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मैं भारतीय हूं- भाग 2

आहान और अरविंद चौंक गए, सामने कुछ सीनियर के साथ अरविंद के रूममेट्स मोहित और ऋषभ थे. अरविंद कुछ कहता, इस से पहले ही एक सीनियर ने कहा-

“अबे साले, तू अभी तक पढ़ रहा है. तू तो कोटा वाला है न बे. तुझे काहे की चिंता, तू तो सरकारी दामाद है. तुझे तो नौकरी ऐसे ही मिल जाएगी, फिर क्यों इतना पढ़ता है, साले. चल आ जा, आज तुझे हम दूसरी दुनिया की सैर कराते हैं.” यह कहते हुए उस ने अपने पौकेट से एक पैकेट निकाला. तभी दूसरा सीनियर आहान को देख उसे बिस्तर पर से उठाते हुए बोला-

“अबे साले आहान, तू यहां क्या कर रहा है बे, तेरा रूम तो बगल में है?”

अरविंद थोड़ा डरते हुए बोला- “भैया, इसे अपने रूम में डर लग रहा था, इसलिए ये यहां आ गया.”

वह हंसता हुआ बोला- “अच्छा, इसे डर लग रहा था और तुझे डर नहीं लगता क्या?”

अरविंद ने सिर झुका लिया. तभी वहां 2 लड़कियां भी आ गईं. उन में से एक लड़की उस सीनियर, जो अरविंद को धमका रहा था, को हजार रुपए का नोट देती हुई बोली, “ये लो रुपए, अब दो हमारा सामान.”

उन लड़कियों से रुपए ले कर उस सीनियर ने उन्हें एक पैकेट दे दिया. यह कोई साधारण या आम पैकेट नहीं, बल्कि ड्रग्स का पैकेट था जिसे ले कर लड़कियां वहां से चली गईं. यह सब दृश्य देख कर आहान को समझने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि अरविंद इतना परेशान और डरा हुआ क्यों रहता है और वह बारबार यह क्यों कहता है कि वह अपने रूम में पढ़ नहीं पा रहा है.

उन लड़कियों के जाते ही मोहित, ऋषभ और बाकी सीनियर मिल कर आहान और अरविंद पर ड्रग्स लेने का दबाव डालने लगे. दोनों के मना करने पर अरविंद को जातिसूचक गाली और अपमानित करते हुए ऋषभ बोला-

“तुम साले छोटी जाति के लोग चाहे कितनी ही बड़ी जगह या पोस्ट पर क्यों न पहुंच जाओ, तुम हमारी बराबरी कभी कर ही नहीं सकते. तुम छोटे लोग भला क्या जानों हम बड़े लोगों के शौक भी बड़े होते हैं.”

इस पर मोहित अरविंद का मजाक उड़ाते हुए बोला- “ये साले छोटी जाति के लोग रिज़र्वेशन के बल पर हमारा मुकाबला करना चाहते हैं लेकिन हमारी तरह जिगरा कहां से लाएंगे वह तो रिज़र्वेशन में नहीं मिलता न.”

मोहित के ऐसा कहने के बाद सभी एकसाथ हंसने लगे और अपने लिए जातिसूचक गाली सुन अरविंद का खून खौल उठा लेकिन वह शांत रहा क्योंकि वह पढ़ना चाहता था, कुछ बनना चाहता था, वह किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता था और न ही इन सवर्ण जातियों के र‌ईस बिगडै़ल लड़कों की तरह अपने मातापिता की गाढ़ी कमा‌ई सिगरेट,शराब और ड्रग्स जैसी नशीले पदार्थों में फूंकना चाहता था.

आहान और अरविंद पर उन सभी लड़कों ने ड्रग्स लेने का बहुत दवाब डाला, उन्हें अपमानित और गालीगलौज भी किया लेकिन जब वे दोनों नहीं माने तो उन्हें रूम से बाहर जाने को कह दिया और फिर दोनों आहान के रूम में आ गए. पूरे कालेज में उन सभी लड़कों का दबदबा था. कोई उन से कुछ नहीं कहता. सभी लड़के रसूखदार घरों के थे. और शायद इसलिए मैनेजमैंट भी सब जानते हुए अनजान बना हुआ था.

