यह तो कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान ही स्पष्ट हो गया था कि भाजपा को धर्म की राजनीति के अलावा कुछ और आता नहीं. इसलिए वहां भाजपा नेता बेहद लड़खड़ाए से नजर आए थे..प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में बजरंगबली बजरंगबली करते रहे थे लेकिन हिंदीभाषी राज्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सहित सभी भाजपाई मुख्यमंत्री बड़ा सहज महसूस करते हैं क्योंकि यहां वे अपने मनपसंद मुद्दों और एजेंडे पर खुल कर बोलते हैं. कैसे, इसे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जो इन दिनों चुनाव की तैयारियों में दिनरात जुटे हैं, की कुछ गतिविधियों और बयानों से समझते हैं.
-24 अप्रैल को शिवराज सिंह तंत्रमंत्र के जरिए दुश्मनों का नाश कर देने के लिए प्रसिद्ध दतिया स्थित पीतांबरा पीठ की रथयात्रा में रथ खींच रहे थे. रथ के अंदर ऋषि वशिष्ठ की सी मुद्रा में एक स्वामी बैठे हुए थे. भव्यता के लिए दिल्ली से मंगाए गए हैलिकौप्टर से पुष्पवर्षा का इंतजाम किया गया था. उन के साथ राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधराराजे सिंधिया और मध्यप्रदेश के गृह मंत्री पंडित नरोत्तम मिश्रा भी रथ में जुते थे. इस दिन शिवराज सिंह पूरे वक्त माईमाई करते रहे.
उज्जैन के महाकाल लोक की तर्ज पर पीतांबरा माई महालोक बनाने की घोषणा करते उन्होंने कहा, ‘मैया की ऐसी इच्छा है कि पीतांबरा माई महालोक बन जाए तो काहे की चिंता, हम पर तो माई की कृपा है. माई, तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा, मैया जो बनाना है बनवा लो, मां क्या बनाना है, यह गृहमंत्री संतों से मिल कर तय कर लें.’ कुछ और इधर उधर की हांक कर वे उपसंहार में बोले, ‘मां, कृपा की बरसात करना.’
पूरी तरह माई की भक्ति के रंग में रंगे शिवराज के ये शब्द भी यह साबित करते हैं कि सबकुछ ऊपरवाला करता है. नीचे वाले तो अलाल और निकम्मे हैं. उन्होंने कहा, “मैं माई से प्रार्थना करता हूं कि सुखसमृद्धि और रिद्धिसिद्धि दतिया और मध्यप्रदेश की जनता की जिंदगी में आए. माई, ऐसी कृपा करना कि इन के पैरों में कांटा भी न लग पाए.”
यह अनिष्ट और दैवीय प्रकोप से डरे और सहमे हुए घोर भाग्यवादी, भक्तटाइप की भाषाशैली थी जो बातबात में प्रभु और हरिइच्छा का राग अलापता रहता है. उस में इतना आत्मविश्वास भी नहीं होता कि अपने किए का श्रेय भी खुद लेने का साहस जुटा पाए. बात जहां तक शिवराज सिंह और भाजपा की है तो हर कोई जानता है कि मध्यप्रदेश की सत्ता उन्हें माई की कृपा से नहीं, बल्कि खालिस बेईमानी से मिली थी.
ब्राह्मण श्राप से महंगी मुक्ति
दतिया के 4 दिन पहले शिवराज सिंह भोपाल की एक कथा में प्रवचन करते नजर आए थे. उस दिन मौजूदा दौर के ब्रैंडेड बाबा बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री ब्राह्मणों के आराध्य परशुराम की जयंती मनाने भोपाल खासतौर से तशरीफ लाए थे. ब्राह्मणों को साधने शिवराज सिंह ने परशुराम की जन्मस्थली जानापाव में 11 करोड़ की लागत से परशुराम लोक और परशुराम धाम बनाने का ऐलान कर दिया.
इतना ही नहीं, मत चूको चौहान की तर्ज पर ब्राह्मण कल्याण बोर्ड के गठन की भी घोषणा करते उन्होंने कहा कि अब मंदिर की गतिविधियों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा. मंदिरों की जमीन की नीलामी कलैक्टरों द्वारा नहीं, बल्कि पुजारियों द्वारा की जाएगी. गौरतलब है कि राज्य के 21 हजार से भी ज्यादा मंदिरों में से 1,320 मंदिरों के पास 10 एकड़ से ज्यादा जमीन है जो सीधेसीधे पुजारियों की मिल्कीयत हो जाएगी.
