्यवहार को सुनो. मैं अपनी इच्छा, वासना तथा अहंकार को वश में कर अति श्रद्धा व भक्ति से उन की सेवा करती हूं. मैं किसी अहंकार भावना से उन के साथ व्यवहार नहीं करती. मैं बुरा और असत्य भाषण नहीं करती. मेरा हृदय कभी किसी सुंदर युवक, धनवान या आकर्षक पर मोहित नहीं होता. मैं कभी स्नान नहीं करती, खाती अथवा सोती हूं जब तक कि मेरे पति स्नान नहीं कर लेते, खा लेते अथवा सो जाते हैं. जब कभी भी मेरे पति क्षेत्र से, वन से या नगर से लौटते हैं, तो मैं उसी समय उठ जाती हूं, उन का स्वागत करती हूं और जलपान कराती हूं.

‘‘मैं अपने घर के सामान तथा भोजन को हमेशा साफ व क्रम से रखती हूं. सावधानी से भोजन बनाती हूं और ठीक समय पर परोसती हूं. मैं कभी भी कठोर शब्द नहीं बोलती. कभी भी बुरी स्त्रियों का अनुसरण नहीं करती. मैं वही करती हूं जो मेरे पतियों को रुचिकर और सुखकर लगता है. कभी भी आलस्य या सुस्ती नहीं दिखाती. बिना विनोदावसर के नहीं हंसती. मैं दरवाजे पर बैठ कर समय बरबाद नहीं करती. मैं क्रीड़ा उद्यान में व्यर्थ नहीं ठहरती. मु झे अन्य काम करने होते हैं. जोरजोर से हंसना, भावुकता तथा अन्य इसी प्रकार की अप्रिय लगने वाली वस्तुओं से अपनेआप को बचाती हूं और पतिसेवा में रत रहती हूं.

‘‘पतिविछोह मु झे कभी नहीं सुहाता. जब कभी मेरे पति मु झे छोड़ कर बाहर जाते हैं, तो मैं सुगंधित पुष्पों तथा अंगराग का प्रयोग न कर कठोर तपस्या में जीवन बिताती हूं. मेरी रुचिअरुचि, मेरे पति की रुचिअरुचि ही है और उन्हीं की आवश्यकतानुसार अपना समायोग करती हूं. मैं तनमन से अपने पति की भलाई चाहती हूं. मैं उन वक्तव्यों का हूबहू पालन करती हूं जो कि मेरी सास ने संबंधियों, अतिथियों, दान आदि के बारे में बतलाए थे.’’

द्रौपदी के अनुसार, ‘‘नारी का सर्वोतम गुण है पति व सास की सेवा और उन की सभी आज्ञाओं का पालन करना और उस के बदले कुछ पाने की इच्छा न रखना. पति स्त्री का ईश्वर है. वही उस का एकमात्र शरणालय है. पति के अलावा स्त्री के लिए और कहीं शरण नहीं है. ऐसी दशा में एक पत्नी वह कार्य कैसे कर सकती है जो उस के पति को अप्रिय व अरुचिकर लगे. वह अपने गुरु की भी सेवा बहुत ही नम्रता से करती है और इसलिए उस के पति उस से बहुत प्रसन्न रहते हैं. वह सुबह सब से पहले उठती है और सब से बाद में सोती है.’’

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हिंदू धर्म के अनुसार, हरेक नारी को ऐसे ही जीवन बिताना चाहिए. स्त्रियों को भौतिक प्रभाव से दूर रहना चाहिए. एक व्यसनी, विलासी नारी सच्ची स्वाधीनता को नहीं सम झती. यत्रतत्र घूमना, कर्तव्यहीन बनना, मनचाहा सबकुछ करना, सबकुछ खानापीना, मोटर दौड़ाना अथवा पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करना आजादी नहीं है. सतीत्व, स्त्री का सर्वोत्तम अलंकार है. सतीत्व की सीमा पार करने, पुरुषों की तरह व्यवहार करने से नारी अपनी कोमलता, बुद्धिमता, प्रताप तथा सुंदरता का नाश कर देती है. इस का यह मतलब कि एक औरत को हर प्रकार से अपने पति की आज्ञाकारी होना ही चाहिए, धर्म पर चलना चाहिए, तभी उस का प्रताप, तेज तथा पतिव्रतधर्म और ज्यादा उज्ज्वल होगा.

