सत्ता की कठपुतली के रूप में सीबीआई की पहचान कोई नयी नहीं है. सीबीआई के निदेशक सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करते हैं तो जाहिर है सत्ता के खिलाफ अगर कोई मामला बनता है तो इसकी जांच की अनुमति सीबीआई को प्रधानमंत्री की ओर से तो कभी मिल नहीं सकती. हां, कोर्ट के आदेश से सीबीआई चाहे तो कुछ कर सकती है, मगर उसमें भी सरकार ढेरों पेंच पैदा कर देती है, लिहाजा सरकार के खिलाफ जांच के मामलों में सीबीआई इंच-इंच दूरी भी बमुश्किल तय कर पाती है. जब देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी स्वतन्त्र नहीं है तो ये कैसे सम्भव था कि मोदी-राज में राफेल मामले की जांच हो जाती. ऐसा मामला जो मोदी-शाह के गले की हड्डी बना हुआ है? ऐसा मामला जो 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की मिट्टी पलीद कर सकता है, उसकी जांच सीबीआई के तेजतर्रार निदेशक आलोक वर्मा को भला कैसे करने दी जा सकती थी? ये बात आलोक वर्मा को भी समझनी चाहिए थी, मगर वे भी क्या करते, उनके पास भी समय बहुत कम था. 31 जनवरी को अपने रिटायरमेंट के पहले ही वह इस मामले में एफआईआर दर्ज कर लेना चाहते थे, ताकि जांच शुरू हो सके. राफेल सहित भ्रष्टाचार के कई और मामले थे, जिनकी जांच आलोक वर्मा करना चाहते थे, कुछ में तो एफआईआर दर्ज भी हो चुकी थी. मगर इन मामलों में आरोपी या तो सत्ता में बैठे थे, या फिर सीबीआई के अन्दर ही मौजूद थे. तो ऐसे में आलोक वर्मा को आगे बढ़ने का मौका क्योंकर दिया जाता? बीते कई महीने में आलोक वर्मा सुप्रीम कोर्ट और मोदी-सरकार के बीच फुटबौल की तरह उछाले जा रहे थे.
उनके अधीनस्थ स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना जो मोदी सरकार के खासमखास हैं, पर एक मांस कारोबारी के माध्यम से रिश्वत लेने के मामले में जब एफआईआर हुई और निदेशक आलोक वर्मा ने जांच शुरू करवायी तो राकेश अस्थाना ने उलटे वर्मा को ही भ्रष्टाचार के आरोप में लपेट दिया. कहा कि रिश्वत तो आलोक वर्मा ने ली है. सीबीआई के दोनों अधिकारी बिल्लियों की तरह लड़ने-झपटने लगे तो ऐसे वक्त में बंदर ने मौके का पूरा फायदा उठाया. मोदी-सरकार ने रातों-रात आलोक वर्मा को निदेशक की कुर्सी से उतार कर जबरन छुट्टी पर भेज दिया. पक्षपात का दोष न लगे लिहाजा राकेश वर्मा को भी छुट्टी पर भेज दिया गया. मगर आलोक वर्मा कहां हार मानने वाले थे. वे सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गये.
भ्रष्टाचार के आरोप में (जिसकी जांच तक नहीं हुई कि आरोप सच्चे थे या झूठे) केन्द्र सरकार की ओर से जबरन छुट्टी पर भेजे गये आलोक वर्मा को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई निदेशक के पद पर पुन: बहाल कर दिया. लेकिन मोदी-सरकार तो तय किये बैठी थी कि किसी भी कीमत पर आलोक वर्मा को कोई भी फाइल नहीं खोलने देगी, लिहाजा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें वहां से हटवाने का आखिरी दांव चला और अपनी अध्यक्षता में गठित एक उच्चस्तरीय समिति में 2:1 के फैसले से वर्मा को कुर्सी से फिर उतार खड़ा किया. अबकी बार उन्हें छुट्टी पर नहीं भेजा गया, बल्कि उनका तबादला करते हुए उन्हें अग्निशमक सेवा, नागरिक सुरक्षा और होम गार्ड का महानिदेशक बना दिया. मगर आलोक वर्मा को सरकार का यह फैैसला मंजूर नहीं हुआ और हताशा में उन्होंने सरकारी सेवा से इस्तीफा दे दिया.
