ज्योतिरादित्य सिंधिया के सहयोग से कांग्रेस सरकार गिरा देने बाले शिवराज सिंह चौहान ने चौथी बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर कामकाज भी शुरू भी कर दिया है और उधर कांग्रेसी खासतौर से दिग्विजय सिंह खिसियाए हुये सिंधिया को कोसे जा रहे हैं.
यह देखा जाये तो एक बुजुर्ग नेता का बेवजह का प्रलाप है जिस पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा. प्रदेश में मीडिया के एक वर्ग द्वारा दिग्गी राजा के उपनाम से मशहूर कर दिये गए दिग्विजय सिंह देखा जाये तो इस बार खुद ही अपनी चालाकी और खुराफात का शिकार होकर रह गए हैं.
उनके किए की सजा खुद उनका गुट भी भुगत रहा है. उनके समर्थक मंत्री जो कल तक जमीन रौंदते चलते थे अब घरों में दुबके अपने इर्द गिर्द जमा 2-4 लोगों की भीड़ को अपने मंत्रित्वकाल के संस्मरण सुनकर गम गलत कर रहे हैं.
जो हुआ उसके जिम्मेदार क्या अकेले दिग्विजय हैं इस सवाल का जबाव हां में ही निकलता है. उनका बैर सिंधिया से था जिसे भुनाने उन्होंने टंगड़ी राज्यसभा चुनाव को लेकर अड़ाई थी कि प्रथम वरीयता में मैं ही जाऊंगा. अनदेखी के शिकार चल रहे सिंधिया को यह गंवारा नहीं था लिहाजा उन्होने कांग्रेस छोड़ भाजपा ज्वॉइन कर ली और अपने समर्थक 22 विधायकों को भी भगवा खेमे के नीचे ले गए.
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अब खिसियाए होए क्या…
अब कारवां गुजर जाने के बाद भी दिग्विजय का रोना गाना जारी है कि मंत्री पद और राज्यसभा में जाने के लालच में सिंधिया ने कांग्रेस की बुरी गत कर दी इसके लिए प्रदेश की जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी.
अब यह कौन उन्हें समझाये कि प्रदेश की जनता को न तो उनसे और न ही कांग्रेस से कोई वास्ता या लगाव है. होता तो यह नौबत ही न आती और 2018 के चुनाव में कांग्रेस को वोटर 114 के आंकड़े पर लटकाकर नहीं रखता.
तकनीकी तौर पर देखें तो जनता ने बेहद सटीक फैसला लिया था जिसके माने और मैसेज यह था कि तीन गुटों में बंटी कांग्रेस को अगर वाकई जनता का भला करना है तो वह अपनी अंदरूनी कलह को नियंत्रित करे नहीं तो भाजपा एक बेहतर विकल्प है ही जिसे 109 सीटें मिली थीं और कुल वोट भी कांग्रेस से ज्यादा मिले थे.
हुआ वही जिसका डर था…
सवा साल में ही कांग्रेसी लड़ पड़े और सरकार चली गई. कमलनाथ ने वहैसियत मुख्यमंत्री शुरुआत तो जोरदार की थी लेकिन धीरे धीरे वे दिग्विजय के जाल में फंसते चले गए और उनके बहकावे में आकर सिंधिया के बारे में यह राय कायम कर ली कि जो आज प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद चाह रहा है वो कल को सीएम की कुर्सी भी मांग सकता है. कमलनाथ और सिंधिया के बीच दिग्विजय ने मंथरा का काम तो कर डाला लेकिन एक जगह गच्चा खा गए.
यह जगह उनका यह अंदाजा था कि सिंधिया कांग्रेस में रहते अनदेखी और बेइज्जती बर्दाश्त कर लेंगे लेकिन किसी भी कीमत पर भाजपा में नहीं जाएंगे. अब नजारा यह है कि सिंधिया शिवराज के गले में हाथ डाले घूम रहे हैं और कमलनाथ दिग्विजय सोच ही रहे हैं कि प्लानिंग में कहां कमी रह गई.
सिंधिया का कद और पूछ परख भाजपा में जाने से बढ़े ही हैं, यह देख भी इन बुजुर्गों के कलेजों पर नाना प्रकार के सांप लोट रहे हैं जिसमें घी उनकी अब कुछ न कर पाने की असमर्थता डाल रही है. सिंधिया को कोस कर इन्हें आत्मिक शांति तो मिल रही है लेकिन समर्थन नहीं मिल रहा.
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सोनिया की खामोशी के माने
सोनिया गांधी इस मसले पर खामोश हैं जिसके कई अर्थ भी लगाए जा रहे हैं कि वे अपने ही बेटे राहुल की उस युवा बिग्रेड को तहस नहस कर रहीं हैं जिसने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा से सत्ता छीन लेने का करिश्मा कर डाला था. चर्चा यह भी है कि सोनिया, प्रियंका गांधी को आगे लाने धीरे धीरे यह काम कर रहीं है क्योंकि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को वह चुनौती और टक्कर नहीं दे पा रहे हैं जिसकी कांग्रेस को दरकार है.
बात मध्यप्रदेश की करें तो सिंधिया के भाजपा में जाने से उसे बड़ा नुकसान हुआ है लेकिन अब इसका ठीकरा उनके सर फोड़ा जाना खुद कमलनाथ खेमा भी हजम नहीं कर पा रहा है. ऐसे में यह कमलनाथ और दिग्विजय की संयुक्त ज़िम्मेदारी बनती है कि वे इस दुर्दशा की ज़िम्मेदारी भले ही घोषित तौर पर अपने ऊपर न लें.
लेकिन 22 विधानसभा सीटें जो सिंधिया समर्थकों के इस्तीफ़ों से खाली हुई हैं उन्हें जीतकर यह साबित करें कि कांग्रेस के डूबने और टूटने की वजह सिंधिया थे.
