लेखक- रोहित

हाल ही में दुनियाभर में प्रैस की स्वतंत्रता और पत्रकारों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘रिपोर्ट्स विदाउट बौर्डर्स’ ने 37 ऐसे राष्ट्राध्यक्षों यानी सुप्रीम नेताओं के नाम प्रकाशित किए जो उन के मुताबिक, प्रैस की आजादी पर लगातार हमले कर रहे हैं. ऐसे नेताओं को प्रैस की आजादी के लिए पूरी दुनिया में सब से ज्यादा खतरनाक माना गया. इस लिस्ट में 2 दशकों से ज्यादा समय से प्रैस का दमन करने वाले पुराने नेताओं के नाम तो थे ही, साथ ही, नेताओं की नई खेप भी जोड़ी गई. यानी सीधा मतलब है कि हाल के वर्षों में विश्व में बोलने की आजादी पर बाधा डालने वालों की नई खेप पैदा हुई. 7 जुलाई को अपडेट की गई यह लिस्ट ‘रिपोर्ट्स विदाउट बौर्डर्स’ (आरएसएफ) द्वारा 5 वर्षों बाद जारी की गई. इस से पहले यह 2016 में जारी की गई थी. इस रिपोर्ट के अनुसार, जारी की गई 37 नेताओं की लिस्ट में से 17 नाम पहली बार जोड़े गए. हमारे देश के लिए ध्यान देने वाली बात यह है कि इन नए जोड़े गए नामों में एक नाम भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है.

रिपोर्ट में कहा गया कि इन नेताओं ने न सिर्फ अभिव्यक्ति पर रोक लगाने का प्रयास किया है बल्कि पत्रकारों को मनमाने ढंग से जेल भी भेजा है. इस लिस्ट में 19 देशों को लाल रंग से दिखाया गया, यानी इन देशों को पत्रकारिता के लिहाज से खराब माना गया. जबकि, 16 देशों को काले रंग से दिखाया गया, जिस का अर्थ उन देशों में स्थिति बेहद चिंताजनक है. खास बात यह रही कि इस लिस्ट में नेताओं के प्रैस पर नियंत्रण लगाने के तौरतरीकों का विवरण भी जारी किया गया जिस में नेताओं के यूनीक तरीकों के बारे में ब्योरेवार बताया गया. आरएसएफ के महासचिव क्रिस्टोफ डेलौयर ने कहा, ‘‘इन में से प्रत्येक नेता की अपनी विशेष शैली है. कुछ सत्ताधारी नेता तर्कहीन और अजीबोगरीब आदेश जारी कर मीडिया की आवाज कुचलते हैं. कुछ शासक कठोर कानूनों के आधार पर सावधानीपूर्वक बनाई गई रणनीति अपनाते हैं. हमें उन के तरीकों को सामान्य नहीं बनने देना चाहिए.’’

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प्रधानमंत्री मोदी के अलावा सूची में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान, श्रीलंका के राष्ट्रपति गोताबया राजपक्षे, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नाम उल्लेखनीय हैं. लिस्ट में उन के नाम भी रहे जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तानाशाही का परिचायक माना गया है. उत्तरी कोरिया के किम जोंग-उन को हम घरबैठे भूरिभूरि गालियां देते रहे हैं, आज उसी के समतुल्य प्रधानमंत्री मोदी भी खड़े हैं. इस लिस्ट में 2 महिला नेताओं के नाम भी जोड़े गए. ये दोनों एशिया की हैं. एक हौंगकौंग की चीफ एग्जीक्यूटिव कैरीलैम, जो 2017 से चीन सरकार द्वारा हौंगकौंग में स्थापित की गई हैं और शी जिनपिंग की कठपुतली की तरह शासन कर रही हैं. दूसरी, बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना, जो 2009 से देश की बागडोर संभाल रही हैं और अपने कार्यकाल में 70 से अधिक पत्रकारों पर मुकदमा चलवा चुकी हैं.

