हमारा देश ‘प्राण जाये पर वचन न जाये’, की परिपाटी वाला देश है. यह वीरों की भूमि है, उन वीरों की जिनकी कमान और जबान दोनों मायने रखती थी. जो कहा वो कर दिखाया वाला तेवर कहीं दिखता है तो बस भारत में दिखता है. यहां जनता अपने लीडर पर भरोसा करती है, उसकी बातों पर भरोसा करती है. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा – तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, उनके एक नारे पर हजारों खड़े हो गये देश के लिए अपना खून बहाने को. हम भरोसा करते हैं कि हमारे नेता, हमारे लीडर जो कह रहे हैं, वह हमारे लिए करेंगे. हम उनके नारों पर भरोसा करके उन्हें देश की सत्ता सौंपते हैं. हमारे इसी भरोसे का नतीजा थी केन्द्र की मोदी-सरकार.
नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, जब 2014 में चुनावी रणभूमि पर उतरे थे तो उन्होंने देश की दुखियारी जनता से ढेरों वादे किये थे. जनता ने भी उनकी हर जुबान को सिर-माथे पर लिया, उनमें विश्वास जताया, उन्हें सत्ता पर विराजमान किया. सोचा कि जो आदमी इतना दमखम दिखा रहा है, 56 इंच की छाती ठोंक-ठोंक कर चिल्ला रहा है, उसमें कोई तो सच्चाई होगी. वह कुछ तो करेगा हमारे लिये. बड़ी-बड़ी सभाएं सजीं. बड़े-बड़े भाषण हुए. जनता अपने नेता की ऊर्जा और ताव देखकर भाव-विभोर हुई. खूब तालियां मारीं, खूब जय-जयकार के नारे लगाये, मगर पांच साल बाद जनता ठगी सी खड़ी है। पूछ रही है कि तुमको सत्ता सौंपी, हमको क्या मिला?
कलहारी गांव का रामखेलावन कहता है, ‘भईया ई विकास किसका भवा? हमरा तो न हुआ. हमरे तो अच्छे दिन नइखे आइल. लड़का मनरेगा में कमावत रहा, ऊ भी नोटबंदी में बेरोजगार हुई गवा. मोदी कहे रहे कि 15 लाख देहें, हम खाता खुलवा कर बैठें हन, अभी तक तो नहीं आये.’
2014 में सत्ता में आने की धुन ऐसी सवार थी कि बातों में, वादों में अतिश्योक्ति की परवाह किये बगैर जनता को बड़े-बड़े सपने दिखा दिये. अच्छे दिन आएंगे, हर साल दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देंगे, सौ दिन में कालाधन वापस ले आएंगे, हर गरीब के खाते में 15-15 लाख रुपये डलवाएंगे, राम मन्दिर हम ही बनवाएंगे, गंगा मय्या का उद्धार हम ही करेंगे, हम स्मार्ट सिटी बनाएंगे, आदर्श गांव बनाएंगे, बुलेट ट्रेन लाएंगे, देश का विकास होगा (जैसे 2014 से पहले देश में विकास हुआ ही नहीं था), मगर पांच साल में एक भी वादा पूरा न हुआ। तमाम वादे महज जुमला बन कर रह गये और मोदी-शाह की सरकार जुमला-सरकार बन गयी.
2019 की रणभेरी बज चुकी है. मैदान सज रहा है. चारों तरफ खलबली मची है कि अबकी बार क्या नये जुमले उछाले जायें. कुछ नये पोस्टरों पर नयी लाइनें चमकने लगी हैं, जैसे – ‘मोदी की साफ नीयत, सही विकास’ या ‘काम अधूरा, एक मौका मोदी सरकार, काम पूरा होने का’. लेकिन क्या जनता दोबारा मौका देगी? क्या वह पुराना हिसाब न पूछेगी? पूछेगी नहीं कि क्यों –
गंगा मय्या से किया वादा तोड़ा?
