1950 में भारतीय महिलाओं को पुरुषों के साथ वोट देने का अधिकार दिया गया जिस के दम पर महिलाओं ने घर की चारदीवारी से निकल कर राष्ट्र निर्माण के स्वाद को चखा. 1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव हुए और देश के स्वर्णिम भविष्य का सफर शुरू हुआ जिस में महिलाओं की भागीदारी को भी उतनी ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी जितनी पुरुषों को. लेकिन अफसोस की बात है कि देश की स्वत्रंतता के लिए कंधे से कंधा मिला कर लड़ने वाली इस आधी आबादी को धीरेधीर हाशिए पर धकेल दिया गया. उन्हें केवल परंपरा के नाम पर घर के किचन से पूजापाठ, धर्मकांडों और शोभायात्राओं तक सीमित कर दिया गया. आजादी में उन की भागीदारी को सराहा तो गया, पर जब बात आई नेतृत्व की तो उन्हें इस पुरुष प्रधान देश में नाकाबिल समझ दरकिनार कर दिया गया. जो कोई नई बात नहीं थी.
प्राचीनकाल से ही महिलाओं को समानता की दृष्टि नहीं देखा जा रहा. कमजोर और कमतर समझ कर उन की अवहेलना की जाती रही है. वर्तमान लोकसभा में कुल 542 सदस्य हैं, जिन में से केवल 78 महिलाओं की सदस्यता तो इसी बात को साबित करती है.
आजादी से पहले से और अब तक ऐसे कितने ही नाम हैं जो महिलाओं की चिरपरिचित कमजोर और अबला नारी की छवि को बदलने की कोशिश करते रहे हैं, जिन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना कर उस छवि को तोड़ने की कोशिश की है जैसे मैडम बीकाजी कामा, जिन्होंने लंदन, जरमनी और अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया. इन 1के लेख और भाषण क्रांतिकारियों के लिए अत्यधिक प्रेरणास्रोत बने.
विजयलक्ष्मी पंडित, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की बहन थीं, वर्ष 1953 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनने वाली वे विश्व की पहली महिला रहीं. वे राज्यपाल और राजदूत जैसे कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रहीं. एक सफल राजनीतिक जीवन जिया.
अरुणा आसफ अली एक स्वतंत्रता सेनानी थीं. वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने मुंबई के गोवालिया मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराया था. आजादी के बाद वे राजनीति में आईं. 1958 में दिल्ली की मेयर नियुक्त हुईं.
सरोजिनी नायडू, वे अपने पिता की ही भांति एक नामी विद्वान और कवयित्री थीं. उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गईं. नमक आंदोलन के दौरान वे गांधी के साथ रहीं. भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं.
इंदिरा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं. वे देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री रहीं. 4 बार भारत गणराज्य की प्रधानमंत्री रहीं, जिस में चौथी बार में उन की राजनीतिक हत्या कर दी गई.
सुचेता कृपलानी, एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी एवं राजनीतिज्ञ थीं. वे भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री बनीं, जिस में उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला. जैसे बड़ेबड़े नाम की औरतें ‘एक अच्छा लीडर साबित नहीं हो सकतीं’ वाले मिथक को तोड़ने में नाकाम साबित हुए. और जबतब औरतों की लीडरशिप की अवहेलना की जाती रही और उन पर सवाल उठाए जाते रहे.
सवाल यह नहीं था कि महिलाएं नाकाम हैं या पुरुषों से किसी भी तरह कमतर हैं. मुद्दा यह था कि उन के नीचे काम करना इस पुरुष प्रधान मानसिकता से दूषित समाज को नागवार गुजरता था. यही वजह थी कि इन मजबूत महिला शख्सियतों ने जिस रास्ते की शुरुआत की थी, वह उस तेजी से रफ्तार नहीं पकड़ पाया जैसे पकड़ना चाहिए था.
क्या थी इस की वजह?
परंपरागत बेड़ियां
वैदिक काल से ही भारत अपनेआप को विश्व गुरु कहलवाता रहा है, लेकिन ऐसा विश्व गुरु जो परंपरा की बेड़ियों तले औरतों को केवल पूजापाठ और धर्मकर्म में उलझाए रखना चाहता है. सुबह भगवान का नाम लो और शाम को भगवान का नाम लो और इस तरह सारे काम सफल हो जाएंगे. कर्मों की सही व्याख्या जैसे उन्हें समझाने की कोशिश ही नहीं की गई. व्यापक भजनकीर्तन में उन की उपस्थिति को अनिवार्य बना दिया गया. वेदपुराणों के पाठ उन के लिए आवश्यक कर दिए गए, जिन में उन के अधिकारों की बात तक नहीं की जाती है.