मोदी के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम पहली बार इस सूची में शामिल किया गया है. यहां तक कि उन के 2014 में कार्यभार संभालने के बाद से उन्हें मीडिया की आजादी पर रोक लगाने वाला सम?ा गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में आरएसएफ का कहना है कि मोदी का प्रमुख हथियार उन के अरबपति व्यवसायियों के साथ घनिष्ठ मित्रता होना है. ये वे व्यवसायी भी हैं जिन के पास विशाल मीडिया साम्राज्य हैं. मोदी अपनी राष्ट्रीय लोकलुभावन विचारधारा को सही ठहराने के लिए भाषणों और सूचनाओं के फैलाव के लिए इन मीडिया साम्राज्यों का इस्तेमाल करते हैं. यह रणनीति 2 तरह से काम करती है. एक, प्रमुख मीडिया आउटलेट्स के मालिकों के साथ प्रत्यक्षरूप से खुद को जोड़ना. दूसरे, इन मीडिया आउटलेट्स में विभाजनकारी और अपमानजनक भाषणों या सूचनाओं को प्रमुखता से कवरेज देना, ऐसी सूचनाएं जो दुष्प्रचार से भरी रहती हैं.

इस के बाद मोदी के लिए जो कुछ बचा है, वह उन मीडिया आउटलेट्स और पत्रकारों को बेअसर करना है जो उन के विभाजनकारी तरीकों पर सवाल उठाते हैं. सवाल उठाने वाले पत्रकारों को बेअसर करने के लिए मोदी कानूनी प्रणाली का इस्तेमाल करते हैं, जिस में गंभीर कानूनों के सहारे ऐसे पत्रकारों के खिलाफ षड्यंत्र चलाए जाते हैं, जिस में सर्वाधिक कोशिश ऐसे पत्रकारों को मानसिक यातनाएं देने की होती है. उदाहरण के लिए, पत्रकारों पर राजद्रोह के ?ाठे आरोपों के तहत उन्हें आजीवन कारावास की संभावना की तरफ धकेलना है. गौरी लंकेश, जिन्हें सितंबर 2017 में उन के घर के बाहर गोली मार दी गई थी, इस बात का सब से सटीक उदाहरण है क्योंकि वे हिंदुत्व कट्टरपंथी राजनीति पर सवाल उठा रही थीं.

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आरएसएफ का मानना है कि ‘‘एक नियम के रूप में, कोई भी पत्रकार या मीडिया आउटलेट यदि प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय-लोकलुभावन विचारधारा पर सवाल उठाता है, तो उसे जल्दी से ‘सिकुलर’ के रूप में ब्रैंडेड किया जाता है.’’ ‘सिकुलर’ शब्द को सम?ो जाने की जरूरत है. यह शब्द कट्टरपंथी संगठनों द्वारा प्लांट किया गया है. यह ‘सिक’ और ‘सैक्युलर’ से मिल कर बनाया गया है. जिस का अर्थ है ‘बीमार धर्मनिरपेक्ष’. दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा गढ़ा गया ‘सिकुलर’ शब्द उन लोगों को टारगेट करता है जो लोग सामाजिक भाईचारे और भारतीय संविधान की बात करते हैं. दक्षिणपंथी संगठन आमतौर पर इस शब्द का इस्तेमाल ‘भक्तों’ को अपने नियंत्रण में बने रहने के लिए करते हैं. फिर यही ‘भक्त’ पूरा दिन सोशल मीडिया पर उन लोगों को टारगेट करते हैं जो आपसी सद्भाव की बात करते हैं.

आरएसएफ ने 12 मार्च को 20 ऐसे राजनीतिक तरीकों की लिस्ट तैयार की जो पत्रकारों की जासूसी और उन्हें परेशान करने के लिए डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल करते हैं और इस तरह समाचार और सूचना प्राप्त करने की क्षमता को खतरे में डालते हैं. इस लिस्ट में ‘मोदी वारियर्स’ का नाम शामिल किया गया, यानी ‘मोदी के सिपाही.’ सोशल मीडिया पर गालीगलौज, रेप और जान से मारने की धमकी इत्यादि जैसे तरीके इन सोशल मीडिया कर्मवीरों द्वारा अपनाए जाते हैं. ये ट्रोलर्स जो या तो स्वेच्छा से अपनी सेवाएं देते हैं या सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पेडवर्कर्स होते हैं. कुछ बोला तो सम?ा गए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की भाजपाई सरकार थोड़ा सा भी सच बरदाश्त करने की कंडीशन में नहीं है.

