पार्टी विथ डिफरेंस का दम भरती रहने वाली भाजपा के अनुशासन के बम जो दिवाली के दूसरे दिन फूटे तो भोपाल से दिल्ली और नागपुर तक में उनकी गूंज सुनाई दी. मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और पूर्व केंद्रीय मंत्री सरताज सिंह विधानसभा चुनाव लड़ने अड़ गए थे लेकिन आलाकमान ने उनके टिकिट होल्ड पर रख दिये थे. मंशा यह थी कि ये दोनों उम्र दराज नेता थक कर चुप हो जाएंगे या फिर मनाने पर मान जाएंगे. बाबूलाल गौर अपनी परंपरागत सीट गोविंदपुरा भोपाल से लड़ना चाहते थे जहां से वे दस बार से विधायक हैं और सरताज सिंह अपनी सीट सिवनी मालवा से लड़कर विधानसभा पहुंचना चाहते थे.
जब पहली और दूसरी लिस्ट में नाम नहीं आया तो तजुर्बेकार बाबूलाल गौर को समझ आया कि बात सिर्फ इंतजार से नहीं बनने वाली लिहाजा उन्होंने निर्दलीय या फिर कांग्रेस से लड़ने की घोषणा कर दी और अपनी बहू कृष्णा गौर को भी भोपाल की किसी दूसरी सीट से लड़ाने के संकेत दे दिये. अगर ऐसा होता तो भाजपा के हाथ से भोपाल की दो सीटें एक साथ जातीं, क्योंकि बाबूलाल गौर जमीनी नेता हैं और जीतने के लिए भाजपा के मोहताज तो कतई नहीं हैं. इसलिए उन्होंने खुली धौंस यह भी दी थी कि पार्टी चाहे तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दे.
भोपाल में उनकी पकड़, धाक और लोकप्रियता किसी और नेता से कहीं ज्यादा है, कृष्णा गौर को भी अपने दम पर वे जिता ले जाते या फिर भाजपा की लुटिया डुबो देते इसमें कोई शक नहीं.
ठीक यही हाल सरताज सिंह का होशंगवाद संभाग में है. इन दोनों ने कभी हवा हवाई राजनीति नहीं की है और न ही कभी पार्टी की गाइड लाइन को तोड़ा है. यहां तक कि अब से ढाई साल पहले इन दोनों को जब प्रदेश मंत्रिमंडल से उम्र का हवाला देते हटाया गया था तब भी दोनों ने बगावत का रास्ता अख्तियार नहीं किया था, हां एतराज जरूर जताया था वह भी इस सटीक दलील के साथ कि जब वे फिट हैं और सक्रिय मैदानी राजनीति कर रहे हैं तो फिर हटाने की तुक या वजह क्या. भाजपा ने तब 75 प्लस का फार्मूला दिया था कि इससे ज्यादा की उम्र के नेता अहम पदों पर नहीं रहेंगे यह पार्टी का फैसला है तो दोनों मान भी गए थे.
पर इस बार न गौर माने न सरताज तो इसकी वजह सिर्फ इतनी नहीं है कि ये दोनों सत्ता की हवस के चलते बगावत पर उतर आए बल्कि असल वजह यह है कि ये दोनों लालकृष्ण आडवाणी और डाक्टर मुरली मनोहर जोशी सरीखे कोई आधा दर्जन नेताओं का हश्र देख रहे हैं जिन्हें कोई किसी भी स्तर पर नहीं पूछ रहा. भाजपा में कोई कीमत उन बूढ़े नेताओं की नहीं रह गई है जिन्होंने अपने खून पसीने से पार्टी को सींचा और खड़ा किया.
बात जैसा कि दोनों ने कहा अगर आत्मसम्मान और स्वाभिमान की है तो इन दोनों ने कुछ गलत नहीं किया और नरेंद्र मोदी, अमित शाह और टिकिट वितरण में मनमानी कर रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को बता और जता दिया कि वे अभी चुके नहीं हैं और चुप भी नहीं रहेंगे इसके लिए यदि आस्था और निष्ठा जैसे शब्दों को तिलांजलि भी देनी पड़े तो ये उससे हिचकेंगे नहीं. वैसे भी राजनीति में खोखले आदर्शों वाले इन लफ्जों के कोई माने नहीं रह गए हैं खासतौर से भाजपा में जिस में जरूरत और उम्मीद से ज्यादा अफरा तफरी चुनाव के वक्त मची हुई है.
