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मां, ब्रेकअप क्यों न करा -भाग 3 : डायरी पढ़ छलका बेटी का दर्द

‘‘अब निराश किया हो या खुशी दी हो, मैं नहीं जानता. या तो तुम ही मन्नू को यहां आने के लिए ‘न’ कह दो, वरना मुझे कहना पड़ेगा.’’

‘‘वह तो खुद ही जीवनमृत्यु की लड़ाई लड़ रहा है. हम भी उस से किनारा कर लेंगे तो यह निराशा उसे और भी अधिक तोड़ देगी?’’

‘‘किसी को तोड़ने या जोड़ने का ठेका मैं ने नहीं किया है. या तो तुम मन्नू का साथ दे लो या फिर मेरे साथ रह लो. फैसला तुम्हारा है,’’ भाई साहब का स्वर ऊंचा हो गया था.

“उफ्फ, यह व्यवहार करते हैं भाई साहब सुमनजी के साथ. दंग रह गई थी मैं यह सुन कर. कितनी ओछी मानसिकता है? पुरुषों का दोहरापन एक बार फिर देखने को मिला था. बाहरी तौर पर इतने व्यवहारकुशल और मिलनसार भाई साहब… भाभी की मनोदशा की अवहेलना कर कितना गलत व्यवहार कर रहे थे उन के साथ.” मैं दरवाजे से धीमे कदमों से ही वापस घर पहुंच गई थी.

घर का अशांत माहौल देख कर मैं यहां आना तो नहीं चाहती थी, लेकिन सुमनजी कितनी अकेली पड़ गई हैं, यह सोच कर दूसरे ही दिन उन के पास आने के लिए मजबूर हो गर्ई थी.

उसी वक्त भाभी का शिवपुरी से फोन आया था. ‘‘दीदी, इन की कीमोथैरेपी के लिए हम परसों… ग्वालियर आ रहे हैं.’’

‘‘मन्नू की तबीयत कैसी है? पापामम्मी कैसे हैं?’’ की औपचारिक बातें करने के बाद उन्होंने अपनी भाभी से कहा, ‘‘सुधा, हम लोग कल केरल की यात्रा के लिए निकल रहे हैं. मन्नू की कीमो समय पर होना जरूरी है. इसलिए तुम आना. कीमोथैरेपी कराने के बाद वहीं अस्पताल में रुक जाना या कोई कमरे की व्यवस्था देख लेना.’’

‘‘दीदी, आप जा रही हैं तो क्या हुआ, आप अपने घर की चाभी सुमित्रा दीदी को देती जाइएगा, हम उन से ले लेंगे,’’ सुधा ने आसान रास्ता सुझाया था.

‘‘सुधा, वह क्या है न कि सुमित्रा दीदी भी अपने देवर के बेटी की शादी में गई हुई है. इस बार मैनेज कर लो, बाद में देखते हैं,’’ कह कर फोन काट दिया था सुमन ने.

फोन रख कर फूटफूट कर रो पड़ी थी सुमन. यह सिला दिया है मुझे शर्माजी ने सारी जिंदगी के समर्पण का. अपनी सारी उम्र खपा दी मैं ने यहां. देवर, ननदों की शादी, सासससुर की सेवा, कहीं कोई कसर नहीं रहने दी. अब भाई इतनी गंभीर स्थिति में है और मैं उसे अकेला छोड़ दूं. बहुत जिद्दी हैं शर्माजी.

अगर मैं जिद में मम्मीपापा और मन्नू की सेवा के लिए शिवपुरी चली गर्ई तो सारी जिंदगी की सेवा को तिलांजलि दे कर वह मुझ से संबंध भी खत्म कर लेंगे.

सब से बड़ी बात तो यह है सुमित्रा दी कि मैं खुद को बहुत ही अपमानित महसूस कर रही हूं. हम जिसे सम्मान दे रहे हैं, उन से समर्पण भी तो चाहते हैं. मैं इन्हें भरपूर सम्मान दे रही हूं, और बदले में…? वे स्वयं तो सहयोग करने के लिए हैं ही नहीं. मुझे भी वहां से तोड़ने के लिए कोशिश कर रहे हैं.

“सच कहूं दी, तो अब इन के साथ रहने का मन भी नहीं कर रहा. मैं क्यों इन की मनुहार करती रहूं, आगेपीछे घूमती रहूं. केवल इसलिए कि सात फेरे लिए हैं. इस बंधन को इन्होंने किस तरह से स्वीकार किया. केवल मुझ पर हुकूमत करने के लिए, इन के परिवार के लिए मैं हमेशा तत्पर रही. और जब मेरे परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूटा तो मैं इन के हाथों की चाभी की गुड़िया बन कर बस यहीं की हो कर रह जाऊं, मेरी भावनाएं, मेरे रिश्ते इन से तो जुड़ ही नहीं पाए और मुझे भी दूर करने का प्रयास है.

“मैं ने कभी खुद को इतना कमजोर नहीं समझा. लगता था, सबकुछ ठीक हो जाएगा. बेटा वहां परेशान है. मन करता था कि नानानानी और मामा की माली मदद के लिए मैं उसे कहूं. लेकिन, जानती हूं कि मेरे कहने पर वह कर तो देगा, लेकिन अभी करना उस के लिए मुश्किल ही होता.

“कभीकभी तो मुझे लगता है कि पुरुष प्रधानता की मानसिकता ही, अमन और बहू के तलाक का कारण बन रही है. लगता है, शर्माजी की तरह पुरुष प्रधानता का दंभ उसे अनुवांशिक रूप से मिला है, मेरे लिए संस्कार वहां भी हार गए हैं.

“हालांकि विदेश में दोनों अकेले हैं, लेकिन वैचारिक मतभेद तलाक तक पहुंच गए. मैं स्वयं नौकरी करती हूं. लेकिन मेरी पाईपाई पर शर्माजी का अधिकार है. वह मेरे पैसे को भी हमारा पैसा कह कर मेरे भाई की मुश्किल घड़ी में खर्च करने पर एहसान जता रहे हैं.

 

शर्मिंदगी -भाग 2: जब उस औरत ने मुझे शर्मिंदा कर दिया

‘‘अरे, आप तो नाराज हो गए.’’ मेरी पत्नी ने मेरा हाथ थाम कर कहा, ‘‘ऐसा नहीं कहते. गरीबों की हाय लेना अच्छी बात नहीं है.’’

इस के बाद उस ने औरत से कहा, ‘‘बहन, ये लो 5 रुपए और हमें जाने दो.’’

औरत हमारे सामने से हट तो गई, लेकिन मैं ने देखा, उस की आंखों में आंसू आ गए थे. उस ने रुपए नहीं लिए थे. हम दोनों आगे बढ़ गए. पत्नी ने शौपिंग सेंटर में दाखिल होते हुए कहा, ‘‘मेरा ख्याल है कि वह भीख मांगने वाली नहीं है. आप अफसर हैं, हो सकता है आप से कोई काम कराना चाहती हो?’’

‘‘मेरे माथे पर कहां लिखा है कि मैं अफसर हूं.’’ मैं ने खीझते हुए कहा.

‘‘आप इतने गुमनाम भी नहीं हैं. यह भी संभव है कि उस ने आप को आप के औफिस में देखा हो.’’ पत्नी ने कहा.

‘‘देखा होगा भई,’’ मैं ने उकताते हुए कहा, ‘‘अब तुम उसे छोड़ो और अपना काम करो.’’

थोड़ी देर बाद हम जैसे ही शौपिंग सेंटर से बाहर आए, वह फिर हमारे सामने पहले की ही तरह हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे और होंठ इस तरह कांप रहे थे, जैसे वह कुछ कहना चाहती हो. लेकिन भावनाओं में बह कर उस की जुबान से शब्द न निकल रहे हों.

उसे हैरानी से देखते हुए मैं ने दस का नोट निकाल कर उस की ओर बढ़ाया तो उस ने लेने से मना कर दिया. मैं ने कहा, ‘‘जब पैसे नहीं लेने तो यह नाटक क्यों कर रही हो?’’

‘‘इस तरह बात न करें.’’ पत्नी ने मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘बहन अगर ये कम है तो मैं और दे देती हूं, लेकिन तुम रोना बंद कर दो.’’

इतना कह कर मेरी पत्नी ने जैसे ही पर्स खोला, उस ने हाथ के इशारे से मना कर दिया. वह जिस तरह रो रही थी, उसे देख कर मेरी पत्नी काफी दुखी हो गई थीं. मुझे लगा, हम कुछ देर और यहां रुके रहे तो मेरी पत्नी भी रो देंगी.

हमारे पास से गुजरने वाले लोग रुकरुक कर दृश्य को देख रहे थे, जिस से मुझे उलझन सी हो रही थी. नाराज हो कर मैं ने थोड़ा तेज स्वर में कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है. न तुम पैसे ले रही हो और न यह बता रही हो कि तुम्हें चाहिए क्या?’’

इतना कह कर मैं ने पत्नी का हाथ थामा और तेजी से अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ गया. मेरे साथ चलते हुए पत्नी ने कहा, ‘‘पता नहीं बेचारी क्या चाहती है? कोई तो बात होगी, जो वह इस तरह रो रही है. लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि पूछने पर कुछ नहीं बता भी नहीं रही है.’’

‘‘छोड़ो, अब उस की बातें खत्म करो.’’ मैं ने झल्लाते हुए कहा.

हालांकि मैं खुद उसी औरत के बारे में सोच रहा था, लेकिन मेरे सोचने का नजरिया कुछ और था. वह काफी सुंदर थी. रोते हुए वह और भी सुंदर लग रही थी. साड़ी में उस का शरीर काफी आकर्षक लग रहा था. अगर वह रोने के बजाए ढंग से बात करती तो मैं उसे औफिस आने को जरूर कहता. पैसे न लेने से मैं समझ गया था कि वह भीख मांगने वाली नहीं थी. वह किसी दूसरे ही मकसद से आई थी.

‘‘अब आप क्या सोचने लगे?’’ पत्नी ने थोड़ी ऊंची आवाज में पूछा.

‘‘कुछ नहीं, सोचना क्या है? शाम को औफिस की जो मीटिंग होने वाली है, उसी के बारे में सोच रहा था.’’ मैं ने धीमे से कहा.

‘‘कार चलाते हुए ज्यादा कुछ न सोचा करें, क्योंकि सोचते समय कुछ नजर नहीं आता.’’ पत्नी ने यह बात इस तरह कही, जैसे मैं कोई बच्चा हूं और वह मुझे समझा रही हो.

अगले दिन सबेरे मैं औफिस जाने के लिए  घर से निकला तो यह देख कर हैरान रह गया कि वही औरत कोठी के गेट से सटी खड़ी थी. उस के साथ एक लड़का भी था. गेट से निकल कर जैसे ही मैं कार की ओर बढ़ा, औरत मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई. कल की तरह उस समय भी उस ने दोनों हाथ जोड़ रखे थे और याचनाभरी नजरों से मेरी ओर ताक रही थी.

 

दरकता दांपत्य और तलाक

आज के युग में दांपत्य जीवन दरक रहा है जिस के अनेक कारण हैं, पर कोर्ट में तलाक के बढ़ रहे मामलों का जल्द निबटान न होना भी तो एक प्रताड़ना से कम नहीं.