2014 में बनारस के घाट पर खड़े होकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, ‘अब गंगा मैली नहीं रहेंगी. गंगा का अब उद्धार होगा’. लेकिन मां गंगा पांच साल बाद भी अपने उद्धार की राह देख रही हैं. आज भी वह मैली की मैली हैं. नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय ने दावा किया था कि 2018 तक गंगा साफ हो जाएगी. बाद में कहा गया कि गंगा मार्च 2019 तक सत्तर से अस्सी फीसदी तक साफ हो जाएगी. अब यह समय सीमा 2020 तक बढ़ा दी गयी है. मोदी-सरकार ने बीस हजार करोड़ रुपये का बजट गंगा सफाई के लिए रखा था, जिसमें से करीब चार हजार करोड़ रुपया खर्च भी हो चुका है, लेकिन सरकार को ही यह नहीं पता कि कितनी गंगा साफ हो गई? अब जनता का पैसा था, गंगा मय्या की सफाई में लगाया तो कहीं तो गंगा साफ दिखनी चाहिए थी? मगर नहीं दिख रही है. साफ है कि गंगा मय्या के नाम पर सारा पैसा भ्रष्टों ने डकार लिया. 2017 में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में कहा गया कि हरिद्वार में गंगा का पानी पीने के लिए तो क्या नहाने के लिए भी ठीक नहीं है. वाराणसी के घाटों के किनारे पानी में विष्ठा कोलिफार्म बैक्टीरिया का प्रदूषण 58 फीसदी बढ़ गया है, जिससे जानलेवा रोग हो रहे हैं और जलीय जीव लगातार मर रहे हैं.
कालाधन नहीं आया?
2014 में चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कहा था – हमारी सरकार आयी तो सौ दिन के अन्दर विदेशी बैंकों में जमा सारा कालाधन वापस ले आएगी और वह धन इतना होगा कि हर गरीब के खाते में सरकार 15-15 लाख रुपये डलवाएगी. जनता ने उनके वादे पर भरोसा किया. पांच साल गुजर गये न काला धन आया न जनता के खाते में 15 लाख आये. कालाधन वापस लाने और गरीब के खाते में 15 लाख डालने का वादा जुमला बन कर रह गया. ऐसा जुमला जो सिर्फ 2014 के चुनाव में जीत का परचम फहराने के लिए उछाला गया था. ऐसे बड़े-बड़े सपने दिखा कर देश की गरीब, लाचार, अनपढ़ और सीधी-सादी जनता के विश्वास को छला गया. 2016 में 15 लाख रुपये के सम्बन्ध में प्रधानमंत्री कार्यालय को एक आरटीआई भेजी गयी, जिसमें पूछा गया था कि देश की गरीब जनता के खाते में 15 लाख रुपये कब आएंगे, तो उस आरटीआई के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि यह सवाल आरटीआई कानून के तहत सूचना के दायरे में नहीं आता.
जो बात प्रधानमंत्री ने चीख-चीख मंचों से कही, उसका जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय सूचना के दायरे में ही नहीं मानता! जो बात लिखा-पढ़ी में नहीं कही जा सकती है, वह बात कोरी गप्प नहीं तो और क्या है? जुमलेबाजी नहीं तो और क्या है? ‘जुमलों के बादशाह’ जुमले उछालते रहे कि कालाधन लाकर गरीबों को मालामाल कर देंगे और उधर जून 2018 की स्विस नेशनल बैंक की रिपोर्ट कहती है कि स्विस बैंकों में भारतीय पूंजीपतियों का जमा पैसा 2017 में 50 प्रतिशत तक और बढ़ गया.
2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीना ठोंक कर कहा था – ‘मैं चौकीदार हूं’. और इसी चौकीदार की नाक के नीचे से नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विजय माल्या, ललित मोदी जैसे लुटेरे देश का हजारों-करोड़ रुपया लेकर फरार हो गये.
चौकीदार के होते राफेल डील घोटाले के कीचड़ में सन गया. सीबीआई ने जांच शुरू करने की कोशिश हुई तो वहां ऐसी उठा-पटक मचायी गयी, अधिकारी को अधिकारी से ऐसा लड़ाया गया कि उस आपाधापी में राफेल की जांच ही गुम हो गयी. जुमलों के बादशाह ने कहा था – ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ उनका यह नारा बदल कर हो गया – ‘न बताऊंगा, न बताने दूंगा’.
