राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना है कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र हो. संघ की उत्पत्ति ही इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हुई थी, तो इसे वह कैसे छोड़ सकता है? वह ऐसा हिन्दू राष्ट्र चाहता है जिसमें वर्णाश्रम व्यवस्था पहले से कहीं ज्यादा सुदृढ़ हो. कितनी विरोधाभासी बात है कि यही संघ ‘समरसता’ का नारा देता है, यानी सबके साथ समान व्यवहार हो, लेकिन मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी यह सवाल उठाएगा कि जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए शोषण, उत्पीड़न को खत्म किये बगैर समरसता कैसे हो सकती है? दलित समाज को भी ‘संघ की समरसता’ पर चिन्तन करना चाहिए. समरसता के सच को ढूंढना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहे अपने हाथों से दलितों के पांव पखारें, या संघ दलितों की ओर शंकराचार्य, महामंडलेश्वर और मंदिर का पुजारी बनने का चुग्गा फेंके, इन प्रलोभनों के पीछे छिपी साजिश को समझना दलित समाज के लिए बेहद जरूरी है.

दलित, जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था, वो भारत की कुल आबादी का 16.6 फीसद हैं. इन्हें अब सरकारी आंकड़ों में अनुसूचित जातियों के नाम से जाना जाता है. वर्ष 1850 से 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबे-कुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी. भारत में आज हिन्दू दलितों की कुल आबादी करीब 23 करोड़ है. अगर हम दो करोड़ दलित ईसाईयों और 10 करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ लें, तो भारत में दलितों की कुल आबादी करीब 35 करोड़ बैठती है. ये भारत की कुल आबादी के एक चौथाई से भी ज्यादा है. यह बहुत बड़ा वोट बैंक है, जिसकी तरफ सबकी नजरें लगी रहती हैं. दलित पार्टियों, कांग्रेस, भाजपा, सपा के बीच यह वोट बंटा रहता है. ऐसे में कोई एक पार्टी यदि इसे अपने पक्ष में एकजुट कर ले तो उसकी ताकत जबरदस्त तरीके से बढ़ जाए.

सदियों से दलितों के साथ जारी भेदभाव, दमन, मंदिरों में प्रवेश से रोक और अत्याचारों से तंग यह समुदाय कभी मुस्लिम धर्म अपना लेता है, कभी ईसाई हो जाता है. आजकल यह बौद्ध धर्म की ओर खासा आकर्षित है. बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा नहीं है, भेदभाव नहीं है, इसलिए धर्मपरिवर्तन के जरिये लाखों की संख्या में दलित बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके हैं. अब हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की कल्पना पाले हिन्दुत्ववादियों को यह डर सता रहा है कि कहीं बचे हुए 23 करोड़ दलित भी हिन्दू धर्म न छोड़ दें. इससे उनकी ताकत कम हो जाएगी. दरअसल इन हिन्दुत्ववादियों से दलित यह सवाल करने लगा है कि अगर हम भी हिन्दू हैं तो फिर अछूत कैसे हैं?  हम मन्दिरों में प्रवेश क्यों नहीं कर सकते हैं? हम पुजारी क्यों नहीं हो सकते हैं? हम शंकराचार्य या महामंडलेश्वर क्यों नहीं बन सकते हैं?  हमसे हेय व्यवहार क्यों हो रहा है?  हमें अलग-थलग क्यों रखा जाता है?  इसीलिए संघ ने ‘समरसता’ का नारा देकर इन्हें जोड़े रखने की चाल चली है. इसीलिए एक मन्दिर, एक शमशान की बातें भी हो रही हैं. मगर वर्ण-व्यवस्था को खत्म करने की बात कहीं नहीं सुनायी पड़ रही. सवर्ण समुदाय और दलित समुदाय के बीच रोटी-बेटी के सम्बन्ध की बात भी नहीं सुनायी देती. और जब तक यह शुरू नहीं होता, तब तक समरसता कैसी?

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दलितों को हिन्दू बनाये रखने के लिए संघ ने पहले अपनी सभाओं के द्वार उनके लिए खोले. दलित सभा में बैठने के लिए अपनी दरी अपने साथ लाया. सभा में सभी अपनी-अपनी दरियां लाते हैं. अग्रणीय पंक्ति में बैठने वाले सवर्णों की महीन रेशमी धागों से बुनी सुन्दर कलाकृतियों वाली मंहगी दरियां और अंतिम पंक्तियों में बैठने वाले निम्न जाति के लोगों की मोटे धागे-जूट की बनी सस्ती दरियां. कौन सवर्ण और कौन दलित यह फर्क दरी देख कर ही नजर आ जाता था. हीनता का बोध कराता था. सभा-संदेशों से दलितों को विमुख करता था. इन सभाओं में दलितों का मन नहीं रमता था. अपमान महसूस होता था. इसे देखते हुए संघ ने अब ‘समरसता’ का मंत्र दिया गया है और सबकी दरियों का रंग भगवा कर दिया गया है. लिहाजा ऊपरी तौर पर फर्क समाप्त हो गया है. संघ से जुड़े दलितों की हीन भावना में भी कुछ कमी दिख रही है. सभा-संदेश की तरफ उसका भी मन लगने लगा है. मगर दलितों को यह समझने की जरूरत है कि अन्दरूनी तौर पर तो फर्क अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है. रेशमी भगवा दरियां और मोटे जूट की भगवा दरियों में फर्क तो है ही, और यह फर्क उस पर बैठने वाले को ही अनुभव होता है. यानी भगवा रंग के भीतर वर्णव्यवस्था ज्यों की त्यों बरकरार है. फर्क वहीं का वहीं है. संघ की इस चालाकी को दलित समाज समझ भी रहा है.