उस रात आहान और अरविंद ठीक से सो भी नही पाए. दीपावली की छुट्टियों के आखरी 2 दिन ही बचे थे और ये दोनों दिन आहान और अरविंद ने बड़ी मुश्किल से निकाले क्योंकि हर रात ये सभी लड़के उन के रूम में घुस आते, उन्हें डराते, धमकाते और परेशान करते. कभी सिगरेट पीने को कहते तो कभी शराब और कभी उन्हें शराब का पैग बनाने को कहते. इस तरह बड़ी मुश्किल से एक सप्ताह की छुट्टियां कटीं.

अब आहान के रूममेट्स रोहन और शशांक लौट आए थे. अब तक केवल अरविंद अपने रूममेट्स मोहित और ऋषभ से परेशान था लेकिन छुट्टी से लौटने के बाद रोहन और शशांक भी उन्हीं बदमाश लड़कों से जा मिले और आहान को परेशान करने लगे, उसे ड्रग्स लेने के लिए दबाव डालने ग‌ए.

जब उन लड़कों की बदसुलूकी और छेड़छाड़ दिनप्रतिदिन बढ़ने लगी और आहान की बरदाश्त से बाहर होने लगा तब वह रूम चेंज या फिर रूममेट्स को चेंज करने का आवेदन ले कर मैनेजमैंट के पास गया. आहान के लाख आग्रह के बावजूद मैनेजमैंट ने न तो आहान का रूम बदला और न ही रूममेट्स. जब स्थिति आहान को अपने हाथों से बाहर जाती दिखाई देने लगी तब उस ने अपने मातापिता को इस की सूचना दे दी‌. सारी वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद उन्होंने जल्द ही कालेज आ कर मैनेजमैंट से मिलने का फैसला लिया.

आहान की ही तरह अरविंद भी अपने दोनों रूममेट्स से परेशान तो था लेकिन वह यह भी जानता था कि यहां इस कालेज में उन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इसलिए अरविंद बिना आवाज़ उठाए चुपचाप उन की ज्यादतियों को बरदाश्त कर रहा था. लेकिन आहान ऐसा नहीं करना चाहता था. वह चाहता था कि वह या फिर कोई और क्यों बेवजह उन बदमाश लड़कों के अन्याय या ज्यादतियों को सहन करे.

रहिमन धागा प्रेम का- भाग 2

यह सोच कर भी खीझ सी उठती थी. किसी बहस या शिकायत का भी क्या मतलब था अब. इतने सालों के अंतराल के बाद भी एकदूसरे की देह की गंध उन्हें वापस किसी और कालचक्र में ले कर जा रही थी.

अनायास पुरानी बातें दिलोदिमाग में घूमने लगीं. पुरानी यादों ने धावा सा बोल कर झकझोर दिया था। अब यह एक विडंबना ही थी कि कभी जो इतना आत्मीय, इतना प्रिय और सर्वस्व था, आज उस के ही प्रति ही झरना इतनी उदासीन थी.

वसु और झरना बीए और एमए के दिनों से सहपाठी थे. 5 सालों की घनिष्ठता ऐसी ही थी जैसे फूल के साथ सुगंधि, सूरज के साथ धूप, बादलों के साथ बारिश, सुबह के साथ चिड़ियों का चहचहाना. कैंपस में कक्षाओं से ले कर दूसरे कालेजों में प्रतियोगिताओं, फेस्ट, होस्टल, बंगलो रोड, कमला नगर, कोचिंग, राजीव चौक, मंडी हाउस में नाटक देखने तक की गतिविधियों में वे दोनों एक ही मित्र मंडली के साथ घूमा करते थे.

पहले दोनों के बीच मित्रता हुई और फिर अंतरंगता इतनी बढ़ गई कि विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी और घर के रास्ते में दोनों एकदूसरे तक ही सिमट गए और अन्य दोस्तसहपाठी उन के परवान चढ़ते प्रेम के मूक समर्थक और साक्षी बन के रह गए.