यहां सारे धर्म स्त्री के लिए बतलाए गए हैं. पुरुष के लिए एक भी धर्म का जिक्र नहीं हुआ है. यहां यह नहीं बतलाया गया कि एक ब्याहता पुरुष को किस मर्यादा में रहना चाहिए. क्या सारी मर्यादाएं, संस्कार सिर्फ औरतों के लिए ही हैं?

गीता प्रैस, गोरखपुर ने भी नारी धर्म, स्त्री के लिए कर्तव्य दीक्षा, भक्ति नारी, नारी शिक्षा, दांपत्य जीवन के आदर्श, गृहस्थी में कैसे रहें जैसे विषयों पर अपनी पुस्तिका का एक पूरा अंक छापा था. उस में स्त्रियों की पवित्रता पर जोर दिया गया है. उस में बतलाया गया है कि दांपत्य जीवन में क्या करना चाहिए. शादी के वक्त क्या करना चाहिए, आभूषण पहनना चाहिए या नहीं, पति के साथ कब संभोग करना चाहिए, गर्भावस्था के दौरान महिलाओं का व्यवहार कैसा होना चाहिए, विधवाओं का व्यवहार कैसा होना चाहिए. महिलाओं का सब से महत्त्वपूर्ण धर्म है अपने पति के प्रति वफादार रहना. महिला की जिंदगी का मकसद होना चाहिए कि पति खुश रहे. यह पुस्तिका लाखों घरों तक पहुंची थी और लोगों की सोच पर व्यापक असर भी हुआ था.

1920 के दशक में सनातन धर्म की मुख्य सोच थी कि हिंदू धर्म खतरे में है और यह खतरा इसलाम और अंगरेजों के आने से शुरू हुआ, नहीं तो हिंदू धर्म हर क्षेत्र में अव्वल था. सोच है कि इसलाम और अंगरेजों के भारत आने के बाद हिंदू सभ्यता भ्रष्ट हो गई और जरूरत है उसी पुराने समय में जाने की जब हिंदू समाज चरम पर था. यानी पुरुष का काम है बाहर जा कर शिक्षा ग्रहण करना, पैसे कमाना और औरतों का काम है घर में रह कर बच्चे पैदा करना, पति व सासससुर की सेवा करना. जब पति घर लौटे तो स्त्री का कर्तव्य है धर्मग्रंथों के माध्यम से उस के चित्त को पवित्र करना. स्त्री को भीतरी दुनिया की रानी बताया गया है जो बेहद कठिन और निराशाजनक व चुनौतियों से भरी हुई थी.

महिला कैद, पुरुष आजाद

गीता प्रैस के प्रकाशन ‘कल्याण’ के विशेषांकों को पढ़ें, तो साफ है कि महिला से जुड़े हर मुद्दे पर पुरुष की सोच हावी दिखती है. वह क्या खाएगी, क्या पहनेगी, कहां जाएगी, कितना हंसेगी, किस से बात करेगी, किस से नहीं, मासिकधर्म के वक्त औरतों को कैसे रहना चाहिए, आदि. चाहे पति अत्याचारी हो या किसी दूसरी महिला का बलात्कार करता हो, पत्नी को वह एक बुरा सपना सम झ कर भूल जाना चाहिए. नारी धर्म को ले कर गीता प्रैस में छपा वह अंक आज भी कहीं न कहीं लोगों की नजरों में दिखता है.