तिल-गुड़ की जगह रोटी-बेटी की बात नहीं करता संघ

बीते चंद सालों में दलितों को साथ जोड़ने की कवायद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कई बार दलित समुदाय के लोगों के घर जा-जाकर उनके साथ जमीन पर बैठे और उनके हाथ का बना खाना खाया. उज्जैन के सिंहस्थ में उन्होंने दलितों और उनके संतों के साथ न केवल खुद क्षिप्रा नदी में डुबकियां लगायीं, बल्कि अवधेशानंद जैसे ऊंची जाति के संत को दलित संत उमेश दास के साथ डुबकियां लगवा दीं. मगर गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे जब आशा के विरुद्ध आये तो भाजपा के चेहरे पर चिंता उभर आयी. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी सत्ता हाथ से न निकल जाए, इस चिन्ता में दलित वोट लपकने के लिए और ज्यादा उपाय किये गये. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को दलितों से नजदीकियां बढ़ाने आदेश हुआ. मकर सक्रांति का त्योहार निकट था. आमतौर पर यह त्योहार दलित तबका नहीं मनाता है. यह ऊंची जाति वालों का त्योहार है. लेकिन शिवराज सिंह ने मध्य प्रदेश में इसे दलितों को भी मनाने की छूट दी और इस बात के लिए उन्हें बढ़ावा भी दिया. इस कवायद में यहां तिल-गुड़ मुहिम की शुरुआत हुई और संघ के स्वयंसेवकों ने खुद दलित-आदिवासियों को घर-घर जाकर तिल और गुड़ का प्रसाद भेंट किया. इस तरह सर्विस देने वाले क्लास में समरसता का मंत्र फूंका गया.

11 जनवरी,  2018 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विदिशा में ऐलान किया कि वे खुद घरेलू काम करने वालों जैसे धोबियों, मजदूरों और दूसरे गरीब तबके के लोगों के घर तिल-गुड़ ले कर जाएंगे. गरीब तबके से सीधा मतलब उन दलितों से था जो जाति के आधार पर ऊंची जाति वालों की सेवा करते आ रहे हैं. मगर यह पहल छोटी जाति वालों को उनकी जाति की बिना पर नीचा दिखाने की कोशिश ही कही जाएगी. अगर संघ और भाजपा ‘समरसता’ की बात करते हैं तो तिल-गुड़ का प्रसाद शिवराज सिंह चौहान को ऊंची जाति के घरों में जाकर भी बांटना चाहिए था. सरसंघचालक मोहन भागवत का इशारा पाकर शिवराज ने धोबियों के घर जाकर तिल-गुड़ बांटा, मगर पंडों यानी ब्राह्मणों के घर जाकर तिल-गुड़ भेंट नहीं किया. आखिर वे भी तो पारिश्रमिक लेकर पूजापाठ का काम करते हैं, यानी सर्विस देते हैं, तो यह भेदभाव क्यों? बनियों, कायस्थों और ठाकुरों के यहां जाकर भी तिल-गुड़ देने का काम क्यों नहीं हुआ? आखिर यह कैसी समरसता थी?

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एक तरफ तो संघ कहता है कि सब हिन्दू बराबर हैं, वहीं दूसरी तरफ यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ता कि इस बराबरी में भी जाति के आधार पर भेदभाव है और इसे दूर करने का उसका न तो कोई इरादा है और न ही इस बाबत वह कभी कोई पहल करेगा. साजिश यह कि हिन्दुओं की ताकत को बढ़ाना है तो दलितों को दुत्कारो मत, बल्कि उन्हें तीज-त्योहारों पर दान देते रहो, जिससे वे हिन्दू धर्म में भी बने रहें और सेवा में भी लगे रहें.

वैसे भी तीज-त्योहारों पर भारत के गांव-देहातों और शहरों में आज भी छोटे तबके के लोग ऊंची जाति वालों के घर जाकर ‘पावन’ इकट्ठा करते हैं. पावन के तहत आटा और खानेपीने का सामान छोटी जाति वालों की झोली में इस तरह डाला जाता है कि कहीं हाथ उन्हें छू न जाए, नहीं तो फिर से नहाना पड़ेगा. हालांकि पिछड़े और दलित समाज में शिक्षा के प्रसार के साथ अब इस रिवाज में थोड़ी कमी आयी है. मानवता की नजर में यह प्रथा ही शर्मनाक है कि होली-दीवाली पर छोटी जाति वाले ऊंची जाति वालों के दरवाजों पर जा कर मिठाई, नकदी, आटा-दाल वगैरह मांगें.

इस असमानता, अपमान और हीनताबोध को समाप्त करने के लिए संघ और भाजपा ने कभी कोई कदम नहीं उठाया, उलटे अब इसे दूसरे तरीके से बढ़ावा देना शुरू हो गया है. अगर वे लेने नहीं आते तो खुद ही चल कर देना शुरू हो गया है, ताकि उनके मन में बैठा दलितपना कभी दूर न हो सके. क्या यह सामाजिक बराबरी या समरसता की नजीर है? यह तो सीधे-सीधे मनुवाद को बदले ढंग से ही परोसने की साजिश है. अगर वाकई संघ सामाजिक समरसता के प्रति इतना गम्भीर है तो बजाय तिल-गुड़ बांटने के उसे दलितों से रोटी-बेटी के सम्बन्धों की बात करनी चाहिए, जिससे जातिगत भेदभाव जमीनी तौर पर मिट सके, लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि विदेशी मंचों पर विकास और आधुनिकता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले, चन्द्रमा पर चंद्रयान भेजने वाले अभी भी छोटी जाति के लोगों को धर्म के नाम पर भीख देने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने इसे दान-दक्षिणा नहीं कहा क्योंकि उस पर तो पंडों का हक होता है, जो उन्हें पैर छू कर दी जाती है.

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