राजनीतिक पार्टियां अब अपने पक्ष में पब्लिक ओपिनियन या जनमत बनाने में इन्फ्लुएंसर्स की मदद लेने लगी हैं और जब वे जीत कर सरकार बना रही हैं तो इन्हीं इन्फ्लुएंसर्स के प्रचारभरोसे काम चला रही हैं. सरकारें अब अपने निकम्मे कर्मचारियों पर भरोसा नहीं कर रही हैं, जो प्रचार करने तक का काम ढंग से नहीं कर सकते, जिस के लिए मोटीमोटी तनख्वाहें ये सरकार से ले रहे हैं.
आज ये सरकारी कर्मचारी सरकार को इन्फ्लुएंसर्स के भरोसे बैठने की सलाह देते नजर आते हैं. वो इन्फ्लुएंसर्स जिन की रीड़ की हड्डी ही नहीं है, जो किसी संवैधानिक जिम्मेदारी से नहीं बंधे हैं, जो कुछ भी कर सकते हैं. ये इन्फ्लुएंसर्स किसी योजना के तहत ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का प्रचार करते दिखेंगे जबकि अगले ही दिन शराब पी कर लड़की को छेड़ते भी दिखाई दे सकते हैं. किसी दिन सरकारी रोड सेफ्टी विज्ञापन में दिखाई दे सकते हैं तो अगले ही दिन रैश ड्राइविंग करते भी दिखाई दे सकते हैं.
पहले जैसे वोट पाने के लिए आसाराम, राम रहीम और रामपाल जैसे बाबाओं के कार्यक्रमों में नेता जाते थे वैसे ही अब इन्फ्लुएंसर्स के फौलोअर्स के वोट लेने के लिए इन के चैनल पर जाते हैं. सच तो यह है कि अब आईटी सैल के बाद आप आने वाले वर्षों में पार्टियों के भीतर 'इंफ्लुएंसर सैल' देख सकते हैं.
हालांकि सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर इन्फ्लुएंसर्स के जरिए प्रचार करवाना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकारें खुद जनता के बीच जा कर अपने किए कामों व अपनी योजनाओं का बखान नहीं कर सकतीं? सवाल यह कि क्या मोदीजी की ‘अपने मन की बात’ जनता पचा नहीं पा रही है? क्या प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के सरकारी भाषण उबाऊ होने लगे हैं? उस से बड़ी बात कि आम जनता को अपने नेताओं से जुड़ाव के लिए क्या इन इन्फ्लुएंसर्स का मुंह ताकना पड़ेगा?