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उस अंक के लेखों को ले कर महिला अधिकारी, कार्यकर्ता, कविता कृष्णन कहती हैं, ‘‘चाहे वह हिंदू स्त्री हो या मुसलिम, पुरुष के बीच का प्रेम या दोस्ती हो, या भारतीय महिलाओं की मां और पत्नी को ले कर सोच हो, घरेलू हिंसा का मामला हो, आज भी उन में यह दिखता है. इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गीता प्रैस ने हिटलर की उस अपील को भी छापा जिस में स्त्री को पत्नी और मां की भूमिका तक ही सीमित रखने की बात कही गईर् थी. हिटलर के युग में औरतों को मां और पत्नी के रूप में ही रखा गया था. उन्हें पार्टी में पद नहीं दिए गए. वे बच्चे पैदा करने के लिए ही थीं. ऐसी नाजी पार्टी की सोच थी.

हम सभी जानते हैं कि द्रौपदी के5 पति थे और एकएक वर्ष के अंतराल से उस ने पांचों पांडवों के एकएक पुत्र को जन्म दिया. उस ने पत्नी होने के हर धर्म को निभाया. लेकिन फिर भी पांडुपुत्रों ने दूसरा ब्याह किया द्रौपदी के होते हुए भी. तो फिर उन का धर्म कहां गया? जब एक पति होते हुए पत्नी परपुरुष की ओर आकर्षित नहीं हो सकती, फिर पुरुष क्यों? क्या उन का कोई धर्म नहीं है अपनी पत्नी के प्रति?

स्त्रियों से उम्मीद की जाती है कि वे पतिपरायण बनी रहें. न चाहते हुए भी पति के परिवार की लंबी उम्र के लिए व्रतउपवास करें. उन के हर अच्छेबुरे व्यवहार को बरदाश्त करें, साथ ही, परपुरुषों के आकर्षण से दूर रहें. लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा कोई उपदेश क्यों नहीं है?

सदियों से स्त्री को कोमलांगी मान कर उसे दोयम दर्जे की सम झा जाता रहा है. यही वजह है कि प्राचीन काल से ले कर आज 21वीं सदी में भी उस पर अत्याचार कम नहीं हुए हैं. उस पर अत्याचार का सब से घिनौना रूप है उस के स्वाभिमान को कुचल कर उसे धर्म के अंधकार में धकेल देना ताकि वह पुरुष की आजादी में हस्तक्षेप न करे. आज स्थिति यह है कि महिला उस धर्म में कैद हो कर रह गई है. वह उस से निकलना चाहती है, पर समाज व परिवार की सोच ने उस की सोच पर मिट्टी डाल रखी है. अशिक्षित ही नहीं, आज पढ़ीलिखी महिलाएं भी धर्म के जंजाल से निकल नहीं पा रही हैं. सच कहें तो सीता, द्रौपदी, अनुसूया, सावित्री आदि पतिपरायण नारियां, आज की स्त्रियों का कोई भला नहीं कर गईं, उलटे, उन्हें कैदभरा रूढि़गत जीवन ही प्रदान किया है, उन की विचारक्षमता को गुलाम बनाया है.

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लड़कियों की बेचारगी

वंशिका पढ़ीलिखी, सुंदर और आत्मनिर्भर लड़की है और एक मल्टीनैशनल कंपनी में बड़ी पोस्ट पर कार्यरत है. शादी उस की अपनी पसंद के लड़के से होने जा रही है. लेकिन यह सुन कर मु झे हैरानी हुई कि आज की सोच रखने वाली वंशिका व्रतउपवास में भी विश्वास रखती हैं. उस ने अपने होने वाले पति के लिए पूरे दिन भूखीप्यासी रह कर करवाचौथ का व्रत रखा, शाम को चांद और होने वाले पति का मुखड़ा देखने के बाद ही उस ने अन्नजल ग्रहण किया.