स्त्री और पुरुष एकदूसरे के पूरक हैं. प्रसिद्ध विचारक टैनीसन ने कहा है, ‘‘स्त्री और पुरुष का ध्येय परस्पर एक है, वे साथ ही साथ उन्नति करते हैं या पतन की ओर जाते हैं, छोटे या महान बनते हैं, पराधीन या स्वतंत्र होते हैं.’’

स्त्रीपुरुष दोनों का मिलना जरूरी है, तभी बच्चे होते हैं और परिवार बनता है. मगर जैसे संयुक्त परिवार से लोग न्यूक्लियर फैमिली या छोटे परिवार की ओर बढ़े हैं वैसे ही अब बहुत से पतिपत्नी गृहस्थी की झं झटों से मुक्त हो कर स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, जिस के लिए या तो आपसी रजामंदी से अलग हो जाते हैं या फिर अदालत की शरण में जा कर तलाक लेना पसंद करते हैं.

विवाह संस्था अब बुरी तरह प्रभावित हो रही है. जहां पहले प्रेम और विश्वास था या समर्पण और एकदूसरे के प्रति लगाव की भावना जोर मारती थी, लोग अपने परिवार और रिश्तों के प्रति कर्तव्यबोध से बंधे थे, वहीं आज अदालतों में तलाक के ऐसेऐसे केस आ रहे हैं कि लगने लगा है मानो शादीविवाह गुड्डेगुडि़यों का खेल बन गया है. इतनी बड़ीबड़ी उम्र के लोग अपने बच्चों के शादीब्याह के बाद तलाक के लिए अदालत में खड़े होते हैं.

एक लंबा केस 9 साल तक चला. उस में पत्नी ने पति से इस आधार पर तलाक मांगा कि पति उस के लायक नहीं है. अदालतों ने पत्नी की नहीं सुनी. फिर अब दोनों की रजामंदी से तलाक हुआ.
तलाक के केस लंबे खिंचने का एक कारण अदालतों का ओवरलोड और जजों का विश्वास कि यह तो संस्कार है, पत्नीपति ऐसे ही कैसे तोड़ दें. कई डाइवोर्स के मामलों में पति या पत्नी का अहं आड़े आ जाता है जैसे पति ने पत्नी से तलाक मांगा पर पत्नी पति को परेशान करना चाहे, या फिर पत्नी पति से तलाक मांगे और पति को लगे कि पत्नी उसे बेइज्जत करने के लिए कर रही है तो विरोधी पक्ष इसे अपनी इज्जत का प्रश्न बना लेता है. वकीलों के पास भी अपने क्लांइट के लिए मामला खींचने के कई कारण होते हैं.
हिंदू विवाह अधिनियम में तलाक को ले कर यह कानून है कि तलाक चाहने वाले पतिपत्नी शादी के एक साल के अंदर अदालत में तलाक की मांग नहीं कर सकते. मगर कुछ अपवाद ऐसे भी हैं जहां तलाक के लिए शादी के एक साल के अंदर ही तलाक मांगा गया, जैसे जब तलाक इंपोटैंसी (नपुंसकता) के आधार पर मांगा जा रहा है तो ऐसे केस एक साल के अंदरअंदर ही अदालत में पहुंच जाने चाहिए.

इस के अलावा जालसाजी या फौजदारी के मामले में भी जालसाजी का पता चलने की तारीख में एक साल के अंदर तलाक मांगा जा सकता है. इन प्रावधानों का इस्तेमाल सहमति से करा कर वकील तलाक जल्दी भी दिला देते हैं.

एक केस में यह था कि लड़की विदिशा की थी और लड़का विदेश में काम करता था. इंटरनैट के जरिए विवाह तय हुआ और लड़की वालों ने दिल्ली आ कर बेटी की शादी कर दी. विदिशा में रिसैप्शन की सुबह लड़की वाले वकील के पास बेटी के डाइवोर्स की बात ले कर पहुंच गए. शादी को 10-15 दिन हुए थे.
लड़की के अनुसार लड़का उसे परेशान करता है, कहता है, ‘विदेश में तु झे देख लूंगा.’ लड़की की बात वकील को अटपटी लगी. उस के हिसाब से गलती दोनों की थी. मगर उस दिन वकील ने लड़की वालों से रिसैप्शन अटैंड करने को कहा, जिस से लड़के वालों की इज्जत बनी रहे क्योंकि लड़का अच्छी पोस्ट पर था और बड़ेबड़े लोगों से उस की पहचान थी, इसलिए इन्वाइटी भी वे ही थे.

लड़की वालों ने बात मानी और रिसैप्शन अटैंड किया. दूसरे दिन वे फिर वकील के सामने. वकील ने लड़के वालों को बुलाया और उन्हें सारी बात बता दी. लड़का जोश में आ गया कि ऐसा कैसे हो सकता है. वकील ने सम झाया कि देखिए, आप आराम से मान जाएंगे तो ठीक है वरना मामला लंबा खिंचा तो नुकसान आप का ही होगा क्योंकि लड़का विदेश में सरकारी नौकरी में है और जल्द ही उसे विदेश जाना भी है. अगर मामला अदालत में जा लटका तो बात लड़के की नौकरी तक भी आ सकती है. लड़के वाले मान गए और उस लड़के पर इम्पोटैंसी (नपुंसकता) का आरोप लगाया गया, जिसे लड़के ने चुपचाप मान लिया.

दांपत्य संबंधों की इमारत का रेत का ढेर की तरह बिखर जाना इस बात का प्रमाण है कि कानूनी रूप से अदालत की चौखट तक पहुंच गए तलाक के विवादों को कोई भी आधार दिया जाए, मगर तलाक के गहराते बादल दांपत्य संबंधों में उस खोखलेपन को उजागर कर रहे हैं जिन्हें पहले परिवार या समाज क्या कहेगा के भय से वर्षों घसीटा जाता रहा था.

पतिपत्नी सामाजिक दृष्टि से दांपत्य संबंध निभा रहे हों, मगर कमरे की चारदीवारी में वे तलाकशुदा ही थे. जबकि आज आधुनिकता के नाम पर अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए शादी के दूसरे दिन ही शादीशुदा जोड़े अदालत की दहलीज पर खड़े होते हैं.

यह अफसोस है कि देश की सरकार को तलाक की पीड़ा सह रहे पुरुषों और स्त्रियों की कोई चिंता नहीं, जो वर्षों लटके रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट में 20 साल बाद तक मामले पहुंच रहे हैं. इस दौरान सबकुछ बदल चुका होता है.

यह जरूरी है कि हिंदू औरतों को भी छुटकारा देने का तलाक का कानून सरल हो. यह न आज संस्कार था न कभी. हमेशा ऋषि, मुनि, राजा एक से ज्यादा विवाह करते रहे हैं और 1956 तक हिंदू औरतों के पास छोड़े जाने पर सिवा गुजारेभत्ते के हक के सिवा कोई हक न था जो क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में है, विवाह कानून में नहीं.

आज यूनिफौर्म सिविल कोड की नहीं, हिंदू तलाक कोड की जरूरत है ताकि लाखों पीडि़त औरतें पुरुषों की जबरदस्ती से छुटकारा पा सकें.

कुंडली के नाम पर फलताफूलता धोखा

सोशल मीडिया पर अमीर बनने का अमृतउपाय बांटा जा रहा है. अंधविश्वास में फंसे लोगों की जेब तो पहले से ही कट रही है, बाकी ज्योतिषी, पंडे और कुंडली नक्षत्र वाले भी लगे हाथ निचोड़ ही रहे हैं. कुंडली में महायोग जो निर्धन को भी करोड़पति बना देते हैं आदि कई तरह के दावे करने वाले लोग ग्रहों के नाम पर लूट रहे हैं.

ये लूट रहे हैं क्योंकि लोग लुटने को तैयार हैं. डरेसहमे और असुरक्षित लोग इन ज्योतिषियों को खासा भाते हैं. ये वही लोग भी हैं जो मेहनत की जगह 10-12 अंगूठियां पहनने से अमीर बनने में विश्वास रखते हैं. पंडों के इस तरह के धंधे सफल हैं, तभी लोग अच्छीखासी रकम फीस के तौर पर देने को तैयार रहते हैं.
जैसे कहा जा रहा है, मेष राशि वाले लग्न में द्वितीय भाव में मंगल, गुरु व शुक्र का संबंध व्यक्ति को श्रेष्ठ व्यापारी बना कर संघर्ष और उतारचढ़ाव के बाद धनपति बनाएगा. वृष को कहा जा रहा है लग्न-बुध-गुरु (लाभेश-धनेश) एकसाथ बैठे हों तथा मंगल से दृष्ट हों तो श्रेष्ठतम धनयोग होता है.

कोई छूट न जाए, इसलिए यह अमीर बनाने की पोटली सिंह, कन्या, तुला, धनु, मकर, कुंभ इत्यादि सभी के लिए खुली है. राशियों के खेल में सिर्फ अमीर बनाने के उपाय नहीं बताए जाते हैं, अमीर ससुराल और सुंदर बीवी मिलने के भी उपाय हैं. अगर घर में कोई क्लेश है तो उसे दूर करने के उपाय भी बताए जाते हैं. ये वे हैं जो गंजे को भी कंघा बेच दें.

हैरानी होती है कि इन लोगों का धंधा भी फलताफूलता है. लोग यह जानते हुए भी इन के पास जाते हैं कि ये खुद किसी फुटपाथ के किनारे हाथ की लकीरें और कुंडली देख कर पैसा बटोरते हैं. अगर अमीर बनने का ऐसा शौर्टकट उपाय होता तो अंबानीअडानी की जगह यही ज्योतिषी सब से अमीर होते.

सवाल तो बनता है कि शनि पर रोज का 150 रुपए की कीमत का एक लिटर तेल चढ़ा कर कैसे किसी के जीवन में अमीरी आ सकती है? फकीरी की बात पूछो मत क्योंकि एक फकीर ढूंढ़ो तो हजार मिलते हैं. यह धोखेबाजी नहीं तो क्या है? लोगों को भाग्य, लकीरों और कुंडलियों में उल झाए रखना साजिश नहीं तो क्या है?

ज्योतिषी को प्रचारित किया जाता है कि यह वैज्ञानिक आधार पर काम करता है पर यह नहीं बताया जाता कि लोगों के जीवन में ग्रहों का प्रभाव होता है तो यह बात उन्होंने कैसे खोजी? इस खोज पर कितना खर्चा आया? पद्धति क्या थी? सिर्फ 9 ग्रहों के प्रभाव की ही चर्चा क्यों? बाकी ग्रहों को फलादेश से बाहर क्यों रखा गया? –

अच्छे लोग -भाग 3 :कुछ पल के लिए सभी लोग क्यों डर गए थें

कुछ देर बाद उन्होंने सलाह की कि क्या किया जाए. सब से पहले रमाकांत ने अवनीश को फोन कर के बता दिया कि अखिला घर छोड़ कर चली गई थी. तब तक वह अपने मायके नहीं पहुंची थी. इस के बाद वह देर तक माथापच्ची करते रहे कि आगे क्या किया जाए, परंतु किसी को आगे की कार्रवाई समझ न आई. सो, अभी यह सोच कर चुप हो कर बैठ गए कि जो होगा, देखा जाएगा.