वह डरती है कि अगर कहीं से भी थोड़ा सा सच बाहर आ गया तो वह खुद का कुरूप चेहरा नहीं ?ोल पाएगी. आरएसएफ की यह रिपोर्ट हवाहवाई नहीं, बल्कि इस में मौजूदा सरकार की विषैली ?ालकियां खुद ब खुद दिख जाती हैं. पिछले माह जुलाई मध्य में ‘पैगासस प्रोजैक्ट’ नाम से दुनियाभर के 17 खोजी मीडिया संस्थानों ने सनसनी खबर ब्रेक कर दावा किया कि, इसराईली कंपनी एनएसओ की मदद से दुनियाभर की विभिन्न सरकारें अपने देश के 50 हजार से अधिक नागरिकों की निगरानी करवा रही हैं. यह निगरानी बैडरूम, बाथरूम तक पहुंच रखती है. इन निगरानीकर्ता में मुख्य वे देश शामिल हैं जहां लोकतंत्र खत्म हो गया है या खत्म होने की कगार पर है. इसी में भारत का नाम भी शामिल है.

सनसनीखेज दावे के मुताबिक, भारत में 300 भारतीय नागरिकों की गैरकानूनी ढंग से सूक्ष्म निगरानी सरकार द्वारा की गई, जिस में विपक्षी नेता, मंत्री, जज, सामाजिक कार्यकर्ता इत्यादि तो हैं ही, साथ में 40 से अधिक पत्रकार भी शामिल हैं. ये वे पत्रकार हैं जो समयसमय पर सरकार से सवाल करते रहे हैं या संवेदनशील विभागों को कवर करते रहे हैं. पत्रकारों की इस तरह की निगरानी किया जाना बेहद खतरनाक बात है. ऐसे में कोई भी पत्रकारों के सूत्रों, उन की जानकारियों, उन की खोजबीन को आसानी से अपने अनुसार मोल्ड कर सकता है, खासकर जब सरकार घेरे में हो तो. पत्रकारों की इस तरह की निगरानी कर खबर को असानी से प्रभावित किया जा सकता है, मीडिया सुबूतों को मिटाया जा सकता है और खोजबीन में बाधा पहुंचाई जा सकती है. पैगासस लिस्ट में आए नंबरों में कुछ लोगों की डिवाइस में पैगासस वायरस डाले जाने की पुष्टि हो चुकी है.

हैरानी यह कि विश्व के अलगअलग देशों में इस जासूसी कांड की जांच शुरू हो गई लेकिन भारत में सरकार इसे मुद्दा तक नहीं मानती. न सरकारी नियंत्रण वाली मीडिया इसे दिखाना चाहती है, भले सरकार से डर उन्हें भी लगने लगा हो. इस खबर को भारतीय पटल पर लाने वाले डिजिटल मीडिया पोर्टल ‘द वायर’ के अनुसार, जब यह खबर उन्होंने ब्रेक की उस के बाद पुलिस की एक टीम उन के दफ्तर में रूटीन चैकिंग के बहाने घुसी और ऊलजलूल पूछताछ करने लगी, मानो यह सरकार द्वारा किसी प्रकार का संकेत हो. ठीक इसी दौरान ‘दैनिक भास्कर’ अखबार और ‘भारत समाचार’ चैनल के अलगअलग दफ्तरों में आईटी की रेड डाली गईं. ध्यान रहे, ये वे मीडिया माध्यमों में से हैं जो हाल के समय में सरकार पर तीखे सवाल खड़े करते देखे गए हैं.

