राइटर- रोहित
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अब दाखिले के लिए 12वीं के अंकों की जगह एंट्रैंस एग्जाम को लागू किया गया है. सतही तौर पर देखने में यह फैसला क्रांतिकारी लग रहा है, पर भीतर से यह विनाशकारी और कुछ को कमाई के अपार अवसर देने की साजिश वाला लग रहा है. इस से विश्वविद्यालयों में दाखिले तो उन्हीं के होंगे, जिन के पास पैसा है अब इस ने शिक्षा को ले कर नए प्रश्न खड़े कर दिए हैं.
उस दौर में एक एकलव्य था,
आज है एकलव्यों की कतार.
उस दौर में एक द्रोण था,
आज है पूरी द्रोणरूपी सरकार.
(ये पंक्तियां 4 वर्षों पहले एक ओपन संस्था के छात्र द्वारा प्रस्तुत नुक्कड़ नाटक की हैं)
शिक्षा पर पौराणिक समय से ले कर आज तक यह बहस होती रही है कि आखिर शिक्षा पर किस का कितना हक है. एक समय था जब भारत में शिक्षा सिर्फ ऊंची जातियों के अधिकार की चीज मानी जाती थी. शिक्षा पर उन का पूरी तरह कब्जा भी था. ऐसे में छोटी जातियों के लोगों को पढ़नेपढ़ाने जैसी क्रियाओं से दूर रखा जाता था ताकि वे अपना पुश्तैनी मैला काम पीढ़ीदरपीढ़ी करते रहें और ऊंची जातियों की सेवा करने को ही मजबूर होते रहें.
तमाम धार्मिक ग्रंथों में लिखे कई श्लोक, कथा, कहानियां इस बात की तस्दीक भी करते हैं कि कैसे निचली जातियों को शिक्षा से दूर रखे जाने के लिए तमाम तरह के यत्न किए जाते थे. मनुस्मृति, जिसे भगवाधारी हमेशा से संविधान से सर्वोपरि मानते आए हैं, जैसे ग्रंथ में तो शूद्रों को वेद पढ़नेसुनने भर पर सजा के तौर पर उन के कान और मुंह में गरम पिघला सीसा डाल देने तक के नियम निर्धारित थे.
महाभारत की कथा में ही इस का सटीक उदाहरण देखा जा सकता है जहां कौरव और पांडव राजकुमारों को अस्त्रशस्त्र की शिक्षा देने वाले द्रोणाचार्य ने एकलव्य को उस की जनजातीय पहचान के कारण शिक्षा देने से मना कर दिया था. उन्होंने सिर्फ शिक्षा देने से ही मना नहीं किया बल्कि अपने प्रिय क्षत्रिय शिष्य अर्जुन से एकलव्य आगे न बढ़ जाए, उस से तेज धनुर्धारी न बन जाए, इस के चलते गुरुदक्षिणा के नाम पर उस का अंगूठा भी मांग लिया.
ऐसा ही ‘शूद्र’ कर्ण के साथ भी हुआ था. उसे शिक्षा सिर्फ इस आधार पर देने से मना कर दिया कि वह शूद्र परिवार से था. हालांकि अपनी जाति छिपाते जैसेतैसे उस ने अर्जुन से अधिक कौशलता हासिल कर ली, पर उस के गुरु परशुराम द्वारा उस की जाति का बोध होते ही उसे यह श्राप दे दिया गया कि वह अपनी विकट परिस्थिति में तमाम सीखी शिक्षा को भूल जाएगा. यही कारण भी था कि महाभारत के युद्ध में कर्ण अर्जुन के हाथों परास्त हुआ.
शिक्षा की अवधारणा जिस तरह पहले वर्ण आधारित थी, जाहिर है उसे ले कर कई बदलाव हुए, देश में संविधान लागू हुआ तो शिक्षा नीतियां बनीं. शिक्षा उस तेजी से भले नीचे तक पहुंचने में सफल न रही हो पर धीरेधीरे एक लंबा रास्ता तय करती रही. शिक्षा दलितपिछड़ों और महिलाओं तक पहुंचने में कामयाब रही. इस से देश की साक्षरता दर में सुधार भी हुआ, पर सालों के इन प्रयासों के बाद भी यह मूल सवाल चर्चा के केंद्र से कभी हट न पाया कि शिक्षा पर किस की कितनी पहुंच है. पिछले कुछ सालों से शिक्षा को ले कर जिस तरह के बदलाव देखने को मिल रहे हैं उस ने इस सवाल को और गाढ़ा करने का काम किया है.
विश्वविद्यालयों में कौमन एंट्रैंस टैस्ट
हमारे नीतिनिर्माताओं में समस्याओं का समाधान खोजने की ऐसी अद्भुत क्षमता विकसित हो गई है जो समस्याओं को कम करने की जगह बढ़ाने पर लगी हुई है. मौजूदा सरकारी फरमान के मुताबिक, उच्च शिक्षा की देखरेख से जुड़ी संस्था यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) ने आगामी सत्र से सैंट्रल यूनिवर्सिटीज में ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन कोर्सेज में दाखिले के लिए एक नई परीक्षा यानी कौमन यूनिवर्सिटी एंट्रैंस टैस्ट (सीयूईटी) को लागू करने का फैसला लिया है.
