‘दिशा वाम वाम वाम, समय साम्यवादी’-यह लिखा था हिंदी के कवि शमशेर बहादुर सिंह ने साम्यवाद और वामपंथ की ऐतिहासिक अनिवार्यता के बारे में. यह कविता तब लिखी गई थी जब आधी दुनिया लाल थी. साम्यवादी सोवियत संघ महाशक्ति था और अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद को चुनौती देता था. पूर्वी यूरोप के देश हंगरी, चैकोस्लोवाकिया, पोलैंड, पूर्वी जरमनी उस के उपनिवेश थे.

बाल्कान के देशों–यूगोस्लाविया, रूमानिया, अलबानिया आदि में भी कम्युनिज्म की तूती बोलती थी. दुनिया की सब से ज्यादा आबादी वाला चीन माओवाद के रास्ते से तरक्की कर रहा था.  इस के अलावा वियतनाम, कंबोडिया, उत्तरी कोरिया, क्यूबा, लाओस आदि में साम्यवाद का झंडा फ हराता था. दुनिया के ज्यादातर देशों में कम्युनिस्टों व वामपंथी दलों के नेतृत्व में मजदूर और किसानों के जुझारू आंदोलन चलते थे, जहां ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे गूंजते थे. तब एक सपना पलता था कि धीरेधीरे सारी दुनिया लाल हो जाएगी. एक नई सुबह आएगी, जब शोषण और दमन खत्म हो कर नई खुशहाली आएगी. लेकिन वह सपना टूट गया, इसलिए टूट गया क्योंकि कम्युनिज्म का सपना दुस्वप्न साबित हुआ लोगों के लिए. सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप एबाल्कान में साम्यवादी साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह ढह गया. कम्युनिस्ट देश चीन पूंजीवादी हो कर बाजारू अर्थव्यवस्था की शरण में चला गया. उस ने बोर्ड तो कम्युनिज्म का लगा रखा है पर वहां माल पूंजीवाद का बिक रहा है. यह तो साम्यवादी विचारधारा की जड़ों पर कुठाराघात  था. महाशक्ति  अमेरिका को धूल चटा देने वाले हो ची मिन्ह का वियतनाम अब अमेरिका के सामने मदद के लिए कटोरा फैला रहा है. फिदेल कास्त्रो का क्यूबा साम्यवाद का म्यूजियम बन कर अब भी किसी तरह जिंदा है. वह भी अंकल सैम की तरफ  दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है.

जब सारी दुनिया को साम्यवाद का प्रकाश देने वाले देश एकएक कर ढह गए तो विश्व साम्यवाद भी राह से भटक गया. कई जगह तो साम्यवादी पार्टियों ने लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा को अपना लिया. नेपाल जैसे देशों में तो माओवादियों ने भी संसदीय लोकतंत्र की राह पकड़ ली. साम्यवाद के इस विखंडन का सब से बड़ा असर मनोवैज्ञानिक था. पहले आम कम्युनिस्ट में यह विश्वास होता था कि कम्युनिज्म आ कर ही रहेगा, वह ऐतिहासिक अनिवार्यता है. लेकिन वह भावना चूरचूर हो गई. दुनियाभर की कम्युनिस्ट पार्टियां उस का बुरी तरह शिकार हुई हैं.  आखिर ऐसा क्या हो गया कि जो विचारधारा देखतेदेखते सारी दुनिया पर छा जाती हुई लग रही थी वह अचानक कहां खो गई? दुनिया को लाल बनाने का सपना कहां गुम हो गया? कुछ इतिहास और अर्थशास्त्र के अध्येताओं का कहना है कि दुनिया केवल सपने से नहीं अर्थशास्त्र के कठोर नियमों से चलती है. आखिरकार वही व्यवस्थाएं, वही सभ्यताएं जीती हैं जो अर्थशास्त्र के नियमों और मानव मन की गहरी समझ के बल पर खड़ी होती हैं.

पूंजीवाद एक ऐसी ही व्यवस्था है और इसीलिए वह कई सदियों से अपना अस्तित्व बनाए हुए है. पिछली 3-4 सदियों में उस ने बहुत सारे देशों और करोड़ों लोगों को खुशहाल बनाया है, फिर भी जिंदा है और अपना निरंतर पुनर्नवीनीकरण भी कर रहा है. इस के विपरीत साम्यवाद समृद्धि और समानता की बात करता है लेकिन वह दरिद्रता का दर्शन है और गरीबी का अर्थशास्त्र है. यही वजह है कि वह पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था के सामने टिक नहीं पाया और अपने अंतर्विरोधों के बोझ से दब कर खत्म हो गया. मजदूर तो कम्युनिज्म के नाम से ही दूर भाग रहे हैं. क्यों न भागें? कम्युनिज्म उन्हें जो देने का वादा करता था उस से कहीं ज्यादा तो शोषक पूंजीवाद ने दे दिया. अब तो यह भी अपील नहीं की जा सकती कि दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. क्योंकि पश्चिमी देशों में पूंजीवादी व्यवस्थाओं ने उन का भरपूर शोषण करने के बावजूद उन्हें मालामाल कर दिया. वहां मजदूर पहले की तरह कड़का, सर्वहारा  नहीं रहा. उस के पास खोने के लिए बहुत कुछ है–फ्लैट है, गाड़ी है, टीवी है, फ्रि ज है, एसी है, मोटी बीमा पौलिसियां हैं. जब मनी हो और हनी हो तो फि र भला वह क्रांति, भ्रांति के चक्कर में क्यों पड़ेगा.

