1950 में भारतीय महिलाओं को पुरुषों के साथ वोट देने का अधिकार दिया गया जिस के दम पर महिलाओं ने घर की चारदीवारी से निकल कर राष्ट्र निर्माण के स्वाद को चखा. 1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव हुए और देश के स्वर्णिम भविष्य का सफर शुरू हुआ जिस में महिलाओं की भागीदारी को भी उतनी ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी जितनी पुरुषों को. लेकिन अफसोस की बात है कि देश की स्वत्रंतता के लिए कंधे से कंधा मिला कर लड़ने वाली इस आधी आबादी को धीरेधीर हाशिए पर धकेल दिया गया. उन्हें केवल परंपरा के नाम पर घर के किचन से पूजापाठ, धर्मकांडों और शोभायात्राओं तक सीमित कर दिया गया. आजादी में उन की भागीदारी को सराहा तो गया, पर जब बात आई नेतृत्व की तो उन्हें इस पुरुष प्रधान देश में नाकाबिल समझ दरकिनार कर दिया गया. जो कोई नई बात नहीं थी.

प्राचीनकाल से ही महिलाओं को समानता की दृष्टि नहीं देखा जा रहा. कमजोर और कमतर समझ कर उन की अवहेलना की जाती रही है. वर्तमान लोकसभा में कुल 542 सदस्य हैं, जिन में से केवल 78 महिलाओं की सदस्यता तो इसी बात को साबित करती है.

आजादी से पहले से और अब तक ऐसे कितने ही नाम हैं जो महिलाओं की चिरपरिचित कमजोर और अबला नारी की छवि को बदलने की कोशिश करते रहे हैं, जिन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना कर उस छवि को तोड़ने की कोशिश की है जैसे मैडम बीकाजी कामा, जिन्होंने लंदन, जरमनी और अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया. इन 1के लेख और भाषण क्रांतिकारियों के लिए अत्यधिक प्रेरणास्रोत बने.

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