संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर की जयंती अब किसी त्योहार से कम नहीं होती जिसे मनाने के लिए देशभर में होड़ सी मची रहती है. हैरत की बात यह है कि दलितों के इस मसीहा की जयंती अब वे लोग ज्यादा समारोहपूर्वक मनाते हैं जिन के मुंह का कौर भी अंबेडकर का स्मरण हो आने पर नीचे उतरने से इनकार कर देता है. पर मजबूरी यह है कि इन सवर्णों ने ही अंबेडकरवाद खत्म करने का टैंडर भर रखा है. अंबेडकर जयंती पर थोक में दलित सम्मेलन होते हैं जिन में यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि वे एक देवता थे.

हाथ में नीले झंडे थामे तालियां पीटती और जय भीम, जय भारत का गगनभेदी नारा लगाती  भीड़ समझ ही नहीं पाती कि यह श्रद्धा नहीं, बल्कि सनातनी साजिश है. कभी हिंदू धर्म के पाखंडों, कर्मकांडों और जातिगत भेदभाव व प्रताड़ना से दुखी हो कर बुद्ध ने मनुवाद के चिथड़े उड़ा दिए थे, इसलिए उन्हें अवतार घोषित कर दिया गया था और फिर मनुवाद कायम हो गया था. अब भला यों श्रेष्ठ वर्ग अंबेडकर को यों ही तो महान घोषित नहीं कर रहा.

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