तीन प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों मध्यप्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अब गठबंधन की कहानी खत्म हो गई है और यह हो गया है कि अब सीधी टक्कर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होगी कुछ सीटों पर बसपा और दूसरे छोटे दल फर्क डालेंगे लेकिन उससे कांग्रेस की सेहत पर उतना फर्क नहीं पड़ना जितना कि गठबंधन होने से पड़ता. गठबंधन क्यों परवान नहीं चढ़ पाया या चढ़ने नहीं दिया गया इस का ठीकरा भले ही बसपा प्रमुख मायावती के सर फोड़ा जा रहा हो कि वे मनमानी और सौदेबाजी पर उतर आईं थीं लेकिन अब धीरे धीरे साफ हो रहा है कि दरअसल में खुद कांग्रेस भी नहीं चाहती थी कि वह छोटे मोटे दलों से हाथ मिलाकर चुनाव लड़े.

मध्यप्रदेश पर सभी की निगाहें थीं जहां सबसे ज्यादा 230 सीटें हैं गठबंधन के तहत बसपा यहां 52 सीटें मांग रही थी इसके अलावा सपा भी 7 सीटों की मांग कर रही थी. महकौशल इलाके के आदिवासी इलाकों में थोड़ी पैठ रखने वाली गौंडवाना गणतंत्र पार्टी की मांग 11 सीटों की थी तो निमाड इलाके में ख़ासी जमीन तैयार कर चुकी नई नवेली पार्टी जयस भी 20 से कम सीटों पर तैयार नहीं थी. यानि कांग्रेस महज 130 सीटों पर लड़ पाती इनमें से कितनी वह जीत पाती और कितनी सीटें उसके सहयोगी दल ले जा पाते इस पर भी शुबह बना रहता क्योंकि सीधी लड़ाई में भाजपा भारी पड़ती जिसकी बड़ी ताकत 53 फीसदी सवर्ण और पिछड़े वोट हैं.

कांग्रेस का यह डर अपनी जगह जायज था कि जहां जहां दलित आदिवासी उम्मीदवार बसपा गोगपा और जयस के उतरते वहां वहां सवर्ण एकजुट होकर भाजपा को जिता देता क्योंकि वह एक्ट्रोसिटी एक्ट और आरक्षण के मुद्दों पर प्रदेश व्यापी आंदोलन कर रहा है और अपनी अलग पार्टी सपाक्स भी बना चुका है. सपाक्स से कई रिटायर्ड आईएएस अधिकारी और दूसरे अफसर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं जिनका मकसद और मंशा जीत से ज्यादा भाजपा को सबक सिखाना है.

कांग्रेस की दूसरी बड़ी दिक्कत गठबंधन को लेकर अपने ही कार्यकर्ताओं की नाराजगी थी जो यह कहने लगे थे कि बसपा या दूसरे छोटे दल जमीनी तौर पर उतने मजबूत और असरदार हैं नहीं जितना इनका हल्ला मीडिया ने मचा रखा है. प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर चल रही है लिहाजा उसका फायदा उठाने कांग्रेस अपने दम पर अकेले लड़े जिससे वोटर में उसको लेकर भ्रम की स्थिति न रहे कि अगर भाजपा को सत्ता से बाहर किया तो पहली दफा गठबंधन वाली सरकार को झेलना पड़ेगा. इन कार्यकर्ताओं की दूसरी वजनदार दलील यह थी कि दलित और आदिवासी दलों के साथ लड़ने से पार्टी का सवर्ण वोट पूरी तरह कट सकता है. दूसरे जयस और गोगपा जैसे दलों ने तो शर्त यह भी थोप दी थी कि अगर गठबंठन जीता तो मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय का होगा और इसकी घोषणा भी पहले ही होगी.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने सब्र से काम लेते गठबंधन की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कि लेकिन सबको मिलजुल कर भाजपा को बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए जैसी बातें जरूर वे करते रहे जिससे बौखलाई मायावती को अलग चुनाव लड़ने की घोषणा करनी पड़ी. यही सोनिया और राहुल गांधी भी चाहते थे कि 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर मायावती से ताल्लुक बिगाड़े बिना बात बन जाये. जाहिर है कांग्रेस लोकसभा चुनाव के लिए उत्तरप्रदेश में अपनी बदहाली को लेकर किसी खुशफहमी का शिकार नहीं है. अगर इन तीन राज्यों में वह बेहतर प्रदर्शन कर पाई या अपने बूते पर सत्ता पर काबिज हो पाई तो उत्तरप्रदेश में अपनी शर्तों पर सौदेबाजी कर पाएगी .

गठबंधन न हो पाने की स्थिति में भी अधिकतर सर्वे कांग्रेस को राहत देने वाले हैं जिनमे त्रिकोणीय विधानसभा की बात कोई नहीं कर रहा तो इसकी वजहें भी हैं राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को मतदाता की जबरजस्त नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है तो छत्तीसगढ़ को लेकर भी कोई नहीं कह रहा कि अजीत जोगी की वैसाखियों के सहारे बसपा कोई चमत्कार कर पाएगी. जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस का यह पहला चुनाव है उसका प्रभाव क्षेत्र भी बिलासपुर संभाग ज्यादा है जहां बसपा पहले से ही मजबूत है ऐसे में ये दोनों मिलकर 10 सीटें भी जीतने की हालत में नहीं हैं जबकि मायावती कांग्रेस से 15 – 20 सीटों की मांग पर अड़ी थीं.

कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में गठबंधन न करने का जोखिम उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी दुर्दशा देखते हुए भी उठाया है जहां गठबंधनों और वोटों की शिफ्टिंग के चलते वह दौड़ में नहीं है. तीन राज्यों में भी चुनावों में बड़ा फैक्टर जाति ही है जिसकी राजनीति में कांग्रेस खासतौर से बसपा को अपने वोटों के सहारे एंट्री नहीं देना चाहती. कांग्रेस का एक और बड़ा डर मायावती की पलटीमार इमेज भी है, जैसे ही उन्होंने अकेले लड़ने का ऐलान किया तो यह चर्चा भी तेज हुई कि तीन राज्यों में भाजपा को फायदा पहुंचाने के एवज में सौदा उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाए जाने का हुआ है.

जबकि सच यह है कि इस चुनाव में भाजपा की राह आसान नहीं है नरेंद्र मोदी के नाम के सहारे तीन राज्यों की सत्ता बरकरार नहीं रखी जा सकती और उसके तीनों मुख्यमंत्री भी जनता की नाराजी का सामना कर रहे हैं. कांग्रेस बसपा का गठबंधन का न होना उसके लिए राहत की कम आफत की बात ज्यादा है क्योंकि सीधी लड़ाई में सत्ता विरोधी वोटों का सीधा फायदा कांग्रेस को होगा .

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