अपने किये पर परदा ढापे रखने के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के प्रमुख की जितनी फजीहत मोदी-सरकार ने की है, वह निन्दनीय है. सीबीआई में हुई यह पूरी उठा-पटक एक बात तो साफ कर ही देती है कि राफेल बहुत बड़ा घोटाला है. इसके खुलासे को रोकने के लिए आलोक वर्मा जैसे अधिकारी को जिस तरह बेइज्जत किया गया, वह देश के लिए चिन्ता का विषय है. प्रजातन्त्र के लिए सोच का विषय है.
कार्यमुक्त होने के बाद आलोक वर्मा ने चुप्पी तोड़ते हुए इतना ही कहा, ‘झूठे, अप्रमाणित और बेहद हल्के आरोपों को आधार बनाकर मेरा ट्रांसफर किया गया. ये आरोप उस एक शख्स ने लगाये हैं, जो मुझसे द्वेष रखता है. सीबीआई उच्च सार्वजनिक स्थानों में भ्रष्टाचार से निपटने वाली एक प्रमुख जांच एजेंसी है, एक ऐसी संस्था है जिसकी स्वतंत्रता को संरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए. इसे बिना किसी बाहरी प्रभावों यानी दखलअंदाजी के कार्य करना चाहिए. मैंने संस्था की साख बनाये रखने की कोशिश की है, जबकि इसे नष्ट करने के प्रयास किये जा रहे हैं. इसे केन्द्र सरकार और सीवीसी के 23 अक्टूबर, 2018 के आदेशों में देखा जा सकता है जो बिना किसी अधिकार क्षेत्र के दिये गये थे और जिन्हें रद्द कर दिया गया.’
देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सेन्ट्रल ब्यूरो औफ इंवेस्टिगेशन की जो दुर्दशा-दुर्गति जनता ने मोदी-राज में देखी है, वैसे पहले कभी देखा-सुना नहीं गया. पहले किसी छोटे से जिले में हत्या या लूट की वारदात हो जाती तो शोर मचने लगता कि पुलिस जांच नहीं चाहिए, सीबीआई जांच चाहिए-सीबीआई जांच चाहिए, ये था सीबीआई का जल्वा, सीबीआई की ताकत, सीबीआई पर जनता का विश्वास, मगर बीते साढ़े चार साल में केन्द्र की भाजपा सरकार ने सीबीआई की साख जिस तरह मिट्टी में मिलायी है और सत्ता की शह पर इस संस्थान में वर्चस्व को लेकर जो भयानक गदर मचा है, उसके चलते लम्बे वक्त से देश के किसी कोने से किसी भी मामले में सीबीआई जांच की मांग उठती नहीं सुनी गयी. ऐसा तो नहीं कि देश में क्राइम एकदम से खत्म हो गया, वह तो वैसे ही जारी है, मगर सीबीआई पर से अब जनता का भरोसा उठ चुका है. जो खुद भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर चुकी हो, जिसके अधिकारी फुटबौल की तरह इधर से उधर फेंके जा रहे हों, वह क्या किसी मामले की जांच करेगी? सच पूछिये तो देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी आज अपना अस्तित्व और विश्वास खो चुकी है, या यूं कहें कि मृतप्राय हो चुकी है और इसकी जिम्मेदार है केन्द्र की मोदी-सरकार, जिसने एक के बाद एक देश की कई बड़ी संस्थाओं की स्वतन्त्रता बाधित करके, उनके अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप करके उन्हें अपने मनमुताबिक चलने पर मजबूर करने की साजिश की है.
