पहली बार देश ऐसे चुनावी दौर से गुजर रहा है, जिसमें जनता से जुड़े तमाम गम्भीर मुद्दे सिरे से गायब हैं. जनता के हित की, उनके विकास की, उनके उद्धार की कोई बात नहीं हो रही है. न किसानों-मजदूरों की समस्याओं के समाधान की बात कहीं हो रही है, न देश के पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं को नौकरी देने की. न महिलाओं की सुरक्षा की बात हो रही है, न ही कुपोषित और भूख से मरते बच्चों की. न बिजली, पानी, सड़कों की बात हो रही है और न ही शिक्षा, स्वास्थ और पीने के स्वच्छ पानी की. वर्ष 2014 के आम चुनाव के वक्त विकास के ढोल पीटने वाले, दो करोड़ नौकरियां हर साल देने का दावा करने वाले, राम मन्दिर बनाने का सपना दिखाने वाले, गंगा को स्वच्छ और निर्मल करने का वादा करने वाले, विदेशों में जमा कालाधन देश में वापस लाने की बातें करने वाले और मंहगाई कम करने का दावा करने वाले लोगों के मुंह से इस बार इन मुद्दों पर भूल से भी कोई बात नहीं निकल रही है. उनके सुर इस महाचुनाव में बिल्कुल बदले हुए हैं. देश गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, भ्रष्टाचार, अशिक्षा और बीमारियों से जूझ रहा है और तमाम नेता अपने चुनावी भाषणों में सिर्फ व्यक्तिगत छींटाकशी और गालीगलौच में लिप्त हैं. दूसरे राजनेताओं की बात तो छोड़िये, खुद देश का प्रधानमंत्री अपने पद की गरिमा को ताक पर रख कर एक ‘परिवार-विशेष’ के पीछे पड़ा हुआ है और एक दिवंगत प्रधानमंत्री के चरित्रहनन की निर्लज्ज कोशिशें कर रहा है. उस दिवंगत प्रधानमंत्री की, जिसे देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सुशोभित किया जा चुका है. किसी भी व्यक्ति को मृत्योपरान्त अपशब्द कहना भारत की संस्कृति कभी नहीं रही है. यह नीचता की पराकाष्ठा है. यह आज की राजनीति का बदरंग चेहरा है. यह भाजपा-मुखिया की हताशा और डर का सबूत है.

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