20 सितंबर, 1953 को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र के जरिये लिखा था, पिछले आम चुनाव में मैं ने महिला उम्मीदवारों पर बहुत जोर दिया था. मेरे प्रयासों के बाबजूद बहुत कम महिलाओं को उम्मेदवार बनाया गया था या वे चुनी गईं. यह पत्र काफी लंबा था जिस का सार यह था कि अगर हम आधी आबादी को पूरा मौका नहीं दे पाते तो यह उन की अनदेखी और हमारी मूर्खता है.
राजनीति का यह वह दौर था जब महिलाओं की उस में भागीदारी आटे में नमक के बराबर थी लेकिन नेहरू इसे बढ़ाना चाहते थे. इसी दौर में टुकड़ोंटुकड़ों में पेश किए जाने वाले हिंदू कोड बिल को ले कर हिंदूवादी हद से ज्यादा तिलमिलाए हुए थे और उसे रोकने सड़क से संसद तक हायहाय कर रहे थे.
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आंद्रे मालराक्स एक मशहूर फ्रांसीसी उपन्यासकार हैं, जो लगभग 10 साल फ़्रांस के सांस्कृतिक मामलों के मंत्री भी रहे हैं, ने एक बार जवाहरलाल नेहरू से सवाल किया था कि स्वतंत्रता के बाद आप की सब से बड़ी कठिनाई क्या रही है. इस सवाल का जवाब नेहरू ने एक गेप लेते हुए दो बार में दिया था. पहला था, न्यायपूर्ण साधनों से न्यायपूर्ण राज्य का निर्माण करना और दूसरा था शायद एक धार्मिक देश में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण करना भी.
यही सवाल जब किसी और लेखक या पत्रकार ने साल 1958 में उन से पूछा था तब उन का जवाब हिंदू कोड बिल की तरफ इशारा करते हुए कुछ यों था, ‘महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए किए गए उपाय.’ जवाहरलाल नेहरु महिलाओं की दशा ( हकीकत में दुर्दशा ) सुधारने कितने गंभीर और प्रयासरत थे इस का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने 50 के दशक में ही कट्टर हिंदूवादियों से भिड़ते एलान कर दिया था कि अब हिंदू कोड बिल तभी पारित होगा जब जनता कांग्रेस को चुन लेगी.
यानी जनता चाहे तो इस मुद्दे पर उन्हें नकार भी सकती है. ये दोनों विकल्प नेहरू ने ही जनता के सामने रखे थे जिस में से जनता ने पहले को चुनना अपनी प्राथमिकता में रखा. कांग्रेस भारी बहुमत से जीती जिस में महिलाओं का भी खासा समर्थन उसे और नेहरू को मिला था. 1951 – 52 के आजाद भारत के पहले आम चुनाव का बड़ा मुद्दा हिंदू कोड बिल यानी कानूनों के जरिए समाज सुधार ही था. इस चुनाव में दक्षिणपंथियों ने फूलपुर लोकसभा सीट से नेहरु के खिलाफ आरएसएस प्रमुख एमएस गोलवलकर के बेहद करीबी प्रभु दत्त ब्रह्मचारी को खड़ा किया था जो हिंदू कोड बिल विरोध समिति के प्रमुख नेता थे. वे नेहरू के मुकाबले बड़े अंतर से हारे थे. तब नेहरु को 2,33,571 वोट और प्रभु दत्त को महज 56,178 वोट मिले थे. यह जीत एक तरह से हिंदू कोड बिल संसद में पास कराने की जनता की सहमति भी और अनुमति भी थी.
इस और ऐसी कई बातों को गुजरे जमाना हो गया है. इस दौरान बिलाशक महिलाएं न केवल राजनीति में बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी आगे बढ़ी हैं लेकिन यह सब उन के अस्तित्व की तरह आधाअधूरा ही है यानी संतोषजनक नहीं है. महिलाएं शिक्षित तो हुईं लेकिन जागरूक भी हो गई हैं ऐसा कहने की कोई वजह नहीं लेकिन ऐसा न कहने की अहम वजह यह है कि वे धार्मिक गुलामी से आजाद नहीं हो पाई हैं. अगर साल में लगभग सौ तरह के व्रत उपवास वह भी घर के पुरुषों की सलामती के लिए करना, धार्मिक समारोहों में कलश यात्रा में सर पर बोझा रख मीलों दूर नंगे पैर चलना, बाबाओं के प्रवचन जो आमतौर पर स्त्री विरोधी ही होते हैं को घंटों सुनना, मंदिरों में मूर्ति के दर्शन के लिए धक्के खाना और सुरक्षाकर्मियों की झिड़कियां सुनना वगैरह ही वे जागरूकता मान बैठी हैं तो यह उन की भारी भूल है. भूल क्या है एक तरह की मजबूरी है जिस से बाहर निकलने का कोई रास्ता न मिलते देख वे हताश हैं. लेकिन इस का यह मतलब भी नहीं कि इस घुटन से वे निजात नहीं पाना चाहतीं.
