उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चरण पूरे भक्ति भाव से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने छुए. गनीमत की बात यह रही कि श्रद्धा के अतिरेक में उन्होंनेयोगी के पांव धोकर पानी यानि चरणामृत नहीं पिया, नहीं तो देश में इस तरह के दृश्य भी आम हैं कि घर में आरओ या फिल्टर का पानी पीने वाले सभ्य शहरी भी बाबाओं, पंडों और संत महात्माओं के मैले कुचेले पैर धोकर गंदा पानी से हिचकते नहीं. तब इन्हें पेट के किसी इन्फेक्शन या एमीबायोसिस का डर नहीं लगता. गौरतलब है कि सितंबर के तीसरे हफ्ते में ही झारखंड के गोड्डा जिले में कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं ने सांसद निशिकांत दुबे के पैर धोकर पानी सरेआम पिया था.

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छोटी डिग्री वाले ही सही पेशे से डाक्टर रमन सिंह इस हद तक नहीं जा पाये तो इसकी दोषी कमबख्त मेडिकल की उनकी वह पढ़ाई रही होगी जिसमें यह बताया जाता है कि गंदे पानी में सैकड़ों तरह के बेक्टीरिया और वायरस होते हैं जो श्रद्धालु की भावनाओं से कोई इत्तफाक न रखते उन्हें बीमार करने का अपना धर्म निभाने में कोई चूक नहीं करते. हालांकि धर्म के मारे ये शिक्षित सीना ठोककर दलील दे सकते हैं कि फलां धर्म ग्रंथ में लिखा है कि संतों के पैरों का चमत्कारी पानी उनके तेज व तपस्या के चलते हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है.

इसके बाद भी रमन सिंह ने अपनी पत्नी और बेटे से आदित्यनाथ के पैर छुलाकार यह तो साबित कर ही दिया कि हिन्दू धर्म की मान्य परम्पराओं के सामने उनकी रीढ़ की हड्डी कुछ नहीं. आदित्यनाथ रायपुर गए थे रमनसिंह का नामांकन फार्म भरवाने लेकिन वहां खुद से सीनियर रमन सिंह जो उम्र में उनसे 20 साल छोटे हैं से अपने पैर पड़वाने में कोई हिचक नहीं हुई क्योंकि इससे ज्यादा उम्र के भी लोग उनके पैर पड़ते हैं.

इस पैर पड़ाई कार्यक्रम के पहले रमन सिंह ने बाकायदा विधि विधान से आदित्यनाथ का पूजन भी किया जिसके लिए पांच ब्राह्मण खासतौर से बुलाये गए थे. इसे इस साल का बेस्ट व्यक्तिपूजा का खिताब देना कोई हर्ज की बात नहीं. लोकतन्त्र में साधु संतों और महंतों के तो दूर की बात है धर्मभीरु नेता संपेरों और भगवा कपड़े वाले भिखारियों तक के पैर पड़ लेते हैं इससे पता चलता है कि उनमें इच्छाशक्ति नाम की कोई चीज नहीं होती.

रमन सिंह भले ही सार्वजनिक कर दिये गए उनके धार्मिक इवैंट को तरह तरह की लच्छेदार बातों से ढकने की कोशिश करते रहें लेकिन इसे छत्तीसगढ़ के स्वाभिमानी आदिवासियों के नजरिए से देखा जाये तो बात हजम नहीं होती. एक चुने गए मुख्यमंत्री को प्रदेश की जनता की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए क्योंकि वह सभी का प्रतिनिधित्व करता है. आदिवासियों में पैर पड़ने का रिवाज नहीं है. बड़ों या दूसरों का सम्मान करने के उनके अपने तौर तरीके हैं जिनमें अभिवादन प्रमुख है.