यूजीसी की वैबसाइट पर सीयूईटी (क्यूट) के संबंध में एकमात्र औफिशियल जानकारी पब्लिक नोटिस में डाली गई है. उस के अनुसार, यूजीसी द्वारा फंडेड सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रों का चयन अब 12वीं के अंकों से नहीं, बल्कि एंट्रैंस टैस्ट से निर्धारित होगा.
अभी तक 12वीं क्लास के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए पहले देश के कई केंद्रीय विश्वविद्यालय 12वीं की परीक्षा में हासिल अंकों के आधार पर एडमिशन देते थे तो कुछ ऐसे भी थे जो एंट्रैंस के आधार पर एडमिशन दे रहे थे. जैसे, दिल्ली यूनिवर्सिटी 12वीं क्लास में मिले अंकों के आधार पर एडमिशन देता था तो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी प्रवेश परीक्षा यानी एंट्रैंस एग्जामिनेशन के आधार पर.
अब नियम बदल दिया गया है. भारत के सभी 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिला पाने के लिए टैस्ट से गुजरना होगा. जहां तक स्टेट, प्राइवेट और डीम्ड यूनिवर्सिटी की बात है तो उन्हें स्वतंत्रत्ता है वे चाहें तो इसे अपनाएं या न अपनाएं.
इस टैस्ट की परीक्षा नैशनल टैस्ंिटग एजेंसी (एनटीए) के जरिए कराई जाएगी. एनटीए यह परीक्षा कंप्यूटर के जरिए लगाए ठीक उसी प्रकार से जैसे मैडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिले के वक्त लिए जाते हैं. सवाल मल्टीपल चौइस क्वेश्चन यानी वैकल्पिक होंगे. छात्रों के पास इंग्लिश, हिंदी, असमी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, ओडिया, पंजाबी, तमिल, तेलुगू और उर्दू भाषा में परीक्षा देने का विकल्प रहेगा.
इस के अलावा एग्जाम 3 सैक्शन में लिया जाएगा. पहले सैक्शनों में 27 डोमेन स्पेसिफिक सब्जैक्ट (जिस कि पढ़ाई की हो) होंगे, जिस में से कोई 6 चुनने होंगे. तीसरे हिस्से में जनरल टैस्ट होगा जिस के अंदर सामान्य ज्ञान, करंट अफेयर, मैंटल एबिलिटी, न्यूमेरिकल एबिलिटी, क्वांटिटेटिव रीजनिंग इत्यादि से जुड़े सवाल होंगे.
नैशनल टैस्ंिटग एजेंसी परीक्षा ले कर एक मैरिट लिस्ट बनाएगी. उस लिस्ट के आधार पर कालेज या यूनिवर्सिटी एडमिशन देगा. साथ ही एक पेंच यह है कि यूनिवर्सिटी को यह स्वंतत्रता होगी कि वह चाहे तो 12वीं क्लास के अंकों की एक सीमा तय करे और फिर टैस्ट में आई रैंक के आधार पर एडमिशन दे.
जाहिर है यूजीसी ने इस पर कोई स्पष्ट आदेश नहीं दिया है. सबकुछ थोपने के बाद छात्रों की और पैनी छंटाई के लिए इसे यूनिवर्सिटी और उस से संबंध कालेजों के मर्म पर छोड़ दिया है, जिस से अभी तक ठीक से स्पष्टता नहीं आ पाई है कि कोई सैंट्रल यूनिवर्सिटी 12वीं में मिले कितने प्रतिशत अंकों को अपनी तय सीमा बनाएगी या बनाएगी भी कि नहीं?
संभव है कि बड़ीबड़ी सैंट्रल यूनिवर्सिटीज दाखिले के लिए रैंक के अलावा 12वीं में मिले अंकों पर
60 प्रतिशत से ले कर 90 प्रतिशत तक की न्यूनतम सीमा तय कर दें. फिलहाल इस तरह की तमाम टैक्निकल आशंकाओं पर स्पष्टता तभी आएगी जब एकदो बार इस तरह की परीक्षाएं आयोजित होंगी.
टैस्ट और सरकारी ‘कु’तर्क
भारत में इस समय कुल 1,027 विश्वविद्यालय हैं जिन में 54 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 444 राज्य विश्वविद्यालय, 126 डीम्ड विश्वविद्यालय और 403 निजी विश्वविद्यालय शामिल हैं. यूजीसी के पूर्व सदस्य एम एम अंसारी ने एक रिपोर्ट में कहा कि सभी 1,027 विश्वविद्यालयों में स्नातक, स्नातकोत्तर, पीएचडी और अनुसंधान धाराओं में लगभग 4 करोड़ प्रवेश हो रहे हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालय उन में से केवल 5 प्रतिशत को ही पूरा करते हैं. अगर हम केवल ग्रेजुएशन में दाखिले के बारे में बात करते हैं तो कुल यूजी प्रवेश का 1 से 2 प्रतिशत केंद्रीय विश्वविद्यालयों में होता है.
