6 दिसंबर देश के इतिहास का वो काला दिन है जिसकी टीस आज तक लोगों के दिलों में नासूर बन के चुभ रहा है. हजारों ने राम और अल्लाह के नाम पर रावण और हैवान का रूप धरा और लोगों ने अपनों को खो दिया. 1947 को देश आजाद हुआ. 1976 में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के साथ ये साफ कर दिया गया कि भारत एक पंथनिर्पेक्ष राज्य है. पर शायद इसका अर्थ केवल स्कूलों के नैतिक ज्ञान की किताबों में एक अध्याय को जोड़ने भर का था. हम 200 सालों से ज्यादा की गुलामी के खिलाफ जिस 'एक हिंदुस्तान' के भाव से लड़े, शायद 45 सालों बाद 1992 तक वो ठंडा पड़ चुका था और हमें विभाजन के लिए एक और मुद्दे की जरूरत आ पड़ी थी.

धर्म के नाम पर 1940 के दशक में देश जिस हिंसा का गवाह बना उसने देश के हर कोने में खून की झेलम, चेनाब और गंगा बहा दी थी. शायद उस वक्त मिट्टी में समाए खून की गर्मी खत्म नहीं हुई थी. उसके आग की तपन से एक नई पीढ़ी को गढ़ा जा रहा था, जिसे फिर से खून को स्याही बना धर्म, देश और राष्ट्रभक्ति की नई परिभाषा रचनी थी.
सभी कानूनी प्रावधानों और सर्वोच्च न्यायालय को वचनबद्ध करने के बावजूद, जब 6 दिसंबर 1992 को 1,50,000 लोग अयोध्या की सड़कों पर निकले तो रैली किस कदर हिंसक हो उठी, इसका अंदाज़ा हजारों की संख्या में सड़कों पर पसरी लाशों को देख के लगाया जा सकता था. हर ओर बिखरी खून की लाली इंसान की सस्ती हो चुकी जान की गवाही दे रही थी. नेताओं के आवाह्न पर सैकड़ों ने अपनी जान दे दी.
कई हिंदू संगठनों का दावा रहा है कि, ‘श्रीराम’ का जन्म ठीक उस स्थान पर हुआ था जहां बाबरी मस्जिद थी. इसी दावे ने उन्हें बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उस ऐतिहासिक हिंसा के लिए प्रेरित किया था.

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