यह आसान काम नहीं है क्योंकि अधिकांश सीटें सिंधिया के प्रभाव वाली हैं और अब उन्हें भाजपा का भी साथ मिल गया है.
इसमें भी कोई शक नहीं कि सभी भाजपाई सिंधिया शिवराज के याराने से खुश नहीं हैं लेकिन उनकी नाराजगी से कांग्रेस को कोई फायदा होगा ऐसा लगता नहीं क्योंकि रूठा भाजपाई पार्टी की खिलाफत नहीं करता बस तटस्थ होकर विरोध जता लेता है .
दिग्विजय सिंह जमीनी नेता कभी नहीं रहे, साल 1993 में मुख्यमंत्री पद के दौड़ में वे कहीं नहीं थे लेकिन अपने राजनैतिक गुरु अर्जुन सिंह की कृपा से सीएम बन गए थे. 1998 का चुनाव भी अर्जुन सिंह की ही वजह से कांग्रेस जीती थी. 2003 में महज 38 सीटों पर कांग्रेस सिमटी थी तो इसकी वजह दिग्विजय सिंह का कुशासन ही था .
राहुल गांधी को यह बात समझ आ गई थी कि दिग्विजय की इमेज अब 25 सीटें जिताने काबिल भी नहीं रह गई है इसलिए उन्होने 2018 में उन्हें बेरहमी से धकिया दिया था और कमलनाथ-सिंधिया को आगे कर जीत हासिल की थी.
सार्वजनिक सभाओं में तो राहुल दिग्विजय सिंह की तरफ देखते भी नहीं थे . दिग्विजय सिंह अपनी इस बेइज्जती को भूले नहीं और उन्होने सिंधिया और कमलनाथ के बीच की खाई को और गहरा कर अपनी खुन्नस निकाल भी ली .
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भरोसा खोते दिग्विजय –
दिग्विजय सिंह पर अब कोई भरोसा नहीं कर रहा जिनके बारे में मज़ाक में नहीं बल्कि गंभीरता से यह कहा जाने लगा है कि ऐसा कोई सगा नहीं जिसे दिग्विजय ने ठगा नहीं. इस कहावत में दम लाने अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह का उदाहरण खुद कुछ कांग्रेसी देते हैं कि दिग्विजय ने उन्हें ही नहीं बख्शा और अब तो खुद उनके बेटे जयवर्धन सिंह का भविष्य भी खतरे में पड़ गया है. कमलनाथ तो नए उदाहरण हैं ही.
कमलनाथ गुट के कुछ लोग दिग्विजय की फितरत को समझते उनसे दूरी बनाने लगे हैं. कमलनाथ समर्थक एक पूर्व मंत्री ने इस प्रतिनिधि से नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा, अब कमलनाथ जी प्रदेश कांग्रेस की बागडोर संभालेंगे लेकिन वे सफल हों इसके लिए जरूरी है कि दिग्विजय सिंह को दूर रखा जाये बेहतर तो यह होगा कि उनके टूटते गुट का विलय हमारे गुट में हो जाये.
ऐसा कैसे होगा, इस सवाल पर इन मंत्री जी ने बेहद तल्ख लहजे में कहा कि इसके लिए जरूरी है कि दिग्विजय सिंह को राज्यसभा में जाने से रोका जाये. इसके लिए भी जरूरी यह है कि कमलनाथ खेमे के कुछ विधायक जोखिम उठाते हुये प्रथम वरीयता वोट कांग्रेस के दूसरे उम्मीदवार फूल सिंह बरैया को करें जिन्हें दिग्विजय सिंह के कहने पर ही खड़ा किया गया है. इन मंत्री जी के मुताबिक कभी बसपा के प्रमुख रहे बरैया दलित हैं और ग्वालियर चंबल संभाग के ही हैं उनके राज्यसभा में जाने से दलित वोटों का झुकाव कांग्रेस की तरफ बढ़ेगा और सिंधिया का प्रभाव यहां कम होगा.
दिग्विजय ने बेंगलुरु जाकर सिंधिया समर्थक 22 विधायकों से मिलने की कोशिश की यह एक अच्छी बात कांग्रेस के लिहाज से थी लेकिन उन्होने इन विधायकों से किस गलती की माफी चिट्ठी लिखकर मांगी यह समझ से परे है और इससे ही कांग्रेस की साख पर बट्टा ज्यादा लगा. दूसरे दिग्विजय गुट ने बौखलाहट में सिंधिया खानदान को गद्दार कहकर चम्बल ग्वालियर इलाके के लोगों को यह सोचने का मौका दे दिया कि सियासी दुश्मनी में बाप दादों को घसीटने से क्या कुर्सी बच जाएगी.
इसी तरह दिग्विजय सिंह यह आरोप सिंधिया पर लगाते रहे थे कि उन्होंने विधायकों को अगुवा किया है, उन्हें डराया धमकाया है और लालच भी दिया है लेकिन बेंगलुरु से आने के बाद किसी विधायक के चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखी तो साबित यह भी हो गया कि कमलनाथ को भी दिग्विजय सिंह मुगालते में रखे रहे जिसकी सजा अब पूरी कांग्रेस भुगत रही है.
एक और निर्गुट कांग्रेसी विधायक के मुताबिक अब लकीर पीटने से कोई फायदा नहीं सिंधिया को कोसना उन्हें और ज्यादा प्रचार देना और लोकप्रिय बनाना है. कमलनाथ और दिग्विजय को गंभीरता से इस बात पर विचार करते रणनीति बनानी चाहिए कि अब उनका मुक़ाबला कांग्रेस बाले सिंधिया से न होकर भाजपा वाले सिंधिया से है.