गम्भीर बात तो यह है कि 2016 में नोटबंदी के चलते जब जनता की छोटी-छोटी बचत के पैसे भी निकलवा कर बैंकों में भर दिये गये, उसी दौरान स्विस बैंकों में भारतीय जमाखोरों का धन 50 फीसदी बढ़ गया! नोटबंदी के वक्त प्रधानमंत्री ने कहा कि इससे कालाधन वापस आएगा, मगर दो साल बीत गये सरकार ने अब तक यह नहीं बताया कि कितना कालाधन वापस आ गया? इस बारे में आरटीआई डाली गयी तो जवाब में वित्त मंत्रालय ने कालेधन के अनुमान को लेकर तैयार की गयी तीन रिपोर्ट्स को जनता से साझा करने से ही इन्कार कर दिया. आखिर क्या छिपा रहे हैं प्रधानमंत्री जनता से? उस जनता से, जिसने उनके वादों पर भरोसा करके सत्ता की कमान सौंपी थी?
विकास की गंगा कहां बही?
2014 में चुनावी रैलियों के दौरान नरेन्द्र मोदी ने चिल्ला-चिल्ला कर जनता से पूछा था – ‘विकास चाहिए कि नहीं चाहिए?’ जनता ने चिल्ला-चिल्ला कर कहा था – ‘हां चाहिए।’ उम्मीद जग पड़ी थी कि अब देश में कि अच्छी सड़कें, गरीब के बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, अच्छे सरकारी अस्पताल, स्मार्ट सिटी, पुल, बांध, नयी ट्रेनें, आदर्श गांव सब बन ही जाएंगे। मगर पांच साल गुजर गये, विकास होता कहीं नहीं दिखा। न गांवों-कस्बों, शहरों की सड़कें दुरुस्त हुर्इं, न गरीब के बच्चों के लिए नये स्कूल खुले। न नये सरकारी अस्पताल खुले, न स्मार्ट शहर बसे, न आदर्श गांव बने। हद तो तब हो गयी जब प्रधानमंत्री के विकास की भद्द पीटते हुए बीते गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस ने जवाबी हमले में ‘विकास पागल हो गया’ जैसा अभियान चला दिया। आखिर विकास की गंगा प्रधानमंत्री के मुख से निकलते ही क्यों सूख गयी, क्या जनता अबकी लोकसभा चुनाव में न पूछेगी?
दरअसल किसी नेता की बात पर विश्वास करना अच्छी बात है पर अंधविश्वास करना अच्छा नहीं। भारत की जनता भोली है। वह जुमलों पर अंधविश्वास कर बैठी. अच्छे दिन आएंगे
देश की जनता से सबसे क्रूर मजाक था – ‘अच्छे दिन आएंगे’. हर तरफ शोर मचा – ‘अच्छे दिन आएंगे’. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले देशभर में इस जुमले के पक्ष में हवा बन गयी. हर आम-ओ-खास की जुबां पर यह जुमला चढ़ गया। बच्चे-बूढ़े सभी गाने लगे – मोदी जी आने वाले हैं, अच्छे दिन लाने वाले हैं. मगर एक साल के अन्दर यह वादा भी जुमला बन गया. अच्छे दिनों की सरकार सिर्फ लूट-झूठ, सूट-बूट और जुमलों तक ही सिमट कर रह गयी.