वे बिना कुछ करेधरे करोड़ों के मालिक हो जाएंगे. जिन मंदिरों के पास जमीनें नहीं हैं उन के पुजारियों को 5 हजार रुपए महीना दिया जाएगा. अच्छा तो उन का यह ऐलान न करना रहा कि जो ब्राह्मण पुजारी भी नहीं हैं उन्हें 2 हजार रुपए महीना दिया जाएगा. लग ऐसा रहा था जैसे वैदिककालीन राजा ने खजाने का मुंह ब्राह्मणों के भले के लिए खोल दिया है, बाकी जातियों वाले, उन में भी खासतौर से दलितपिछड़ेआदिवासी, बदहाली में जिएं तो जीते रहें. उन की फिक्र सिर्फ भाषणों का आभूषण बन कर रह गई है.
सरकारी खजाने से तो करोड़ों रुपए जाएंगे ही लेकिन जमीनों की नीलामी से जो अरबों मिलते वे भी ब्राह्मणों को खैरात में दे दिए गए हैं. जनता के पैसे की इतनी खुली लूट एक मिसाल है जो भाजपा के राज में ही मुमकिन है. महज 6 फीसदी ब्राह्मणों को खुश करने के लिए शिवराज सिंह ने यह रिस्क बेवजह नहीं उठाई है. असल में साल 2018 के चुनाव में ब्राह्मणों ने भोपाल की सड़कों पर आ कर उन्हें खुलेतौर पर श्राप दिया था और इसे फलीभूत करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
ब्राह्मणों की नारागजी की बड़ी वजह शिवराज सिंह का दलितों की एक सभा में सीना ठोक कर दिया गया यह बयान था कि कोई माई का लाल आप का आरक्षण छीन नहीं सकता. इस पर ब्राह्मण युवा इतने गुस्साए थे कि उन्होंने शिवराज के खिलाफ तख्तियां ले कर प्रदर्शन भी किया था. माई के लाल वाले बयान से ताल्लुक रखता एक दिलचस्प वाकेआ भोपाल के शिवाजीनगर स्थित परशुराम मंदिर में 17 अप्रैल, 2018 को देखने में आया था जब वे ब्राह्मणों की एक सभा को संबोधित करने गए थे.
शिवराज का भाषण पूरा हो पाता, इस के पहले ही ब्राह्मण युवाओं ने आक्रामक अंदाज में मंच की तरफ बढ़ते उन के खिलाफ हायहाय के नारे लगाए थे तो घबराए शिवराज सिंह चुपचाप वहां से खिसक लिए थे. जब चुनावी नतीजे आए तो कोई 30 सीटों से यह साफ हो गया था कि ब्राह्मणों की नाराजगी भाजपा को ले डूबी.
यह दोहराव न हो, इसलिए इस परशुराम जयंती पर शिवराज ने ब्राह्मणों की स्तुति धीरेंद्र शर्मा से सहमति जताते इन शब्दों से की, ‘ब्राह्मणों ने हमेशा धर्म की रक्षा की है. अगर आप देखेंगे तो हम सब को बहुत गर्व होता है कि ब्राह्मण धर्म, आध्यात्म, ज्ञानविज्ञान, योगआयुर्वेद, परंपरा और संस्कृति को संरक्षित करने का काम करते हैं. ब्राह्मणों ने यज्ञोंहवनों और शस्त्रशास्त्रों सब को सुरक्षित रखने का काम किया है.’ इस पूरे झमेले से साबित यह भी हुआ कि ब्राह्मण श्राप से मुक्ति सरकारी पैसे को ब्राह्मणों को दान में देने से भी मिलती है. इस के लिए शिव आराधना करना या हनुमान चालीसा पढ़ने की अब बहुत ज्यादा जरूरत नहीं.
इस प्रसंग के पहले शिवराज सिंह चुनावी वैतरणी पार करने अपने गृहनगर विदिशा में बागेश्वर बाबा के दरबार में राम भजन गा रहे थे. इस के और पहले वे फलां मंदिर और उस के भी पहले ढिकाने मंदिर में हाथ जोड़े दंडवत हो रहे थे. सालभर उन का सार्वजनिक पूजापाठ चलता ही रहता है.