ठीक इसी प्रकार की रेड हाल ही में मीडिया वैब पोर्टल न्यूजक्लिक के दफ्तर में भी डाली गई थी. माना जा रहा है कि सरकार द्वारा की गई यह कार्यवाही इन एजेंसियों का सरकार पर आलोचनात्मक रवैया बनाए रखने के चलते हुई है, जिस का एकमात्र उद्देश्य पत्रकारों को डराना था कि वे शांत हो जाएं. प्रैस फ्रीडम इंडैक्स में स्थिति खराब इसी वर्ष अप्रैल में वर्ल्ड फ्रीडम इंडैक्स की रिपोर्ट पब्लिश हुई थी. उस के अनुसार, 180 देशों की लिस्ट में भारत शर्मनाक 142वें स्थान पर था जिसे आजाद पत्रकारिता के लिहाज से खराब माना गया है. इस रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘सरकार समर्थक मीडिया ने प्र्रौपगंडा का एक तरीका पैदा किया है, जबकि सरकार की आलोचना करने की हिम्मत रखने वाले पत्रकारों को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों द्वारा ‘राष्ट्र विरोधी’ और यहां तक कि ‘आतंक समर्थक’ करार दिया जाता है.’’ एशिया पैसिफिक क्षेत्र की बात करें तो भारत म्यांमार से भी नीचे आंका गया.

म्यांमार को 140वां स्थान मिला, श्रीलंका को 127 और नेपाल को 106. विश्व प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत वर्ष 2016 में 133वें, वर्ष 2017 में 136वें, वर्ष 2018 में 138वें, वर्ष 2019 में 140वें तथा वर्ष 2020 में 142वें स्थान पर रहा. सूचकांक में भारत की स्थिति खराब होने से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम किस दिशा की तरफ लगातार बढ़ रहे हैं. यह गौर करने वाली बात है कि रिपोर्ट में इस वर्ष महज 7 फीसदी देशों को ही पत्रकारिता के लिहाज से अनुकूल माना गया, जो पिछले वर्ष 8 फीसदी था, यानी साल दर साल देशों में प्रैस की आजादी को संकुचित किया जा रहा है. पिछले वर्ष भारत का स्थान 2 पायदान खिसका था, इस साल भारत खिसका तो नहीं लेकिन भारत के संदर्भ में गंभीर बात यह रही कि, रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पत्रकारों के खिलाफ पुलिसिया हिंसा लगातार बढ़ती जा रही है. कितने आजाद पत्रकार भारत में स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मीडिया पर एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में 2010 से 2020 के बीच 154 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया. इन में से 40 फीसदी मामले अकेले 2020 में सामने आए. यह रिसर्च ‘बिहाइंड बार्स: अरैस्ट एंड डिटैंशन औफ जर्नलिस्ट्स इन इंडिया 2010-20’ नामक शोध में सामने आई.

देश में पत्रकारों की जान भी जोखिमभरी हो चली है, लेकिन दिक्कत इस से अधिक न्याय मिलने की है. 2010 के बाद मारे गए पत्रकारों में से महज 3 मामलों में ही अब तक अपराधियों को दोषी ठहराया गया है. 2014 के बाद तो एक भी पत्रकार की हत्या के मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया जा सका है. ‘गेटिंग अवे विद मर्डर’ नामक अध्ययन के अनुसार, 2014-19 के बीच पत्रकारों की देश में 40 हत्याएं हुईं. इन में से 21 पत्रकारों की हत्या उन की पत्रकारिता के चलते हुई. इन वर्षों में देश में पत्रकारों पर 200 से अधिक गंभीर हमले हुए. अध्ययन के अनुसार, हत्याओं और हमलों के अपराधियों में सरकारी एजेंसियां, सुरक्षा बल, राजनीतिक दल के सदस्य, धार्मिक संप्रदाय, छात्र समूह, आपराधिक गिरोह और स्थानीय माफिया शामिल थे. इस के अलावा इस अध्ययन में सरकार द्वारा उचित कार्यवाही न किए जाने की बात की गई.

यानी प्रशासन जानबू?ा कर मामले को दबाने की कोशिश में रहा. 11 अगस्त को दिल्ली प्रैस समूह की चर्चित पत्रिका ‘द कैरेवान’ के 3 पत्रकारों (शाहिद तांत्रे, प्रभजीत सिंह, एक महिला पत्रकार) पर दिल्ली में हुए भीषण हमले और उत्पीड़न के बाद शिकायत दर्ज करने के बावजूद पुलिस अपनी कार्यवाही करने में असफल रही है. पत्रकारों पर बढ़ता खतरा नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, भारत में साल 2015 में 30, 2016 में 35, 2017 में 51, 2018 में 70 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए. साल 2019 में देश में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज हुए और इन में 96 लोगों को गिरफ्तार किया गया. इन 96 में से 76 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई और 29 को बरी कर दिया गया.

