लोकहित के मुद्दों पर जन-प्रतिनिधियों की मुखरता और सक्रियता सशक्त लोकतंत्र का परिचायक है. लेकिन, 16 नवंबर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र में जो गतिरोध का दौर चल रहा है, उस पर न केवल वरिष्ठ राजनेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कड़ी नाराजगी जाहिर की है, बल्कि राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी कहना पड़ा है कि सदस्यों का व्यवहार निराशाजनक है और संसद में जारी गतिरोध को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है. हंगामे से संसदीय गतिविधियों के बाधित होते रहने का सिलसिला पुराना है.

बोफोर्स मसले पर 1980 के दशक में विपक्ष ने 45 दिनों तक दोनों सदनों का बहिष्कार किया था. बड़ा बहुमत होने के बावजूद कांग्रेस सरकार को विपक्ष की मांग के अनुरूप संयुक्त संसदीय समिति का गठन करना पड़ा था. इसके बाद नरसिंहा राव सरकार के समय भी तत्कालीन दूरसंचार मंत्री सुखराम को हटाने को लेकर संसद दो हफ्ते तक नहीं चली थी. तहलका टेप मामले में वाजपेयी सरकार के भी सामने ऐसी चुनौती आयी थी. पर, अब तो ऐसा होना एक परिपाटी का रूप ले चुका है. नोटबंदी के फैसले को लेकर विपक्ष का बड़ा हिस्सा संसद के भीतर और बाहर आक्रोशित है और अधिनियम 184 के तहत बहस कराने की मांग कर रहा है.

दूसरी ओर, सरकार का अड़ियल रवैया भी इस गतिरोध के लिए कम जिम्मेवार नहीं है. दोनों पक्षों की व्यापक असहमति का नतीजा है कि उपभोक्ता संरक्षण, मानसिक स्वास्थ्य, मातृत्व लाभ, नागरिकता और जीएसटी से संबंधित जनहित से जुड़े कई महत्वपूर्ण मामले लंबित हैं. विमुद्रीकरण के मुद्दे पर अड़े विपक्ष और सरकार के सामने जम्मू-कश्मीर के हालात, पूर्व सैनिकों का पेंशन, आतंकी हमले जैसे भी मामले हैं. लेकिन, दोनों सदनों के हंगामे में ये मुद्दे फिलहाल गुम हैं. संसद के संचालन में अनुमानतः प्रतिवर्ष 600 करोड़ रुपये खर्च होते हैं.

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