हालांकि इस के बाद बहुत हद तक आशंका जताई जा रही है कि इस तरह के एग्जाम कंडक्ट कराए जाने के बाद इस का असर राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों पर भी देखने को मिलेगा. चाहे दबाव में या इच्छा से, वे भी इस तरह के प्रोसीजर को फौलो करेंगे.
सरकार की तरफ से तर्क दिए जा रहे हैं कि यूनिवर्सिटी में दाखले के लिए बनाए गए नए नियम से अब अधिक से अधिक अंक हासिल करने वाली दौड़ पर लगाम लगेगी, छात्रों को अतिविशिष्ट मेहनत से थोड़ा छुटकारा मिलेगा, 13 भाषाओं में परीक्षा होने के चलते भाषा से जुड़ी बाध्यता से छुटकारा भी मिलेगा और दाखिला लेने के लिए केवल एक एंट्रैंस एग्जाम होने के चलते छात्रों को विश्वविद्यालयों में एडमिशन लेने के लिए कई विश्वविद्यालयों के फौर्म भरने व कई प्रवेश परीक्षाएं देने से छुटकारा मिलेगा.
वहीं, जिसे सब से अधिक जोर दे कर सरकार कह रही है कि कालेज में दाखिला लेने के लिए यह टैस्ट सब के लिए एकसमान अवसर पैदा करेगा, जिस का आधार वह इस तौर पर मान रही है कि स्टेट बोर्ड छात्रों को कम नंबर देता है, जबकि सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड से छात्रों को ज्यादा नंबर मिलते हैं, इसलिए एंट्रैंस एग्जाम का पैमाना एक होने के चलते स्टेट बोर्ड का छात्र भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिले की तमन्ना पूरी कर सकता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफैसर अपूर्वानंद इसे अलग नजरिए से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘‘यह भारत में संघीय व्यवस्था पर चोट पहुंचाने जैसा है. अब यूजीसी दबाव डाल रही है कि राज्यों के भी जो विश्वविद्यालय हैं वे भी इस में शामिल हो जाएं तो यह पूरी तरह से संघीय व्यवस्था का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि राज्य समवर्ती सूची में है और राज्य स्वतंत्र निर्णय कर सकता है.’’
अब सरकार के तर्कों को मान भी लें तो भी इस टैस्ट से जो गंभीर समस्याएं वर्तमान और भविष्य में उत्पन्न होने जा रही हैं वे पूरी शिक्षा प्रणाली के लिए कैसे खतरनाक बदलाव ले कर आएंगी, इसे पूरी तरह छिपाया जा रहा है, जिसे सम?ाना भी बेहद जरूरी है.
हाशिए पर रह रहे छात्रों की अनदेखी
सब से पहली बात सरकार ने सिर्फ एडमिशन प्रणाली में बदलाव किया है, जिस का ढिंढोरा वह इस तौर पर पीट रही है कि इस से वंचित तबकों और राज्य बोर्ड वाले छात्रों को एक कौमन प्लेटफौर्म पर कम्पीट करने का मौका मिलेगा. जबकि हकीकत यह है कि सरकारी स्कूलों और राज्यों के भीतर वाले अधिकतर छात्रों को इस टैस्ट के बारे में बेसिक जानकारी तक उपलब्ध नहीं है. यूजीसी ने इस टैस्ट को ले कर जिस तरह की जल्दबाजी दिखाई, उस से उस ने गरीब, कमजोर तबकों के छात्रों को बाहर धकेलने का ही काम किया है.
इस का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अच्छे स्कूलों की ताली पीटने वाली केजरीवाल सरकार के सरकारी स्कूलों के छात्रों तक को इस टैस्ट के बारे ठीक से जानकारी नहीं. इस संबंध में सरिता पत्रिका ने कई हिंदी मीडियम के छात्रों से बात की. ऐसे ही एक दिल्ली के बलजीत नगर इलाके में रहने वाले 17 वर्षीय अंकित तिवारी से बात हुई. अंकित के पिताजी आनंद पर्वत की एक लोहा फैक्ट्री में काम करते हैं. अंकित प्रेमनगर के राजकीय उच्चतर माध्यमिक बाल विद्यालय में पढ़ाई कर रहा है, जिस की शिफ्ट दोपहर बाद की है.
अंकित बताता है कि उस की दिलचस्पी हिंदी भाषा और राजनीतिक विज्ञान में है और वह कालेज में जा कर हिंदी औनर्स करना चाहता है, पर जैसे ही उस से दाखिले के बारे में पूछा गया तो उस ने बताया कि उस के स्कूल के व्हाट्सऐप ग्रुप में एक टीचर ने फौरीतौर पर एंट्रैंस एग्जाम का मैसेज तो भेज दिया था, पर इस संबंध में किसी प्रकार की जानकारी सा?ा नहीं की. इस कारण उसे एडमिशन के प्रोसैस और सिलेबस के बारे में जानकारी नहीं.