पिछले कुछ वर्षों में साम्यवाद और समाजवाद बीते जमाने की बात हो गए और ज्यादातर देशों को विकास का पूंजीवादी रास्ता ही रास आ रहा है. वक्त ने कुछ ऐसी पलटी मारी कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के जमाने में यह कहने की नौबत आ गई. दिशा दक्षिण दक्षिण दक्षिण, समय पूंजीवादी यानी कवि ने कभी जो कहा था कि ‘दिशा वाम वाम वाम, समय साम्यवादी’ आज फिट नहीं है. फिर ऐसे में साम्यवादी विचारधारा और आंदोलनों का भविष्य क्या होगा? क्या यह माना जाए कि कम्युनिज्म के साथ मनुष्यता का  समता पर आधारित समाज का सपना भी खत्म हो गया?

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिज्म के पतन का असर बाकी दुनिया की तरह भारत पर भी पड़ा है. कभी कम्युनिस्ट पार्टियां भारत में कम्युनिस्ट क्रांति का सपना देखते हुए नारा लगाती थीं : ‘लालकिले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान.’ लेकिन वक्त के सितम तो देखिए कि कुछ ही दशकों में देश का कम्युनिस्ट आंदोलन टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखर गया. कभी देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां इतनी कमजोर हो चुकी हैं. भारत की मूल साम्यवादी पार्टी थी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी भाकपा. तब कम्युनिस्ट पार्टी सही माने में अखिल भारतीय पार्टी थी. देशभर में उस का प्रभाव था. 1964 में चीन के भारत पर हमले को ले कर पार्टी में फूट पड़ गई. इन में से भाकपा रूस परस्त पार्टी थी जो अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से सोवियत संघ पर निर्भर होती थी. वह इस कदर सोवियत संघपरस्त थी कि मास्को में बारिश होती थी तो भाकपाई कामरेड हिंदुस्तान में छाता तान लेते थे. इसलिए सोवियत संघ का विघटन भाकपा के लिए तो जानलेवा साबित हुआ. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट माकपा ने सोवियत संघ और चीन दोनों से समान दूरी बनाए रखी पर वह सोवियत संघ की नाकामी व चीन  के भटकाव का विश्लेषण करतेकरते खुद भी भटक गई. उस के वैचारिक भटकाव ने सारे काडर को भी प्रभावित किया.

माकपा का उजड़ना

जिस पश्चिम बंगाल पर 34 बरसों तक माकपा निरंतर शासन करती रही वहां वह इतनी बुरी तरह हारी कि उस के लिए फिर से उठ खड़े होना मुश्किल हो रहा है. केरल में जहां वह बारीबारी से कांग्रेस के मुकाबले सरकार में रहती थी वहां भी हार चुकी है. छोटे से राज्य त्रिपुरा में ही उस की सरकार बची है. उस की सरकार के अलावा सबकुछ उजड़ गया महान क्रांतिकारी नेता प्रकाश करात के महासचिव रहते. इसलिए राजनीतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि प्रकाश करात पार्टी में नीतियों का नया प्रकाश लाने के बजाय सैद्धांतिक  कट्टरतावाद का अंधेरा ले कर आए जो पार्टी की चुनावी पराजय का कारण बना. अब उन की जगह सीताराम येचुरी महासचिव बने हैं. येचुरी उदारवादी हैं, इस का मतलब केवल इतना है कि वे करात की तरह सैद्धांतिक मामलों में कट्टर ही हैं मगर वे कांग्रेस के साथ सहयोग करने को भी तैयार हैं. आज हालत यह है कि केवल कम्युनिस्ट एकता से बात नहीं बनेगी. देश के वाम आंदोलनों में जान फूंक कर उन्हें माकपा से जोड़ने का कोई खाका भी येचुरी के पास नहीं है. इस समय देश में 30 वाम संगठन हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की सब से त्रासदी यह है कि वैचारिक पाखंड उन का स्वभाव बन गया है. माकपाभाकपा संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी कर तो रही हैं लेकिन उन्होंने सर्वहारा की तानाशाही जैसी अपनी लोकतंत्र विरोधी अवधारणाओं को छोड़ा भी नहीं है. ऐसे में कैसे माना जाए कि वे लोकतांत्रिक हैं. वे मानव अधिकारों की बात करती हैं मगर उन्होंने स्तालिन और माओ जैसे अपने नेताओं को नकारा नहीं है जिन के हाथ लाखों निर्दोष लोगों के खून से रंगे हुए हैं. ऐसी स्थिति में सिर्फ  यही कहा जा सकता है कि कम्युनिस्ट पार्टियां लोकतांत्रिक होने का ढोंग कर रही हैं ताकि संसदीय राजनीति में हिस्सा ले सकें जबकि मार्क्सवाद की लोकतंत्र विरोधी अवधारणाओं से उन्होंने मुक्ति नहीं पाई है.