पूछने पर कि वह तो पढ़ीलिखी, आज की सोच रखने वाली लड़की है, तो फिर इन सब पर कैसे विश्वास करती है, वह बोली, ‘‘पति की सलामती और उन की लंबी आयु के लिए सारी औरतें व्रत रखती हैं मेरी ससुराल में, तो मु झे भी रखना पड़ा, और वैसे भी, शादी के बाद तो रखना ही है.’’

‘रखना पड़ा?’ यानी कि उस की अपनी मरजी नहीं है, फिर भी करना पड़ा? सच में लड़कियों को वही करना पड़ता है जिस में लोगों की खुशी हो. पर अपनी खुशी का क्या? आखिर क्यों वह अतार्किक विधिविधानों को चुपचाप सह रही है? एक तरफ तो उस ने औरतों के लिए बनाए बंधनों को तोड़ कर घर की दहलीज लांघ, बाहर रह कर ऊंची पढ़ाई की और आज एक बड़ी कंपनी में अच्छी पोस्ट पर है. शादी भी वह अपनी पसंद के ही लड़के से करने जा रही है. फिर वह पूजापाठ, व्रतउपवास जैसे बंधनों में क्यों बंध गई? क्या यह सब वह अपनी मरजी से कर रही है या सामाजिक दबाव उस पर इतना ज्यादा है कि अनेक स्तरों पर आजाद और पौजिटिव सोच रखने वाली महिला इस से बाहर नहीं निकल पा रही है?

खुद को जकड़न में डालना

प्रज्ञान की पत्नी को डाक्टर ने सख्ततौर पर व्रतउपवास करने को मना किया है, क्योंकि वह बीपी की समस्या के साथसाथ गैस की समस्या से भी ग्रस्त है. लेकिन वह किसी की नहीं सुनती. उसी तरह व्रतपूजापाठ में लगी रहती है. कभी तीज, कभी एकादशी, कभी पूर्णिमा जैसे व्रत होते ही रहते हैं उस के. उस का मानना है कि अगर वह पूजापाठ, व्रतउपवास करना छोड़ देगी, तो उस के भगवान नाराज हो जाएंगे और उस के परिवार पर दुख के काले बादल मंडराने लगेंगे. सवाल है कि क्या ऐसा भगवान, यदि कहीं हो तो, ने खुद कहा आ कर उस से कि अगर वह पूजाउपवास नहीं करेगी, तो वे उस से नाराज हो कर उस के पतिबच्चे को गायब कर देंगे?

धर्म ऐसी अफीम है जिसे महिलाओं को बचपन से ही चटाया जाता है. कौन नहीं जानता कि आज धर्म के नाम पर महिलाओं का कितना शोषण हो रहा है, लेकिन फिर भी वे उस में फंसती जाती हैं. पुरुषों को नहीं पता होता कि आखिर उन के शास्त्रों में क्या वर्णित है और क्या नहीं. महिलाएं जो अपने गुरुबाबाओं से सुनती हैं, उसे ही धर्म मान कर उस का अनुसरण करने लगती हैं.

समाज औरतों के लिए हमेशा से ही पक्षपाती रहा है. औरतों की आजादी से डराघबराया पितृसत्तात्मक समाज औरतों को अपने नियंत्रण से बाहर जाने नहीं देना चाहता है. इसलिए उस पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए वह धर्म का बखूबी इस्तेमाल करता है. औरतों को डराए रखने के लिए धर्म ही सब से मजबूत व आसान जरिया है. जब सवाल औरतों की नैतिकता, उन की शारीरिक इच्छा का हो, तो नियंत्रण और अधिक बढ़ जाता है. पितृसत्तात्मक समाज में इस की शुरुआत कब हुई, इस के बारे में ठीक तरह से तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन महिलाओं के व्रत रखने का कारण उस के हमेशा आश्रय में रहने की स्थिति को बयां करता है.

