कहते हैं ना, ऊंट चाहे जितना ऊंचा हो, अपने को ऊंचा ऊंचा समझे, एक दिन जब पहाड़ के नीचे आता है तो उसे अपनी असलियत का पता चल जाता है. आज की राजनीति के प्रधान पुरुष नरेंद्र दामोदरदास मोदी को भी अंततः एहसास हो गया की विपक्ष का साथ लेकर ही देश और दुनिया में एक सकारात्मक संदेश दिया जा सकता है.
यह सच, अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के मसले पर सारी दुनिया और देश ने देख लिया.
सन् 2014 में जब देश की जनता ने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को भारी बहुमत देकर दिल्ली भेजा, तो उनके तेवर देखने लायक थे. विपक्ष को तो मानो वह पैरों से कुचल देने की मंशा के साथ उन्होंने वह सब किया जो लोकतंत्र में सत्ता पर काबिज एक सहृदय राजनेता और पार्टी को नहीं करना चाहिए.
लोग भूले नहीं हैं, उन्होंने कांग्रेस का नामोनिशान मिटा देने का ऐलान किया था. उन्होंने विपक्ष को कौड़ी की भी इज्जत नहीं दी. जबकि देश के ऐसे अनेक मसले उनके इस 7 साल के कार्यकाल में आते रहे. जब विपक्ष के साथ बैठकर उन समस्याओं का समाधान निकालने का प्रयास करना चाहिए था.
मगर नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को हमेशा दरकिनार कर दिया हाशिए पर डाल दिया. परिणाम स्वरूप विपक्ष ने भी सत्ता की सही गलत बात पर आंख तरेरी, परिणाम स्वरूप देश ने देखा कि किस तरह एक तानाशाही पूर्ण लोक तंत्र की और भारत देश धीरे धीरे बढ़ रहा है.
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अभी कुछ समय पहले ही कश्मीर के मसले पर विपक्ष को बातचीत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आमंत्रित किया था. मगर यह भी सच है कि इसके पीछे प्रधानमंत्री मोदी की यह मंशा थी कि विपक्ष को अपने पाले में दिखाकर अपने मन की साध पूरी कर लेंगे. मगर कांग्रेस और दिगर पार्टियों ने सारे पत्ते खोल कर मोदी को कटघरे में खड़ा कर दिया.
सोचने और समझने की बात यह है कि जिस विपक्ष को नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार लगातार नकारते रही. आज उसी विपक्ष ने उनके साथ बैठक में शामिल होकर के उनकी इज्जत को एक तरफ से बढ़ा दिया है.
राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि अगर विपक्ष एक होकर के अफगानिस्तान के मसले पर या कश्मीर के मसले पर प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक को यह कहकर नकार देता कि आपको अब हमारी सुध आई है! तो नरेंद्र मोदी पानी पानी हो जाते. जिस तरह देश में विगत 7 महीने से किसानों की समस्या मुंह बांए खड़ी है, किसानों के तीन अध्यादेश के मसले पर मोदी सरकार अड़ी हुई है वह भी देश ने देखा है कि विपक्ष के लाख कहने के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है.
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भारत मान्यता कैसे दे सकता है
अफगानिस्तान के मसले पर भारत के सामने आज दुविधापूर्ण स्थिति है… पाकिस्तान को हर मंच पर आतंकवादी कहने वाला भारत,तालिबान द्वारा आतंक के बल पर स्थापित देश को मान्यता कैसे दे सकता है.
विरोध करने का दुस्साहस तो भारत को दिखाना ही होगा. क्योंकि देर सबेर भारत और तालाबानियों से आमना सामना तो होना तय माना जा रहा है.चीन और पाकिस्तान का तालाबानियों की मदद के पीछे कारण को समझने की कोई बड़ी बात नहीं है. विदेश मंत्रालय द्वारा, विपक्ष को अफगानिस्तान के मामले बैठक बुलाई जिसमें 31विपक्षी पार्टियों ने भाग लिया.
दरअसल, इसके पहले चीन के सीमा विवाद के बारे में विपक्ष द्वारा जानकारी मांगने पर उसे देशद्रोही कहा गया था. रूस से प्रधानमंत्री की टेलीफोन पर हुई बातचीत के बाद, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का बयान आया कि जिससे जरूरत होगी उससे बात की जायेगी. स्प्ष्ट है कि भारत ,तालाबानियों के विरूद्ध नरम रुख अपनाना चाहता है.सरकार पर नरम रुख अपनाने के लिए कोई दोषारोपण विपक्ष न करे,इसलिए विपक्षी दलों की बैठक बुलाई गई .
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देश के विकास और शांति के लिए सभी राजनीतिक दलों से विचारविमर्श, प्रजातंत्र की स्वस्थ परम्परा है.लेकिन इसका पालन नरेन्द्र मोदी सरकार ने नहीं की. यहां तक, अपने ही पार्टी के लोगों को विश्वास में नहीं लिया. केवल दो या तीन शख्सियतें ही केंद्रीय सत्ता की धुरी हैं. यह भी सच है कि विदेश संबंधित मामलों में सरकार को ही स्वतंत्र निर्णय लेना पड़ता है, क्योंकि बहुत सारी ऐसी बातें होती है जिसे सरकार साझा नहीं कर सकती.इसलिए इस सर्वदलीय बैठक में सरकार की दुविधा पूर्ण स्थिति से उबरने की रणनीति शामिल हैं.
अफगान मामले के जानकार पत्रकार व अधिवक्ता राजेंद्र पालीवाल के मुताबिक बकरे को मारना बलि और हिरण को मारना अपराध, यही स्थिति पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर है. सरकार को जो फैसला लेना है, देशहित में लिया जाना चाहिये. लाख टके का सवाल है भारत, तालाबानियों के प्रति आज नरम रुख दिखाता है तो भविष्य में क्या परिणाम होगा. सांप को अगर पूंछ से पकड़ा जाता है तो वह काटता है.अगर सपेरा होशियार न हो तो सांप पकड़ने के चक्कर में उसकी मौत सुनिश्चित है.अगर सांप को पकड़ना जरूरी ही है तो मुंह पर वार किया जाता है.