इसी तरह उन का आर्थिक एजेंडा भी स्पष्ट नहीं है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि साम्यवाद की उत्पादन और वितरण  के साधनों पर सरकारी स्वामित्व और नियोजित अर्थव्यवस्था की जिद देश को विकास के पथ पर नहीं ले जा सकती. क्योंकि चाहे जो कर लो सरकारी अफसरों को न उत्पाद से दिली मतलब है न सेवा से. सरकारी अफसर जनता पर राज करना चाहता है और वह भी निरंकुश और यही फार्मूला वह सरकारी उद्योगों में अपनाता है, जहां कर्मचारी और उपभोक्ता, जनता दोनों वे पक्ष हो जाते हैं, जिन्हें लूटना है, जिन की सेवा नहीं करनी. माकपाभाकपा इसे छोड़ने को कतई तैयार नहीं हैं. जबकि चीन के अनुभव ने बता दिया कि खुले बाजार की व्यवस्था यानी उत्पादन को सरकारी चंगुल से निकाल देना को अपनाकर किस तरह तेजी से प्रगति की जा सकती है. डेंग सियाओपिंग ने चीन के कम्युनिस्टों को सब से पहली बात तो यह समझाई कि साम्यवाद का मतलब गरीबी नहीं होता. साम्यवाद और समृद्धि का कोई बैर नहीं है. इसी संदर्भ में वे कहते थे कि जब तक बिल्ली चूहे पकड़ती है तब तक इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वह काली है या सफेद है.

नाकाम साम्यवाद

भारतीय  कम्युनिस्ट पार्टियां कभी  डेंग को समझ ही नहीं पाईं, इसलिए बंदरिया की तरह मरे हुए सिद्धांतों के बच्चों को छाती से लगा कर बैठी हैं. माकपा ने चीन के आर्थिक मौडल को सराहने के बजाय हमेशा उस की तीखी आलोचना की है और कहा कि इस के कारण चीन में असमानता और भ्रष्टाचार बढ़ा है. माकपा की दुविधा यह है कि सोवियत संघ बिखर गया. चीन साम्यवाद के रास्ते से भटक गया. वियतनाम और क्यूबा ने ऐसा कुछ कमाल किया नहीं जिसे मौडल माना जा सके. ऐसी स्थिति में किसी न किसी का अनुकरण करने वाली माकपा किसे अपना मौडल माने? हर बार की तरह उस ने इस बार भी कहा है कि वह भारत के लिए अपना अलग मौडल बनाएगी. लेकिन उस मौडल की कोई रूपरेखा नजर नहीं आती. उस के पास वितरण के न्याय का तो लंबाचौड़ा एजेंडा है लेकिन वितरण करने  के लिए पहले उत्पादन बढ़ाने और ऊंची विकास दर को हासिल करना जरूरी है, लेकिन उस का कोई एजेंडा पार्टी के पास नहीं है. एक बात तो स्पष्ट है कि साम्यवाद के तरीके कम से कम उत्पादन बढ़ाने के मामले में नाकाम साबित हो चुके हैं, इसलिए चीन को बाजारवाद की राह अपनानी पड़ी.

बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे खांटी कम्युनिस्ट भी आर्थिक सुधार आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण की बातें करने लगे. लेकिन माकपा ने कसम खा रखी है कि वह नहीं सुधरेगी. दरअसल, विकास जैसे मुद्दे पर माकपा की सोच बाबा आदम के जमाने की है. माकपा की विकास की सोच इतनी उलटी है कि उस ने औद्योगिक तौर पर उन्नत पश्चिम बंगाल को अपने शासनकाल में औद्योगिक रेगिस्तान बना दिया. सारे उद्योगधंधे खत्म हो गए. उस का सारा जोर कृषि के विकास पर ही केंद्रित रहा. नतीजतन, पश्चिम बंगाल का सारा विकास अवरुद्ध हो गया क्योंकि कृषि पर आधारित विकास की अपनी सीमाएं हैं. बुद्धदेव भट्टाचार्य के समय में फिर औद्योगिक विकास किए जाने की कोशिश शुरू हुई, जो कामयाब नहीं हो पाई. लेकिन यह सब माकपा की विकास के मामले में तुगलकी सोच का ही नमूना था. जिस तरह माकपा ने पश्चिम बंगाल और केरल का विकास नहीं होने दिया, वैसे ही अब वह उदारीकरण के कानूनों का विरोध कर के देश के विकास में अड़ंगे लगा रही है. ऐसी किसी पार्टी के प्रति लोग क्यों आकर्षित होंगे जो औद्योगिक विकास को ले कर इतनी लापरवाह है. ऐसी पार्टियों की जगह तो इतिहास के कूड़ेदान में होती है. हाल ही में पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव ने स्पष्ट कर दिया कि जनता माकपा को भूल चुकी है.

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