सरिता में प्रकाशित लेख ‘सच से मुकरता जैन धर्म’ को ले कर जैन धर्म से जुड़े संगठनों व धर्मानुयायियों में मानो हलचल सी मच गई. जाहिराना तौर पर कई नसीहतें, चेतावनियां, आपत्तियां और धमकियां प्रतिक्रियास्वरूप हम तक पहुंचीं. प्रस्तुत है इन सभी टिप्पणियों पर आधारित भारत भूषण श्रीवास्तव का प्रतिक्रियात्मक लेख.

सरिता के अक्तूबर (प्रथम), 2012 अंक में प्रकाशित मेरे लेख ‘सच से मुकरता जैन धर्म’ पर ढेरों प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं और हो रही हैं. इन में से अधिकांश में चेतावनियां, नसीहतें और धमकियां जैसी बातें ज्यादा हैं, तार्किक और प्रामाणिक न के बराबर हैं और जो हैं उन पर मैं अपना स्पष्टीकरण लेखकीय उत्तरदायित्व निभाते हुए दे रहा हूं. बेहद विनम्रता से पहले स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि पूर्व में प्रकाशित लेख व इस प्रतिक्रियात्मक लेख का उद्देश्य समाज की सोच का विश्लेषण करना है न कि किसी को आहत करना.

संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट है कि हर नागरिक के विचारों की अभिव्यक्ति की रक्षा करना संविधान का ध्येय है. इसी तरह भाग 4 ए के अनुच्छेद 51(ए) में मौलिक उत्तरदायित्वों में वैज्ञानिक सोच विकसित करना, मानवता को प्रबलता देना और सुधार की भावना हर नागरिक का कर्तव्य है. सरिता के पहले लेख और इस प्रत्युत्तर का उद्देश्य यही संवैधानिक निर्देश है.

धर्मांध लोगों को सम?ा पाना हमेशा से ही दुष्कर कार्य रहा है. उस की वजह हमेशा की तरह बेहद साफ है कि लोगों को धर्म और धार्मिक पाखंडों के मामले में आंखों के साथसाथ दिमाग भी बंद रखने का निर्देश जन्म से ही दिया जाता है. धर्मों के पैरोकार नहीं चाहते कि सदियों से जिन बातों को बगैर सम?ो भक्त सच मानते आ रहे हैं उन बातों के दोष कोई ढूंढे़ व उन्हें बताए. और जो ऐसा करता है वह उन का शत्रु हो जाता है, उसे गालियां दी जाने लगती हैं, उसे प्रताडि़त व परेशान किया जाने लगता है. अधिकांशत: सुनियोजित तरीके से किए जाने वाले इन कृत्यों को संगठित रूप से किया जाता है और इस के पीछे छिपा वीभत्स सच है धर्म की शाश्वत दुकानदारी, जिस में हजारों सालों से आम लोग ठगे, छले जा रहे हैं.

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