शाम होते ही स्पष्ट हो गया कि उन पर क्या विपत्ति आई थी. अखिला ने उन के जीवन में भयानक तूफान खड़ा कर दिया था.

शाम 6 बजे के लगभग स्थानीय थाने से 2 पुलिस वाले उन के घर आए थे. एक हवलदार, दूसरा सिपाही. हवलदार ने पहले उन के नाम पूछे, फिर कहा- ‘‘आप तीनों को थाने चलना पड़ेगा?’’

तीनों ने पहले शंकित और भयभीत दृष्टि से एकदूसरे की ओर देखा. फिर प्रियांशु ने थोड़ा साहस बटोर कर पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘आप की पत्नी ने आप लोगों पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज करवाया है. दरोगा साहब ने बुलाया है. बाकी पूछताछ वही करेंगे.’’

उन के ऊपर तो जैसे गाज गिर गई. यह कौन से कर्मों की सजा उन्हें मिल रही थी? अखिला को उन्होंने कभी टेढ़ी नजर से भी नहीं देखा, और उस ने अपने सासससुर और पति पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज करवा दिया.

किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए. थाने जाने से पहले उन्होंने बेटी रिचा और दामाद अभिनव को फोन कर के बता दिया था कि उन पर क्या विपत्ति आ पड़ी थी.

उन के थाने पहुंचने के थोड़ी देर बाद रिचा और अभिनव भी थाने पहुंच गए थे. उन को दारोगा ने बैठने के लिए कह दिया था. पूछने पर बस इतना बताया था कि अखिला ने उन के खिलाफ मानसिक और शारीरिक प्रताडऩा, हिंसा और अत्याचार का मामला दर्ज करवाया था. पूछताछ के बाद आगे की कार्रवाई होगी.

रात 10 बजे तक वेह लोग थाने में बैठे रहे, परंतु उन से कोई पूछताछ नहीं हुई. बस, उन्हें बताया कि शारदा, रमाकांत और प्रियांशु को गिरफ्तार कर लिया गया था. कल उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा.

यह उन तीनों के लिए ही नहीं, रिचा और अभिनव के लिए भी बहुत बड़़ा आघात था. शारदा, रमाकांत और प्रियांशु को थाने के लौकअप में बंद कर दिया गया था. रिचा और अभिनव घर आ गए. रात में बेचारे वे क्या कर सकते थे.

अगला दिन भी उन के लिए कोई सुखदायी नहीं रहा. पुलिस ने तीनों लोगों को अदालत में पेश कर एक दिन की पुलिस हिरासत में ले लिया था, ताकि उन के बयान दर्ज किए जा सकें. अभिनव ने एक वकील के माध्यम से उन की जमानत की अर्जी डलवाई, परंतु उस की सुनवाई के लिए अगले दिन की तारीख दे दी गई.

पुलिस रिमांड खत्म होते ही शारदा, रमाकांत और प्रियांशु को तीसरे दिन फिर से कोर्ट में पेश किया गया. पुलिस ने उन्हें जेल भेजने की मांग की. बचाव पक्ष की तरफ से उन की जमानत की अर्जी पर भी सुनवाई हुई, परंतु वादी पक्ष के वकील ने इस का पुरजोर विरोध किया. अखिला का बयान भी मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज हो चुका था. उस ने साफसाफ शब्दों में कहा था कि शादी के दूसरे दिन से उस के सासससुर और पति उस के ऊपर शारीरिक अत्याचार करते थे. हालांकि उस ने स्पष्ट तौर पर यह नहीं बताया कि उस के साथ मारपीट का कारण क्या था. फिर भी मामला संदिग्ध था, इसलिए किसी भी मुलजिम की जमानत स्वीकार नहीं हुई, उन्हें न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया.

एक सप्ताह के अंदर पुलिस ने अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर दिया. आरोपपत्र में कई लोगों के बयान थे, परंतु किसी के बयान में स्पष्ट तौर पर यह नहीं कहा गया था कि अखिला के साथ मारपीट जैसा कोई मामला हुआ था. उस के मातापिता ने भी इस संबंध में अनभिज्ञता प्रकट की थी.

साक्ष्य कमजोर होते हुए भी शारदा और रमाकांत की जमानत में डेढ़ महीना लग गया. इस का प्रथम कारण यह था कि अदालत में उन के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल हो चुका था. दूसरे, अखिला ने धारा 164 सीआरपीसी के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथ खा कर बयान लिखवाया था कि उस के साथ नियमित रूप से मारपीट की जाती थी, उसे मानसिक रूप से परेशान किया जाता था.

कई तारीखों में बहस हुई. अंत में सत्र न्यायालय में उन की जमानत की अर्जी की सुनवाई हुई. सत्र न्यायाधीश ने आरोपपत्र में वर्णित साक्ष्यों पर विचार किया. दोनों पक्षों के तर्क सुने और अंत में यह निर्णय दिया कि शारदा और रमाकांत के विरुद्ध ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिस से यह प्रमाणित होता हो कि उन्होंने अखिला के साथ किसी भी प्रकार का मानसिक या शारीरिक अत्याचार किया हो, सो उन की जमानत स्वीकार की जाती है. प्रियांशु के बारे में जज ने कहा- चूंकि मामला पतिपत्नी का है और उन के बीच क्या गड़बड़ है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है, सो उस की जमानत स्वीकार नहीं की जा सकती. मुकदमा चलता रहेगा.

आज जमानत पर शारदा और रमाकांत घर आए थे.

रिचा दूध और ब्रैड ले कर आई तो शारदा और रमाकांत की विचारधारा को विराम मिला. पिछले डेढ़ महीनों के दुर्दिनों की अंतकथा उन के दिमाग में उमड़घुमड़ रही थी.

रिचा ने चाय बनाई. तीनों के साथसाथ चाय पी. चाय खत्म हुर्ई तो बाई आ गई. वह उदास सी खड़ी शारदा और रमाकांत को देख रही थी. कर्ई सालों से वह उन के घर में काम कर रही थी. अच्छी तरह उन सब के स्वभाव से परिचित थी. उन के ऊपर आई विपत्ति से वह परिचित थी. उसे दुख था कि प्रकृति भी अच्छे लोगों को परेशान करती है, उन्हें कष्ट देती है.

रिचा ने उस से कहा, ‘‘माला, किचन में थोड़ी चाय बची है, उसे गरम कर के पी लो. फिर घर की सफाई करो. मैं तब तक खाना बना लूंगी.’’

‘‘दीदी, चाय मैं बाद में पी लूंगी. पहले घर की सफाई करती हूं, बहुत गंदा हो गया है.’’

‘‘ठीक है,’’ फिर रिचा ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘आप दोनों तब तक नहाधो लीजिए. अभिनव औफिस से हो कर अभी थोड़ी देर में आ जाएंगे.’’

सुबह अभिनव उन के साथ ही था. रिचा को मम्मीपापा के साथ घर भेज कर वह औफिस चला गया था.

अभिनव आया तो सभी लोगों ने साथसाथ खाना खाया. खाते समय आगे की कार्रवाई पर विचार किया गया.

शारदा ने पूछा, ‘‘आगे क्या होगा?’’

‘‘मुकदमा चलेगा, परंतु उस की चिंता नहीं है. हमें सब से पहले प्रियांशु की जमानत करवानी होगी.’’

‘‘कैसे होगी, हमारे पास हमारी बेगुनाही का कोई सुबूत नहीं है,’’ शारदा ने मायूसी से कहा.

‘‘मारपीट का सुबूत तो अखिला के पास भी नहीं है,’’ रिचा ने तर्क दिया.

‘‘सही है, परंतु नवविवाहिता है. उसी ने मुकदमा लिखवाया है. जब तक हम कोई सुबूत नहीं देंगे, उसी की बात सच मानी जाएगी. यह तो गनीमत समझो कि उस ने हमारे खिलाफ दहेज का मुकदमा दर्ज नहीं करवाया, वरना कभी जमानत न हो पाती.’’

‘‘तो फिर अब क्या होगा?’’ शारदा ने ही पूछा.

 

बहू का कन्यादान

राजस्थान के सीकर जिले के लोसल निवासी शिवभगवान सोनी की बेटी पूजा सोनी जब जवान हो गई, तब उस के घर वालों ने उस का रिश्ता सन 2003 में सीकर जिले के श्रीमाधोपुर के पुष्पनगर निवासी रमेशचंद्र सोनी के बेटे मुकेश सोनी से तय कर दिया. सगाई के बाद उसी साल पूजा और मुकेश की शादी हो गई.

पूजा मायका छोड़ कर ससुराल आ गई. मुकेश जैसा पति पा कर वह अपने आप को भाग्यशाली समझती थी. मुकेश अपना सुनारी का खानदानी काम किया करता था. वहां पूजा को कभी किसी चीज की कमी नहीं थी. सासससुर भी उसे खूब मानते थे. हंसीखुशी समय गुजर रहा था.

पूजा और मुकेश की शादी सन 2003 में हुई थी. मगर सन 2020 में कोरोना महामारी आने तक भी पतिपत्नी 2 ही रहे यानी उन के बच्चा नहीं हुआ. मुकेश और पूजा के साथ जिन युवकयुवतियों की शादियां हुई थीं, उन के घर बच्चों से भर गए थे. मगर पूजा और मुकेश को अब भी संतान का इंतजार था.

आखिर यह इंतजार भी खत्म हुआ और सन 2020 में पूजा सोनी के पैर भारी हो गए. इस की खबर पूजा ने पति मुकेश को दी तो मुकेश बोला,‘‘पूजा, आज मैं बहुत खुश हूं. यह सुनने के लिए मुझे 17 साल इंतजार करना पड़ा.’’

‘‘मैं भी न जाने कब से बच्चा चाह रही थी. आज मेरे भी मन को बड़ी तसल्ली मिली है. क्योंकि हमारी मुराद पूरी हो जाएगी. मैं बहुत खुश हूं.’’ पूजा ने हंसते हुए कहा.

उन दिनों कोरोना महामारी ने विकराल रूप धारण कर रखा था. गर्भवती पूजा का ऐसे में खास खयाल रखा जाने लगा था ताकि वह कोरोना से बची रहे. मुकेश अपने घर पर ही सुनारी का काम कर रहा था.

अप्रैल 2021 में पूजा सोनी ने एक स्वस्थ बेटी को जन्म दिया. घर में खुशी छा गई. रमेशचंद्र सोनी दादा बन गए थे. सोनी परिवार बहुत खुश था. खुशी से जच्चाबच्चा का खयाल रखा जाने लगा.

अभी नवजात करीब 25 दिन की थी कि मुकेश को बुखार आ गया. जांच कराने पर पता चला कि मुकेश को कोरोना हो गया है.

उन दिनों राजस्थान में ही नहीं बल्कि पूरे देश में कोरोना के प्रतिदिन लाखों केस आ रहे थे. हजारों लोग हर रोज मर रहे थे. कोरोना ने जनजीवन अस्तव्यस्त कर रखा था. मुकेश सोनी भी कोरोना से जिंदगी की जंग लड़ते हुए 5 मई, 2021 को आखिर जिंदगी से हार गए.