इसमें कोई शक नहीं कि छत्तीसगढ़ में भाजपा संकट में है उसकी जीत अब पहले की तरह गारंटेड नहीं रह गई है लेकिन अगर आदित्यनाथ के पैर पड़ने से सफलता मिलती हो तो शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को भी पार्टी निर्देशित कर जीत सुनिश्चित कर सकती है कि खामोख्वाह पसीना बहाने की जरूरत नहीं असली जनार्दन जनता नहीं योगी आदित्यनाथ हैं इसलिए उनके पैर पड़ने का शार्टकट अपनाया जाये जो गणेश ने पार्वती की परिक्रमा कर अपनाया था.

बकौल रमन सिंह आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की नहीं बल्कि संत की भूमिका में आए थे तो उन पर और भी तरस खाया जा सकता है कि संत महंतों को कब से सरकार हवाईजहाज और रेल किराए का खर्च देने लगी और क्यों उनकी खिदमत में सारा सरकारी अमला लगाया गया था. सिर्फ एक ही लिहाज से उनकी यह दलील ठीक थी कि उत्तरप्रदेश में भी आदित्यनाथ महंत की भूमिका में ज्यादा रहते हैं और पाठ शालाओं के बजाय गौ शालाओं पर ज्यादा ज़ोर देते हैं.

दरअसल में यह ड्रामा जानबूझ कर किया गया था जिससे खुलेआम पुरोहितवाद दिखे, हिन्दुत्व चमके और भगवाधारियों की पूछ परख बढ़े. भाजपा के इस खुले एजेंडे से आम लोगों को कुछ हासिल नहीं होना है जिन्हें बड़े बड़े सब्जबाग ये नेता दिखाते हैं लेकिन आखिर में पंडों महंतों और बाबाओं के पैरों में लोट लगाते नजर आते हैं.

यह लोकतन्त्र का सबसे वितृष्णा भरा दौर है जब किसी सांसद के पैर धोकर गंदा पानी पिया जाता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अवतार बताया जाता है और एक गैर महंत मुख्यमंत्री दूसरे महंत मुख्यमंत्री के पैर छूकर ऐसे गदगद हो उठता है मानो साक्षात विष्णु या शंकर सामने आ गया हो. इस खेल या प्रक्रिया में विकास या जनहित कहीं नहीं होता. रमन सिंह इतने कमजोर व्यक्ति हैं इसका अंदाजा अब जाकर लोगों को हो रहा है कि उनके रूआबदार चेहरे पर जो लाली दिखती है वह पुराने सामाजिक उपन्यासों के उधर के सिंदूर की तरह है.

रही बात आदित्यनाथ की तो उनका तो मकसद ही पंडा पुरोहितवाद फैलाना और हिन्दुत्व थोपना है इसलिए वे शहरों के नाम बादल रहे हैं, तीर्थयात्रियों पर खजाना लुटा रहे हैं, राम मंदिर निर्माण का जिन्न बाहर निकाल रहे हैं. ऐसी कई और बातों के चलते उत्तरप्रदेश फिर सत्तर के दशक में जाता दिख रहा है जहां धर्म और जाति के नाम पर दबंगाई और गुंडयाई होती है और दबे कुचले छोटी जाति बाले वहाँ से मुंबई या अहमदाबाद जैसी जगहों में भागकर जैसे तैसे चार दिन की ज़िंदगी गुजारने की बात सोचने लगते हैं. अफसोस की बात तो यह है कि प्रदेश और देश की तरक्की की इबारत अपनी मेहनत से लिखने बाले इन गरीब गुरबों को वहां से भी खदेड़ा जाने लगा है.

अब, सबसे बढ़िया छतीसगढ़िया का नारा देने बाले रमन सिंह को सोचना चाहिए कि संतों महंतों के पैर पड़ने से जनता बढ़िया नहीं साबित होने बाली और न ही इन सनातनी टोटकों से उसका भला होने बाला इसलिए गरीब आदिवासियों को तो उनके राज्य में गैरत से रहने दिया जाये और इस धार्मिक नक्सलवाद से छतीसगढ़ की जनता की किस्मत न लिखी जाये.

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