नजदीकियां कब बढ़ती गईं और कब उन्होंने शेष जीवन साथ बिताने की पहल करते हुए एकदूसरे को अपना लिया, पता ही नहीं चला. पर जैसे कहते हैं कि आवेग में आती नदी की जलधारा एक समय के बाद संकुचित हो जाती है और कुछ समय के बाद थम जाती है, बस कुछ वैसा ही वसु और झरना के प्रसंग में भी हुआ, जिन्हें एकदूसरे से 1 मिनट की भी दूरी बरदाश्त नहीं थी, वे ही जीवनभर के लिए एकदूसरे से दूर रहने के लिए विवश हो गए.

एमए फाइनल ईयर में झरना आगे पीएचडी करने का सपना देख रही थी तो प्रशासनिक सेवाओं में रुझान के कारण वसु सिविल सर्विसेज की तैयारी के बारे में सोचता रहा. दोनों ने हर स्थिति में एकदूसरे के सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में एकदूसरे का साथ देने का फैसला लिया था. सुख हो या दुख, स्थितियां  अनुकूल हों या प्रतिकूल, एकदूसरे के साथ आगे की जिंदगी के अनेक साल साथ बिताने की ठान ली थी उन्होंने. उन की सांसें एकसाथ धड़कनें लगी थीं. दोनों एकदूसरे के प्रति तनमन से समर्पित थे मगर इसे कुदरत का क्रूर मजाक कहें कि समय एक जैसा नहीं रहता। सुख के बाद दुख और वसंत के बाद ग्रीष्म ऋतु का आना अवश्यंभावी है।

नवंबर का महीना था. वसु पहले ही कोशिश में सिविल सर्विसेज की परीक्षा के सभी चरणों में सफलता के बाद ट्रैनिंग के लिए मसूरी रवाना हो रहा था और झरना पीएचडी प्रोग्राम में रजिस्टर्ड हो गई थी. पहली बार उन्हें एहसास हो रहा था कि उन के बीच दूरियां बननी शुरू हो गई थीं. सब से बड़ा सदमा झरना को तब लगा जब उसे मालूम हुआ कि पहली पोस्टिंग के बाद वसु के घर पर उस के विवाह के लिए एक से बढ़ कर एक संभ्रांत और प्रतिष्ठित परिवारों के रिश्तों की भीड़ सी लग गई थी और उन दोनों के आपसी संबंधों के विषय में जानते हुए भी वसु के मातापिता भारी दहेज और प्रतिष्ठित परिवारों से संबंध के लोभ को निकाल नहीं कर पा रहे थे.

विश्वास न होता था कि झरना जैसी तेज और सुलझे दिमाग की लङकी को अपने बेटे की पत्नी के रूप में वसु के मातापिता को अपनाने में क्या आपत्ति हो सकती थी पर जैसाकि सामाजिक परिवेश था, अधिकांश मातापिता अपने नौकरीपेशा साधन संपन्न बेटों को मैरिज मार्केट में ट्रौफी की तरह ही लौंच करते थे. झरना को जैसे ही पता लगा कि वसु के मातापिता आए हुए रिश्तों की जांचपड़ताल में लग गए हैं, उसे गहरा आघात सा लगा और उस ने वसु को कौल कर के अपनी चिंताएं जाहिर कीं पर उस समय वसु ने उन सारी बातों को सुनीसुनाई अफवाहें कह कर खारिज कर दिया। आज पहली बार उस का आत्मविश्वास और धैर्य उस का साथ नहीं दे रहे थे। वह सोच में पड़ गई कि इतनी अच्छी शिक्षा और स्वाभिमान के बावजूद कैसे इतनी आसानी से मैं ने अपना सर्वस्व किसी और को समर्पित कर दिया? सच में अपने अच्छे और बुरे के निर्माता हम स्वयं ही होते हैं।

पहली बार उसे अपने चाहे हुए रिश्ते में घुटन सी महसूस होने लगी थी। सच ही तो कहते थे लोग कि हाथ पर हाथ रख देना एक बात थी पर किसी का हाथ हाथ में ले कर साथ में चलने का प्रण निभाना कोई आसान बात न थी. फिर तो कुछ दिनों में अलगअलग सी अनेक बातें सुनने में आईं पर वे सभी उन के संबंध के प्रतिकूल ही थीं.