इन पांच सालों में गरीब के लिए अच्छे दिन कभी नहीं आये. आज महंगाई आसमान छू रही है. आम आदमी की कमर तोड़ दी है मंहगाई ने. नोटबंदी से कई छोटे और मंझोले उद्योग बंद हो गये. लाखों लोगों की नौकरियां चली गयीं. किसान-मजदूर कर्ज के बोझ से दब गये. नोटबंदी के कारण 100 से ज्यादा लोगों की जानें चली गयीं. महिलाओं और गरीबों की बरसों की बचत के पैसे हवा हो गये. नोटबंदी के अदूरदर्शी फैसले से देश की आर्थिक रीढ़ टूट गयी है. अर्थव्यवस्था पच्चीस साल पीछे खिसक गयी. एक साल में दो करोड़ रोजगार देने के वादे पर सवार होकर सत्ता तक पहुंची मोदी सरकार ने ढाई साल में लाखों कि संख्या में रोजगार समाप्त कर दिये. हर साल बजट में नया टैक्स और नया सेस जोड़ कर आम आदमी की जिन्दगी बदहाल कर दी. पेट्रोल 80 रुपये प्रति लीटर तक और डीजल 70 रुपये प्रति लीटर तक पहुंचा. डालर अर्श पर और रुपया फर्श पर रेंग रहा है. सबसे ज्यादा मार मिडिल क्लास के लोगों पर पड़ी है. लोग बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. जिस तर्क के आधार पर नोटबंदी को सही ठहराने की कोशिश की थी, वह सब झूठे निकले. नोटबंदी से देश में न आतंकवाद, नक्सलवाद, नकली करेंसी बंद हुई, न ही कालेधन में कोई कमी आयी. मगर नोटबंदी से देश की आम जनता को असहनीय कष्ठ उठाने पड़े. क्या यह था मोदी-सरकार का देश की जनता को अच्छे दिन का तोहफा?
मेक इन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया जैसे जुमले खूब गूंजे पांच साल तक गूंजते रहे , मगर इसका फायदा किसको हुआ? बेरोजगारी तो ज्यों की त्यों है. आखिर इन तमाम योजनाओं के हजारों करोड़ रुपये कहां गये, जब जमीन पर कुछ भी सकारात्मक नहीं हुआ? ‘मेक इन इंडिया’ तो वास्तव में ‘फेक इन इंडिया’ निकला.
गंगा मय्या, देश का गरीब, गाय और गांव इसके लिए जितने वादे किये गये थे, सब जुमला साबित हुए. गाय-गरीब मरता है तो मरे, गंगा बदहाली की ओर बढ़ती है तो बढ़े. खुद को गंगा का बेटा कहकर गंगा को साफ करने का बीड़ा उठाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्या अब बनारस के घाट पर खड़े होकर ऐसा कोई वादा दोबारा करेंगे?
आज देश की सीमा से लगे किसी भी पड़ोसी देश के साथ हमारे सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं हैं, जबकि एक जुमला इस सम्बन्ध में भी उछाला गया था – ‘विदेशी घरती पर मोदी का डंका’. 93 मुम्बई बम धमाकों के आरोपी दाऊद इब्राहीम को भी भारत लाकर सजा दिलाने का वादा किया गया था। 2014 में एक गुजराती चैनल को दिये इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह 93 के मुम्बई बम धमाकों के अपराधी दाऊद इब्राहीम को वापस लाकर सजा दिलाएंगे. उनके इस ब्यान से आम भारतीयों में आशा जगी थी, खासतौर पर मुम्बई बम धमाकों में पीड़ित लोगों को आस बंधी थी कि उन्हें कुछ तो न्याय मिलेगा. लगा था कि अब मोदी आ गये हैं तो दाऊद इब्राहिम पर भी ओसामा बिन लादेन जैसा कोई आपरेशन होगा. मोदी जी घर में घुस कर मारेंगे उसे. लेकिन हुआ क्या, ढाक के तीन पात. मई 2017 में एक आरटीआई के जवाब में भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि भारत की किसी भी जांच एजेंसी ने विदेश मंत्रालय से दाऊद के प्रत्यर्पण की मांग तक नहीं उठायी. डौन को पकड़ने के लिए मोदी-सरकार ने कुछ नहीं किया, उलटे इनकी राजशाही में कई और डौन देश में पैदा हो गये, जो जनता के खून-पसीने के कमाई सूटकेसों में भर-भर कर टा-टा, बाय-बाय करके विदेश भाग गये.
नरेंद्र मोदी सपनों की सुनामी में देश के प्रधानमंत्री बन गये. पांच साल भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करके, जुमलों के दम पर सरकार चलाते रहे. जुमलों के जुल्म का विस्फोट अब 2019 में देखने को मिलेगा.