धर्मकर्म की इस धुआंधार राजनीति से आम लोगों में चुनाव को ले कर हताशा है कि कोई तुक की बात भाजपा की तरफ से नहीं हो रही. रस्म अदा करने को एकदो काम या योजनाएं गिना दी जाती हैं. हकीकत में आम लोग भी बेहतर समझने लगे हैं कि भाजपा अब धर्म बेचने की राजनीति कर रही है और चुनाव तक यह सिलसिला जारी रहेगा.
कांग्रेस की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ तंज कस चुके हैं कि भाजपा ने धर्म का ठेका ले रखा है. हिंदू होने पर गर्व हमें भी है लेकिन हम वेबकूफ नहीं हैं, हम धर्म को राजनीतिक मंच पर नहीं लाते. भाजपा महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगार जैसे अहम मुद्दों से ध्यान हटा रही है.
गायब हैं मुद्दे
लगभग 6 महीने बाद होने जा रहे न केवल मध्यप्रदेश बल्कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव 2024 का सैमी फाइनल करार दे रहे हैं. यह एक बेतुकी और हकीकत से परे बात है क्योंकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दों में जमीनआसमान का फर्क होता है. कई बार तो रातोंरात वोटर का मूड और इरादा बदल जाता है. इस की एक बेहतर मिसाल 232 विधानसभा सीटों वाला मध्यप्रदेश ही है.
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 115 सीटें मिलीं थी जबकि सत्तारूढ़ भाजपा 109 पर अटक कर रह गई थी. तब भाजपा को 41.6 फीसदी और कांग्रेस को थोड़े कम 41.5 फीसदी वोट मिले थे.
वोटर का मिजाज कैसे बदलता है, यह 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से पता चला था. उस चुनाव में भाजपा को 58.5 फीसदी रिकौर्ड वोट मिले थे जबकि कांग्रेस 34.8 फीसदी वोटों पर सिमट कर रह गई थी. पूरे देश की तरह यहां भी मोदी लहर थी जिस का फायदा भाजपा को मिला था. इस के भी पहले जाएं तो 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 165 सीटें और 44.88 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को 58 सीटें और 36.38 फीसदी वोट मिले थे.
इस बिना पर कोई राय कायम नहीं की जा सकती. हां, अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा को ज्यादा वोट मिले थे. सीटें भी उस ने 29 में से 28 जीती थीं और 180 विधानसभा सीटों पर वह बढ़त पर रही थी. अगर इसी थ्योरी पर लोकसभा में भाजपा का भविष्य देखा जाए तो उसे विधानसभा में हारने तैयार रहना चाहिए. हकीकत में ऐसी थ्योरियां तोता छाप ज्योतिषियों की तरह सियासी पंडित गढ़ा करते हैं जिस से आम वोटरों का गणित और मूड गड़बड़ा जाता है.
मौजूदा चुनाव में दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस के पास मतदाता को लुभाने वाला कोई मुद्दा नहीं है. वे हर जाति के लोगों के लिए घोषणाएं कर रहे हैं कि आप के लिए ये कर देंगे वो कर देंगे. इस से भी बात बनते नहीं दिखी तो शिवराज सिंह चौहान ने ‘लाड़ली बहिना योजना’ बड़े जोरशोर से लांच कर दी जिस के तहत बेसहारा औरतों को एक हजार रुपए महीना सरकार देगी.
भाजपा को इस योजना से बहुत ज्यादा चुनावी लाभ मिलेगा, ऐसा लग नहीं रहा क्योंकि हर कोई कहने लगा है कि हमारे खूनपसीने की कमाई यों न लुटाओ और कब तक मुफ्तखोरी फैला कर चुनाव जीतने का ख्वाब आप देखते रहेंगे. जो थोड़ाबहुत फायदा इस के बाद भी भाजपा को मिलेगा, उस से कहीं ज्यादा रोजगार के मुद्दे पर उस के वोट कटेंगे. इसी साल जनवरी में राज्य में कुल 38 लाख 93 हजार बेरोजगार थे.
ये तो वे बेरोजगार हैं जिन्होंने रोजगार कार्यालयों में पंजीयन करा रखा है, वरना तो असल बेरोजगारों की तादाद इस से कहीं ज्यादा है. मध्यप्रदेश सरकार का सब से बड़ा मजाक देखिए कि वह विधानसभा में कांग्रेस विधायक मेघाराम जाटव के किए सवाल के एवज में स्वीकार चुकी है कि पिछले 22 सालों में रोजगार कार्यालयों में 39 लाख बेरोजगारों ने रजिस्ट्रेशन कराया था. उन में से महज 21 को ही नौकरी दी जा सकी है. खुद सरकार के जारी किए गए एक आंकड़े के मुताबिक, अब राज्य में शिक्षित बेरोजगारों की तादाद 95.07 फीसदी हो गई है जो कि एक रिकौर्ड है.