वसु ने अपने मातापिता से नाराजगी दिखाई तो उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण से आपत्ति. वसु झरना के मातापिता से भी मिला और झरना के मातापिता नम्र निवेदन ले कर वसु के घर भी गए पर वसु के मातापिता पुत्र की क्लासवन की नौकरी और उस के मद में चूर किसी निम्न मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षिका को अपने घर की बहू बनाने को बिलकुल राजी नहीं हुए। 21वीं सदी में भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, प्रसन्नता पारिवारिकसामाजिक दबाव में कसमसा कर रह गए थे.

धीरेधीरे समय बीता और वसु और झरना के बीच बातचीत बंद हो गई. झरना के जीवन से वसंत चला गया और चेहरे से मुसकान. अपना सर्वस्व वसु पर वार कर उस ने खुद को खाली कर लिया था पर समय सारे जख्म भर देता है… पहले जो वियोग पहाड़ सा लगता था उस ने ही झरना को जीवन का एक मकसद दे दिया और वह पूरी तरह से अपनी लाइफ में व्यस्त हो गई. वसु के लिए अब उस के मन में एक कड़वाहट जरूर घर कर गई और उस का एक स्थायी प्रभाव यह हुआ कि वह किसी भी पुरुष पर फिर विश्वास करने की हिम्मत कभी न कर पाई और कितने ही दबावों के बावजूद उस ने अपना जीवन अपनी शर्तों पर अपने मातापिता के साथ ही बिताने का निर्णय कर लिया.

सहारा- भाग 2 : रुद्रदत्त को अपने बेटों से क्यों थी नफरत ?

पिछले कुछ समय से गिरिजा रोज सुबह इस पार्क में दौड़ने आती थी और दूर से रुद्रदत्त को कसरत करते हुए देखती थी. उस दिन उस से रहा नहीं गया और गिरिजा ने रुद्रदत्त से परिचय बढ़ा लिया था.

“अभी आप कहां रहती हैं टीचरजी?” रुद्रदत्त ने प्रश्न किया और विशेष भाव से मुसकरा दिए.

“अरे सर, हमारा नाम है, आप हमें टीचरजी की जगह गिरिजा कहेंगे तो हमें ज्यादा अच्छा लगेगा. आप को नहीं लगता कि यह टीचरजी, यह लालाजी बहुत पराए से लगते हैं. वैसे अभी तो मैं एक होटल में ही रहती हूं, कोई अच्छा सा रूम मिल जाए तो वहां शिफ्ट हो कर सैटल हो जाऊं. आप की नजर में है कोई अच्छा कमरा?” गिरिजा ने रुद्रदत्त की आंखों में देखते हुए प्रश्न किया. इस समय गिरिजा के चेहरे पर बहुत भोली मुसकान थी.

“आप ठीक समझो तो मेरे घर… इतना बड़ा घर है और रहने वाला मैं अकेला. आप कोई किराया भी मत देना बस भोजन…आप को रहने का सहारा हो जाएगा और मुझे भोजन का,” रुद्रदत्त ने धीरे से कहा.

“सहारा…ठीक है, तो मैं कल ही अपना सामान ले कर आ जाती हूं। कल संडे है, आराम से रूम सैट हो जाएगा,” गिरिजा ने कुछ सोच कर कहा और दोनों मुसकराते हुए चले गए.

गिरिजा अब रुद्रदत्त के बड़े से घर में आ गई थी. रविवार का दिन था तो आराम से वह अपना सामान जमा सकती थी. ऐसे भी गिरिजा के पास ज्यादा सामान नहीं था. बस कुछ कपड़े थोड़े से बरतन और कुछ किताबें.