पितृत्तात्मक सोच और परंपरा के तले आधी आबादी को विकास के संपूर्ण मौके नहीं दिए गए. जिसे आधी आबादी केवल वोट बैंक से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं देती. यह बाकी दुनिया से भिन्न तो नहीं है, लेकिन पश्चिम के देशों ने जिस तरह विकास के साथसाथ महिलाओं को राजनीति में प्रोत्साहन एवं मौके दिए हैं भारत जैसा दुनिया की तीसरी सब से बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला देश ऐसा नहीं दे पा रहा.
महिलाओं को आज भी एक आश्रित की तरह लिया जा रहा है. कमजोर अबला और कठोर निर्णय लेने में अक्षम समझ हाशिए पर धकेला जा रहा है, जबकि सचाई यह है कि मौके मिलने पर वे किसी भी पुरुष से अच्छा प्रदर्शन कर के दिखा रही हैं. दुनियाभर में अपनी बुद्धिमत्ता और लीडरशिप का लोहा मनवा रही हैं.
गल्फ देशों को छोड़ दिया जाए, तो दुनिया का हर देश उन्हें उन की योग्यता के अनुसार मोके दे रहा है, जिस पर वे खरी उतर रही हैं. लेकिन भारत में आप को राजनीति में उन की सक्षम भागीदारी बहुत कम देखने को मिलेगी.
संविधान के द्वारा उन्हें समानता दिलाने के प्रयास तो किए गए, लेकिन आज के परिदृश्य में ये प्रयास केवल कागजी और नाकाफी से दिखाई पड़ते हैं, खासकर राजनीति में.
पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अग्रणी होने से रोकता आया है. राजनीति उस से अलग नहीं है. घरों की चारदीवारी में जिन के फैसलों की कदर नहीं की जाती. पिता, भाई और बेटे द्वारा जिन्हें कदमकदम पर रोका जाता है. राज्य और राष्ट्र के मुखिया के तौर पर उन के फैसलों का समर्थन करना उस के पुरुषार्थ पर चोट करता है. जो समाज स्त्री को जायदाद और सेवक की तरह भोगता आया हो, वह उस के मजबूतीकरण के लिए काम करेगा, इस में संदेह है. शायद यही कारण है कि महिला आरक्षण विधेयक जो कि संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों का आरक्षण सुनिश्चित कर सकता है, पर आज तक चुप्पी सधी हुई थी, जिसे 18 अगस्त, 2023 को फिर से हवा देने का काम किया गया. केंद्र की कैबिनेट बैठक में इस बिल को मंजूरी दे दी गई. पर लागू होने में अभी वक्त लगेगा.
बना चुकी हैं पहचान
देश की महिलाओं और संविधान के अब तक के प्रयासों के फलस्वरूप वर्तमान में महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और कारपोरेट जगत में अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. यदि राजनेता ये समझते हैं कि महिलाएं देश नहीं चला सकतीं और इसलिए वे उन्हें चुनावी टिकट देने से कतराते हैं तो उन्हें देश के अदंर बड़ीबड़ी कंपनियों को स्थापित भी कर रही हैं और चला भी रही हैं.
कंपनियों की महिला प्रबंधकों का बोलबाला
नायका एक ब्यूटी स्टार्टअप, जो देश की सब से बड़ी कंपनियों में शामिल हो गया है, की फाउंडर फाल्गुनी नायर, बायोकौन की संस्थापक किरण मजूमदार शा, फोर्ब्स सूची में भारत की 5वीं सब से अमीर महिला घोषित की जा चुकी हैं.
किरण मजूमदार शा भारत की सब से बड़ी लिस्टेड बायोफार्मास्युटिकल कंपनी बायोकौन की फाउंडर हैं. यह दवा उत्पादन के क्षेत्र की बड़ी कंपनी है.
वंदना लूथरा आज देश की सब से बड़ी और प्रतिष्ठित भारतीय उद्यमियों में से एक हैं. वे वीएलसीसी हैल्थ केयर लिमिटेड की संस्थापक और ब्यूटी एंड वेलनैस सैक्टर स्किल एंड काउंसिल की चेयरपर्सन भी हैं.