वशिष्ठ धर्मसूत्र में लिखा है- ‘पिता रक्षति कौमारे, भ्राता रक्षति यौवने, रक्षति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातंत्रमहर्ति.’ इस का अर्थ है कि कुमारी अवस्था में नारी की रक्षा पिता करेंगे, यौवन में पति और बुढ़ापे में पुत्र. नारी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है. पिता, पति, बेटा आश्रय के रूप में बदलते हैं. औरत को शुरू से ही बतलाया गया है कि उसे किसी के सहारे ही अपना जीवन व्यतीत करना है. और उन के सहारे की भी जिम्मेदारी स्त्री की है, इसलिए वह अपने पति, पुत्र की लंबी उम्र की कामना भगवान से करती है. पितृसत्तात्मक सोच ने यहां महिलाओं को यह सम झाया है कि वे भले ही व्रत उन के लिए करती हैं लेकिन असल में स्वार्थ उन का ही है क्योंकि वे खुद बेसहारा नहीं होना चाहती हैं.

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डर के घेरे में

तीज, करवाचौथ, छठ, सप्तमी आदि सारे व्रत महिलाएं पति और बेटे की सलामती व उन की लंबी आयु के लिए रखती हैं. एक व्रत तो ऐसा भी है जिस में औरतें रुई के गद्दे पर नहीं सो सकतीं, वरना महापाप लग जाएगा. नवरात्र में कन्यापूजन का विधान है. माना जाता है कि वह देवी का रूप है. मगर आज उसी देवीरूपी कन्या के साथ क्याक्या हो रहा है, यह सभी जानते हैं. दिल्ली, कठुआ, उन्नाव, अलवर, हैदराबाद, बक्सर और अलीगढ़ जैसी बलात्कार की घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि देवी समान महिलाएं आज किसी भी उम्र में सुरक्षित नहीं हैं. हैवानियतभरा कृत्य कर आज उसी देवीरूपी जिस्म की हत्या कर दी जा रही है.

और तो और, महिलाओं के मनमस्तिष्क में यह भर दिया जाता है कि अगर गलती से भी उस ने तीज या करवाचौथ के दिन पानी पी लिया तो पाप हो जाएगा. उसे अगले जन्म में इस की सजा भुगतनी पड़ेगी. जैसे, दूध पी लिया तो नागिन बन जाएगी, पानी पी लिया तो जोंक, मिठाई खा ली तो चींटी, दही खा लिया तो बिल्ली, फल खाया तो बंदरिया, और अगर कहीं गलती से नींद आ गई, तो अजगर तो बनेगी ही बनेगी. फिल्मों और टीवी सीरियल्स में भी पति की लंबी उम्र के लिए रखे जाने वाले व्रतों को खूब दर्शाया जाता है और इतना कि एक व्रत को पूरा होतेहोते 2-3 एपिसोड्स निकल जाते हैं.

करवाचौथ या तीज जैसे व्रत रखने से क्या वाकई पति की उम्र लंबी हो जाती है? अगर ऐसा है तो फिर पत्नी की लंबी उम्र के लिए पति क्यों नहीं रखते व्रत? क्या उन्हें पूरी जिंदगी अपनी पत्नी का साथ नहीं चाहिए? लेकिन दुख की बात तो यह है कि इन कर्मकांडों में महिलाएं भी बढ़चढ़ कर भाग लेती हैं. अगर कुछ सम झाओ, तो कहेंगी, ‘‘चुप रहो, ज्यादा नास्तिक मत बनो. अब क्या हम अपने संस्कार भी भूल जाएं?’’ ऐसा कह कर वे सामने वाले को ही चुप करा देती हैं.

औरतों के साथ अगर अन्याय भी होता है तो वे अन्याय करने वाले को नहीं, बल्कि अपने प्रति होने वाले अन्याय को भी वे भगवान की पूजा और श्रद्धा में अपनी कमी या खामी मान कर खुद को जिम्मेदार ठहरा लेती हैं. उन्हें लगता है शायद उन की पूजा में ही कोई त्रुटि रह गई होगी और इसलिए उन्हें इतना दुख भोगना पड़ रहा है. घरपरिवार में शुरू से ही महिलाओं की स्थिति दूसरे दर्जें की और पुरुष की श्रेष्ठ रही है. औरतें खुद पति को अपना मालिक मानती हैं, जबकि पतिपत्नी का रिश्ता बराबरी का होता है. चाहे पति कितना भी मारेपीटे, कष्ट दे, चाहे पति जीवन को नर्क सा ही क्यों न बना दे, पर वह देवता है, उस की मांग का ताज है.

