राइटर- रोहित

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अब दाखिले के लिए 12वीं के अंकों की जगह एंट्रैंस एग्जाम को लागू किया गया है. सतही तौर पर देखने में यह फैसला क्रांतिकारी लग रहा है, पर भीतर से यह विनाशकारी और कुछ को कमाई के अपार अवसर देने की साजिश वाला लग रहा है. इस से विश्वविद्यालयों में दाखिले तो उन्हीं के होंगे, जिन के पास पैसा है अब इस ने शिक्षा को ले कर नए प्रश्न खड़े कर दिए हैं.

उस दौर में एक एकलव्य था,

आज है एकलव्यों की कतार.

उस दौर में एक द्रोण था,

आज है पूरी द्रोणरूपी सरकार.

(ये पंक्तियां 4 वर्षों पहले एक ओपन संस्था के छात्र द्वारा प्रस्तुत नुक्कड़ नाटक की हैं)

शिक्षा पर पौराणिक समय से ले कर आज तक यह बहस होती रही है कि आखिर शिक्षा पर किस का कितना हक है. एक समय था जब भारत में शिक्षा सिर्फ ऊंची जातियों के अधिकार की चीज मानी जाती थी. शिक्षा पर उन का पूरी तरह कब्जा भी था. ऐसे में छोटी जातियों के लोगों को पढ़नेपढ़ाने जैसी क्रियाओं से दूर रखा जाता था ताकि वे अपना पुश्तैनी मैला काम पीढ़ीदरपीढ़ी करते रहें और ऊंची जातियों की सेवा करने को ही मजबूर होते रहें.

तमाम धार्मिक ग्रंथों में लिखे कई श्लोक, कथा, कहानियां इस बात की तस्दीक भी करते हैं कि कैसे निचली जातियों को शिक्षा से दूर रखे जाने के लिए तमाम तरह के यत्न किए जाते थे. मनुस्मृति, जिसे भगवाधारी हमेशा से संविधान से सर्वोपरि मानते आए हैं, जैसे ग्रंथ में तो शूद्रों को वेद पढ़नेसुनने भर पर सजा के तौर पर उन के कान और मुंह में गरम पिघला सीसा डाल देने तक के नियम निर्धारित थे.

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