ये सभी और इन के जैसी कितनी महिलाएं हैं, जो हजारोंकरोड़ रुपयों का कारोबार संभाल रही हैं. तो महिलाएं देश चलाने के काबिल कैसे नहीं? उन्हें महिलाओं को कमतर समझने से पहले इन की तरफ भी देखना चाहिए.
6 बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही जयललिता एक अभिनेत्री से राजनीति में आईं. तकरीबन 300 से ज्यादा मूवीज देने वाली जयललिता को ‘अम्मा’ के नाम से जाना जाता था. तमिलनाडु की जनता के बीच वे इस उपनाम से काफी फेमस रहीं. अम्मा कैंटीन, जिस में सस्ते में पेटभर खाना मिल जाता था, के लिए वे आम तमिल के दिलों में जगह बनाती चली गईं.
15 वर्ष तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित, दिल्ली की दूसरी महिला मुख्यमंत्री थीं और देश की पहली ऐसी महिला मुख्यमंत्री थीं, जिन्होंने लगातार 3 बार मुख्यमंत्री पद संभाला.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तकरीबन 20 साल तक कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहीं. विदेशी मूल का होने के कारण उन का विरोध हुआ तो उन्होंने सत्ता छोड़ कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया.
कोलकाता में जनमी ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पद पर कार्यरत हैं. वहीं जम्मूकश्मीर की प्रथम मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती एक भारतीय राजनीतिज्ञ और जम्मूकश्मीर की 13वीं और एक महिला के रूप में राज्य की प्रथम मुख्यमंत्री हैं. वे जम्मूकश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी हैं.
मायावती 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं. बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, जो बहुजनों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और पान्थिक अल्पसंख्यकों के जीवन में सुधार के प्रयास करती हैं. वे भारत में किसी अनुसूचित जाति की पहली महिला मुख्यमंत्री रहीं.
ऐसे बड़ेबड़े और सफल नाम इस बात को साबित करते हैं कि यदि भारतीय राजनीति में महिलाओं को मौके दिए जाते हैं, तो वे किसी पुरुष से बेहतर करने की सामर्थ्य रखती हैं.
यदि इस पुरुष प्रथम वाली सोच को किनारे रख कर उन्हें मौके दिए जाएं तो राजनीति में उन की भागीदारी बेहतर हो पाती और समाज में उन की भागीदार और सशक्तीकरण की तरफ मजबूती से कदम उठाए जाते.
क्या है स्थिति
भारत के 28 राज्यों में से वर्तमान में केवल पश्चिम बंगाल में महिला मुख्यमंत्री हैं और 78 सदस्यों वाली मोदी कैबिनेट में केवल 11 सदस्य महिलाएं हैं. निर्मला सीतारमण भारत की वित्त मंत्री का पद संभाल रही हैं.
स्मृति ईरानी, 2019 से केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री और केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री का पद संभाल रही हैं.
मीनाक्षी लेखी, जो भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं, के अलावा निरंजन ज्योति, रेणुका सिंह सरुता, दर्शना जरदोश, प्रतिभा भौमिक, शोभा करंदलाजे, भारती पवार, अनुप्रिया पटेल, अन्नपूर्णा देवी शामिल हैं. इन में से कइयों के नाम शायद आप पहली बार सुन रहे होंगे. वहीं राज्य विधानसभाओं के मामले में महिला विधायक 9 फीसदी हैं.
भारतीय चुनाव आयोग की नवीनतम उपलब्ध रिपोर्ट के अनुसार, अक्तूबर 2021 तक संसद के सभी सदस्यों में से 10.5 फीसदी महिलाएं प्रतिनिधित्व करती हैं. भारतीय संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के बाद पंचायती राज संस्था में महिलाओं के लिए एकतिहाई सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है. पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी कुछ बढ़ी जरूर है, पर वे पंचायतों से आगे नहीं बढ़ पा रही है. उन्हें अभी भी केवल एक कठपुतली के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.
शिक्षा की कमी और हिंसा भी है कारण
सवाल उठता है कि राजनीति में महिलाओं की सशक्त भागीदार न हो पाने की क्या वजहें हैं?