“आप यह न समझना कि बस यह एक कमरा ही आप का है, मेरी ओर से यह पूरा घर आप का है। आप जहां चाहें रह सकती हैं, जहां चाहें जो चाहे कर सकती हैं,” रुद्रदत्त ने गिरिजा की किताबें जमाते हुए कहा.

आज रुद्रदत्त भी दुकान नहीं गए थे. पत्नी के जाने के बाद यह पहली बार था जब उन्होंने दुकान समय पर नहीं खोली थी. हालांकि पहले तो यह अकसर हुआ करता था. खासकर उन की शादी के शुरुआती दिनों में. आज न जाने क्यों रुद्रदत्त को वे दिन बहुत याद आ रहे थे.

“आप का कमरा कौन सा है, चलो मुझे दिखाओ,” अचानक किताब रख कर गिरिजा रुद्रदत्त की ओर घूमी और उन की आंखों में देखते हुए गंभीर हो कर बोली.

“वह… उधर, वहां है मेरा कमरा,” रुद्रदत्त ने हकलाते हुए उंगली से इशारा कर के बताया.

“अच्छा…चलो मुझे देखना है,” गिरिजा ने कहा और उस रूम की ओर बढ़ गई.

रुद्रदत्त भी उस के पीछे आने लगे.

कमरे में आ कर कुछ देर इधरउधर देखने के बाद गिरिजा नजर एक तसवीर पर जा कर अटक गई. कमरे में दीवार पर एक बड़े से फ्रेम में किसी महिला की तसवीर लगी थी.

“यह मेरी पत्नी गंगा की तसवीर है. बीच राह में ही मुझे छोङ कर चली गई,” रुद्रदत्त गिरिजा की आंखों का मतलब समझ कर उसे बताते हुए बोले.

“अच्छा, फिर आप ने इन की तसवीर यहां क्यों लगा रखी है? अरे, यदि आप ऐसे इन्हें तसवीर में कैद कर के रखोगे तो किस तरह आप इन्हें अपनी यादों से आजाद कर पाएंगे?” गिरिजा ने गंभीर हो कर कहा और रुद्रदत्त की आंखों में देखने लगी.

रुद्रदत्त ने कुछ नहीं कहा और बस गिरिजा की आंखों में देखने लगे. अचानक गिरिजा ने उन का हाथ पकड़ लिया. यह स्पर्श रुद्रदत्त को डूबते को तिनके का सहारा सा लगा और उन का ध्यान टूट गया.

“अच्छा, अब आप दुकान पर जाइए, यहां मैं सब ठीक कर दूंगी,” गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त बिना कुछ कहे दुकान के लिए निकल गए.

शाम को गिरिजा ने भोजन में कई तरह के पकवान बनाए थे। पत्नी के देहांत के बाद रुद्रदत्त ने पहली बार मन और पेट दोनों की तृप्ति की थी.

“वाह, क्या स्वाद है। जादू है आप के हाथों में गिरिजा. आप को बायोलौजी का नहीं कुकिंग का टीचर होना चाहिए था,” भोजन के बाद रुद्रदत्त ने गिरिजा की तारीफ करते हुए कहा.

“अच्छाजी, चलो कोई बात नहीं, यहां मैं आप को कुकिंग सिखाने का जौब कर लेती हूं लेकिन केवल आप को ही सिखाएंगे,” गिरिजा ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मुझे ही क्यों?” रुद्रदत्त ने गिरिजा की आंखों में देखते हुए पूछा.

“सहारे के लिए लालाजी, अब कभी अगर मैं बीमार पड़ी तो मुझे भी तो 2 रोटी का सहारा चाहिए होगा न, तब आप मेरे लिए खाना बनाना,” गिरिजा ने हंसते हुए कहा लेकिन तभी रुद्रदत्त ने गिरिजा के मुंह पर हाथ रख दिया और धीरे से बोले, “बीमार पड़ें आप के दुश्मन.”

