आज अगर नरेंद्र मोदी के राज्यपालों पर शोध किया जाए, तो एक आश्चर्यजनक समानता और निष्कर्ष सामने आएगा. ये राज्यपाल राज्यों की चुनी हुई सरकार के खिलाफ काम करने के निर्णय लेने में आनंद की अनुभूति करते हैं और येनकेन प्रकारेण मुख्यमंत्री और राज्य सरकार के लोकतांत्रिक कामकाज में बाधा पहुंचाने में अग्रणी भूमिका में आ जाते हैं.

शोध का विषय यह भी है कि क्या ये राज्यपाल सिर्फ स्वविवेक से ऐसा करते हैं या फिर (केंद्र) नरेंद्र मोदी के संरक्षण में उन के आदेश से.

राज्यपाल महामहिम राज्यपाल से 'हास्यपाल' बन जाते हैं, यह देश की जनता बखूबी देख रही है. मगर एक विचित्र किंतु सच यह है कि राज्यपाल चाहे वे किसी भी प्रदेश के हों, इन महामहिम को अपने पद की गरिमा का खयाल नहीं रहा, वे तो सिर्फ अपने 'आका' के आदेश का पालन करने में मुस्तैद दिखाई देते हैं.

यह रेखांकित करने वाली बात है कि देश की आजादी के बाद राज्यों में संविधान के मुताबिक केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल की नियुक्ति होती है. मगर ये राज्यपाल निष्पक्ष नहीं रह पाते और नियुक्तिकर्ता केंद्र के प्रति वफादारी दिखाने में कोई कोताही और शर्म भी महसूस नहीं करते.

सारी परिस्थितियों के विहंगम अवलोकन के पश्चात कहा जा सकता है कि ऐसी परिस्थितियों में देश के उच्चतम न्यायालय को स्वविवेक से संज्ञान लेना चाहिए था, मगर वह भी आमतौर पर मौन हो जाता है, क्योंकि उस की आंखों पर कथित तौर पर पट्टी बांध दी गई है.

आज देशभर में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और राज्यपाल की खबर सुर्खियों में है, यहां राज्यपाल राज्य सरकार के बिना किसी सलाह के स्वविवेक से निर्णय ले कर चर्चा में आ गए हैं. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राष्ट्रपति को पत्र लिख कर मामले को और भी तूल दे दिया है.

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