अब देश में जो इने गिने प्रतिबद्ध कांग्रेसी बचे हैं 88 वर्षीय मोतीलाल वोरा उनमें से एक हैं. वे लंबे समय से कांग्रेस के कोषाध्यक्ष हैं और कोष न के होने के बाद भी उसे संभाल रहे हैं .
वोरा के पास राजनीति का पर्याप्त अनुभव है वे 2 बार मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री रहे कई दफा केंद्रीय मंत्री रहे और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी बनाए गए. मुद्दत से वोरा भोपाल नहीं आए थे और आए भी तो राज्य सरकार के नोटिस पर जो उन्हें भोपाल में आवंटित आवास खाली करने के लिए मिला था.
भोपाल के 74 बंगला में स्थित बी – 29 में अर्से से सन्नाटा था क्योकि यहाँ कोई रहता नहीं था हालांकि ऐसे आवासों की भोपाल या किसी भी शहर में कमी नहीं जो पूर्व मंत्रियों वगैरह को आवंटित हैं लेकिन खाली पड़े रहते हैं.
पर वोरा का मामला कुछ अलग था इसलिए राज्य सरकार को उनका बंगला खाली करवाने एक नया नियम बनाना पड़ा था कि अब पूर्व सीएम जिस राज्य के विधायक होंगे उन्हें उसी राज्य में इस तरह की सुविधाएं मिलेंगी गौरतलब है कि पूर्व मुख्य मंत्रियों को प्रोटोकाल के तहत केबिनेट मंत्री का दर्जा भी मिलता है .
वोरा चूंकि मूलतः छतीसगढ़ के हैं इसलिए लगता ऐसा है कि यह नया नियम उन्हीं को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था जिसका पालन करते हुए उन्होंने नोटिस की मियाद के काफी पहले ही भोपाल से अपना डेरा डंगर समेट कर एक तरह से समझदारी का ही परिचय दिया और यह भी पूरी परिपक्वता से कहा कि बंगला खाली करने से उनका नाता मध्य प्रदेश से नहीं टूटने छूटने वाला.
तमाम बड़े शहर खासतौर से राज्यों की राजधानियां अब आवासों की कमी से जूझ रहीं हैं हर जगह नेता बड़े बंगलों पर अंगद के पाँव की तरह कब्जा जमाये बैठे हैं. मिसाल वोरा जी की ही लें तो यह बंगला 1981 से उनके पास था 1993 के बाद वे कभी-कभार ही भोपाल आए यानि इतने साल यह बंगला एक तरह से दुरुपयोग का शिकार ही रहा इधर राज्य सरकार की परेशानी यह थी कि उसके पास अपने मंत्रियों को देने आवासों का टोटा पड़ गया था.
वोरा के खाली करते ही यह बंगला एक राज्य मंत्री ललिता यादव को आवंटित कर दिया गया जो अभी विधायक निवास से अपना दफ्तर चला रहीं थीं. तुरंत और बगैर हील हुज्जत किए बंगला खाली कर देने से वोरा की सज्जनता ही प्रदर्शित होती है जिसकी उम्मीद अब हर उस नेता से की जानी चाहिए कि वह खुद सरकारी आवास खाली कर सज्जनता दिखाएं.
सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसे बंगले खाली कराये जिन में कोई नहीं रहता यह जनता के पैसे की फिजूलखर्ची तो है ही साथ ही एक अच्छे खासे मकान का बेजा इस्तेमाल भी है. बात अकेले नेताओं की ही नहीं है सरकार कई राजनतिक दलों के कार्यालयों, कर्मचारी संगठनों और पत्रकारों को भी आवास देती है क्यों देती है यह समझ से परे बात नहीं कि ऐसा उपकृत करने के लिए किया जाता है उपकार की यह परंपरा जनहित में बंद होनी चाहिए.