मुकेश सोनी की असमय मौत ने सोनी परिवार पर दुखों का पहाड़ गिरा दिया था. पूजा का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. जवान बेटे की मौत ने रमेशचंद्र सोनी और उन की बीवी को तोड़ कर रख दिया था. पूजा का तो हाल बेहाल था. उस की आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

बहू की हालत देख कर सासससुर भी गमगीन रहते थे. कहते हैं दुख का समय काटे नहीं कटता. किसी तरह दिन गुजरने लगे. गुजरते वक्त के साथ पूजा गुमसुम सी रहने लगी. उस के होंठों से हंसी गायब हो गई थी.

उस की उम्र करीब 37 साल थी. पहाड़ सी जिंदगी बाकी थी. वह अकेले कैसे इस वीरान जिंदगी को जी पाएगी. ऐसे ही खयालों में गुमसुम पूजा को जिंदगी बोझ सी लगने लगी.

पूजा अब आसपड़ोस की सुहागन औरतों को 16 शृंगार किए पति के साथ हंसतेबतियाते देखती तो सोचती कि उस ने कौन सा गुनाह किया था, जिस की सजा उसे मिली है.

जब सासससुर ने बहू पूजा की यह हालत देखी तो उन्होंने मन ही मन एक निर्णय कर लिया. उस रोज एकांत में रमेशचंद्र सोनी ने अपनी बीवी से कहा, ‘‘हमारा मुकेश तो असमय चल बसा. बहू कब तक उस की याद में कलपती रहेगी. बहू की अभी उम्र ही क्या है. पहाड़ सी जिंदगी वह अकेली कैसे काटेगी. मैं चाहता हूं कि उस का पुनर्विवाह करा दूं. इस बारे में तुम क्या कहती हो?’’

‘‘मैं क्या कहूं. मगर इतना जरूर कहूंगी कि बहू का अगर घर बस जाए तो उस के जीवन में फिर बहार आ जाएगी. उस को खुश देख कर हम भी जी लेंगे. आप कोशिश कर के ऐसा घरवर देखो, जहां बहू खुश रहे.’’ बीवी ने अपनी बात बताई.

सुनते ही रमेशचंद्र सोनी की आंखें छलछला आईं. वह बीवी का हाथ थामे बहू पूजा के कमरे में पहुंचे. सासससुर को आया देख पूजा उठ कर खड़ी हो गई. उस की आंखें आंसुओं से तर थीं. वह सासससुर को देख कर साड़ी के पल्लू से आंसू पोछने लगी.

रमेशचंद्र सोनी ने बहू को अपने सामने बिठा कर उस के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आज से तुम मेरी बहू नहीं, बेटी हो. तुम्हारे आंसू हमें जीने नहीं दे रहे. हम तुम्हारा दुख महसूस कर सकते हैं. मुकेश हमारा बेटा था. हम उसे वापस तो नहीं ला सकते, मगर हम चाहते हैं कि तुम हमारी बात मानोगी. हम जो कर रहे हैं उसे स्वीकार करोगी. हम तुम्हारे सासससुर हैं, जिन्हें मातापिता का दरजा भी दिया गया है. मातापिता अपनी औलाद के लिए कभी बुरा नहीं चाहते. हम भी तुम्हारा बुरा नहीं चाहेंगे. हम चाहते हैं कि अपने समाज में कोई काबिल लड़का देख कर तुम्हारी शादी करा दें. बताओ, तुम क्या कहती हो?’’ रमेशचंद्र सोनी ने पूजा की राय जाननी चाही.

‘‘नहीं पापाजी, मैं उन की यादों के सहारे जीवन काट लूंगी. मुझे शादी नहीं करनी है.’’ कह कर पूजा रो पड़ी.

रमेशचंद्र और उन की पत्नी ने पूजा को ऊंचनीच समझाते हुए कहा, ‘‘पूजा बेटी, एक महिला का जीवन अकेले जीना बड़ा दुष्कर है. समाज व आसपड़ोस में तमाम ऐसे भेडि़ए ताक में रहते हैं, अकेली महिला को काट खाने के लिए और तुम्हारे तो एक मासूम बेटी भी है. उस बेटी को भी बाप के सहारे की जरूरत है. मुकेश को भूल जाओ. उस की यादें दिल से निकाल दो. नए जीवन की शुरुआत करो.’’

सुन कर पूजा भी सोचने लगी. वह बहुत होशियार व समझदार थी. उस ने सोचा कि सासससुर ठीक ही कह रहे हैं. वह अभी जवान है. उस के अरमान हैं. वह सोचती रही. सासससुर ने बहू पूजा सोनी को किसी तरह मना लिया. बहू के राजी होने पर ससुर ने उस के योग्य घरवर की तलाश शुरू की.

पूजा के मायके लोसल में भी रमेशचंद्र सोनी ने जा कर बता दिया कि वह उन की बेटी पूजा के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं. अगर रिश्तेदारी में कोई अच्छा लड़का हो तो बताएं.

पूजा के ससुर अपनी बहू की दूसरी शादी कर रहे हैं, यह जान कर उस के मायके वाले खुश हो गए. पूजा के पिता शिवभगवान सोनी भी चाहते थे कि बेटी की दूसरी शादी हो. मगर उन की हिम्मत नहीं हुई थी कि वह इस बारे में चर्चा करते.

रमेशचंद्र सोनी बहू पूजा की शादी की भागदौड़ में लगे थे. उन्होंने रिश्तेदारों से भी बहू के योग्य लड़का देखने को कह रखा था. वर तलाश करते हुए रमेशचंद्र सोनी रिश्तेदारी के जरिए मूलरूप से ढिगाल निवासी और वर्तमान में जयपुर में रह रहे ज्वैलर नागरमल सोनी से मिले.

नागरमल सोनी के साथ उन का बेटा कैलाश सोनी भी ज्वैलर का काम करता था. कैलाश सोनी की पत्नी का भी 9 मई, 2021 को कोरोना से निधन हो गया था. ऐसे में दोनों परिवारों ने कैलाश और पूजा के पुनर्विवाह की बात चलाई. सब से पहले कैलाश और पूजा को मिलवाया गया. दोनों ने एकदूसरे को पहली नजर में ही पसंद कर लिया.

तय हुआ कि शादी के बाद पूजा की बेटी उस के साथ नई ससुराल जाएगी. कैलाश और उस के पिता नागरमल सोनी ने इस की रजामंदी दे दी. तब कैलाश और पूजा की मरजी से शादी पक्की कर दी. शादी का मुहूर्त निकला मंगलवार 3 मई, 2022. उस दिन अक्षय तृतीया का त्यौहार भी था.

कैलाश सोनी दूल्हा बन कर बारात के साथ जयपुर से सीकर जिले के श्रीमाधोपुर आ गया था. यहां पर बारात का स्वागतसत्कार किया गया. खानापीना कराया गया. पूजा सोनी को लाल साड़ी पहना कर दुलहन बनाया गया. पूजा को शृंगार कराया तो उस का रूप दमक उठा.

पूजा और कैलाश की शादी सीकर के रैवासा धाम के जानकीनाथ मंदिर में करना तय किया गया था. शादी में पूजा के मायके से पिता शिवभगवान सोनी एवं अन्य लोग बेटी के पुनर्विववाह में शरीक हुए थे.

सीकर के रैवासा धाम में जानकीनाथ मंदिर में स्वामी राघवाचार्य के सान्निध्य में 3 मई, 2022 को कैलाश और पूजा की शादी संपन्न हुई. कैलाश और पूजा ने अग्नि को साक्षी मान कर सात फेरे लिए और सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाई.

पूजा सोनी के पहले ससुर रमेशचंद्र सोनी ने पूजा के नाम 2 लाख 10 हजार रुपए की एफडी भी कराई. पूजा के पहले पति मुकेश से एक साल की बेटी है. बच्ची शादी के बाद अपनी मां पूजा के साथ नए परिवार में रहने चली गई.

रमेशचंद्र सोनी ने बेटे की मौत के बाद अपनी बहू का अपने हाथों कन्यादान कर उस की नई जिंदगी की राह खोल दी, जिसे कभी बहू के रूप में विदा करवा कर लाए उसे बेटी के रूप में विदा कर समाज को भी नई सीख दी है.

एक साल की बेटी मां पूजा के साथ नए घर चली गई. बहू का पुनर्विवाह कराने पर रमेशचंद्र सोनी की चारों तरफ वाहवाही हो रही है. रमेशचंद्र सोनी से समाज के उन लोगों को सीख लेनी चाहिए, जो विधवा विवाह को नहीं मानते और विधवा विवाह करने भी नहीं देते.

कई समाजों में आज भी विधवा विवाह मान्य नहीं है. उन समाज की उन विधवाओं से जा कर उन का दुखड़ा कोई नहीं पूछता. वे विधवाएं चाहती हैं कि उन का भी पुनर्विवाह हो, ताकि वे जीवन की नई राह पर चल कर सुखी जीवन जी सकें.

पश्चात्ताप-भाग 3 :सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

‘कहां दर्द है?’ डाक्टर पूछते हैं.

‘छाती में,’ कराहता हुआ युवक बोलता है, ‘मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है.’

‘नर्स, इसे पेथीडीन का इंजैक्शन लगवा दो,’ डाक्टर आदेश देते हैं.

‘जरा रुकिए, डाक्टर, पहले इस की छाती का एक्सरे करवा लीजिएगा,’ मेरे अंदर का विशेषज्ञ बोल उठता है.

‘ठीक है, अभी एक्सरे के लिए भेज देता हूं, इतने में कोई दर्दनिवारक दवा तो दे ही दूं.’

मेरे अंदर का विशेषज्ञ संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. मैं उस दूसरे युवक को देखना चाहता हूं, उस का निरीक्षण कर के उस का निदान करना चाहता हूं. मन ही मन आशंकित हो रहा हूं. कहीं इस की पसली तो नहीं टूट गई है और उस टूटे हुए टुकड़े ने फेफड़े में छेद तो नहीं कर दिया है.

डा. विमल मेरी बात को अनसुना कर देते हैं.

‘‘डाक्टर साहब,’’ कोई मुझे झंझोड़ रहा था, ‘‘क्या किया जाए, यह अर्जुन की मां तो कुछ बोलती ही नहीं. इन के किसी रिश्तेदार को खबर कर दें, कोई यहीं रहता हो तो फोन कर दें, क्या करें? आप ही बताइए. कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या करें,’’ मैं फिर वर्तमान में लौटता हूं. मुझे पत्नी की बातें याद आती हैं, ‘अर्जुन की मां का कोईर् नहीं है इस संसार में. पर बड़ी खुद्दार औरत है. किसी के सामने हाथ फैलाना बिलकुल पसंद नहीं करती. मैं कभीकभी ऐसे ही उस की सहायता करना चाहती हूं पर वह कुछ नहीं लेती.’

‘‘इस का तो कोई नहीं है इस संसार में, न पीहर में और न ससुराल में. हमें ही सबकुछ करना है,’’ मुझे डर भी है. मैं स्वगत कहता हूं, ‘दिल्ली जैसे शहर के व्यस्त लोग कहीं अपनेअपने काम का बहाना कर के खिसक न जाएं, फिर मैं अकेला क्या करूंगा?’