पति का मारना धर्म, पत्नी का सहना धर्म

मनुस्मृति में लिखा है, ‘जहां स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहां देवता रमण करते हैं और जहां इन का अनादर होता है, वहां सब कार्य निष्फल होते हैं.’ यह बात आज नहीं, सदियों पहले वैदिककाल में कही गई थी. तब से आज तक मानव समाज के सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर में काफी विकास हुआ है. लेकिन नारी की स्थिति में कुछ खास अंतर नहीं आया. इस का अंदाजा इस से भी लगाया जा सकता है. कि आज भी मां सरस्वती, दुर्गा, काली, लक्ष्मी आदि देवी मां की आराधना धूमधाम से की जाती है. लेकिन, महिलाओं के प्रति संकीर्ण मानसिकता रखने वाले लोगों की सोच उन की जबान पर कभीकभी आती ही रहती है.

हिंदू धर्म में औरत को देवी का दर्जा दिया गया है. लेकिन आज कितनी ऐसी देवियां हैं जो रोज अपने पति के हाथों पिटती हैं, जलील होती हैं, पर उफ्फ तक नहीं करतीं, क्योंकि पति का मारनापीटना धर्म है और उनका सहना.

मीनाक्षी का पति आएदिन शराब पी कर उसे मारतापीटता है, जलील करता है. एक बार तो उस ने उसे जलाने की भी कोशिश की थी. पड़ोसी सब जानते हैं, पर कुछ नहीं कहते और न ही मार खाते हुए मीनाक्षी को बचाने जाते हैं, क्योंकि मीनाक्षी का कहना है कि वह उस का पति है, चाहे जो करे. लोगों को बीच में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. और अगर वह पति के हाथों मर भी गई, तो भी उस का जीवन सफल ही होगा.

गौशाला में सोने को मजबूर

कुल्लूमनाली ऐसी जगह है जहां दुनियाभर के पर्यटक आते हैं और वहां की खूबसूरत वादियों का मजा लेते हैं. लेकिन कुल्लू की एक दूसरी तसवीर भी है. कुल्लू के पहाड़ों में बसे गांव में बहुत सी औरतें मासिकधर्म के दौरान गौशाला में सोती हैं. उसी गांव की रहने वाली बिमला देवी एक बच्चे की मां है. वह कहती है कि मासिकधर्म के वक्त वह अपने घर के भीतर कदम भी नहीं रख सकती. बच्चे और पति से अलग, घर के बाहर गौशाला में सोती है. जबकि परिवार से अलग गोबर की गंध के  बीच उसे सोना पसंद नहीं है, लेकिन उस के पास दूसरा चारा नहीं है. वह बताती है कि मासिकधर्म के समय वह किसी को छू भी नहीं सकती, क्योंकि उन दिनों औरतों को गंदा माना जाता है. अकेले रहना पड़ता है तो अजीब लगता है. वहीं, बीए पास प्रीता को भी इस प्रथा का सामना करना पड़ा था. वह कहती है, ‘‘ये पुराने रीतिरिवाज हैं जिन का पालन करना ही पड़ेगा, वरना देवता गुस्सा हो जाएंगे.’’ कुछ लोगों का विश्वास है कि उन दिनों अगर औरत घर के अंदर चली गई तो देवता रुष्ट हो जाएंगे और वे अपने देवता को नाराज नहीं करना चाहती हैं. यह सब औरतों के साथ अन्याय नहीं, तो और क्या है?

