दुनिया की दूसरी सब से बड़ी आबादी वाले देश चीन में एक नई चिंता घर कर गई है. एक तरफ चीन की आबादी धीरेधीरे बूढ़ी होती जा रही है तो दूसरी ओर चीन की प्रजनन दर भी अपने सब से निचले स्तर पर है.
हालिया ट्रेंड में देखा गया है कि चीन की महिलाएं अब बच्चे पैदा करने से कतरा रही हैं. महिलाओं में बच्चे पैदा करने का खौफ है. वे वर्किंग वुमन बनना पसंद कर रही हैं. युवाओं का शादी से मोहभंग हो गया है. खासकर महिलाएं शादी करने से भी बच रही हैं. नतीजा चीन की आबादी बूढ़ी हो रही है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस मामले को ले कर परेशान हैं और महिलाओं से घर बसाने व परिवार बड़ा करने का आग्रह कर रहे हैं.
2022 में चीन में नवजात शिशुओं की संख्या 10 मिलियन से भी कम रही जबकि 2012 में यह संख्या लगभग 16 मिलियन थी. कुछ अनुमानों के अनुसार चीन की वर्तमान जनसंख्या लगभग 1.4 बिलियन है जो वर्ष 2100 तक घट कर 500 मिलियन हो सकती है. चीन में 2022 में 6.8 मिलियन जोड़ों ने शादी के लिए पंजीकरण कराया जबकि 2013 में 13 मिलियन जोड़ों ने पंजीकरण कराया था.
2022 में चीन की कुल प्रजनन दर प्रति महिला एक बच्चे के करीब होगी जो कि जनसंख्या को स्थिर रखने के लिए आवश्यक आवश्यक 2.1 से काफी कम है. इस स्थिति का दोष महिलाओं पर मढ़ा जा रहा है कि वे बच्चे पैदा करने को तैयार नहीं हैं.
कई महिलाओं को लगता है कि शादी और बच्चे पैदा करने का स्थापित मौडल अनुचित है. जिन बुजुर्गों की एक ही संतान है और वह भी सिर्फ लड़की तो वह उन की देखभाल के लिए मुश्किल से समय निकाल पाती हैं. ऐसे में उस को लगता है कि अगर वह शादी करेगी तो अपने पति और बच्चे को समय नहीं दे पाएगी. इसलिए चीन में बड़ी तादाद में महिलाएं शादी नहीं कर रही हैं. सिर्फ चीन में ही नहीं, महिलाओं की सोच में आया यह बदलाव भारत में भी नजर आता है. महिलाएं शादीशुदा होने से कहीं ज्यादा कामकाजी होना पसंद करने लगी हैं.
आज कार्यबल में युवा महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ी है. लेकिन विवाहिताओं की संख्या घट रही है. माना जाता है कि घर, बच्चे और कामकाज को एकसाथ संभालने का बोझ बड़ा साबित होता है.
पुरानी सोच के खिलाफ महिलाएं
आज के तथाकथित मौडर्न जमाने में भी हमारे समाज में ज्यादातर लोगों का मानना है कि महिलाओं के लिए केवल घर और बच्चों की देखभाल का काम करना ही उचित है और उन्हें बाहर जा कर काम करने की जरूरत नहीं है. इस सामाजिक दबाव और प्रेरणा की कमी के कारण आज भी हमारे समाज में 80 प्रतिशत महिलाएं ऐसा ही कर रही हैं. आज भी हमारे देश में कामकाजी महिलाओं की आबादी कामकाजी पुरुषों की तुलना में आधे से भी कम है.
मगर क्यों? एक स्त्री केवल घरपरिवार संभालने के लिए ही बनी है? स्त्री के लिए शादी करना और बच्चे को जन्म देना अनिवार्य क्यों माना जाता है? यह तो व्यक्तिगत चौइस होती है. वह आत्मनिर्भर जिंदगी जीना चाहती है तो इस में गलत क्या है?
