मायावती, अखिलेश की तर्ज पर चलते योगी आदित्यनाथ भी अपने वोट बैंक को खुश करने के लिये मूर्तियां, पार्क और नाम बदलने की राजनीति कर रहे है. ऐसा करने से पहले उनको इनकी हार से भी सबक लेना चाहिये. इन नेताओं की हार बताती है कि प्रदेश की जनता को दिखावे की राजनीति कभी पंसद नहीं आती है. बहुमत की सरकार अगले ही चुनाव मे ताश के पत्तों की तरह बिखर जाती है. योगी सरकार का प्रदर्शन 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी की राह में बाध डाल सकता है.

उत्तर प्रदेश में नाम बदलने की राजनीति पुरानी है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की आलोचना करने वाली भारतीय जनता पार्टी भी उसी राह पर चल रही है. योगी सरकार ने मुगलसराय से लेकर फैजाबाद तक के तमाम नाम बदल दिये हैं. इसके बाद भी इस समस्या का कोई छोर दिखाई नहीं पड रहा है. उत्तर प्रदेश की राजधनी लखनऊ सहित कई जिलों के नाम बदलने की मांग भी चल रही है.

संभव है कि योगी सरकार चुनाव सामने देख कुछ और शहरों के नाम भी बदल दें. असल में शहरों के नाम बदलने के पीछे की मंशा केवल अपने वोटबैंक को खुश रखने की होती है. इससे उस शहर की दशा पर कोई प्रभाव नहीं पडता. ऐसे बहुत से शहरों के उदाहरण सामने हैं.

राजनीतिक दल इस बहाने यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि अगर उनकी सरकार रही तो राजतंत्र की तरह वह कोई भी फैसला ले सकते हैं. जिस तरह से मायावती और अखिलेश मूर्तियां, पार्क और जिलों के नाम बदलने में लगे थे अब वही काम योगी सरकार कर रही है. योगी सरकार को देखना चाहिये कि पार्क और मूर्तियां बनवाने के बाद भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती हाशिये पर चली गई. भाजपा की राम मंदिर राजनीति भी इस प्रदेश के लोगों ने पंसद नहीं की थी. 1992 में आयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के बाद 2017 तक भाजपा बहुमत की सरकार बनाने से दूर रही थी. प्रदेश की जनता ने राम मंदिर की राजनीति को नकार दिया था. ऐसे में फिर से राम मंदिर की राजनीति भाजपा को राजनीति से कहीं बाहर न कर दे यह सोचना चाहिये.

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