चाहे जितनी बड़ी बड़ी बातें हों, होती रहेंगी. एक छोटी सी बात समझ में नहीं आ रही. हमारी सुरक्षा व्यवस्था में आखिर क्या खामी है कि महज चार हमलावरों से हम अपने जवानों की हिफाजत नहीं कर पाये?

हर हमले के बाद सुनते हैं - हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे. अरे, पत्थर से जवाब देने से रोका किसने है - पर ये कोई बताएगा कि ईंट से बचने के अब तक क्या उपाय किये गये हैं. पत्थर की बात तो बाद में आएगी - पहले कोई ये तो बताये कि ईंट को काउंटर करने के लायक क्यों नहीं हैं?

जिम्मेदार कौन?

ऐसी शहादत भी देनी पड़ेगी, उरी में तैनात जवानों ने कभी सोचा भी न होगा. घर बार छोड़ कर हजारों किलोमीटर दूर वे तो हर पल सीने पर गोली खाने को तैयार थे. चौकस निगाहों से अलर्ट ड्यूटी की थकान मिटाने के लिए वे तो पल भर की झपकी लेने गये थे - और उठने से पहले ही उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया.

ऐसा क्यों लगता है कि हमने अपने जवानों को मौत के मुंह में धकेल दिया. हमारी चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था में आखिर कौन सा पैबंद लगा है कि हर बार कुछ किराये के टट्टू गोला बारूद लादे टपक पड़ते हैं - और आंखों में धूल झोंक कर अपना काम कर जाते हैं.

खबरों से पता चला है कि हमले में कश्मीर में लगे कर्फ्यू का भी रोल है. ढाई महीने से लगे कर्फ्यू ने जम्मू कश्मीर के लोगों को ही नहीं खुफिया विभाग को भी डिस्कनेक्ट कर दिया है. कर्फ्यू के चलते न तो इंफॉर्मर खुफिया अफसरों तक पहुंच पा रहे हैं और न ही खुफिया विभाग के लोग अपने सोर्स तक.

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