राजनीति शिक्षा पर केंद्रित है. एक शिक्षित व्यक्ति अपने और दूसरों के अधिकारों की समझ रखता है. संविधान की समझ उसे इस काबिल बनाती है कि वह अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल कर सके. शिक्षा उसे ये मौके देती है. लेकिन महिलाओं में शिक्षा की कमी भी कहींकहीं इस की जिम्मेदार ठहराई जा सकती है.
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में महिला साक्षरता दर मात्र 64.46 फीसदी है, और यह भी केवल नगरों की मुख्य तौर पर, जबकि ग्रामीण महिला साक्षरता दर इस का आधा यानी 31 फीसदी है, जो राजनीति में उन की भागीदीरी के लिए एक बाधक तौर पर उभर कर सामने आती है.
महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा उन्हें राजनीति में आने से रोकती है. यह हिंसा उन के घर से ले कर उन के राइवल्स तक के द्वारा की जाती है. घर से निकलने के लिए उन्हें अपने घर में मौजूद पुरुष सदस्यों की इजाजत लेनी होती है, जिस के बिना वे किसी राजनीति छोड़िए, घर से बाहर भी नहीं निकल सकतीं. यदि वे निकलने की कोशिश करती हैं, तो उन्हें घर से बाहर करने की बातें कही जाती हैं, डरायाधमकाया जाता है और यहां तक कि मारपीट तक की जाती है.
यदि वे घर से निकलने में कामयाब हो जाती हैं, तो उन के पौलीटिकल राइवल्स उन्हें काम करने नहीं देते. उन्हें रोकने के लिए धमकियों भरे संदेश से ले कर गुंडे तक भेजे जाते हैं. बलात्कार से ले कर जान से मार देने या घर के किसी सदस्य तक को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाती है. न जाने ऐसी कितनी ही महिलाएं इस डर से राजनीति से जुड़ना नहीं चाहती. यही कारण है कि जो इस वक्त राजनीति में सक्रिय हैं, वे या तो जिन की पुश्तें राजनीति करती आई हैं या वे हैं जो संपन्न घरों से आती हैं जैसे प्रियंका गांधी, वसुंधरा राजे, महबूबा मुफ्ती वगैरह.
सवर्ण वर्गों की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी दलित महिलाओं से अधिक देखी गई. लेकिन उन में भी उन्हें केवल उन की पार्टी द्वारा वोटों के लिए मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया गया.
दलित महिला नेताओं में 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही मायावती और वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अलावा कोई नाम दिखाई नहीं देता. फिर भी ये बात कहीं से साबित नहीं होती कि महिलाएं किसी भी रूप से पुरुषों से कमतर हैं.
विश्व राजनीति में महिलाएं
भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बेशक कम हो, लेकिन विश्व में ये भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है. विकसित और विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं इस का सफल उदाहरण हैं.
जर्मनी की राजनीतिज्ञ और भूतपूर्व शोध वैज्ञानिक एंजेला डोरोथी मर्केल, लाइबेरिया की राष्ट्रपति एलेन जौनसन सरलीफ अफ्रीका में निर्वाचित पहली महिला राष्ट्रपति रहीं. चिली के राष्ट्रपति मिशेल बाचेलेट चिली की कमांडर इन चीफ के रूप में सेवा करने वाली पहली महिला हैं.
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति पार्क ग्यून – हाय दक्षिण कोरिया की पहली महिला राष्ट्रपति हैं. बेगम खालिदा जिया 3 बार बंगलादेश की प्रधानमंत्री रहीं और वर्तमान में प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद. 32 साल में पोलैंड की सब से युवा मेयर और बाद में प्रधानमंत्री बनी बीटा स्जाइड्लो. और अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस इस के अच्छे उदाहरण माने जा सकते हैं.
संसद में महिलाओं पर आईपीयू की वार्षिक रिपोर्ट में दिखाया गया है कि 1 जनवरी, 2021 तक राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं की वैश्विक हिस्सेदारी 25.5 फीसदी है, जो एक साल पहले के 24.9 फीसदी से मामूली वृद्धि है.
संयुक्त राष्ट्र महिला कार्यकारी निदेशक फुमजिले म्लांबो-न्गकुका ने कहा, “कोई भी देश महिलाओं की भागीदारी के बिना समृद्ध नहीं होता है. हमें महिलाओं के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है, जो सभी महिलाओं और लड़कियों को उन की विविधता और क्षमताओं और सभी सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों में प्रतिबिंबित करे.”