ठीक यही हाल सचिन का है. सचिन पटेलनगर के सर्वोदय बाल विद्यालय में पढ़ाई करता है. उस के पिता सेल्समैन हैं. सचिन को कोई खास जानकारी नहीं है कि सीयूईटी है क्या. बस, इतना पता है कि अब 12वीं के बाद कालेज में दाखिले के लिए एग्जाम लिया जा रहा है. सचिन के साथ पढ़ने वाला दीपक, जोकि
17 साल का है, उस ने बताया कि उस के स्कूल में पढ़ाई के नाम पर औनलाइन क्लास चली तो जरूर, पर वह क्लास रोजरोज नहीं चल पाती थी. ऐसे में जनरल टैस्ट की तैयारी पर वह परेशानी में घिरा हुआ है. वह बताता है इस एग्जाम की तैयारी करना हमारे लिए संभव नहीं.
दीपक के पिताजी दिहाड़ी मजदूर हैं. रोज कमानेखाने वाले तबके से हैं. वे यहां दिल्ली में किराए के कमरे में रहते हैं. उन के लिए 800-1,000 रुपए सीयूईटी के एग्जाम के लिए खर्च कर पाना मुश्किल है. ऐसे में इस एग्जाम के लिए, जिस के एडमिशन प्रक्रिया के बारे में उसे भी खास जानकारी नहीं, उस ने पहले ही अपने पांव पीछे खींच लिए हैं.
ठीक इस के विपरीत गाजियाबाद के टौप रैंकिंग स्कूल ‘सेठ आनंद राम जयपुरिया’ में पढ़ने वाले छात्र अभिनंदन अधिकारी सीयूईटी की प्रवेश परीक्षा को ले कर आश्वस्त हैं. अभिनंदन के पिता एनटीपीसी में असिस्टेंट जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं. अभिनंदन मानते हैं कि सरकार का यह फैसला बगैर छात्रों की तैयारी को देखते हुए लिया गया है पर टैस्ट के लिए जितनी तैयारी संभव है, उसे वे कर रहे हैं.
अभिनंदन ने इस टैस्ट पर चिंता जाहिर की. उस ने कहा, ‘‘देखिए, बचपन से हमारे स्कूल के अलगअलग ओलंपियाड होते रहे हैं, साइंस या मैथ के क्विज होते रहते हैं तो मेरा मानना है दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों के छात्रों को इस एग्जाम में कम्पीट करने में दिक्कत नहीं आएगी, पर उन छात्रों को समस्या होगी जिन के पास संसाधनों की कमी है.’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘हमारे पास कंप्यूटर, लैपटौप और इंटरनैट की बेहतर सुविधा रही है तो हम इस का एक्सेस अच्छे से जानते हैं, पर वे छात्र पीछे रह जाएंगे जो राज्यों के अंदरूनी क्षेत्र से आते हैं. उन छात्रों को कंप्यूटर की जानकारी का न होना उन्हें दिक्कत देगा.’’
एडमिशन में आए इस बदलाव ने वंचित गरीब दलित और पिछड़े छात्रों को और हाशिए पर धकेलने का काम किया है. सरकारी स्कूलों में करंट अफेयर, सामान्य ज्ञान, मैंटल एबिलिटी, न्यूमेरिकल एबिलिटी, क्वांटिटेटिव रीजनिंग इत्यादि से जुड़ी चीजें कितनी कराई जाती हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है. इस के ऊपर पिछले 2 सालों में कोविड ने जिस तरह गांवदेहात के छात्रों को शिक्षा से दूर किया है उस लिहाज से इस टैस्ट की पहुंच गांवदेहात के छात्रों तक होना दूर की बात है.
इस पर प्रो. अरुण कुमार, जो औल इंडिया फैडरेशन औफ यूनिवर्सिटी एंड कालेज टीचर एसोसिएशन (एआईएफयूसीटीओ) के जनरल सैक्रेटरी हैं, कहते हैं, ‘‘कौमन ग्राउंड की बात ढकोसला है. आप ओडिशा, ?ारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश इत्यादि के गांवदेहात में रहने वाले दलितआदिवासी और पिछड़े बच्चों को दिल्ली मुंबई शहरों में रहने वाले बच्चों के साथ एक एग्जाम में तोलना चाहते हैं, इस से आप बराबरी लाना चाहते हैं या गैरबराबरी को बढ़ावा देना चाहते हैं? यह बड़ा सवाल है.’’
प्रो. अरुण कुमार आगे कहते हैं, ‘‘जाहिर सी बात है जब किसी एग्जाम का केंद्रीयकरण हो जाता है तो गरीब तबके के लिए कठिन और अमीर वर्ग के लिए यह और आसान हो जाता है. ऐसा इसलिए है कि वे महंगी कोचिंग, अच्छे शिक्षकों का खर्च उठा सकते हैं जबकि एक गरीब छात्र इन सभी चीजों को वहन नहीं कर सकता. इस से एक अमीर छात्र अच्छे अंक प्राप्त कर सकता है. एक गरीब उम्मीदवार प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाता. यह एक इक्वल प्लेग्राउंड नहीं है.’’