बाबूलाल गौर तो इस मामूली शर्त पर मान गए कि गोविंदपुरा सीट से उनकी जगह टिकिट उनकी बहू कृष्णा गौर को दे दिया जाये जो पांच साल से भोपाल में सक्रिय हैं और भोपाल की मेयर भी रह चुकी हैं. लेकिन जब सरताज सिंह को टिकिट नहीं दिया गया तो वे सार्वजनिक रूप से फूट फूट कर रोये और फिर कुछ घंटे की सोचा विचारी के बाद सीधे प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जा पहुंचे जहां कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह उनके स्वागत सत्कार के लिए थाल सजाये दरवाजे पर ही मुस्कुराते हुये खड़े थे. सरताज सिंह को टिकिट के मसले पर, मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये की तर्ज पर भाजपा तो सोचती ही रह गई लेकिन कांग्रेस ने तुरंत होशंगाबाद सीट से उनकी उम्मीदवारी घोषित कर दी जहां उनका मुकाबला अपनी ही कद काठी के जमीनी नेता सीताशरण शर्मा से होगा. विधानसभा अध्यक्ष सीताशरण शर्मा को अब अपने ही साथी से कड़ी टक्कर मिलेगी यानि मुकाबला भाजपा बनाम भाजपा ही रहेगा.
बात अकेले भोपाल और होशंगाबाद और गौर व सरताज की नहीं है बल्कि पूरे प्रदेश में भाजपा की भद्द पिट रही है. टिकिट वितरण को लेकर हालांकि हर चुनाव में हर पार्टी में टूटफूट होती है लेकिन भाजपा में इस बार ज्यादा हो रही है तो इसकी वजह शाह – मोदी की जोड़ी का उतरता जादू भी है और भाजपा आलाकमान का कांग्रेस जैसा होते जाना भी है. कोई दर्जन भर सीटों पर भाजपा के बगावती ताल ठोक रहे हैं तो इन्हें हल्के में लेने की भूल भी भाजपा कांग्रेस की तरह ही कर रही है.
साल 2003 में जब कांग्रेसी जहाज मध्यप्रदेश के सियासी समुंदर में डूबा था तो इसकी बड़ी वजह उसकी अंदरूनी और उजागर कलह थी. अब हालात उलट हैं कांग्रेस के पास खोने को कुछ बचा नहीं है लिहाजा वह भगवाई विभीषणों का स्वागत कर रही है इनमे से एक अहम नाम शिवराज सिंह के साले संजय सिंह मसानी का भी है जिन्हें उसने बालाघाट की बारा सिवनी सीट से टिकिट दे दिया है. वायरल हुये एक वीडियो में संजय सिंह भी सरताज सिंह की तरह फूट फूट कर रोते और वोट मांगते नजर आए.
मुद्दा जहां तक उम्र और नए लोगों को मौका देने का है जिसकी चर्चा मध्यप्रदेश में गरम है तो बात बहुत साफ भी है कि अगर कोई नेता पकी उम्र में भी सक्रिय है तो उसे जबरन रिटायर नहीं किया जा सकता, उसकी लोकप्रियता को चुनौती देने वाले नेता अगर पैदा ही नहीं हो रहे तो इसमें बूढ़ों का क्या दोष, नए नेताओं को बजाय रोने झींकने के बाबूलाल गौर और सरताज सिंह सरीखे नेताओं से सीखना चाहिए कि मतदाता में पैठ ही नेता की असली ताकत होती है और इसके लिए हाडतोड़ मेहनत करना पड़ती है. वोट पेड़ पर नहीं लगते बल्कि जमीन में उगते हैं जिनसे जरा सी भी दूरी राजनैतिक कैरियर बनने के पहले ही खत्म कर देती है.
और बात जहां तक भाजपा की है तो उसका तिलस्म टूट रहा है नेताओं की भागदौड़ी और बगावत से उसकी इमेज पर बुरा फर्क पड़ रहा है और बूथ मेनेजमेंट का पाठ और सबक कार्यकर्ता भी भूल रहा है. दिक्कत तो यह है कि अब शिवराज सिंह भी चमक और पकड़ खो रहे हैं और अमित शाह की फटकार भी किसी काम नहीं आ रही ऐसे में अब उसे सहारा अयोध्या वाले राम का ही बचा है.