साल 2009 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने ‘दलितब्राह्मण’ समीकरण को सामने रख कर चुनाव लड़ा था. तब उसे मनचाही कामयाबी नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा अपने पुराने मुद्दों पर वापस जाती दिख रही है. लखनऊ के कार्यकर्ता सम्मेलन में बसपा नेताओं ने कहा, ‘मंदिरों में ताकत होती तो लोग मंदिर छोड़ कर मुख्यमंत्री नहीं बनते. ताकत केवल राजनीति में होती है, इसलिए अपनी ताकत पहचानो और उस का इस्तेमाल करो. उमा भारती और दूसरी साध्वी राजनीति कर रही हैं और हम को कहा जा रहा है कि मंदिर जाओ. हमारी पार्टी की मुखिया मायावती ही जीवित देवी हैं. हमारा रिजर्वेशन कांशीराम और मायावती के चलते ही सुरक्षित है.’ ये मुद्दे 2007 से पहले बसपा उठाती रही है.

दलित चिंतक चौधरी जगदीश पटेल कहते हैं, ‘‘बसपा ने दलित मुद्दों से पार्टी को अलग कर दिया था. वह ब्राह्मणों के दबाव में आ गई थी. पार्टी ने रूढि़वादी विचारधारा की आलोचना बंद कर दी थी. इस का फायदा उठा कर भाजपा ने दलितों को नवहिंदुत्व का पाठ पढ़ाना शुरू किया, जिस से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को बड़ी तादाद में दलितों के वोट मिले थे. ‘‘सपा की मुश्किल यह है कि एक तरफ हिंदुत्व की आलोचना खुल कर नहीं कर पा रही है, वहीं दूसरी तरफ दलितों को मंदिर और पूजापाठ से दूर भी रखना चाहती है. ये दोनों काम एकसाथ मुमकिन नहीं हैं. धार्मिक कट्टरपन पहले से ज्यादा बढ़ गया है. ऐसे में बसपा दोराहे पर खड़ी है. वह पहले की तरह मनुवाद की आलोचना नहीं कर पा रही है.

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