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कार्यरत प्रोफैसर अपूर्वानंद ने सरिता पत्रिका से सरकार के ‘कौमन ग्राउंड’ वाली दलील को ले कर बात की. वे कहते हैं, ‘‘सीयूईटी भारत के लिए अनुपयुक्त व्यवस्था है. हमें ध्यान देना होगा वास्तविक समस्या क्या है? वास्तविक समस्या है अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी जिन में छात्र जाना चाहते हैं, जिस कारण दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी कुछ यूनिवर्सिटीज में भीड़ लग जाती है. जरूरी यह है कि राज्यों के विश्वविद्यालय और कालेज, जैसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, लोयला कालेज आदि सब जितने महत्त्वपूर्ण पहले हुआ करते थे, में शिक्षकों को बहाल करने की, सुविधाएं पहुंचाने की, अच्छी व्यवस्था लाने की कोशिश हो, बजट बढ़ाए जाने की बात हो.’’
सरकार अलगअलग राज्यों के बोर्ड व केंद्रीय बोर्ड में अंकों के मूल्यांकन की समस्या को इस टैस्ट के माध्यम से हल करने की बात भी कह रही है. लेकिन देखा जाए तो यूजीसी ने साफ निर्देश दिए हैं कि टैस्ट एनसीईआरटी के 12वीं के सिलेबस के आधार पर होगा. यानी अलगअलग बोर्ड में छात्रों ने जिन किताबों से पढ़ाई की है उस का कोई मतलब नहीं रह जाता. यह साफतौर पर सरकार का दोहरापन दिखाता है.
प्राइवेट कोचिंग माफिया का कारोबार
प्रो. अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘आप जब सैंट्रलाइज्ड टैस्ट बनाते हैं, जैसा बाकी मैडिकल और इंजीनियरिंग के लिए सैंट्रलाइज्ड टैस्ट में हुए हैं तो एक पूरी कोचिंग इंडस्ट्री खड़ी होती है और डमी स्कूल खड़े हो जाते हैं. देखा जा सकता है कि नैशनल टैस्ंिटग एजेंसी ने सीयूईटी का नोटिस डालने में टाइम नहीं लगाया कि कोचिंग इंस्टिट्यूट खुलने शुरू हो गए. जाहिर है कि जो छात्र साधनहीन हैं, वे कोचिंग लेने में पीछे रहेंगे, जैसा आईआईटी, जेईई, नीट में होता है. तमिलनाडु की आपत्ति देख लीजिए.’’
प्रो. अपूर्वानंद की बात में सचाई है. पिछले साल सितंबर माह में आई ‘तमिलनाडु में मैडिकल प्रवेश पर एनईईटी (नीट) का प्रभाव’ रिपोर्ट से पता चलता है कि तमिलनाडु में 400 से अधिक सक्रिय कोचिंग सैंटर इस समय मौजूद हैं, जिन का कुल कारोबार लगभग 5,750 करोड़ रुपए का है, जो विशेष रूप से नीट के लिए हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, एक रिटेल कोचिंग फ्रैंचाइजी है, जो फीस के विभिन्न स्लैब के साथ 5 साल के पैकेज, 2 साल के पैकेज, 1 साल के पैकेज, 3 महीने और 2 महीने के क्रैश कोर्स जैसी कई तरह की कोचिंग सेवाएं प्रदान करती है. यह कोचिंग बाजार को अरबों का उद्योग बना देती है. नीट कोचिंग क्लासेस का हिसाब सम?ों तो रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के एक चर्चित कोचिंग सैंटर में एक छात्र की फीस सैकंड्री और प्रवेश कोचिंग कक्षा के लिए कम से कम 5 लाख रुपए है.
मौजूदा समय में यूजीसी के सीयूईटी टैस्ट अनाउंस करने के बाद सीयूईटी की प्रतियोगी एग्जाम को कै्रक करवाने के लिए कई कोचिंग संस्थान तुरंत खुल गए हैं या जो कोचिंग संस्थान पहले से चले आ रहे थे उन में सीयूईटी की कोचिंग औफलाइन और औनलाइन दोनों तरह से शुरू हो गई है.
