जवानी दीवानी होती है ससुरी... पढ़लिख गया है इसलिए मानेगा नहीं. और मैं भी तो तुझे यहां रखने का नहीं. चला जा बचवा अपनी मेम को ले कर. और मैं भी तो तुझे यहां रखने का नहीं. चला जा बचवा अपनी मेम को ले कर... मैं भी एक कानी कौड़ी नहीं देने का तुझे... घर का काम नहीं करेगा, नौकरी करेगा... हूं...’’

धर्मवीर बुत की तरह खड़ा रहा, बोला कुछ नहीं. सोचता रहा कि क्या घर छोड़ देना चाहिए? लेकिन घर छोड़ कर रहेगा कहां? अभी तो नौकरी लगी ही है. बापू को क्या हर्ज है, यदि मैं यहीं रहूं? कुछ काम नहीं करूंगा तो कुछ लूंगा भी नहीं इन से. क्या यह जरूरी है कि यहां रह कर मुझे कपड़े धोने ही पड़ें?

वह हिम्मत कर के बोला, ‘‘मैं तुम से कुछ मांगूंगा नहीं बापू, जो किराया बाहर खर्च करूंगा, वही तुम्हें दे दिया करूंगा.’’

‘‘तू तो मुझे हजारों दे दिया करेगा, लेकिन मुझे कुछ नहीं चाहिए. मुझे मेरा बेटा चाहिए, जो मेरा काम संभाल सके. मैं ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया कि पढ़लिख कर कहीं बाबूगीरी करेगा. मैं ने इसलिए पढ़ाया था कि तू अपने ही धंधे को ज्यादा अक्ल से कर सकेगा. अब पढ़लिख कर तुझे अपने ही काम से नफरत होने लगी है, तो निकल जा मेरे घर से.’’

धर्मवीर समझ गया कि अब उस की एक नहीं चलेगी. बापू पूरी तरह जिद पर अड़ गए हैं. उन की जिद से हर कोई परेशान है. अम्मां तो हर वक्त यही कहती रहती हैं कि इन में यह ‘जिद’ की ऐब नहीं होती, तो आज घर का हुलिया ही कुछ और होता.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...