सुविधा, मेरी पत्नी, मेरी मनोदशा भांप कर धीरे से मेरा हाथ दबाती है. शब्द मेरे मुंह से निकलते हैं प्रत्यक्ष रूप में, ‘‘आप लोग लाश को उठवा कर निगम बोध घाट ले चलिए. इस की मां को तो कोई होश नहीं है.’’ वास्तव में कोई होश नहीं है. इन आंखों में अभी तक कोई भाव नहीं है, अभी भी अश्रुविहीन आंखें सुदूर, अंधकारमय भविष्य की ओर निहारतीं. इतना बड़ा वज्रपात और यह मौन…

काश, उस बस ड्राइवर ने सोचा होता. उस की असावधानी और लापरवाही कैसे एक समूची जिंदगी को खत्म कर देती है. जिसे अभी पूरा जीवन जीना था, असमय ही कालकवलित हो गया और उस के साथ ही एक पूरा परिवार, जिस में इस अभागी मां का अपने इस कलेजे के टुकड़े के अलावा पूरे संसार में कोई नहीं है, ध्वस्त हो गया है. उस के एकमात्र सहारे की डोर ही टूट गई और उस का खुद का जीवन भी शीशे की तरह किरिचकिरिच हो कर बिखर गया है. कैसे जिएगी यह. काश, वह ड्राइवर सोच पाता, देख पाता.

मुझे एक फिल्म याद आ रही है. ऐसे समय में फिल्म याद आना स्वयं को धिक्कारने को मन करता है, पर मन ही तो है, विचारों पर कोई वश तो नहीं इंसान का. उस फिल्म में एक युवक एक व्यक्ति को कुचल देता है. सर्दी के कोहरे में उसे वह दिखाई नहीं देता और अदालत में जज साहब दंडस्वरूप उस युवक को उस व्यक्ति के परिवार का पालनपोषण करने का भार सौंपते हैं और तब उस युवक को अपने अपराध का एहसास होता है कि कैसे उस की असावधानी ने पूरे परिवार का जीवन संकट में डाल दिया है.

काश, हमारी अदालतें ऐसा ही न्याय कर पातीं. ऐसे ड्राइवरों को इसी प्रकार की सजा दी जाती. जेल की सजा काटने से तो उन्हें उस परिवार के संकट का अनुभव नहीं होता जिस के परिवार का व्यक्ति मौत के मुंह में जाता है. अरे, मैं यह किन विचारों में बह गया हूं, सब लोग तो निगम बोध घाट रवाना हो गए हैं. मैं भी कार में बैठता हूं. स्टीयरिंग घुमाने के साथसाथ मन फिर घूम जाता है. 15-20 औरतें कैजुअल्टी में घुसी चली आ रही हैं. लड़के की मां आगेआगे रोती हुई आरही है, ‘अरे डाक्टर साहब, मेरे बच्चे को क्या हो गया, इसे बचा लीजिए. इस की तो बरात जाने वाली है. अभी एक घंटे के बाद इस की शादी होनी है. यह क्या हो गया मेरे लाल को. मैं ने तो बहुत मना किया था तुझे बाजार जाने को. पर नहीं माना,’ वह जोरजोर से रोने लगती है.

मैं सांत्वना देने का प्रयास कर रहा हूं, ‘आप का बेटा बिलुकल ठीक हो जाएगा, आप चिंता मत कीजिए,’ बाकी औरतों की आवाज से कैजुअल्टी गूंजने लगती है.

मैं वार्डब्वाय को आवाज दे कर इशारे से कहता हूं कि इन सब औरतों को बाहर निकाल दो, लड़के की मां को छोड़ कर. सब से भी प्रार्थना करता हूं कि आप सब कृपा कर के बाहर चली जाएं और हमें अपना काम करने दें. सभी महिलाएं चुपचाप बाहर निकल जाती हैं. केवल लड़के की मां रह जाती है. मैं उस के बेटे के ठीक होने का विश्वास दिलाता हूं और वह संतुष्ट दिखाई देती है. दूसरे युवक पर मेरा ध्यान जाता है. उस की ओर इशारा कर के मैं पूछता हूं, ‘यह कौन है? यह युवक भी तो आप के बेटे के साथ ही आया है?’

वह औरत चौंकती है दूसरे युवक को देख कर, ‘अरे, यह तो शिरीष का दोस्त है, अनिल, कैसा है बेटा तू?’ वह उठ कर उस के पास पहुंचती है. मैं ने देखा वह दर्द से बेचैन था. मैं डाक्टर विमल को आवाज देता हूं, ‘डाक्टर , प्लीज, इस युवक का जल्दी एक्सरे करवाइए या मुझे निरीक्षण करने दीजिए. इसे चैस्ट पेन हो रहा है. मैं शिरीष की ओर इशारा कर के कहता हूं, ‘आप इसे संभालिए, मैं उसे देख लेता हूं.’ मुझे कोई जवाब मिले, इस से पहले ही सर्जन आ जाते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘डाक्टर प्लीज, आप को ऐसे ही हमारे साथ औपरेशन थिएटर तक चलना होगा. आप अगर अंगूठा हटाएंगे अभी, तो फिर काफी खून बहेगा,’ और मैं उन के साथ युवक की ट्राली के साथसाथ औपरेशन थिएटर की ओर चल पड़ता हूं.

जातेजाते मैं देखता हूं कि डाक्टर विमल उस युवक को एक्सरे के लिए रवाना कर रहे हैं. ‘इस की वैट फिल्म (गीली एक्सरे) मंगवा लेना’, मैं जोर दे कर कहता हूं और रवाना हो जाता हूं. आधा घंटा औपरेशन थिएटर में लगा कर लौटता हूं और ज्यों ही कैजुअल्टी के पास पहुंचता हूं, मुझे एक हृदयविदारक चीख सुनाई देती है. मेरे पैरों की गति तेज हो गई है.

मैं दौड़ कर कैजुअल्टी पहुंचता हूं. ‘यह कौन चीख रहा था?’ मैं सिस्टर से पूछा रहा हूं. उस ने बैड की ओर इशारा किया और मैं ने देखा कि डा. विमल अपना स्टेथस्कोप लगा कर उस युवक के दिल की धड़कन सुनने का प्रयास कर रहे हैं, ‘ही इज डैड, डाक्टर, ही इज डैड,’ ओफ, यह क्या हो गया? जिस बात से मैं डर रहा था, वही हुआ. कार्डियक मसाज, इंजैक्शन कोरामिन, इंजैक्शन एड्रीनलीन, कोई भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर पा रहा है. डा. विमल इस की वैट फिल्म के लिए कहते हैं, ‘अरे लक्ष्मण, तू एक्सरे नहीं लाया?’

‘जाता हूं साहब, यहां एक मिनट तो फुरसत नहीं मिलती,’ वैट फिल्म आई और जब मैं ने उसे देखा तो मेरे मुंह से एक आह निकल गई. डा. विमल ने पूछा, ‘क्या हुआ डाक्टर?’

हम इसे बचा सकते थे, इसे तो निमोथोरेक्स था. फेफड़े में छेद हो गया था, जिस से बाहरी हवा तेजी से घुस कर उस पर दबाव डाल रही थी और मरीज को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी. काश, मैं ने इस का निरीक्षण किया होता. एक मोटी सूई डालने से ही इमरजैंसी टल सकती थी और बाद में फिर एक रबर ट्यूब डाल दी जाती मोटी सी. तो मरीज नहीं मरता.

‘काश, मैं इसे समय पर देख पाता तो यह यों ही नहीं चला गया होता,’ मेरे स्वर में पश्चात्ताप था. पर मैं अब कुछ नहीं कर सकता था. यही अनुताप मेरे मन को और व्यथित कर रहा था. तभी शिरीष की मां आई. वह शायद कुछ भूल गई थी. पूछा, ‘कैसा हैवह शिरीष का दोस्त?’ और मेरा वेदनायुक्त चेहरा तथा मरीज के ऊपर ढकी हुई सफेद चादर अनकही बात को कह रही थी.

‘ओह, यह तो अपनी विधवा मां का अकेला लड़का था. बहुत बुरा हुआ. शिरीष सुनेगा तो पागल हो उठेगा,’ उस की मां कह रही थी. मेरी कैजुअल्टी में एक पल भी ठहरने की इच्छा नहीं हुई. डा. विमल दूसरे डाक्टर को मरीजों के औवर दे रहे थे. हमारी ड्यूटी समाप्त हो चुकी थी, मेरे पैर दरवाजे की ओर बढ़ गए. पर एक घंटे बाद ही मुझे वापस लौटना पड़ा अपना स्टेथस्कोप लेने के लिए. इच्छा तो नहीं थी, पर जाना पड़ा.

अंदर घुसते ही आंखें स्वत: ही उस युवक के बैड की ओर मुड़ गईं. ऐसा ही जड़वत चेहरा, जैसा अर्जुन की मां का है, वही भावशून्य आंखें ले कर एक अधेड़ औरत बैठी थी. उस की अपनी मां, वही दृश्य जो मैं ने 25 वर्षों पहले देखा था. आज उस की पुनरावृत्ति हो रही थी.

कुछ देर पहले मैं उस ड्राइवर के लिए सजा की तजवीज कर रहा था. क्या दंड मिलना चाहिए उसे, यह  सोच रहा था. पर काश, अपने व डा. विमल के लिए भी कोई सजा सोच पाता, सिवा इस पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के. मेरा मन हाहाकार कर उठता है. कब मैं निगम बोध घाट पहुंच गया हूं. पता नहीं चला. सामने अर्जुन की चिता जल रही है. धूधू करती लाश, यह तो कुछ देर में बुझ जाएगी, पर क्या मेरे मन की आग बुझ सकेगी कभी?

बुद्धू कहीं का- भाग 1: कुणाल ने पैसे कमाने के लिए क्या किया?

‘’कुणाल , बेटा अपनी पढाई पर ध्यान रखना.‘’

अम्मा सरला जी ने कुणाल के सिर पर आशीर्वाद देते हुये अपना हाथ फेरा था. मां पापा की आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे , वह भी अपने आंसू नहीं रोक पाया था. उसने मुंह फेर कर अपनी बांहों से आंसू पोछ कर अपने को संभालने की कोशिश की थी. वह दोनों आंसू पोछते हुये ट्रेन में बैठ  गये थे.वह कालेज की भीड़ में अकेला रह गया था. महानगर की भीड़ देख वह घबराया हुआ था. क्योंकि वह पहली बार अपने छोटे से शहर से बाहर आया था.

कुणाल छोटे शहर के सामान्य परिवार का लाडला बेटा था. वह पढने में काफी तेज था, इसीलिये दिल्ली विश्वविद्यालय में उसका एडमिशन आसानी से हो गया था. वह पहली बार यहां की भीड़भाड़, और आधुनिकता के रंग में रंगी सुंदर लड़कियों को देख कर सहम उठा था. इस वजह से वह ज्यादा किसी से बातचीत नहीं करता , न ही किसी से दोस्ती करता. वह अपनी पढाई में जुटा रहता , आखिर मां पापा की उम्मीदें उसके ऊपर ही तो टिकी हुई हैं.