नए आंकड़ों के मुताबिक, महिलाएं 22 देशों में राज्य या सरकार के प्रमुखों की भूमिका निभा रही हैं, जो पिछले साल इस समय 20 देशों से अधिक है. 1 जनवरी 2021 तक, निर्वाचित राष्ट्राध्यक्षों में से 5.9 फीसदी, 152 में से 9 और 6.7 फीसदी शासनाध्यक्ष, 193 में से 13 महिलाएं हैं.
यूरोप के समृद्ध होने की शायद यही वजह कि वो महिला समानता को प्राथमिकता देता आया है. यूरोप में सर्वाधिक देशों का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं, जहां विश्व की 9 राष्ट्राध्यक्षों में से 5 महिलाएं हैं और विश्व की 13 शासनाध्यक्षों में से 7 महिलाएं हैं.
डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड और नार्वे जैसे नार्डिक देशों का नेतृत्व वर्तमान में महिलाओं द्वारा किया गया है. जब पश्चिम के विकसित देश, देश की कमान महिलाओं को सौंप सकते हैं तो भारत जैसा महिलाओं को देवी मान कर पूजता आ रहा देश ऐसा क्यों नहीं कर पा रहा है? यह सवाल उस वक्त तक पूछा जाता रहेगा जब तक कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सक्षम रूप से दिखाई नहीं देती. उन्हें राज्य और राष्ट्र दोनों ही स्तर पर मजबूती की जरूरत है. शिक्षा और सुरक्षा की सुनिश्चितता की जरूरत है. देखना होगा कि वह कब तक मुमकिन हो पाएगा.
महिला आरक्षण विधेयक कितना प्रभावी होगा
वर्षो से अधर में लटका महिला आरक्षण बिल 20 सितंबर, 2023 को लोकसभा और उस के बाद राज्यसभा में पास हो गया. लोकसभा में इसे 2 वोट के विरोध का सामने करना पड़ा, जबकि राज्यसभा में यह निर्विरोध पारित हो गया. यह बिल लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सभी सीटों में से एकतिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान करता है. लेकिन यह बिल प्रभावी होने में अभी वक्त लगेगा. आने वाली जनगणना से पहले इसे लागू कर पाना नामुमकिन है, जो वर्ष 2024 में होनी है.
जनगणना और परमीसन के बाद महिला आरक्षण विधेयक साल 2029 के लोकसभा चुनाव तक ही लागू हो पाएगा, ऐसी संभावना है. इस की समयावधि निश्चित है, जो 15 वर्ष रखी गई है, जिस का मतलब है कि 15 वर्ष बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा.
गलीमहल्लों से संसद तक पूरे देश में महिलाएं जोरशोर से इस का जश्न मना रही हैं. जैसे जो देश परंपराओं और संस्कारों के तले महिलाओं को दबाता आ रहा है, धर्मअधर्म के चंगुल में उन्हें फंसा के अंधविश्वास और अज्ञानता के अंधकार में धकेलता आ रहा देश इस बिल से एक झटके में बदल जाएगा. वेदपुराणों की कसौटी पर जहां हर वक्त महिलाओं को खरा उतरने की शिक्षा दी जाती है. जहां परिवार से ऊपर किसी संस्था के अस्तित्व को स्वीकारना उन के लिए एक अधर्म माना जाता है. जहां महिला साक्षरता दर अभी भी 65.46 है और जीवन के हर मोड़ पर उन्हें लैंगिक, शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी जाती हों. जिस धरती पर औरतों को निर्वस्त्र भीड़ द्वारा सड़कों पर घुमाया जाता है और प्रशासन इस पर महीनेभर बाद जागता हो. जहां आएदिन बच्चियों और महिलाओं के साथ रेप कर उन की हत्या कर दी जाती है और प्रशासन केवल मुंह ताकता रह जाता है. ऐसे देश में ये बिल कोई नई क्रांति ले कर आएगा, इस में संदेह है.
अभी तो इस बिल को पूरी तरह लागू होने में ही वक्त लगेगा. और फिर महिलाओं का जो तबका इस का लाभ उठा भी पाएगा वो केवल एक कठपुतली के समान उन की पार्टी के लिए काम करेगा, न कि समाज और देशहित के लिए, जो कि कोई नई बात नहीं है.
कुछ बदलाव हो, यह संभव है, परंतु महिलाओं को दबाए रखने का आदी रहा यह देश उन्हें राजनीति में कितनी सक्रिय भागीदारी देने देगा, देखना दिलचस्प होगा.