आलोक वर्मा के बारे में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी का बयान गौर करने लायक हैं, जिन्होंने कहा है कि वर्मा बेहद ईमानदार हैं, उनकी छवि साफ-सुथरी है, उन्होंने सीबीआई निदेशक से पहले दिल्ली पुलिस आयुक्त के पद पर भी ईमानदारी के साथ काम किया है. स्वामी ने चिदंबरम के मामले का खास जिक्र करते हुए ये भी कहा कि राकेश अस्थाना ने तो उनकी फाइल लटका रखी थी, आलोक वर्मा ने ही चार्जशीट फाइल करायी.
सुब्रमण्यम स्वामी भाजपा नेता हैं, किसी कांग्रेसी ने ये बात कही होती तो उसमें सियासत तलाशी जाती, केस-मुकदमों के मामले में स्वामी कागजात के धनी माने जाते हैं, अगर उन्होंने राकेश अस्थाना पर उंगली उठायी और आलोक वर्मा की छुट्टी पर सवाल उठाये तो मामले की गम्भीरता को समझा जा सकता है.
वर्मा-अस्थाना कांड के चलते सीबीआई की साख को तो नुकसान पहुंचा ही, बल्कि इस पूरे प्रकरण से अब मोदी-सरकार को भी अपनी इज्जत और साख बचाना मुश्किल प्रतीत हो रहा है. क्योंकि जनता वह भी देख रही है जो स्क्रीन पर दिखाया जा रहा है, और वह भी समझ रही है जो स्क्रीन के पीछे चल रहा है. जनता की तेजनिगाही को मोदी-शाह की जोड़ी भी बखूबी समझ रही है, इसलिए अब डैमेज कंट्रोल की कोशिशें जारी हैं. आलोक वर्मा को हटाने के बाद राकेश अस्थाना को भी सीबीआई से बाहर कर रस्ता दिखाया जा चुका है. राकेश अस्थाना प्रधानमंत्री मोदी के ‘ब्लू आइड बॉयज’ में गिने जाते हैं, जिन्हें बड़ी उम्मीदों से सीबीआई में स्पेशल डायरेक्टर के पद पर बिठाया गया था, मगर अफसोस कि आलोक वर्मा के बाद राकेश अस्थाना को भी बाहर का रास्ता दिखाने के लिए सरकार मजबूर हुई. दरअसल वह नहीं चाहती थी कि आलोक वर्मा के बाहर होने के बाद राकेश अस्थाना की सीबीआई में मौजूदगी विपक्ष को उंगली उठाने का मौका दे. वैसे भी सीबीआई में आरोपों-प्रत्यारोपों का इतना रायता फैल चुका था कि उस जगह को साफ करना मोदी-सरकार की मजबूरी बन गया था. इस सफाई अभियान के तहत अस्थाना सहित ज्वाइंट डायरेक्टर एके शर्मा, डीआईजी एमके सिन्हा और एसपी जयंत नैकनावरे का भी तबादला कर दिया गया है.
सरकार की तरफ से कहा गया है कि राकेश अस्थाना का तबादला उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण की गयी है. जनाब अगर इतने सीनियर अधिकारी पर भ्रष्टाचार का इतना संगीन आरोप है और आप स्वीकार भी करते हैं तो इस स्तर के अधिकारी को छुट्टी पर भेज या निलम्बित करके उसके द्वारा किये गये भ्रष्टाचार की जांच करवायी जानी चाहिए थी, मगर मोदी-सरकार ने उन्हें दूसरे महकमे के शीर्ष पद पर बिठा दिया! राकेश अस्थाना अब सिविल एविएशन सिक्योरिटी ब्यूरो के डायरेक्टर जनरल बना दिये गये हैं. शायद इस वायदे के साथ कि फिर सीबीआई में लौटा लिये जाएंगे मगर अभी जरा माहौल ठण्डा होने दें.