आज इंट्रोडक्शन मीट थी ,वह बहुत घबराया हुआ था.  इतने बड़े स्टेज पर जाकर अपने बारे में बताना …

“ मैं कुणाल यू.पी. के फैजाबाद से…’’

उसकी कंपकंपाती  आवाज सुनकर हॉल में हल्की सी हंसी की आवाज गूंज उठी थी. वह आकर अपनी सीट पर बैठ गया था. सच तो यह था कि उस समय उसे अपने खास दोस्त मधुर की बहुत याद आ रही थी, जिसका एडमिशन दिल्ली में नहीं हो पाया था. वह सोच रहा था कि वह कहां फंस गया है काश  वह अपने पुराने दोस्तों के बीच लौट जाये ….वह सिकुड़ा सिमटा अपने में खोया हुआ बैठा था। तभी एक लड़की उसके पास आई, ’’माई सेल्फ निया , खालसा कॉलेज ‘’

किसी लड़की के साथ बातचीत और दोस्ती, उसके लिये यह पहला अवसर था. निया के बढे हुये हाथ की ओर उसने अपना हाथ बढा दिया था.

वह वहां की फैशनेबिल लड़कियों को देख कर घबराया करता था लेकिन निया के साथ दोस्ती हो जाने के बाद , उसके मन का संकोच अपने आप समाप्त हो गया और निया के साथ उसे मजा आने लगा था.

‘’क्या हुआ निया, तुम्हारा चेहरा क्यों बुझा हुआ है?’’

“मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है ,’’

“चलो कैंटीन में कॉफी पियोगी तो आराम मिलेगा.‘’

‘’क्लास है कुणाल’’

“कुछ नहीं , मैंने इस चैप्टर का नोट्स तैयार कर लिया है ,मैं तुम्हें दे दूंगा ‘’निया ऐसा दिखा रही थी कि वह उसके साथ जाकर कोई एहसान कर रही थी.

निया चूंकि दिल्ली से थी इसलिये उसके बहुत सारे साथी यहांपर थे , उसकी फ्रेंडलिस्ट बहुत लंबी थी. कैंटीन में उसका बड़ा ग्रुप पहले से ही वहां पर बैठा हुआ मानों वह लोग उन लोगों का ही इंतजार कर रहे थे, वह फिर एक बार थोड़ा हड़बड़ा गया था लेकिन उसने सबके साथ उसका परिचय करवाया. वहां पर गगन, शिवा, आयुष नमन् के साथ विनी , रिया , शीना सबके साथ उसकी हाय – हेलो के साथ दोस्ती की शुरुआत हुई. अब मुश्किल यह थी कि वह सब संपन्न परिवारो  के दिखाई पड़ रहे थे. जबकि वह बहुत ही साधारण परिवार से था , उसके पिता किसी तरह से उसके लिये फीस आदि का प्रबंध कर पाते थे.परंतु बेटे को बाहर कोई परेशानी न हो उसको मुंहमांगी रकम भेज दिया करते थे.

उसे दोस्ती निभाने के लिये ज्यादा पैसे की जरूरत होने लगी थी , इसलिये कभी कोचिंग , तो कभी फीस या बुक लेनी है ,इस बहाने से ज्यादा पैसे मंगाया करता था. निया के साथ उसका मिलना जुलना बढ गया था.

कहा जाये तो दोस्ती के साथ साथ अब वह उसकी गर्लफ्रेंड बन चुकी थी. यदि एक दिन भी वह उससे न मिलता तो बेचैन हो उठता था.

निकम्मा : दीपक अम्मा के साथ कहां गया था?

दीपक 2 साल बाद अपने घर लौटा था. उस का कसबा भी धीरेधीरे शहर के फैशन में डूबा जा रहा था. जब वह स्टेशन पर उतरा, तो वहां तांगों की जगह आटोरिकशा नजर आए. तकरीबन हर शख्स के कान पर मोबाइल फोन लगा था. शाम का समय हो चुका था. घर थोड़ा दूर था, इसलिए बीच बाजार में से आटोरिकशा जाता था. बाजार की रंगत भी बदल गई थी. कांच के बड़े दरवाजों वाली दुकानें हो गई थीं. 1-2 जगह आदमी औरतों के पुतले रखे थे. उन पर नए फैशन के कपड़े चढ़े हुए थे.दीपक को इन 2 सालों में इतनी रौनक की उम्मीद नहीं थी. आटोरिकशा चालक ने भी कानों में ईयरफोन लगाया हुआ था, जो न जाने किस गाने को सुन कर सिर को हिला रहा था.

दीपक अपने महल्ले में घुस रहा था, तो बड़ी सी एक किराना की दुकान पर नजर गई, ‘उमेश किराना भंडार’. नीचे लिखा था, ‘यहां सब तरह का सामान थोक के भाव में मिलता है’. पहले यह दुकान भी यहां नहीं थी. दीपक के लिए उस का कसबा या यों कह लें कि शहर बनता कसबा हैरानी की चीज लग रहा था. आटोरिकशा चालक को रुपए दे कर जब दीपक घर में घुसा, तो उस ने देखा कि उस के बापू एक खाट पर लेटे हुए थे. अम्मां चूल्हे पर रोटी सेंक रही थीं, जबकि एक ओर गैस का चूल्हा और गैस सिलैंडर रखा हुआ था. दीपक को आया देख अम्मां ने जल्दी से हाथ धोए और अपने गले से लगा लिया. छोटी बहन, जो पढ़ाई कर रही थी, आ कर उस से लिपट गई. दीपक ने अटैची रखी और बापू के पास आ कर बैठ गया. बापू ने उस का हालचाल जाना. दीपक ने गौर किया कि घर में पीले बल्ब की जगह तेज पावर वाले सफेद बल्ब लग गए थे. एक रंगीन टैलीविजन आ गया था.

बहन के पास एक टचस्क्रीन मोबाइल फोन था, तो अम्मां के पास एक पुराना मोबाइल फोन था, जिस से वे अकसर दीपक से बातें कर के अपनी परेशानियां सुनाया करती थीं. शायद अम्मां सोचती हैं कि शहर में सब बहुत खुश हैं और बिना चिंता व परेशानियों के रहते हैं. नल से24 घंटे पानी आता है. बिजली, सड़क, साफसुथरी दुकानें, खाने से ले कर नाश्ते की कई वैराइटी. शहर यानी रुपया भरभर के पास हो. लेकिन यह रुपया ही शहर में इनसान को मार देता है. रुपयारुपया सोचते और देखते एक समय में इनसान केवल एक मशीन बन कर रह जाता है, जहां आपसी रिश्ते ही खत्म हो जाते हैं. लेकिन अम्मां को वह क्या समझाए?

वैसे, एक बार दीपक अम्मां, बापू और अपनी बहन को ले कर शहर गया था. 3-4 दिनों बाद ही अम्मां ने कह दिया था, ‘बेटा, हमें गांव भिजवा दो.’ बहन की इच्छा जाने की नहीं थी, फिर भी वह साथ लौट गई थी. शहर में रहने का दर्द दीपक समझ सकता है, जहां इनसान घड़ी के कांटों की तरह जिंदगी जीने को मजबूर होता है. अम्मां ने दीपक से हाथपैर धो कर आने को कह दिया, ताकि सीधे तवे पर से रोटियां उतार कर उसे खाने को दे सकें. बापू को गैस पर सिंकी रोटियां पसंद नहीं हैं, जिस के चलते रोटियां तो चूल्हे पर ही सेंकी जाती हैं. बहन ने हाथपैर धुलवाए. दीपक और बापू खाने के लिए बैठ गए. दीपक जानता था कि अब बापू का एक खटराग शुरू होगा, ‘पिछले हफ्ते भैंस मर गई. खेती बिगड़ गई. बहुत तंगी में चल रहे हैं और इस साल तुम्हारी शादी भी करनी है…’

दीपक मन ही मन सोच रहा था कि बापू अभी शुरू होंगे और वह चुपचाप कौर तोड़ता जाएगा और हुंकार भरता जाएगा, लेकिन बापू ने इस तरह की कोई बात नहीं छेड़ी थी. पूरे महल्ले में एक अजीब सी खामोशी थी. कानों में चीखनेचिल्लाने या रोनेगाने की कोई आवाज नहीं आ रही थी, वरना 2 घर छोड़ कर बद्रीनाथ का मकान था, जिन के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा गणेश हाईस्कूल में चपरासी था, जबकि दूसरा छोटा बेटा उमेश पोस्ट औफिस में डाक रेलगाड़ी से डाक उतारने का काम करता था. अचानक न जाने क्या हुआ कि उन के छोटे बेटे उमेश का ट्रांसफर कहीं और हो गया. तनख्वाह बहुत कम थी, इसलिए उस ने जाने से इनकार कर दिया. जाता भी कैसे? क्या खाता? क्या बचाता? इसी के चलते वह नौकरी छोड़ कर घर बैठ गया था.

इस के बाद न जाने किस गम में या बुरी संगति के चक्कर में उमेश को शराब पीने की लत लग गई. पहले तो परिवार वाले बात छिपाते रहे, लेकिन जब आदत ज्यादा बढ़ गई, तो आवाजें चारदीवारी से बाहर आने लगीं. उमेश ने शराब की लत के चलते चोरी कर के घर के बरतन बेचने शुरू कर दिए, फिर घर से गेहूंदाल और तेल वगैरह चुरा कर और उन्हें बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया. जब परिवार वालों ने सख्ती की, तो घर में कलह मचना शुरू हो गया.

उमेश दुबलापतला सा सांवले रंग का लड़का था. जब उस के साथ परिवार वाले मारपीट करते थे, तो वह मुझे कहता था, ‘चाचा, बचा लो… चाचा, बचा लो…’ 2-3 दिनों तक सब ठीक चलता, फिर वह शराब पीना शुरू कर देता. न जाने उसे कौन उधार पिलाता था? न जाने वह कहां से रुपए लाता था? लेकिन रात होते ही हम सब को मानो इंतजार होता था कि अब इन की फिल्म शुरू होगी. चीखना, मारनापीटना, गली में भागना और उमेश का चीखचीख कर अपना हिस्सा मांगना… उस के पिता का गालियां देना… यह सब पड़ोसियों के जीने का अंग हो गया था. इस बीच 1-2 बार महल्ले वालों ने पुलिस को बुला भी लिया था, लेकिन उमेश की हालत इतनी गईगुजरी थी कि एक जोर का थप्पड़ भी उस की जान ले लेता. कौन हत्या का भागीदार बने? सब बालबच्चों वाले हैं. नतीजतन, पुलिस भी खबर होने पर कभी नहीं आती थी. उमेश को शराब पीते हुए 4-5 साल हो गए थे. उस की हरकतों को सब ने जिंदगी का हिस्सा मान लिया था. जब उस का सुबह नशा उतरता, तो वह नीची गरदन किए गुमसुम रहता था, लेकिन वह क्यों पी लेता था, वह खुद भी शायद नहीं जानता था. महल्ले के लिए वह मनोरंजन का एक साधन था. उस की मित्रमंडली भी नहीं थी. जो कुछ था परिवार, महल्ला और शराब थी. परिवार के सदस्य भी अब उस से ऊब गए थे और उस के मरने का इंतजार करने लगे थे. एक तो निकम्मा, ऊपर से नशेबाज भी.