प्रकृति ने जब सभी प्राणियों को एकसमान और स्वतंत्र बनाया है, तो फिर स्त्रियां ही धर्मसंस्कारों में कैद क्यों हैं? न तो वे अपनी मरजी से खुली हवा में सांस ले सकती हैं और न ही सामाजिक बंधनों को तोड़ सकती हैं. ऐसे में फिर शिक्षा का क्या फायदा? महिलाओं की भावनाएं समाज के अंधविश्वासों व मान्यताओं के बो झ तले दब जाती हैं और उन का मस्तिष्क कई तरह के ज्ञानविज्ञान से वंचित रह जाता है.

धर्मरूपी जेल

पुराने समय में पुरुष के साथ चलने वाली नारियां, मध्यकाल में पुरुष की संपत्ति की तरह सम झी जाने लगीं. इसी सोच के चलते नारियों की स्वतंत्रता खत्म हो गई. नए काल में जन्मे तथाकथित धर्मों ने नारी को धार्मिक तौर पर दबाना और उन का शोषण करना शुरू कर दिया. धर्म और समाज के जंगली कानून ने नारी को पुरुष से नीचा और निम्न घोषित कर उसे उपभोग की वस्तु बना कर रख दिया. वैदिक युग की नारी धीरेधीरे अपने दैवीय पद से नीचे खिसक कर मध्यकाल के सामंतवादी युग में दुर्बल हो कर शोषण का शिकार होने लगी.

तथाकथित मध्यकालीन धर्म द्वारा नारी को पुरुषों पर निर्भर बनाने के लिए उसे सामूहिक रूप से पतित अनाधिकारी बताया गया. उस के मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगा कर पुरुषों को हर जगह बेहतर बता कर नारी की अवचेतना शक्तिविहीन होने का एहसास जगाया जिस से उसे आसानी से विधाहीन, साहसहीन कर दिया जाए. ताकि, वह अपने जीवनयापन, इज्जत और आत्मरक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर हो जाए.

लेकिन, क्या एक औरत को सम्मान से अपने अनुसार जीने का हक नहीं है? क्यों हमेशा उन पर अपनी मरजी थोपी जाती है? कभी धर्म के नाम पर, कभी बेटा पैदा करने के लिए, तो कभी दहेज के लिए उसे शोषित किया जाता है. कहते हैं, औरत घर की लक्ष्मी होती है. लेकिन दूसरी तरफ परंपराओं के नाम पर, धर्म के नाम पर, मानमर्यादाओं के नाम पर औरत के अस्तित्व को घर के अंदर कैद कर लिया गया है.

एक औरत को अपने पति की सेवा, जिसे उस का परमेश्वर कहा जाता है, निस्वार्थ भाव से करनी चाहिए, तभी उसे तथाकथित स्वर्ग मिलता है. पर जब बात नारी के सम्मान की आती है, तब ‘वह तो नारी का कर्तव्य है’ कह कर बात खत्म कर दी जाती है. डर है समाज को कि कहीं औरतें अधिक आगे बढ़ गईं, तो पुरुषों का क्या होगा? इसलिए वे उसे धर्मरूपी जेल में कैद कर के रखना चाहते हैं.

व्रतउपवास, पूजापाठ, धर्मकर्म करने के लिए साधुबाबा महिलाओं का ब्रेनवाश करते हैं. महिलाओं से भेदभाव किया जाता है. केरल के सब से प्रसिद्ध और विवादित सबरीमाला मंदिर में औरतों को प्रवेश की अनुमति मिल तो गई लेकिन भारत का यह एकलौता मंदिर नहीं था जहां महिलाओं का जाना वर्जित है, बल्कि और भी ऐसे द्वार हैं जहां महिलाओं के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है.

मध्य प्रदेश राज्य के गुना शहर स्थित जैन धर्म के प्रसिद्ध तीर्थस्थल ‘मुक्तागिरी’ तीर्थ में कोई भी महिला पाश्चात्य परिधान पहन कर प्रवेश नहीं कर सकती. राजस्थान के प्रसिद्ध तीर्थस्थल पुष्कर में स्थित कार्तिकेय मंदिर में महिलाओं का जाना मना है.

दक्षिण दिल्ली में स्थित हजरत निजामुद्दीन औलिया का मकबरा सूफी काल की एक पवित्र दरगाह है. इस दरगाह में औरतों का प्रवेश निषेध है. दिल्ली की जामा मसजिद भारत की सब से बड़ी मसजिदों में से एक है. इस मसजिद में सूर्यास्त के बाद महिलाएं नहीं जा सकतीं.

यहां तक कि  हिन्दू महिलाएं बजरंगबली को छू तक नहीं सकतीं. शिवजी पर जल नहीं चढ़ा सकतीं. लेकिन पुरुष चाहे जिस देवी की पूजा कर सकता है. उन से बलताकत मांग सकता है, ताकि वही ताकत वह अपनी घर की देवी पर उतार सके.

भले ही समाज में औरतों को देवी का दर्जा मिला है पर आज कितनी ही ऐसी देवियां हैं जो रोज अपने पति के हाथों पिटती हैं. समाज शुरू से ही अपनी सहूलियत के हिसाब से औरतों को धर्म की जकड़न में रखता है. मगर औरतें यह बात सम झ नहीं पाईं.

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खुद भी जिम्मेदार

कभीकभी तो लगता है औरतें खुद अपनी त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि वे अपने हर अधिकार के लिए लड़ तो सकती हैं पर धर्म जैसे अंधविश्वास से बाहर नहीं निकल सकतीं. वे डरी हुई हैं. आज भी धर्म की आड़ में ही महिलाओं का शोषण हो रहा है. आज भी धर्म के नाम पर ही महिलाओं की आबरू लूटी जा रही है. आसाराम, रामरहीम जैसे कितने ऐसे बाबा हैं जिन्होंने धर्म के नाम पर महिलाओं का शोषण किया. कभी इलाज के नाम पर तो कभी पुत्रप्राप्ति के नाम पर महिलाएं बाबाओं के जाल में फंसती आई हैं. लेकिन हैरानी तो इस बात की होती है कि आएदिन बाबाओं की करतूतें सुनने के बाद भी महिलाएं उन के छलावे में आ जाती हैं.

धर्म के नाम पर मासूम बच्चियों को नर्क में धकेलने की प्रथा आज भी कायम है. देवदासी प्रथा की शुरुआत 6ठी और 7वीं शताब्दी के आसपास हुई थी. इस प्रथा का प्रचलन मुख्यरूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में बढ़ा. दक्षिण भारत में खासतौर पर चोल, चेला और पांडयाओं के शासनकाल में यह प्रथा खूब फलीफूली. लेकिन आज भी कई प्रदेशों में देवदासी की प्रथा का चलन जारी है.

हमारे आधुनिक समाज में छोटीछोटी बच्चियों को धर्म के नाम पर देवदासी बनने पर मजबूर किया जाता है. इस के पीछे अंधविश्वास तो है ही, गरीबी भी एक बड़ी वजह है. कम उम्र में लड़कियों को उन के मातापिता ही देवदासी बनने के लिए मजबूर करते हैं.

बता दें कि आजादी से पहले और बाद भी सरकार ने देवदासी प्रथा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाए. पिछले 20 सालों से पूरे देश में इस प्रथा का प्रचालन बंद हो चुका था. कर्नाटक सरकार ने 1982 में और अांध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया था, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं. एक आंकड़े के मुताबिक, सिर्फ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में लगभग 80,000 देवदासियां हैं.

धर्म और अधर्म, आस्था और अंधविश्वास, श्रद्धा और पाखंड में स्पष्ट अंतर है. इसे हमें सम झना चाहिए. हमें मिल कर अंधविश्वासी, पाखंडी और अधर्मी लोगों का बहिष्कार करना चाहिए जोकि इस देश और स्त्री की गरिमा को दीमक की तरह चाट रहे हैं.

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