महाराष्ट्र का घटनाक्र्रम केवल एक राजनीतिक ड्रामा नहीं था बल्कि इस में इतिहास की भी झलक साफसाफ दिखी. अब सारे सूत्र उस वर्ग के हाथ में हैं जो सदियों से पंडापुरोहितवाद से त्रस्त है. उस वर्ग ने महाराष्ट्र में भाजपा के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रोक लिया है.
‘अंत भला तो सब भला’ की तर्ज पर महाराष्ट्र का सियासी ड्रामा आखिरकार 28 नवंबर की शाम खत्म हुआ, जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के 18वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. लेकिन यह अंत एक ऐसा प्रारंभ ले कर भी आता दिख रहा है जिस का गहरा संबंध महाराष्ट्र के इतिहास, जातिगत लड़ाइयों और समाज के अलावा धर्म से भी है.
यह ड्रामा, दरअसल, इतिहास का दोहराव भी है और इस मिथक को भी तोड़ गया कि सत्ता हमेशा सवर्णों या ब्राह्मणों के हाथ में ही रहेगी और जैसा पंडेपुजारियों और पुरोहितों को पूजने वाले चाहेंगे, इस बार या हर बार वैसा ही होगा.
क्या था ड्रामा, क्या थे इस के माने और कैसे विपरीत विचारधारा वाले 3 दल शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने एकसाथ आ कर सब को चौंका दिया, इस सवाल का जवाब महाराष्ट्र के इतिहास से मिलता है.
छत्रपति शिवाजी को महाराष्ट्र के लोग भगवान की तरह पूजते हैं जिन से संबंधित यह तथ्य हर कोई जानता है कि वे हिंदू शासन की नींव रखने वाले पहले शासक थे जिन्होंने पहले मुगलों और फिर अंगरेजों के खिलाफ कई अहम युद्ध कर हिंदू समाज के सभी तबकों को एकजुट किया था.
ये भी पढ़ें- ‘नोटबंदी’ से भी बड़ी है त्रासदी ‘नेटबंदी’
लेकिन शासक होने के बाद भी वे तत्कालीन ब्राह्मणों की नजर में राजा नहीं थे क्योंकि ब्राह्मण उन्हें शूद्र मानते थे. तब समाज पर ब्राह्मणवादी ताकतों का दबदबा था और उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था. रूढि़यां, कुरीतियां, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव और शोषण चरम पर थे और खुद को ईश्वरीय दूत और पूजनीय बताने वाले ब्राह्मणों की हरदम, मुमकिन कोशिश इन्हें बनाए और बढ़ाए रखने की होती थी जो उन की रोजीरोटी थी और जातिगत तौर पर उन्हें दूसरों से श्रेष्ठ साबित भी करती थी.