लेकिन कौऐ के कोसने से जानवर मरता थोड़े ही है. वह जिंदा था और शराब पी कर सब की नाक में दम किए हुए था. लेकिन आज खाना खाते समय दीपक को पड़ोस से किसी भी तरह की आवाज नहीं आ रही थी. बापू हाथ धोने के लिए जा चुके थे. दीपक ने अम्मां से रोटी ली और पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, आज तो पड़ोस की तरफ से लड़ाईझगड़े की कोई आवाज नहीं आ रही है. क्या उमेश ने शराब पीना छोड़ दिया है?’’

अम्मां ने आखिरी रोटी तवे पर डाली और कहने लगीं, ‘‘तुझे नहीं मालूम?’’

‘‘क्या?’’ दीपक ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे, जिसे ये लोग निकम्मा समझते थे, वह इन सब की जिंदगी बना कर चला गया…’’ अम्मां ने चूल्हे से लकडि़यां बाहर निकाल कर अंगारों पर रोटी को डाल दिया, जो पूरी तरह से फूल गई थी.

‘‘क्या हुआ अम्मां?’’

‘‘अरे, क्या बताऊं… एक दिन उमेश ने रात में खूब छक कर शराब पी, जो सुबह उतर गई होगी. दोबारा नशा करने के लिए वह बाजार की तरफ गया कि एक ट्रक ने उसे टक्कर मार दी. बस, वह वहीं खत्म हो गया.’’‘‘अरे, उमेश मर गया?’’

‘‘हां बेटा, लेकिन इन्हें जिंदा कर गया. इस हादसे के मुआवजे में उस के परिवार को 18-20 लाख रुपए मिले थे. उन्हीं रुपयों से घर बनवा लिया और तू ने देखा होगा कि महल्ले के नुक्कड़ पर ‘उमेश किराने की दुकान’ खोल ली है. कुछ रुपए बैंक में जमा कर दिए. बस, इन की घर की गाड़ी चल निकली. ‘‘जिसे जिंदगीभर कोसा, उसी ने इन का पूरा इंतजाम कर दिया,’’ अम्मां ने अंगारों से रोटी उठाते हुए कहा. दीपक यह सुन कर सन्न रह गया. क्या कोई ऐसा निकम्मा भी हो सकता है, जो उपयोगी न होने पर भी किसी की जिंदगी को चलाने के लिए अचानक ही सबकुछ कर जाए? जैसे कोई हराभरा फलदार पेड़ फल देने के बाद सूख जाए और उस की लकडि़यां भी जल कर आप को गरमागरम रोटियां खाने को दे जाएं. हम ऐसी अनहोनी के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते.

रश्मि : बलविंदर सिंह से क्या रिश्ता था रश्मि का?

सुबह के 7 बजे थे. गाडि़यां सड़क पर सरपट दौड़ रही थीं. ट्रैफिक इंस्पैक्टर बलविंदर सिंह सड़क के किनारे एक फुटओवर ब्रिज के नीचे अपने साथी हवलदार मनीष के साथ कुरसी पर बैठा हुआ था. उस की नाइट ड्यूटी खत्म होने वाली थी और वह अपनी जगह नए इंस्पैक्टर के आने का इंतजार कर रहा था.

बलविंदर सिंह ने हाथमुंह धोया और मनीष से बोला, ‘‘भाई, चाय पिलवा दो.’’

मनीष उठा और सड़क किनारे एक रेहड़ी वाले को चाय की बोल कर वापस आ गया. तुरंत ही चाय भी आ गई. दोनों चाय पीते हुए बातें करने लगे.

बलविंदर सिंह ने कहा, ‘‘अरे भाई, रातभर गाडि़यों के जितने चालान हुए हैं, जरा उस का हिसाब मिला लेते.’’

मनीष बोला, ‘‘जनाब, मैं ने पूरा हिसाब पहले ही मिला लिया है.’’

इसी बीच बलविंदर सिंह के मोबाइल फोन की घंटी बजी. वह बड़े मजाकिया अंदाज में फोन उठा कर बोला, ‘‘बस, निकल रहा हूं. मैडम, सुबहसुबह बड़ी फिक्र हो रही है…’’

अचानक बलविंदर सिंह के चेहरे का रंग उड़ गया. वह हकलाते हुए बोला, ‘‘मनीष… जल्दी चल. रश्मि का ऐक्सिडैंट हो गया है.’’

दोनों अपनाअपना हैलमैट पहन तेजी से मोटरसाइकिल से चल दिए.

दरअसल, रश्मि बलविंदर सिंह की 6 साल की एकलौती बेटी थी. उस के ऐक्सिडैंट की बात सुन कर वह परेशान हो गया था. उस के दिमाग में बुरे खयाल आ रहे थे और सामने रश्मि की तसवीर घूम रही थी.

बीच रास्ते में एक ट्रक खराब हो गया था, जिस के पीछे काफी लंबा ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. बलविंदर सिंह में इतना सब्र कहां… मोटरसाइकिल का सायरन चालू किया, फुटपाथ पर मोटरसाइकिल चढ़ाई और तेजी से जाम से आगे निकल गया.

अगले 5 मिनट में वे दोनों उस जगह पर पहुंच गए, जहां ऐक्सिडैंट हुआ था.

बलविंदर सिंह ने जब वहां का सीन देखा, तो वह किसी अनजान डर से कांप उठा. एक सफेद रंग की गाड़ी आधी फुटपाथ पर चढ़ी हुई थी. गाड़ी के आगे के शीशे टूटे हुए थे. एक पैर का छोटा सा जूता और पानी की लाल रंग की बोतल नीचे पड़ी थी. बोतल पिचक गई थी. ऐसा लग रहा था कि कुछ लोगों के पैरों से कुचल गई हो. वहां जमीन पर खून की कुछ बूंदें गिरी हुई थीं. कुछ राहगीरों ने उसे घेरा हुआ था.

बलविंदर सिंह भीड़ को चीरता हुआ अंदर पहुंचा और वहां के हालात देख सन्न रह गया. रश्मि जमीन पर खून से लथपथ बेसुध पड़ी हुई थी. उस की पत्नी नम्रता चुपचाप रश्मि को देख रही थी. नम्रता की आंखों में आंसू की एक बूंद नहीं थी.

बलविंदर ंिंसह के पैर नहीं संभले और वह वहीं रश्मि के पास लड़खड़ा कर घुटने के बल गिर गया. उस ने रश्मि को गोद में उठाने की कोशिश की, लेकिन रश्मि का शरीर तो बिलकुल ढीला पड़ चुका था.

बलविंदर सिंह को यह बात समझ में आ गई कि उस की लाड़ली इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी है. उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उस का कलेजा निकाल लिया हो.

बलविंदर सिंह की आंखों के सामने रश्मि की पुरानी यादें घूमने लगीं. अगर वह रात के 2 बजे भी घर आता, तो रश्मि उठ बैठती, पापा के साथ उसे रोटी के दो निवाले जो खाने होते थे. वह तोतली जबान में कविताएं सुनाती, दिनभर की धमाचौकड़ी और मम्मी के साथ झगड़ों की बातें बताती, लेकिन अब वह शायद कभी नहीं बोलेगी. वह किस के साथ खेलेगा? किस को छेड़ेगा?

बलविंदर सिंह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा. कोई है भी तो नहीं, जो उसे चुप करा सके. नम्रता वैसे ही पत्थर की तरह बुत बनी बैठी हुई थी.

हलवदार मनीष ने डरते हुए बलविंदर सिंह को आवाज लगाई, ‘‘सरजी, गाड़ी के ड्राइवर को लोगों ने पकड़ रखा है… वह उधर सामने है.’’

बलविंदर सिंह पागलों की तरह उस की तरफ झपटा, ‘‘कहां है?’’

बलविंदर सिंह की आंखों में खून उतर आया था. ऐसा लगा, जैसे वह ड्राइवर का खून कर देगा. ड्राइवर एक कोने में दुबका बैठा हुआ था. लोगों ने शायद उसे बुरी तरह से पीटा था. उस के चेहरे पर कई जगह चोट के निशान थे.

बलविंदर सिंह तकरीबन भागते हुए ड्राइवर की तरफ बढ़ा, लेकिन जैसेजैसे वह ड्राइवर के पास आया, उस की चाल और त्योरियां धीमी होती गईं. हवलदार मनीष वहीं पास खड़ा था, लेकिन वह ड्राइवर को कुछ नहीं बोला.

बलविंदर सिंह ने बेदम हाथों से ड्राइवर का कौलर पकड़ा, ऐसा लग रहा था, जैसे वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा हो.

दरअसल, कुछ समय पहले ही बलविंदर सिंह का सामना इस शराबी ड्राइवर से हुआ था.

सुबह के 6 बजे थे. बलविंदर सिंह सड़क के किनारे उसी फुटओवर ब्रिज के नीचे कुरसी पर बैठा हुआ था. थोड़ी देर में मनीष एक ड्राइवर का हाथ पकड़ कर ले आया. ड्राइवर ने शराब पी रखी थी और अभी एक मोटरसाइकिल वाले को टक्कर मार दी थी.

मोटरसाइकिल वाले की पैंट घुटने के पास फटी हुई थी और वहां से थोड़ा खून भी निकल रहा था.

बलविंदर सिंह ने ड्राइवर को एक जोरदार थप्पड़ मारा था और चिल्लाया, ‘सुबहसुबह चढ़ा ली तू ने… दूर से ही बदबू मार रहा है.’

ड्राइवर गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘साहब, गलती हो गई. कल इतवार था. रात को दोस्तों के साथ थोड़ी पार्टी कर ली. ड्यूटी पर जाना है, घर जा रहा हूं. मेरी गलती नहीं है. यह एकाएक सामने आ गया.’

बलविंदर सिंह ने फिर थप्पड़ उठाया था, लेकिन मारा नहीं और जोर से चिल्लाया, ‘क्यों अभी इस की जान चली जाती और तू कहता है कि यह खुद से सामने आ गया. दारू तू ने पी रखी

है, लेकिन गलती इस की है… सही है…मनीष, इस की गाड़ी जब्त करो और थाने ले चलो.’

ड्राइवर हाथ जोड़ते हुए बोला था, ‘साहब, मैं मानता हूं कि मेरी गलती है. मैं इस के इलाज का खर्चा देता हूं.’

ड्राइवर ने 5 सौ रुपए निकाल कर उस आदमी को दे दिए. बलविंदर सिंह ने फिर से उसे घमकाया भी, ‘बेटा, चालान तो तेरा होगा ही और लाइसैंस कैंसिल होगा… चल, लाइसैंस और गाड़ी के कागज दे.’

ड्राइवर फिर गिड़गिड़ाया था, ‘साहब, गरीब आदमी हूं. जाने दो,’ कहते हुए ड्राइवर ने 5 सौ के 2 नोट मोड़ कर धीरे से बलविंदर सिंह के हाथ पर रख दिए.

बलविंदर सिंह ने उस के हाथ में ही नोट गिन लिए और उस की त्योरियां थोड़ी कम हो गईं.

