चुनाव लड़ना हर नेता का सपना होता है. किसी भी पार्टी का बडा नेता ही क्यों ना हो लोकसभा या विधनसभा तक जाने के लिये वह जनता के बीच चुनकर जाना पसंद करता है. जिन नेताओं के कंधे पर अपनी पार्टी को खडा करने का बोझ होता है वह भी चुनाव लड़ कर ही सांसद विधयक बनता है. बहुजन समाजपार्टी की नेता मायावती उन नेताओं में है जो विधनसभा या लोकसभा से कम और विधन परिषद और राज्य सभा के जरीये सदन में पहुंचने को ज्यादा पसंद करती है.

गिनती के 2 चुनाव मायावती ने खुद लड़े है. 1996 के बाद मायावती ने कोई चुनाव नहीं लड़ा. मायावती उत्तर प्रदेश में 4 बार मुख्यमंत्री रही हैं. इनमें से केवल एक बार 2007 से 2012 तक ही 5 साल मुख्यमंत्री रहीं और बाकी 3 बार वह भाजपा के सयोग से मुख्यमंत्री बनी और बिना कार्यकाल पूरा किये ही सत्ता से बाहर हो गई थीं. मायावती की खास बात यह भी है कि जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटती हैं तो राज्य के विधनसभा में विधयक या सदस्य विधन परिषद के रूप में नहीं जाती. वह उत्तर प्रदेश की राजनीति को छोडकर दिल्ली चली जाती हैं. वहां भी वह राज्यसभा की ही सदस्य बनती हैं.

जमीनी राजनीति से दूर मायावती:

2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का उत्तर प्रदेश में महागठबंधन बना. उम्मीद यह कि जा रही थी कि पार्टी में प्राण फूंकने के लिये चुनाव मैदान में उतरेगी. यहां फिर से मायावती ने खुद को चुनाव के मैदान से दूर कर लिया. मायावती ने कहा कि ‘चुनाव संचालन के लिये ही वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रही है. उनका मकसद भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है.

मायावती का यह तर्क जनता के गले नहीं उतर रहा है. क्योकि भाजपा और कांग्रेस के नेता चुनाव लड रहे है. असल में मायावती ने कभी सडक पर उतर कर विपक्ष की राजनीति नहीं की. जब भी वह विपक्ष में रहती है दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हो जाती है.

ज्यादातर मुददों पर वह केवल प्रेस नोट देकर या प्रेस कौफ्रेंस करके अपना विरोध प्रकट करती है. यही वजह है कि वह चुनावी राजनीति से दूर होती है. राजनीतिक सक्रियता में वह कभी महिलाओं के करीब नहीं रही. महिला नेता होने के बाद भी बसपा में महिला नेताओं की कभी सक्रिय भागीदारी नहीं रही. अगर बात दलित महिलाओं की बात करे तो 4 बार मुख्यमंत्री रहने के बाद भी दलित महिलाओं के लिये कोई खास योजना नहीं चलाई. ऐसे में साफ लगता है कि मायावती को दलित महिलाओं की बेबसी की कोई जानकारी नहीं है. 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही. इस दौरान भी महिलाओं के लिये काम नहीं किया. महिलाओं की नहीं दलित संगठन की भी उपेक्षा मायावती राज में होती रही.

संघर्ष से दूर रही मायावती

जब मायावती सत्ता से बाहर रहीं तो विपक्षी नेता के रूप में कभी संघर्ष करते नहीं दिखी. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद सहारनपुर में दलित-सवर्णो के बीच दंगा हुआ दलितों को उम्मीद थी कि मायावती उनके बचाव में सहानपुर आकर उनकी आवाज उठायेगी. इसी तरह से महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में दलित आन्दोलन में भी मायावती कि सक्रिय भागीदारी नहीं दिखी. ऐसे में दलित वर्ग को यह लगता है कि जब भी वह मुसीबत में होते है मायावती कभी उनका साथ नहीं देती है. सहारनपुर में मायावती से अध्कि युवा समाजसेवी चन्द्रशेखर रावण ने अपनी साख बना ली. पश्चिम उत्तर प्रदेश में चन्द्रशेखर रावण युवा नेता के रूप में उभर रहा है. मायावती को चन्द्रशेखर का उभरना भी पसंद नहीं है. वह हर मंच पर चन्द्रशेखर का विरोध करती है. जबकि चन्द्रशेखर मायावती की हमेशा तरीफ करता है. मेरठ के अस्पताल में भर्ती चन्द्रशेखर से मिलने कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी गई तो मायावती को सबसे ज्यादा परेशानी हुई.

बसपा में महिलाओं की उपेक्षा:

1990 से अपने लंबे कार्यकाल के बाद वह दलित महिलाओं का अपने ही घरो में होने वाले उत्पीडन को लेकर कोई समाधन नहीं पेश कर सकी. 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के लिये जिन नेताओं के नामों की लिस्ट बनी उसमें एक भी प्रचारक महिला नेता नहीं है. इससे साफ है कि महिला नेता होने के नाते उनको महिलाओं से कोई लगाव नहीं है. अपना जमीनी आधर खोने की वजह से ही मायावती को 2014 के लोकसभा और 2017 के विधनसभा चुनाव में हार का सामना करना पडा. इन चुनावों में मायावती की बसपा सुरक्षित सीटों पर भी चुनाव हार गई. मायावती की राज्यसभा सदस्यता भी इसी दौरान खत्म हो गई. बसपा के चुनावों में इतने वोट कम हो गये कि बसपा को राष्ट्रीय स्तर की पार्टी का दर्जा भी संकट में पड गया.

मायावती की गिरती साख का ही नतीजा है कि उत्तर प्रदेश में बसपा को अपने सबसे पुराने विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने पर मजबूर होना पडा. सपा के साथ चुनावी गठबंधन के बाद भी मायावती अखिलेश यादव और सपा के साथ बराबरी का संबंध नहीं रख रही है. मायावती ने खुद को अपर हैंड साबित करने के लिये सपा से 1 सीट ज्यादा ली. सपा-बसपा के गंठबंधन में बसपा की 38 सीटों के मुकाबले सपा को 37 सीटे दी गई. गंठबंधन के ज्यादातर पैफसले मायावती खुद ले रही है. ऐसे में जिस बराबरी से सपा बसपा को चुनाव लड़ना चाहिये वह नहीं दिख रहा है. मायावती खुद चुनाव नहीं लड़ने की बात कह कर एक बार फर से साबित किया कि वह लोकसभा और विधनसभा के बजाय राज्यसभा और विधान परिषद के जरीये ही सदन में जाना पसंद करती है.

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