इन सभी आरोपियों में से केवल 2 को अदालत ने दोषी ठहराया. इसी तरह साल 2018 में जिन लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया, उन में से 46 के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई और उन में से भी केवल 2 लोगों को ही अदालत ने दोषी माना. वर्ष 2010 से वर्ष 2020 तक कुल 816 राजद्रोह के मामलों में 10,938 भारतीयों को आरोपी बनाया गया है. इन में 65 फीसदी मामले मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान एनडीए सरकार के समय में दर्ज किए गए. इसी प्रकार ऐसे गंभीर कानूनों का इस्तेमाल अस्पष्ट मामलों को दर्ज कर के ऐसे पत्रकारों के खिलाफ हथियार के तौर पर किया जा रहा है जो सरकार की नीतियों पर सवाल खड़ा कर रहे हैं. हाल के महीने में दिल्ली प्रैस ग्रुप के संपादक/डायरैक्टरों, पत्रकार विनोद के जोस, इंडिया टुडे के पत्रकार राजदीप सरदेसाई, सिद्धार्थ वरदराजन, मृणाल पांडे, जफर आगा जैसे प्रमुख संपादक और पत्रकारों पर राजद्रोह कानून के तहत मामले दर्ज किए गए या एफआईआर दर्ज की गईं जिन पर देशविदेश के मीडिया संगठनों ने भारी आपत्ति जताई थी.

ये दर्ज मामले स्पष्ट दर्शाते हैं कि ये सब सरकारी षड्यंत्र का हिस्सा हैं. इसी प्रकार पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज कराई गई थी. उन पर भी आरोप लगा कि उन्होंने फर्जी खबर फैलाई जिस के बाद उन के एफआईआर में देशद्रोह की धारा जोड़ी गई, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. इन सभी पत्रकारों के समर्थन में हर जगह से लोकतांत्रिक आवाजें उठीं. मीडिया संगठनों और बुद्धिजीवियों की तरफ से सरकार को चौतरफा विरोध ?ोलना पड़ा है. इस से पहले पिछले साल अक्तूबर में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन और 3 अन्य पर राजद्रोह समेत अन्य धाराओं में मामले दर्ज किए थे. ये मामले तब दर्ज किए गए जब कप्पन एक दलित लड़की के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म मामले की जमीनी रिपोर्टिंग करने के लिए हाथरस जा रहे थे. इस सरकार में कार्टूनिस्ट पत्रकारों के खिलाफ भी मुकदमे चलाए जा रहे हैं. कई पत्रकारों को पुलिस द्वारा कवर करने के चलते खुलेआम पीटा गया जिस में हालिया नाम मंदीप पुनिया का जुड़ा.

वहीं ताजाताजा ब्लौक प्रमुख चुनाव कवर करते कृष्णा तिवारी भी रहे, हालांकि अगले रोज वे पीटने वाले पुलिस के साथ मिठाई खाते भी पाए गए. इस वर्ष जून मध्य में 3 पत्रकारों, राणा अयूब, सबा नकबी और मोहम्मद जुबैर के ऊपर उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘आपराधिक साजिश’ के बेतुके आरोपों के तहत एफआईआर दर्ज की. पत्रकारों को ‘षड्यंत्र’ रचने के कथित आरोपों के तहत आरोपित किया गया. इन पर ऐसे गंभीर आरोप लगाए गए जिन में दंगा भड़काने, धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने, धार्मिक विश्वासों का अपमान करने, सार्वजनिक शरारत, आपराधिक साजिश और अपराध करने की मंशा शामिल हैं. जबकि इस पूरे मामले में देखने में आया कि इन्हें चयनित तौर से आरोपित किया गया. ऐसे कई पत्रकार हैं जिन्हें बेवजह इस तरह की यातनाएं ?ोलनी पड़ रही हैं. इसी प्रकार अक्तूबर में मणिपुर के पत्रकार किशोर चंद वांगखेम पर सोशल मीडिया पोस्ट को ले कर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया.

