मीडिया आज पूरी तरह से व्यवसाय का रूप ले चुका है, इस से कंटैंट राइटर की लेखनी ने पैशन की जगह पेशे का रूप ले लिया है. आज लेखक कम, कंटैंट राइटर हर जगह खड़े हैं, जो सहीगलत का नजरिया पेश नहीं कर पाते.

कंटैंट राइटिंग के खराब होने का सीधा असर मानसिक खुराक पर पड़ता है. ग्राहक मुफ्त के चक्कर में सोशल मीडिया के वीकली हाट बाजार में परोसे जा रहे कंटैंट को देख रहा है. वह निष्पक्ष और जिम्मेदारीभरा नहीं होता है. अच्छे कंटैंट के लिए जरूरी है कि ग्राहक उस की अच्छी कीमत देने को तैयार हो. कंटैंट राइटर विचारों को परिपक्व बना कर सोचनेसम?ाने की ताकत और तर्कशक्ति को बढ़ाता है.

कंटैंट राइटिंग जब वीकली हाट में बदल जाएगी तो समाज पूरी तरह से बाजार के अधीन हो जाएगा. बाजार पैसे खर्च कर के जो सम?ाएगा, वही समाज को सम?ाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. निष्पक्ष पत्रकारिता और चौथा स्तंभ जैसी बातें बेमानी हो जाएंगी.

मीडिया का विस्तार हो रहा है. इस का प्रभाव कंटैंट राइटिंग पर भी पड़ रहा है. फिल्मों से ले कर यूट्यूब चैनल तक हर तरफ नएनए विस्तार दिख रहे हैं. कंटैंट राइटर यानी लेखक हर विधा में खुद को परफैक्ट मान कर अंधी दौड़ में जुट गया है. कंटैंट राइटिंग एक तरह से ‘वीकली हाट’ यानी साप्ताहिक बाजार जैसी हो गई है, जहां बड़ी और अच्छी कंपनियों की नकल वाला सामान सस्ती कीमत पर बिक रहा है. सस्ता होने के कारण यह सामान बिक भले ही जा रहा पर उपयोगी साबित नहीं हो रहा है.

कंटैंट राइटर अब किसी प्रोडक्ट का प्रयोग कर के उस के बारे में नहीं लिखता. जो कंपनी की पीआर टीम बता देती है उसी को लिख देता है. कंटैंट राइटर की अपनी खोज नहीं होती है. किसी पुस्तक की समीक्षा वह पुस्तक को पढ़ कर नहीं देता है. जो पुस्तक का लेखक बता देता है, वही वह लिख देता है. समाज और राजनीति के बारे में वह ही लिखा जा रहा जो नेता लिखवाना चाहता है. ऐसे में कंटैंट राइटर को जो निष्पक्ष जानकारी देनी चाहिए उसे वह नहीं दे पाता है.

कंटैंट राइटर एक भेड़चाल में फंस गया है. इस में मौलिक विषय और लेखन दोनों खो गए हैं. सोशल मीडिया के प्रभावी होने से कई बार ऐसे विषयों को भी बेहद पसंद किया जा रहा है जो पूरी तरह से निरर्थक होते हैं. ऐसे में कंटैंट राइटर को लगता है कि जब चलताऊ विषय ही पसंद किए जा रहे हैं तो अच्छे और सार्थक विषयों में समय लगाने की जरूरत ही क्या है? इस सोच के बाद कंटैंट राइटिंग पूरी तरह से ‘वीकली हाट’ जैसी हो गई है. यहां नकल किया हुआ सामान दिखाया जा रहा है. जो लेखन की मूल भावना से पूरी तरह से अलग होता है.

मौलिक विषयों का अभाव

कंटैंट राइटर यानी लेखक के अपने मौलिक विचार नहीं रह गए हैं या फिर उसे अपने लेखन पर भरोसा नहीं रह गया है. वह अपने विचार लिखने की जगह पर यह देखता है कि लेखन के बाजार में क्या चल रहा है. जैसा उसे दिखता है उसे वह सफल मान कर उस के जैसा ही कंटैंट तैयार करने लगता है. जिस तरह से राजनीतिक दलों के लिए उन की एक विचारधारा का होना जरूरी होता है उसी तरह से लेखक के लिए उस की एक सोच का होना जरूरी होता है. यही वजह है कि पहले समाचारपत्र और पत्रिकाओं का एक संपादकीय विचार या दिशा होती थी. कोई वामपंथ के विचारों का समर्थक होता था तो कोई दक्षिण पंथ का. कुछ उदारवादी सोच के होते थे.

धीरेधीरे यह भेद मिटने लगा है. अब मीडिया के एक बड़े वर्ग में विचारों का अभाव हो गया है. वे पूरी तरह से वीकली हाटबाजार की तरह हो गए हैं, जहां बिकाऊ कंटैंट परोसा जा रहा है. मीडिया पर इसी वजह से बिकाऊ होने का आरोप लग रहा है. मुनाफे के चक्कर में ज्यादातर मीडिया विज्ञापनों और प्रचार को ही अपना कंटैंट सम?ा बैठा है. वह विज्ञापन देने वालों के दबाव में होता है. यह दबाव सरकार और उद्योग जगत दोनों का हो सकता है. विज्ञापन और खबर के बीच का फर्क खत्म हो गया है. लेखक के अपने विचार खत्म हो गए हैं. लेखक अब कंटैंट राइटर हो गया है. जैसा कंटैंट हो, उस पर लेख उसी तरह से लिखा जाने लगा है. इस का प्रभाव समाज पर पड़ रहा है. वह सही और गलत को सम?ाने के लिए किस के पास जाए.

