कभी अभिनेता तो कभी संत, वोट के लिये किस किस को दस्तक नहीं दे रहे नेता. इसे लोकतंत्र की खूबी कहे या सियासत का फसाना. वोट के लिये ऐसी मजबूरी की कल्पना देश को आजाद कराने वालों ने कभी नहीं की होगी. देश और प्रदेश की राजनीति में अयोध्या का बडा रोल है. अयोध्या देश के सबसे बड़े प्रदेश का हिस्सा है जहां लोकसभा की 80 और विधानसभा की 425 सीटें है. अयोध्या का असर प्रदेश ही नहीं प्रदेश के बाहर भी पड़ता है.
भारतीय जनता पार्टी अयोध्या के सहारे 2 सीटों से सत्ता की कुर्सी तक पहुंच गई तो प्रदेश में समाजवादी पार्टी सबसे मजबूत पार्टी बन गई. अयोध्या की प्रभुसत्ता से जहां राजनीतिक दलों को मजबूती हासिल हुई वहीं अयोध्या के संतों की प्रभुसत्ता बढ़ी. राममंदिर आंदोलन के समय अयोध्या में मंहत परमहंसदास और ज्ञानदास का नाम सबसे मजबूत आधार बना.
अयोध्या के संतों की बिरादरी इसी के आसपास घूमती थी. मंहत परमहंसदास रामजन्मभूमि दास के प्रमुख रहे. वह विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा से जुड़े थे. जिस समय भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपाई प्रधानमंत्री थे प्रधानमंत्री कार्यालय में अयोध्या प्रकोष्ठ बना था. मंहत परमहंसदास सीधे प्रधानमंत्री से बात करते थे. मंहत परमहंसदास के गुस्से के सामने कई बार विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल तक को पीछे हटना पड़ता था. जिस समय मंहत परमहंसदास का रूतबा सत्ता से लेकर संगठन तक कायम था उसी समय अयोध्या में हनुमान गढ़ी के मंहत ज्ञानदास उनको प्रबल विरोध करते थे.
विश्व हिन्दू परिषद संतों की धुरी का काम ज्ञानदास करते थे. यह वह दौर था जब विश्व हिन्दू परिषद का विरोध अयोध्या का कोई संत नहीं करता था. ज्ञानदास विश्व हिन्दू परिषद की कट्टरवादी विचारधारा का विरोध करते ऐसे लोगों के साथ खड़े रहे जो अध्योध्या में अमन और शांति पंसद करते थे. अब मंहत परमहंस जीवित नहीं है.