सीयूईटी टैस्ट के नोटिस आने बाद अखबार में ऐसे कोचिंग संस्थानों के आधेआधे पेज के विज्ञापन भी दिखाई देने लगे हैं. इस संबंध में पत्रिका ने एकाध नामीगिरामी ‘आकाश’ और ‘संकल्प’ कोचिंग सैंटर में फोन पर बात की. इन दोनों में सीयूईटी की कोचिंग औफलाइन और औनलाइन शुरू कर दी गई है, जिस की एक महीने की शुरुआती फीस 15 से 20 हजार रुपए तक है. जाहिर है यह तो अभी शुरुआत है. वहीं, बायजूस, अनअकैडमी में भी बाकायदा इस की कोचिंग शुरू हो गई है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज से इस साल अपनी एमए की पढ़ाई पूरी कर चुके छात्र रणविजय बताते हैं, ‘‘सीयूईटी की अभी तो यह शुरुआत है. धीरेधीरे पूरे देश के हर शहरों में कोटा बनने लगेगा. जहां छात्र डमी स्कूलों में पढ़ेगा. ?वहां से कोचिंग की तैयारी करेगा. इन में से बड़ेबड़े स्तर के कोचिंग माफिया तो पहले ही पैदा हो गए हैं. ये बस, छात्रों के तनाव और दबाव को इस्तेमाल कर अपना व्यापार चलाएंगे.’’
इस संबंध में एमए पौलिटिकल साइंस में पढ़ रही नेहा का कहना है, ‘‘मैं ने पता किया है बायजूस, अनअकैडमी में तो कोचिंग शुरू हो गई है. ‘वन नेशन, वन टैस्ट’ कागज पर अच्छा लगता है, लेकिन देशभर के प्रत्येक छात्र की वास्तविकता इस के मुताबिक नहीं है. इस तरह के एग्जाम के लिए छात्रों को कोचिंग का सहारा लेना पड़ेगा और इन कोचिंग सैंटरों में पढ़ाई करने के लिए संसाधन कुछ ही लोगों के पास हैं.’’
हम पहले से ही बड़े कोचिंग सैंटर उद्योग को पनपते देख चुके हैं जिसे और विस्तार देने के लिए एक बड़े अवसर के तौर पर सीयूईटी को परोस कर उन के आगे दे दिया गया है. जेईई और नीट की तुलना में यहां इच्छुक उम्मीदवारों की संख्या करोड़ों में होगी. इन के लिए करोड़ों छात्र तैयार होंगे जो मुंहमांगी कीमत पर दाखिला लेने का सपना संजोएंगे.
नेहा कहती हैं, ‘‘यह सिर्फ यहीं नहीं रुकने वाला, अब सीधे स्कूलों से कोचिंग माफियाओं के कोलेबोरेशन होंगे. दोनों एक यूनिट की तरह काम करेंगे. यह स्थिति छात्रों के बीच तनाव और अवसाद पैदा करने वाली होगी, जो भविष्य के लिए बेहद ही चिंताजनक है.’’
राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, सालदरसाल छात्रों के कैरियर और एग्जाम के अवसाद में घिर जाने से आत्महत्या की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. 2020 में छात्रों की आत्महत्या 12,526 तक पहुंच गई, जिस में विगत साल के मुकाबले 8.2 फीसदी मौतों की बढ़ोतरी दर्ज हुई. मौतों में सब से बड़ी वृद्धि ओडिशा में दर्ज की गई, जहां छात्र आत्महत्याओं की संख्या 1,469 तक पहुंच गई.
स्कूली व्यवस्था पर हमला
इस एग्जाम से 12वीं बोर्ड के अंकों का महत्त्व खत्म कर दिया गया है. इस से छात्रों के बीच एक निराशा पैदा होगी, जो मेहनत कर 90.95 प्रतिशत लाते हैं उन की मेहनत का कोई मतलब नहीं होगा. साथ ही, बच्चों में दबाव बनेगा कि एक परीक्षा से निकल कर उसे तुरंत दूसरी परीक्षा के लिए मैंटली तैयार होना होगा. उसे भी प्रतियोगी परीक्षा की दौड़ में भागना होगा और असफलता पर निराशहताश होना पड़ेगा.
प्रो. अपूर्वानंद इस पर कहते हैं, ‘‘इस व्यवस्था से स्कूल अप्रासंगिक हो जाएंगे. जैसे, मैडिकल टैस्ट और इंजिनियरिंग टैस्ट के चलते पहले ही स्कूलों की प्राथमिकता बहुत कम हो गई थी, इस टैस्ट के बाद स्कूली शिक्षा के माने नहीं रहने वाले. स्कूल में क्या पढ़ रहे हैं, क्या नहीं, इस का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाएगा.
‘‘इस में कोई शक भी नहीं कि शिक्षा का मकसद ज्ञान अर्जित करना होता है, लेकिन उस ज्ञान से कैरियर हासिल करना उस की प्राथमिकता भी होती है. पहली से ले कर 12वीं तक की पढ़ाई उच्च शिक्षा के लिए बुनियाद होती है, लेकिन कैरियर हासिल करने में यदि ज्ञान की जगह कुछ तरह की ‘जानकारियां’ ही महत्त्वपूर्ण रह जाएं तो शिक्षा का स्वरूप पूरा बदल जाता है.’’
सीयूईटी की तैयारी के लिए शिक्षण संस्थान बेशक अब ज्ञान की जगह सूचनाओं पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे. उदाहरण के लिए अब, नेहरू ने पंचवर्षीय योजना किन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में लागू की से ज्यादा पंचवर्षीय योजना कब, कहां लागू की, यह माने रह जाएगा. यह एक प्रकार से गहन शिक्षा पर ग्रहण लगने जैसा हो जाएगा. स्कूलों में भी बहुविकल्पीय प्रश्नप्रारूप पर जोर दिया जाएगा.