आत्मनिर्भरता और रुतबा भी जरूरी
यदि स्त्री कामकाजी है, रुपए कमाती है और बच्चे पैदा करने के बजाय अपनी पहचान बनाना चाहती है तो इसे बुरा क्यों समझा जाए? जौब करने वाली महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती हैं. सम्मानित जिंदगी जीती हैं. कुछ समय पहले की गई एक स्टडी में भी यह पाया गया था कि वर्किंग वुमन अपनी जिंदगी में ज्यादा खुश रहती हैं. आत्मनिर्भरता आप को अपने जीवन से जुड़े निर्णय लेने का विकल्प देती है. आप को पैसे या चीजों के लिए किसी और पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है. अपने पैसे खुद कमा कर खर्च करने में जो खुशी, आत्मसम्मान और एक पावर फील होती है वह कोई और नहीं दे सकता चाहे आप का पति आप को कितना ही प्यार क्यों न करता हो.
पति, घर, बच्चा, किचन यह हर औरत की लाइफ में होता है. इस में भी कुछ गलत नहीं है. लेकिन सिर्फ उतने को दुनिया मान लेना, यह सोच गलत है. बाहर जा कर काम करने और पैसा कमा कर लाने से एक तरह का आत्मसम्मान और एक सैल्फ वर्थ की फीलिंग आती है. आत्मविश्वास बढ़ता है.
आप समाज में अपनी स्किल्स का, अपनी एजुकेशन का सही उपयोग करती हैं. घर के कामों के लिए किसी औरत को आज तक कोई अवार्ड नहीं दिया गया है. लेकिन औफिस में अच्छा काम करने पर अवार्ड मिलता है. आप का अपना एक अलग वजूद, एक पर्सनैलिटी बनती है. आप के अंदर एक सैटिस्फैक्शन आता है. बुढ़ापे में आप को पैसों के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है. आप के पास अपने दोस्तों का नैटवर्क होता है. आप खुद को कंप्लीट महसूस करती हैं.
यही नहीं, आप आत्मनिर्भर हैं तो अपने पेरैंट्स का खयाल रख पाती हैं. आप उन पर रुपए खर्च कर सकती हैं. उन की जरूरत की चीजें ला सकती हैं. हर सुखसुविधा मुहैया करा सकती हैं.
वर्किंग मौम हैं बेहतर
वर्किंग मौम को भले ही बच्चों को समय न दे पाने का एक गिल्ट होता है लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी मां के बच्चे कहीं ज्यादा कौन्फिडेंट, सैल्फ डिपेंडेंट और मैच्योर होते हैं. साथ ही, उन्हें एक बात अपने बचपन से ही सीखने को मिलती है कि मम्मियां सिर्फ घर का काम और परिवार की देखभाल ही नहीं बल्कि और भी बहुतकुछ संभाल सकती हैं.
हाल में एक शोध से भी यह साबित हुआ है कि वर्किंग मौम के बच्चे बड़े होने पर अधिक खुश रहते हैं. वे घर पर रहने वाली मांओं के बच्चे की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं.
हार्वर्ड बिजनैस स्कूल के शोधकर्ताओं ने 29 देशों में 1,00,000 से अधिक पुरुषों और महिलाओं पर सर्वे किया. इस में भारत की महिलाएं भी शामिल थीं. इस सर्वेक्षण का उद्देश्य यह पता लगाना था कि वर्किंग मौम होने पर बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है. वे औफिस में काम करने पर घर के लिए कितना समय दे पाती हैं.
इस अध्ययन में यह बात सामने आई कि वर्किंग मौम के बच्चे घर पर रहने वाली मांओं के बच्चों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं. कामकाजी मांओं के पास समय की कमी होती है, यह बात बच्चे भी समझते हैं. इस तरह वे समय की क्वांटिटी से ज्यादा क्वालिटी को बेहतर तरीके से समझने लगते हैं. बच्चे भी उन के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताने के लिए तत्पर रहते हैं. वे उन की बातों और प्रयासों को हलके में नहीं लेते हैं. धीरेधीरे वे उन्हें अपना रोल मौडल मान लेते हैं.
वर्किंग मौम के साथ बड़ी होने वाली बेटियां अपने घर पर रहने वाली मांओं की बेटियों की तुलना में 23 प्रतिशत अधिक कमाती हैं. वहीं यह भी पाया गया है कि जिन लड़कों की मां वर्किंग होती हैं, वे अपने औफिस में फीमेल कलीग के साथ अधिक सपोर्टिव होते हैं. वे जेंडर इक्वैलिटी में विश्वास करते हैं. वर्किंग मौम के ज्यादातर बच्चे डेकेयर में बड़े होते हैं. इसलिए उन में सोशलाइजेशन और कम्युनिकेशन स्किल अच्छी तरह डैवलप होता है.