उन्हें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री बीरेन सिंह पर टिप्पणी करने को ले कर एनएसए के तहत गिरफ्तार किया गया था. ये वही पत्रकार हैं जिन्हें साल 2018 में पहले भी राजद्रोह की धारा में गिरफ्तार कर लिया गया था, जिस के बाद मणिपुर उच्च न्यायलय ने उन के खिलाफ आरोपों को खारिज किया और वे जेल से रिहा हुए. यही नहीं, आंध्र प्रदेश के 2 टीवी चैनलों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप लगाए गए, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को दंडात्मक कार्यवाही करने से रोकते हुए कहा कि आईपीसी की धारा 124ए की व्याख्या करने की जरूरत है. भक्त मीडिया और अंधभक्त जनता भारत का मीडिया क्षेत्र बहुत वृहद है, शायद दुनिया में सब से बड़ा हो. हजारों समाचारपत्र, हजारों पत्रिकाएं, डेढ़ सौ से अधिक टैलीविजन समाचार चैनल और दर्जनों भाषाओं में अनगिनत वैबसाइटें. इस के अलावा कितने ही फेसबुकिया, यूट्यूबर हैं जो न्यूज परोसते रहते हैं. इस में कोई संदेह नहीं कि सरकार के इस व्यवहार को समाज पर थोपने में मीडिया की एक विशेष भूमिका रही है और इस मीडिया का एक हिस्सा, जो दबने को तैयार नहीं हुआ, उसे अपने ही बेईमान भाई के कृत्यों का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है.

आज जिस प्रकार से मीडिया ने सत्ताधारियों के साथ मिल कर मीडिया का गला दबाने का कृत्य किया है उस की सचाई तरहतरह की रिपोर्टों से सामने आ रही है. इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि देश में लगातार सूचनाओं के जाल को योजनाबद्ध तरीके से कुतरा जा रहा है. सरकारी मंत्रालयों की डैस्क से निकल कर सूचनाओं की कटाईछंटाई हो रही है. खास तरह की सूचनाओं को ही चलाया जा रहा है, जो खुली पक्षपाती हैं. सूचनाओं में विशेष समुदाय और तबके पर खास टारगेट किया जा रहा है. जो खुलेतौर से सत्ताधारी पार्टी द्वारा प्रायोजित है. आज मीडिया जिस दौर में है उस दौर को ले कर कई नामी लोगों ने इसे आपातकाल से खराब माना है. आपातकाल में कम से कम पत्रकार विरोध करते थे. सरकार और पत्रकार के बीच लकीर स्पष्ट थी. लेकिन इस समय देश की स्थिति हर क्षेत्र में चरमराने के बावजूद अधिकतर मीडिया हाउस सरकार के आगे नतमस्तक हैं. वे खुद ‘भक्त मीडिया’ व ‘गोदी मीडिया’ के नाम से जाने जा रहे हैं. ऐसे में मोदी समर्थकों का बना जन गुट बिलकुल भी इस तरफ ध्यान नहीं देना चाहता. इस भक्त मीडिया ने मोदी को अंधभक्त जनता के आगे इतना महान बना दिया है कि वे देखना ही नहीं चाहते कि देश को कितना नुकसान हो गया है.

7 वर्षों पहले जिस महंगाई पर वे सड़कों पर बिफर पड़ते थे, अब वे मोदीभक्ति के आगे महंगाई का घूंट पीने को मजबूर हैं. लोगों की स्थिति चाहे जितनी पतन की तरफ जा रही हो, उन्हें रात के प्राइम टाइम में हिंदू-मुसलमान, देशभक्ति-देशद्रोह, भारत-पकिस्तान की बहस में ही मजा आने लगा है. लोगों का दिमाग भक्त टीवी चैनलों ने इतना ढीला कर दिया है कि वे इन 7 सालों में कितना ही नुकसान ?ोल चुके हों, नौकरियों/रोजगारों से हाथ धो चुके हों, परिवार में किसी का शोक मना चुके हों, पर फिर भी वे सरकार के खिलाफ तनिक भी मुंह नहीं खोल रहे. ऐसा क्यों? क्योंकि देश में प्रैस की आजादी खरीदी जा चुकी है, और देशवासी उन गुलाम चैनलों को देख रहे हैं जो पीछे वाला सरकारी रिंग मास्टर उन्हें दिखाना चाहता है.

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