इस पूरे मामले को गम्भीरता से देखें तो प्रतीत होता है जैसे पूरी केन्द्र सरकार राकेश अस्थाना के खौफ से थरथरा रही है. यह खौफ आखिर क्यों है? ऐसे कौन से राज दफन हैं अस्थाना के सीने में कि मोदी-शाह उन्हें बचाने-सहेजने में आकाश-पाताल एक किये दे रहे हैं? क्या एक आईपीएस अधिकारी सत्ता से इसकदर ऊपर हो गया और सत्ता ने उसे बचाने के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी की साख मिट्टी में मिटा दी?
कौन हैं राकेश अस्थाना
राकेश अस्थाना 1984 बैच के गुजरात काडर के आईपीएस हैं. वह पहली बार साल 1996 में चर्चा में आये, जब उन्होंने चारा घोटाला मामले में लालू प्रसाद यादव को गिरफ्तार किया. दूसरी तरफ, 2002 में गुजरात के गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी की जांच के लिए गठित एसआईटी का नेतृत्व भी राकेश अस्थाना ने किया था. इसके बाद तो वह तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खास लोगों में शामिल हो गये. अहमदाबाद ब्लास्ट और आसाराम-नरेन्द्र सांई केस जैसे तमाम चर्चित मामलों की जांच में वे शामिल रहे. इन दोनों मामलों ने उन्हें खूब चर्चा दी. वडोदरा और सूरत के पुलिस कमिश्नर रहे राकेश अस्थाना धीरे-धीरे नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेहद करीबी और राजदार होते चले गये. राकेश अस्थाना को पिछले साल अक्टूबर में सीबीआई का स्पेशल डायरेक्टर नियुक्त किया गया था. सीबीआई में यह उनकी दूसरी पारी थी. इससे पहले वे इस संस्थान में अतिरिक्त निदेशक के पद पर भी काम कर चुके हैं.
राकेश अस्थाना कभी सीबीआई निदेशक पद के प्रबल दावेदार माने जाते थे. एपी सिंह के सेवानिवृत होने के बाद उन्हें कार्यवाहक निदेशक भी बना दिया गया था. लेकिन निदेशक पद पर स्थायी नियुक्ति की अर्हता पूरी नहीं कर पाने के कारण आलोक वर्मा निदेशक बनाये गये थे. लेकिन एक साल के भीतर ही आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के बीच लड़ाई शुरू हो गयी. धीरे-धीरे यह लड़ायी सियासी रंग लेने लगी. आलोक वर्मा जिन मामलों की निष्पक्ष जांच चाहते थे, उसमें रोड़ा अटकाया जाने लगा. राकेश अस्थाना ने आलोक वर्मा के खिलाफ मांस कारोबारी मोइन कुरैशी मामले में सतीश बाबु सना से दो करोड़ रुपये की रिश्वत लेने समेत कई अनियमितताओं की शिकायत कैबिनेट सचिव और सीवीसी से की, तो वहीं आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना के खिलाफ 2.95 करोड़ रुपये की रिश्वत लेने के आरोप में एफआईआर दर्ज करवा कर जांच शुरू करने का आदेश दे दिया. इसी बीच राफेल मामले का पेंच भी आ फंसा. आलोक वर्मा इस मामले की जांच शुरू करने वाले थे क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी ने राफेल से जुड़े कई अहम दस्तावेज उन्हें खुद जाकर सौंपे थे. आलोक वर्मा इस मामले में जल्दी ही एफआईआर दर्ज करके जांच शुरू कर सकते थे, मगर राफेल ने अपनी मारक क्षमता का अहसास पहले ही करा दिया. आलोक वर्मा को तो समयपूर्व सीबीआई निदेशक की कुर्सी गंवानी पड़ी, बल्कि खुद राकेश अस्थाना भी वहां टिक नहीं पाये.
देश की बागडोर असल मायने में अफसरों के हाथ में होती है. अगर नौकरशाही दुरुस्त हो तो कानून-व्यवस्था चाकचौबंद रहती है. लेकिन आज जिस तरह से भ्रष्टाचार का दीमक नौकरशाही को खोखला किये जा रहा है, लोगों का उससे विश्वास उठता जा रहा है.