बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद को जब पार्टी में शामिल किया तो राजनीति में परिवारवाद की चर्चा मुखर हो गई. राजनीति और राजनेताओं को देखें तो साफ लगता है कि राजनीति में परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं रह गया है. जनता ने भी इसे स्वीकार कर लिया है.

जनता राजनीति के ट्रैंड को तय करती है. राजनीति में बहुत सारे नेता ऐसे भी रहे हैं जो परिवारवाद को ले कर कुछ नहीं कर पाए. वहीं, कुछ ऐसे नेता भी रहे हैं जो परिवारवाद को सफल बना सके हैं. परिवारवाद की जब बात चलती है तो सब से और ऊपर कांग्रेस पार्टी का नाम आता है.

कांग्रेस की यह परिपाटी सभी दलों में सफलतापूर्वक स्थापित हो गई है. दलों ने कांग्रेस के परिवारवाद को वंशवाद कहना शुरू किया है, जिस से उन की अपनी पार्टी के भीतर बने परिवारवाद को सही ठहराया जा सके. राजनीतिक जानकार रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘परिवारवाद और वंशवाद दोनों एक ही चीज हैं. नेता अपने बचाव के लिए इन को अलग कर के देख रहे हैं. परिवारवाद भारतीय राजनीति को बुरी तरह से जकड़ चुका है. अब इस को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता. परिवारवाद को ले कर हर दल की अपनी अलग कहानी, अलग सोच है.’’

नेहरूगांधी परिवार के अलावा भारतीय राजनीति में वंशवाद की श्रेणी में जिन नेताओं को रखा जाता है उन में शिवसेना का ठाकरे परिवार जिस में बाल ठाकरे के बाद उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे, बिहार के लालू यादव, महाराष्ट्र के शरद पंवार, जम्मूकश्मीर के शेख अब्दुल्ला,

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