वह झूठमूठ का गुस्सा करते हुए बोला था, ‘इस बार तो छोड़ रहा हूं, लेकिन अगली बार ऐसे मिला, तो तेरा पक्का चालान होगा.’

ड्राइवर और मोटरसाइकिल सवार दोनों चले गए. बलविंदर सिंह और मनीष एकदूसरे को देख कर हंसने लगे. बलविंदर बोला, ‘सुबहसुबह चढ़ा कर आ गया.’

मनीष ने कहा, ‘जनाब, कोई बात नहीं. वह कुछ दे कर ही गया है.’

वे दोनों जोरजोर से हंसे थे.

अब बलविंदर सिंह को अपनी ही हंसी अपने कानों में गूंजती हुई सुनाई दे रही थी और उस ने ड्राइवर का कौलर छोड़ दिया. उस का सिर शर्म से झुका हुआ था.

बलविंदर और मनीष एकदूसरे की तरफ नहीं देख पा रहे थे. वहां खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ है, क्यों इन्होंने ड्राइवर को छोड़ दिया.

मनीष ने पुलिस कंट्रोल रूम में एंबुलैंस को फोन कर दिया. थोड़ी देर में पीसीआर वैन और एंबुलैंस आ कर वहां खड़ी हो गई.

पुलिस वालों ने ड्राइवर को पकड़ कर पीसीआर वैन में बिठाया. ड्राइवर एकटक बलविंदर सिंह की तरफ देख रहा था, पर बलविंदर सिंह चुपचाप गरदन नीचे किए रश्मि की लाश के पास आ कर बैठ गया. उस के चेहरे से गुस्से का भाव गायब था और आत्मग्लानि से भरे हुए मन में तरहतरह के विचारों का बवंडर उठा, ‘काश, मैं ने ड्राइवर को रिश्वत ले कर छोड़ने के बजाय तत्काल जेल भेजा होता, तो इतना बड़ा नुकसान नहीं होता.’

कुजात : लोचन अपने बेटे से क्या सिफारिश कर रहा था

लोचन को गांव वालों ने अपनी बिरादरी से निकाल दिया था, क्योंकि उस ने नीची जाति की एक लड़की से शादी कर अपनी बिरादरी की बेइज्जती की थी. गांव के मुखिया की अगुआई में सभी लोगों ने तय किया था कि लोचन के घर कोई नहीं जाएगा और न ही उस के यहां कोई खाना खाएगा. लोचन अपनी बस्ती में हजारों लोगों के बीच रह कर भी अकेला था. उस का कोई हमदर्द नहीं था. एक दिन अचानक उस के पेट में तेज दर्द होने लगा, तो उस की बीवी घबरा कर रोने लगी. जो पैर शादी के बाद चौखट से बाहर नहीं निकले थे, वे आज गलियों में घूम कर गांव के लोगों से लोचन को अस्पताल पहुंचाने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे. लेकिन हर दरवाजे पर उसे एक ही जवाब मिलता था, ‘गांव के लोगों से तुम्हारा कैसा रिश्ता?’

जब वह लोचन के पास लौट कर आई, तब तक लोचन का दर्द काफी कम हो चुका था. उसे देखते ही वह बोला, ‘‘गांव वालों से मदद की उम्मीद मत करो, लेकिन जरूरत पड़े तो तुम उन की मदद जरूर कर देना.’’

इस के बाद लोचन ने खुद जा कर डाक्टर से दवा ली और थोड़ी देर बाद उसे आराम हो गया. दूसरे दिन दोपहर के 12 बजे हरखू के कुएं पर गांव की सभी औरतें जमा हो कर चिल्ला रही थीं, पर महल्ले में कोई आदमी नहीं था, जो उन की आवाज सुनता. सभी लोग खेतों में काम करने जा चुके थे. लोचन सिर पर घास की गठरी लिए उधर से गुजरा, तो औरतों की भीड़ देख कर वह ठिठक गया. औरतों ने उसे बताया कि बैजू चाचा का एकलौता बेटा कुएं में गिर गया है.

लोचन घास की गठरी वहीं छोड़ कुएं के नजदीक गया और देखते ही देखते कुएं में कूद गया. किसी पत्थर से टकरा कर उस का सिर लहूलुहान हो गया, फिर भी उस ने एक हाथ से बैजू चाचा के बेटे को कंधे पर उठा लिया और कुएं की दीवार में बनी एक छोटी सी दरार में दूसरे हाथ की उंगलियां फंसा कर लटक गया. लोचन तकरीबन आधा घंटे तक उसी तरह लटका रहा, क्योंकि बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था. तब तक लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी. गांव वालों ने लोहे की मोटी चेन कुएं में लटकाई, तो मुखियाजी बोले, ‘‘लोचन, अपने हाथों से चेन पकड़ लो, हम सब तुझे ऊपर खींच लेंगे.’’

लेकिन तब तक घायल लोचन तो बेहोश हो चुका था.

मुखियाजी बोले, ‘‘तुम सब एकदूसरे को देख क्या रहे हो? इन दोनों को बचाने का कोई तो उपाय सोचो.’’ सब बुरी तरह घबरा रहे थे कि कुएं से उन दोनों को कैसे निकाला जाए? तभी एक नौजवान आगे बढ़ा और उस ने कुएं में छलांग लगा दी. उस ने लोचन और बैजू चाचा के बेटे को अपनी कमर में रस्सी से बांध दिया और चेन पकड़ कर वह बाहर आ गया.

लोचन और वह लड़का बेहोश थे. गांव वालों ने उन दोनों को तुरंत अस्पताल पहुंचाया और 2 दिन बाद वे सहीसलामत वापस आ गए.आज सुबह से ही मुखियाजी के दरवाजे पर लोगों का आनाजाना लगा हुआ था. लेकिन लोचन को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. सचाई जानने के लिए लोचन यह सोच कर मुखियाजी के दरवाजे की तरफ बढ़ा कि शायद मुखियाजी का बरताव अब बदल चुका होगा.

लेकिन अपने दरवाजे पर लोचन को देख मुखियाजी बोले, ‘‘तू ने अपनी जान की बाजी लगा कर बैजू के बेटे को बचा लिया, तो इस का मतलब यह नहीं है कि हमारी बिरादरी ने तेरी गलतियां माफ कर दीं. आज मेरी बेटी की शादी है और तुझे यहां देख कर बिरादरी वालों के कान खड़े हो जाएंगे, इसलिए यहां से जल्दी भाग जा.’’

यह सुनते ही लोचन की आंखों से आंसू निकल पड़े. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘मुखियाजी, मैं आप के बेटे के बराबर हूं. अगर मेरी वजह से आप की इज्जत बिगड़ती है, तो मैं खुदकुशी कर लूंगा. इस गांव में जिंदा रहने से क्या फायदा, जब मेरी सूरत देखने से ही लोग नफरत करते हैं.’’

‘‘तुम कुछ भी करो, उस के लिए आजाद हो,’’ मुखियाजी बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ गए.

लोचन आज फिर काफी दुखी हुआ. वह भारी मन से अपने घर आ गया. शाम होते ही मुखियाजी के दरवाजे की रौनक बढ़ गई. चारों तरफ रंगबिरंगी लाइटें जगमगा रही थीं और बैंडबाजा बज रहा था. देर रात तक शादी की रस्म चलती रही. सुबह 4 बजे बेटी की विदाई के लिए गांव की औरतें जमा हो गईं. बिरादरी वाले भी दरवाजे पर खड़े थे. अचानक घर के अंदर हल्ला मचा, तो सभी लोग दरवाजे की ओर दौड़े. पता चला कि बेटी के सारे गहने चोरी हो गए हैं और लड़की खुद बेहोश है.

मुखियाजी चिल्ला पड़े, ‘‘तुम सब यहां क्या देख रहे हो? जल्दी पता करो कि किस ने हमारे घर में चोरी की है. मैं उस को जिंदा नहीं छोड़ूंगा.’’

सभी लोगों ने घर से बाहर निकल बस्ती को घेर लिया, लेकिन चोर का कहीं पता नहीं चला. एक घंटे बाद लड़की को होश आया, तो मुखियाजी ने उस से पूछा, ‘‘यह सब किस ने किया बेटी?’’

‘‘मुझे कुछ पता नहीं है पिताजी. किसी ने मुझे बेहोश कर दिया था,’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी.

यह बात जब दूल्हे के पिता को पता चली, तो वे आंगन में घुसते ही मुखियाजी से बोले, ‘‘जो बीत चुका, उसे भूल जाइए समधी साहब. अब बहू को विदा कीजिए. जिस गांव में एकता नहीं होती, वहां यही सब होता है.’’ मुखियाजी आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘आप महान हैं समधी साहब. आज अगर कोई दूसरा होता, तो बरात लौट जाती. बस, मुझे अफसोस इस बात का है कि मेरी बेटी सोने की जगह धागे का मंगलसूत्र पहन कर जाएगी.’’

बरात विदा हो गई. बेटी के साथ सभी रोने लगे थे. सब का चेहरा मुरझाया हुआ था. गाड़ी आगे बढ़ी, तो बढ़ती ही चली गई. लेकिन यह क्या? गांव के बाहर गाड़ी अचानक रुक गई. सामने सड़क पर कोई घायल हो कर पड़ा था. दूर से देखने पर यह पता नहीं चल रहा था कि वह कौन है. दूल्हे के पिता ने मुखियाजी और तमाम गांव वालों को अपने हाथ के इशारे से बुलाया, तो सभी लोग दौड़े चले आए.

‘‘अरे, यह तो लोचन है,’’ पास पहुंचते ही मुखियाजी बोले, ‘‘तुम्हारी ऐसी हालत किस ने की है लोचन? तुम्हारा तो सिर फट चुका है और पैर पर भी काफी चोट लगी है.’’ ‘‘मुझे माफ करना मुखियाजी. मैं उन चोरों को पकड़ नहीं सका. लेकिन अपनी बहन का मंगलसूत्र उन लोगों से जरूर छीन लिया. उन लोगों ने मारमार कर मुझे बेहोश कर दिया था.

‘‘जब मुझे होश आया, तो मैं ने सोचा कि विदाई से पहले आप के पास जा कर अपनी बहन का मंगलसूत्र दे दूं. लेकिन मैं इसलिए नहीं गया कि कहीं आप की बिरादरी वालों के कान न खड़े हो जाएं,’’ सिसकते हुए लोचन ने कहा.

‘‘लोचन, अब मुझे और शर्मिंदा मत करो बेटा. आज तुम ने साबित कर दिया कि समाज की सीमाओं को तोड़ कर भी इनसानियत को बरकरार रखा जा सकता है. आज से तुम इस गांव का एक हिस्सा ही नहीं, बल्कि एक आदर्श भी हो. तुम ने इस गांव के साथसाथ मेरी इज्जत को और भी बढ़ा दिया है,’’ कहते हुए मुखियाजी की आंखें भर आईं. इस के बाद मुखियाजी घायल लोचन को ले कर गांव वालों के साथ अस्पताल की ओर जाने लगे. लोचन अपनी बहन की उस गाड़ी को देखता रहा, जो धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो रही थी.

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