प्रो. अरुण कुमार इस विषय में कहते हैं, ‘‘मौजूदा सरकार सूचनाओं को ही शिक्षा मान कर चल रही है. वह सम?ाती है कि सूचना देना ही शिक्षा है. जबकि, शिक्षा तो वह है जो आदमी के व्यवहार, संस्कार, संविधान और समाज को सम?ाने का ज्ञान देती है. सरकार नई शिक्षा नीति और सीयूईटी के माध्यम से यही लागू करने की कोशिश कर रही है, अगर कुछ सूचनाएं ही शिक्षा हैं तो उस शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं है.’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘जैसे ही इस तरह की शिक्षा हावी होती है तो सामाजिक न्याय का कौन्सैप्ट खत्म हो जाता है. जानिए कि एससी/एसटी, गरीब, अल्पसंख्यक, महिलाओं, पिछड़े हुए लोगों पर विचारविमर्श खत्म होगा. साथ ही, ऐसी जमात खड़ी होगी जिस के पास सिर्फ सूचना होगी, ज्ञान नहीं, ठीक वैसे ही जैसे व्हाट्सऐप पर होती है. यह इस देश के लिए खतरनाक स्थिति को जन्म देगा.’’
फुजूल एग्जाम क्यों
यह टैस्ट और कुछ नहीं, बस, अपनी गलतियों पर परदा डालने का एक जरिया मात्र है. सरकार शिक्षा के मूल विषयों को ठीक से एड्रैस नहीं कर पा रही. यूनिवर्सिटीज में शिक्षक की बहाली का मसला हो या एडहोक और गैस्ट टीचरों को परमानैंट करने का हो, सीट और विश्वविद्यालय बढ़ाने का मसला हो या गरीब, वंचित छात्रों को प्रवेश दिलाने का, समस्या जस की तस बनी हुई है. इसे सुधारने की जगह फुजूल एग्जाम लेने से छात्रों का समय और खर्चा ही बढ़ाया जा रहा है.
नेहा कहती हैं, ‘‘मौजूदा व्यवस्था में भी जो छात्र बाहर होने वाले हैं वे वही होने वाले हैं जो पहले हुआ करते थे. अच्छी रेटिंग वाले उच्च शिक्षण संस्थानों में पहले भी 95-99 प्रतिशत कटऔफ को प्राइवेट स्कूलों के छात्रों का बड़ा हिस्सा ही पार कर पाता था और वे ही दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे प्रिस्टीजियस संस्थानों में पढ़ पाता था. इस एग्जाम के बाद भी उसी तबके के छात्र दाखिला ले पाएंगे, फिर इस एग्जाम का फायदा क्या?’’
अखिल भारतीय उच्च शिक्षण सर्वेक्षण की 2019-20 रिपोर्ट कहती है कि हायर एजुकेशन में छात्रों का कुल एनरोलमैंट 2019-20 में 3.85 करोड़ रहा, जिस का ग्रौस एनरोलमैंट रेश्यो (जीईआर) 27.1 प्रतिशत है. इसे नकारा नहीं जा सकता कि विगत सालों के अनुपात में वृद्धि जरूर दर्ज हुई है पर इस वृद्धि का बड़ा कारण रैगुलर मोड की जगह ओपन संस्थानों और निजी संस्थानों का खुलना व उन में छात्रों का बड़ी संख्या में एनरोल होना है.
उदाहरण के लिए, पिछले वर्ष जहां दिल्ली विश्वविद्यालय के रैगुलर मोड में 70 हजार छात्रों का दाखिला हुआ तो वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के ही स्कूल औफ ओपन लर्निंग में लगभग 1 लाख
30 हजार छात्रों ने दाखिला करवाया. जाहिर है, ओपन में दाखिला कराने वाले कई छात्र आर्थिक तंगी और यूनिवर्सिटी के रैगुलर मोड में नामांकन न होने के चलते ओपन मोड में शिफ्ट हुए.
नेहा आगे कहती हैं, ‘‘जो मौजूदा व्यवस्था थी उसे ठीक करना चाहिए था. लेकिन अब उस से भी खराब व्यवस्था छात्रों पर थोप दी गई है. यह इतना डिजास्ट्रस है जितना मैरिट सिस्टम नहीं है.’’
इस टैस्ट के आने के बाद छात्रों पर अतिरिक्त दबाव बनेगा, इस के साथ उन के खर्चों में बढ़ोतरी होगी. अभी तो यह टैस्ट अपने इनीशियल स्टेज पर है, जैसेजैसे समय बीतेगा, स्कूल-कोचिंग में छात्रों की भागदौड़ की एंग्जाइटी देखने को मिलेगी. बहुत संभव है कि बाकी कौम्पिटीटिव एग्जाम्स की तरह ही इस में भी पेपर लीक के मामले देखने को मिलें. इसलिए बहुत से जानकार इस एग्जाम की ट्रांसपेरैंसी पर भी सवाल उठा रहे हैं.