अमेरिका के डलास में टैक्सास यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी ने इस स्थिति का जिम्मेदार भाजपा और आरएसएस को ठहराते कहा कि उन का मानना है कि महिलाओं को पारंपारिक भूमिका तक ही सीमित रखा जाना चाहिए. घर पर रहना खाना बनाना और कम बोलना. हमारा मानना है कि महिलाओं को वह सब करने की आजादी होनी चाहिए जो वे करना चाहती हैं.
राहुल ने महिला सशक्तिकरण से ताल्लुक रखती और जो बातें कहीं उन्हें सियासी कहा जा सकता है लेकिन महिलाओं को एक दायरे में कैद रखने की साजिश को उजागर कर उन्होंने भारतीय घरों में झांकने की जो कोशिश की है वह उन के परदादा के विचारों और राजनीति दोनों से मेल खाती हुई है. दिलचस्प समानता यह है कि तब भी हिंदू कट्टरवाद शबाब पर था और कमोबेश आज भी है लेकिन 4 जून के बाद इस की सीमाएं सिमटी हैं लेकिन उस में दलितों मुसलमानों पिछड़ों और आदिवासियों का रोल ज्यादा अहम था बनस्पत सवर्ण महिलाओं के.
इस बयान का कितना असर होगा इस का आंकलन एकदम से नहीं किया जा सकता. लेकिन इतना तय है कि भगवा गैंग के पास इन आरोपों का कोई ठोस जवाब नहीं है. टेक्सस में कही गई संविधान और चुनाव आयोग सहित दूसरी बातों के लिए भाजपाई नेता प्रवक्ता उन्हें राष्ट्रद्रोही कहते रहे, इस के कोई माने नहीं हैं क्योंकि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विदेशों में जा कर विपक्ष को पानी पीपी कर कोस सकते हैं तो सरकार को कोसने का हक राहुल गांधी या किसी दूसरे विपक्षी नेता से छीना नहीं जा सकता.
लेकिन महिलाओं की कैद वाला मुद्दा आज भी उतना ही प्रासंगिक और संवेदनशील है जितना कि नेहरू युग में था. 2014 से ले कर 4 जून, 2024 मोदी युग रहा है जिस में धर्म और मंदिर की राजनीति दूसरे मुद्दों पर हावी रही. इस का फर्क सवर्ण महिलाओं पर भी पड़ा वे भी अपने पुरुषों की तरह कट्टरता का शिकार हुईं. क्योंकि उन्हें मुसलमानों की आड़ ले कर इतना डरा दिया गया था कि उन्हें भगवान ही आखिरी सहारा लगा सो उन्होंने और जम कर पूजापाठ किया. इसी तबके की महिलाओं को अपने पाले में लाने की राहुल की इस नई चाल की कामयाबी इस बात पर निर्भर रहेगी कि कांग्रेसी इसे महिलाओं को कैसे समझा पाते हैं.
यहां तक तो भाजपा और संघ दोनों बेफिक्र हैं कि महिलाएं व्रत उपवास करती रहेंगी, मंदिरों में जाती रहेंगी, सत्संग और माता की चौकी जैसे आयोजनों में अपना वक्त और एनर्जी बरबाद करती रहेंगी क्योंकि इस के लिए देश में 10 साल में सैकड़ों छोटेबड़े बाबा उन्होंने तैयार कर छोड़ दिए हैं. लेकिन उन्हें डर इस बात का है कि कल को महिलाएं यह न सोचने और पूछने लगें कि यह सब हम क्यों करें.
ऐसा होना नामुमकिन नहीं है पर संघ और भाजपा के मंदिरों में बैठे एजेंट कब तक महिलाओं को बरगलाए और डराए रखने में कामयाब रहते हैं यह कम दिलचस्पी की बात नहीं. महिला तर्क न करे इस बाबत उसे आस्थावान बनाए रखे जाने के प्रपंच ये लोग रचते हैं. हैरत की बात तो यह है कि इस में पुरुषों की भी सहमति है जिन की धार्मिक कार्यों में भागीदारी महिलाओं के मुकाबले एकचौथाई भी नहीं होती जबकि धर्म के सहारे हासिल की गई सत्ता के सारे सूत्र और ताकत उन के हाथ में ही रहते हैं. यानी महिला इस लिहाज से भी मोहरा ही है.
कांग्रेसियों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है और आगे भी रहेगी कि बगैर महिलाओं की आस्था को चोट पहुंचाए उन्हें यह वास्तविकता कैसे बताई जाए कि कैसेकैसे धर्म के नाम पर उन्हें घरों में कैद रखे जाने के षड्यंत्र कुछ इस तरह रचे जाते हैं कि वे इन्हें ही अपनी नियति और जिंदगी मानने लगती हैं.
नेहरू तमाम कोशिशों के बाद भी महिलाओं को एक सीमा तक ही शिक्षित कर पाए जो उस वक्त की मांग और जरूरत दोनों थे कि महिलाएं अपने अधिकार जाने, स्वावलंबी बने, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने जो होता भी दिख रहा है. अब राहुल उन महिलाओं को जागरूक कैसे कर पाते हैं यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा.