हिंदुओं के आदर्श कृष्ण की अर्धांगिनी सत्यभामा ने एक बार द्रौपदी से सवाल किया, ‘‘हे द्रौपदी, कैसे तुम अति बलशाली पांडुपुत्रों पर शासन करती हो? वे कैसे तुम्हारे आज्ञाकारी हैं तथा तुम से कभी नाराज नहीं होते? तुम्हारी इच्छाओं के पालन हेतु सदैव तत्पर रहते हैं? मु झे इस का कारण बताओ.’’
द्रौपदी ने उत्तर दिया, ‘‘हे सत्यभामा, पांडुपुत्रों के प्रति मेरे व्यवहार को सुनो. मैं अपनी इच्छा, वासना तथा अहंकार को वश में कर अति श्रद्धा व भक्ति से उन की सेवा करती हूं. मैं किसी अहंकार भावना से उन के साथ व्यवहार नहीं करती. मैं बुरा और असत्य भाषण नहीं करती. मेरा हृदय कभी किसी सुंदर युवक, धनवान या आकर्षक पर मोहित नहीं होता. मैं कभी स्नान नहीं करती, खाती अथवा सोती हूं जब तक कि मेरे पति स्नान नहीं कर लेते, खा लेते अथवा सो जाते हैं. जब कभी भी मेरे पति क्षेत्र से, वन से या नगर से लौटते हैं, तो मैं उसी समय उठ जाती हूं, उन का स्वागत करती हूं और जलपान कराती हूं.
‘‘मैं अपने घर के सामान तथा भोजन को हमेशा साफ व क्रम से रखती हूं. सावधानी से भोजन बनाती हूं और ठीक समय पर परोसती हूं. मैं कभी भी कठोर शब्द नहीं बोलती. कभी भी बुरी स्त्रियों का अनुसरण नहीं करती. मैं वही करती हूं जो मेरे पतियों को रुचिकर और सुखकर लगता है. कभी भी आलस्य या सुस्ती नहीं दिखाती. बिना विनोदावसर के नहीं हंसती. मैं दरवाजे पर बैठ कर समय बरबाद नहीं करती. मैं क्रीड़ा उद्यान में व्यर्थ नहीं ठहरती. मु झे अन्य काम करने होते हैं. जोरजोर से हंसना, भावुकता तथा अन्य इसी प्रकार की अप्रिय लगने वाली वस्तुओं से अपनेआप को बचाती हूं और पतिसेवा में रत रहती हूं.
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