जब हम औनलाइन शौपिंग करते हैं तो जो प्रोडक्ट खरीदते हैं, उस के विषय में पढ़ते हैं. प्रोडक्ट की क्वालिटी को जानने के लिए ग्राहकों के कमैंट्स पढ़ते हैं. कमैंट्स में प्रोडक्टस के बारे में सही लिखा जाता है. पहले यह काम मीडिया करता था. अब कंटैंट राइटिंग में वही लिख दिया जाता है तो कंपनी अपने विज्ञापन में लिखती है.

यह बात केवल प्रोडक्ट तक सीमित नहीं है. फिल्म की समीक्षा करनी हो, किसी प्रोडक्ट के बारे में लिखना हो, किताब की समीक्षा हो या राजनीतिक लेखन, कंटैंट राइटर उपभोक्ता की जगह उत्पाद करने वाले की तरफ से लिखता है. इस वजह से सही जानकारी नहीं आती है. राजनीति और सरकार को ले कर भी लेखन इसी तरह का हो गया है. तर्क की लेखन में कमी होने लगी है. इस की वजह यह है कि कंटैंट राइटर यानी लेखक अपनी जिम्मेदारी सही से नहीं निभा पा रहा है.

कंटैंट में क्वालिटी का अभाव

कंटैंट में क्वालिटी का अभाव साफतौर पर दिखाई दे रहा है. यह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए घातक है. मीडिया को चौथे स्तंभ का दर्जा दे कर उस को समाज को सही राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी. कंटैंट की क्वालिटी खराब होने से मीडिया अपनी सही भूमिका नहीं निभा पा रहा है.

इंग्लिश मीडिया में हिंदी के मुकाबले अच्छे कंटैंट मिल रहे हैं. उन की पाठक संख्या कम होने के चलते सही बात ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच पाती है. खबरिया चैनल जिस तरह का कंटैंट परोस रहे हैं उसे देखसुन कर लगता है कि वह किसी एक वर्ग को खुश रखने के लिए एकतरफा सोच वाले कंटैंट परोस रहे हैं.

हिंदी में कंटैंट लिखने वाले को न तो सही तरह ट्रेनिंग दी जाती है और न ही कंटैंट राइटिंग में इतना पैसा कि लिखने वाला खुद कहीं से ट्रेनिग ले सके. ज्यादातर कंटैंट राइटर अपनी बेरोजगारी दूर करने के लिए लेखन के क्षेत्र में आते हैं.

हिंदी मीडिया में कंटैंट राइटर को बेहद कम पैसा दिया जाता है. 80 फीसदी कंटैंट राइटर अपने मिलने वाले पारिश्रमिक से खुश नहीं रहते हैं. कंटैंट राइटर को पैसा इसलिए नहीं मिलता क्योंकि इन का प्रोडक्ट बेहद सस्ता होता है. एक समाचारपत्र 5 रुपए कीमत पर बिकता है. पत्रिकाएं 40 से 50 रुपए में बिक रही हैं. ग्राहक को यह कीमत भी देने में परेशानी हो रही है.

जब तक ग्राहक पत्रपत्रिकाओं को खरीदने के लिए पैसा नहीं खर्च करेंगे तब तक प्रकाशन करने वाले को लाभ नहीं होगा. जब तक लाभ नहीं होगा तब तक लेखक को अच्छा पैसा नहीं मिलेगा. जब लेखक को अच्छा पैसा नहीं मिलेगा तब तक वह अच्छा नहीं लिख पाएगा. यही वजह है कि मीडिया अपना वजूद खोती जा रही है. मीडिया के अभाव में जो सोशल मीडिया समाज के सामने है, वहां जो कटैंट परोसा जा रहा है वह समाज के हित में नहीं है.

अच्छी कीमत अच्छा कंटैंट

आज सोशल मीडिया लोगों को अच्छा इस कारण लग रहा है क्योंकि वह लगभग मुफ्त में देखने को मिल रहा है. केवल इंटरनैट और मोबाइल फोन की जरूरत होती है. यह करीबकरीब हर किसी के पास है. कितने गलत वीडियो और सामग्री सोशल मीडिया पर होती है, इस का अंदाजा देखने वाले को नहीं होता है. मुफ्त के चक्कर में लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंच रही है.

एक दौर ऐसे कंटैंट का था जिस के गलत होने पर माफी मांगी जाती थी. आज गलत कंटैंट वायरल हो जाता है. उस के सहीगलत का पता ही नहीं चलता है. कई बार भड़काऊ कंटैंट समाज के विघटन का कारण बनता है. कंटैंट राइटिंग का एकतरफा होना ही ‘गोदी मीडिया’ को जन्म देता है.

पहले के दौर में महंगाई और जरूरतें कम थीं. ऐसे में लेखक को लेखन से जो मिलता था उस से गुजारा कर लेता था. लेखन का पेशा कम पैशन अधिक होता था. जैसेजैसे लेखक का जीवन लेखन पर टिकने लगा और पाठक पढ़ना कम करने लगा, प्रकाशक को नुकसान होने लगा, वैसेवैसे उस का सीधा असर लेखक पर भी पड़ने लगा. अब लेखक जब खुद संतुष्ट न हो, वह बेहतर लेखन कैसे कर पाएगा?

पाठकों की जिम्मेदारी है कि वे पत्रपत्रिकाओं को पढ़ें. मुफ्त के चक्कर में सोशल मीडिया पर दिखाए जा रहे वीकली हाट बाजार के बोगस कंटैंट के चक्कर में न पड़ें. अच्छे कटैंट पढ़ें जिस से अच्छा कंटैंट लिखने और उसे समाज तक पहुंचाने वाले बेहतर तरह से अपने काम को कर सकें.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...