जानकारों का कहना है, इस तरह के एग्जाम्स में पारदर्शिता का बड़ा प्रश्न खड़ा होता है. इस के उदाहरण तमाम प्रतियोगी एग्जाम्स, जैसे एसएससी, रेलवे इत्यादि में भरे पड़े हैं जहां पेपर लीक माफिया हमेशा ऐसे मौकों के लिए तैयार रहता है और भ्रष्टाचार व धांधलियां चरम पर रहती हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को विश्वगुरु बनाने का सपना दिया, पर इस क्षेत्र में विश्वगुरु बनने की राह कठिन नजर आती है. प्रो. अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘अगर आप श्रेष्ठ विश्वविद्यालय बनना चाहते हैं, जैसा कि दुनियाभर में श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो उन के पास क्याक्या अधिकार होते हैं, यह जानना भी जरूरी है. उन के पास अपनेअपने अध्यापक चुनने का अधिकार होता है, उन्हें सलैक्ट कैसे करेंगे इस की प्रक्रिया वे तय करते हैं, अपने पाठ्यक्रम बनाने का अधिकार उन के पास होता है और छात्रों का चयन करने का अधिकार भी उन के पास होता है. भारत में तीनों अधिकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अपने पास रखना चाहता है. यानी एकसमान पाठ्यक्रम बनाना चाहता है जो डाइवर्सिटी को खत्म करता है. वह अपनी एडमिशन पौलिसी बनाना चाहता है और किसी प्रकार की स्वायत्तता विश्वविद्यालयों के पास नहीं देना चाहता. हर चीज केंद्रीय स्तर पर संचालित और नियंत्रित की जाएगी, जोकि किसी भी लिहाज से
सही नहीं है. यानी आप एक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय बनने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रखते हैं.’’
यह बात सही भी है, इस का हालिया उदाहरण अमेरिका के न्यू मैक्सिको राज्य से लिया जा सकता है. वहां कालेज की ऊंची फीस से जू?ा रहे छात्रों और उन के परिवारों को राहत देने के लिए वहां के गवर्नर मिशेल लुजन ग्रीषम ने उच्च शिक्षा में लगने वाली ट्यूशन फीस को छात्रों के लिए मुफ्त कर दिया है, ताकि बड़ी संख्या में मार्जिनलाइज्ड छात्र कालेज और विश्वविद्यालयों में एनरोल हो सकें. इस का दूसरा हिस्सा वहां राज्यों की स्वायत्तता को ले कर देखा जा सकता है. वे अपने विश्वविद्यालयों के लिए फैसले लेने की स्वतंत्रता रखते हैं, जिस के चलते वहां बाकी राज्यों के सभी कालेज और विश्वविद्यालयों में इसी तरह के कदम उठाए जाने की मांग उठने लगी है.
दुखद यह है कि भारत में इस तरह की मांगों पर अमल होना अभी दूर की कौड़ी लग रहा है, बल्कि उलटे बचेखुचे सस्ती फीस वाले कालेजों और विश्वविद्यालयों का ‘स्वायत्तता’ के नाम पर कौर्पोरेटीकरण किया जा रहा है और छात्रों से मोटी फीस वसूली जा रही है. दरअसल, यह परीक्षा नई शिक्षा नीति के अनुरूप है. यह नीति है: गरीब को पढ़ने न दो. वह केवल सेवा करे. मेवा तो कोई और उड़ा ले.
जानकारों के अनुसार नई शिक्षा नीति के तहत ही विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए एंट्रैंस टैस्ट की आवश्यकता की परिकल्पना की गई है. परीक्षा का मकसद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए मूल्यांकन का एक स्टैंडर्ड तय करना है. वर्तमान में विभिन्न शिक्षा बोर्ड अपने तरीके से छात्रों का मूल्यांकन करते हैं. इसलिए विश्वविद्यालयों के अध्यापक इसे नई शिक्षा नीति के साथ जोड़ कर देख रहे हैं.
अब जाहिर है, इस टैस्ट से शिक्षा व्यवस्था में सुधार कम ही होगा, हां, पहले से चली आ रही गैरबराबरी जरूर ही बढ़ेगी. आधुनिक समय के एकलव्य इस टैस्ट में छंटेंगे. हां, बस, इस बार उन के पास तसल्ली करने के लिए सरकाररूपी गुरु द्रोण का फेंका हुआ ‘कौमन ग्राउंड’ वाला शिगूफा होगा. वे अब पहले की तुलना में कालेज व विश्वविद्यालयों की कमी को कम कोसेंगे बल्कि कौम्पिटीशन में अपने फेल होने को आराम से स्वीकार लेंगे. इस में सरकार पर न तो अधिक कालेज बनाने का और न सीट्स बढ़ाने का दबाव होगा. सो, सरकार उच्च शिक्षा की जवाबदेहियों से बच जाएगी.