बेरोजगारी का मुद्दा जब चुनाव आतेआते मुंह उठाएगा तब भाजपा को बेरोजगारों से आंख मिलाने में भी परेशानी होगी. उलट इस के, कांग्रेस इस मुद्दे को असरदार तरीके से नहीं उठा पा रही है तो इस के पीछे उस की भी कमियां व कमजोरियां हैं क्योंकि मुख्यमंत्री रहते कमलनाथ भी बेरोजगारी की बाबत कुछ खास नहीं कर पाए थे. अब उन की कोशिश यह होनी चाहिए कि बेरोजगारी का ठीकरा, जैसे भी हो, शिवराज सरकार के सिर फूटे.
उधर अपना सिर बचाने सरकार 3 महीने से वैकेंसियां निकाल रही है. पटवारी, क्लर्क, नर्स और टीचर जैसी छोटी नौकरियों के लिए लाखों नौजवान फौर्म भर रहे हैं और कुछ में प्रवेशपरीक्षा भी हो रही है. लेकिन नतीजे कब आएंगे और नियुक्तिपत्र कब मिलेंगे, यह किसी को नहीं पता. हां, यह जरूर इन नौजवानों को पता है कि इन नौकरियों में 5 हजार आवेदकों पर एक को नौकरी मिलेगी, बाकी 4,999 बेरोजगार ही रहेंगे.
चंबल पर ज्यादा जोर
महंगाई, बेरोजगारी और प्रदेश में सुरसा से मुंह की तरह पसरते भ्रष्टाचार पर कोई ज्यादा तवज्जुह न दे, इस के लिए चुनाव की तैयारी जाति और इलाके पर सिमटती जा रही है. कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस गुणाभाग और जोड़तोड़ में लगे हैं कि पिछली बार जहांजहां से हारे थे वहांवहां ज्यादा जोर लगाया जाए. चंबल इलाके में भाजपा की उम्मीद से ज्यादा दुर्गति हुई थी जहां उसे 8 जिलों की कुल 34 सीटों में से महज 7 सीटें मिली थीं, कांग्रेस 26 सीटें ले गई थी. खत्म होती बसपा के खाते में भी एक सीट गई थी.
तब चंबल ग्वालियर इलाके में खासा असर रखने वाले दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी पार्टी कांग्रेस को जिताने में एड़ीचोटी का जोर इस उम्मीद के साथ लगाया था कि मुख्यमंत्री उन्हें ही बनाया जाएगा. उन का यह सपना पूरा नहीं हुआ. मुख्यमंत्री कमलनाथ को बना दिया गया. इस के बाद पार्टी के अंदर जम कर अनदेखी होने लगी तो एक सौदेबाजी के तहत वे अपने 21 विधायकों सहित भाजपा में शामिल हो गए जिस से भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिल गया और बगैर कुछ किएधरे शिवराज सिंह चौथी बार सीएम बन बैठे.
यह साफतौर पर बेईमानी थी क्योंकि जनता ने भाजपा और शिवराज दोनों को नकार दिया था. 15 सालों बाद सत्ता में आई कांग्रेस की सरकार 15 महीने ही चल पाई. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई. इस के बाद 27 सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा 19 ले गई और कांग्रेस के खाते में महज 9 सीटें आ पाईं.
सौदे और वादे के मुताबिक सिंधिया कोटे के सभी प्रमुख विधायक मंत्री बनाए गए और बतौर इनाम, उन्हें राज्यसभा में ले कर उन्हें केंद्र में मंत्री भी बनाया गया लेकिन एक गिल्ट ज्योतिरादित्य सिंधिया के दिल में भी है और शिवराज सिंह के तो दिलोदिमाग दोनों में घर कर चुका है जिस से छुटकारा पाने के लिए वे धर्म का सहारा ले रहे हैं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया की पकड़ अब चंबल में ढीली पड़ रही है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि वे 34 में से कितनी सीटों से भाजपा की झोली भर सकते हैं. चूंकि इस इलाके में सपा और बसपा भी हैं, इसलिए मुकाबला बेहद करीबी और दिलचस्प होना तय है.हालफिलहाल तो भाजपा वोटर से ज्यादा भरोसा ऊपरवाले पर जता रही है.