तभी गिरिजा ने रुद्रदत्त के हाथ को चूम लिया और मुसकराते हुए उन की आंखों में देखने लगी.

“क्या देख रही हो ऐसे?” रुद्रदत्त ने उस से नजरें चुरा कर अपने हाथ को देखते हुए कहा.

“क…कुछ नहीं…बस ऐसे ही,” गिरिजा ने कहा और बरतन समेटने लगी.

“अरे गिरिजा, यह हमारे कमरे का हुलिया किस ने बदल दिया? और गंगा की तसवीर कहां है?”कुछ ही देर बाद कमरे से रुद्रदत्त की आवाज आई.

“हम ने किया है और गंगाजी को हम ने उन की तस्वीर की कैद से मुक्त कर दिया। अब आप भी उन्हें अपनी यादों से मुक्त कर दो और इस काम के लिए जो सहारा चाहिए आप को मैं देने के लिए तैयार हूं,” गिरिजा ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा और मुसकराते हुए वापस जाने लगी.

“कैसा सहारा गिरिजा?” रुद्रदत्त ने उस की आंखों की चमक देखते हुए पूछा.

“आती हूं अभी, थोड़ा इंतजार कीजिए,” गिरिजा ने हंस कर कहा और रसोई की ओर बढ़ गई.

रुद्रदत्त सोच रहे थे कि गिरिजा आज न जाने क्या करने वाली है। कुछ देर बाद जब गिरिजा उन के सामने आई तो वे हक्केबक्के से उसे देखते रह गए.

गिरिजा ने बहुत सुंदर लहंगा और चोली पहनी हुई थी. उस ने एक जड़ाऊ चुनरी से अपने सिर को भी ढंका हुआ था. वह आगे आई और रुद्रदत्त के सामने आ कर खड़ी हो गई. रुद्रदत्त तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें. इन कपड़ों में गिरिजा बिलकुल अप्सरा लग रही थी. उस का रूप, उस का यौवन किसी नवविवाहित नवयौवना को भी फेल कर रहा था. रुद्रदत्त तो पलकें तक झपकाना भूल गए थे.

“ऐसे क्या देख रहे हैं रुद्र, क्या मैं अच्छी नहीं लग रही?” गिरिजा ने धीरे से मुसकराते हुए पूछा.

“बहुत अच्छी लग रही हो गिरिजा मगर यह सब…?” रुद्रदत्त ने फिर उस की ओर देखते हुए पूछा.

“यह सब आप को सहारा देने के लिए ताकि आप गंगाजी को भुला सको और भुला सको उन कुपुत्रों को जिन्हें अपने सुख के आगे अपने पिता की पलकों में रोज सूखते आंसू कभी दिखाई नहीं दिए,” गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त के पास बिस्तर पर बैठ गई.

गिरिजा की सुंदरता रुद्रदत्त को मोहित कर रही थी. उस के शरीर की मादक गंध उन्हें मदहोश कर रही थी. वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या करें, तभी गिरिजा ने उन का हाथ अपने हाथों में ले लिया और बोली, “जब इस दुनिया में सभी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं, सभी को बस अपनेआप से मतलब है तो हम इस मतलबी दुनिया की परवाह क्यों करें. क्यों नाम आज से हम एकदूसरे का भावनात्मक सहारा बनें? क्यों न हम एकदूसरे की कमी पूरी करें? क्यों न हम सबकुछ भूल कर बस अपने सुख के लिए जीना शुरू करें,” गिरिजा रुद्रदत्त के हाथों को दबा रही थी.

तेरे जाने के बाद : भाग 2

‘तुम एक बार बोल कर तो देखतीं. मैं तुम्हारी कला के बीच कभी नहीं आता.’

‘आज जानती हूं तुम कभी न आते. लेकिन उस समय कहां सम?ा पाई थी मैं. सम?ा गई होती तो आज मैं…’

‘मैं क्या?’

‘तुम नहीं सम?ोगे.’

‘मैं तब भी नहीं सम?ा सकता था और आज भी नहीं सम?ा सकता तुम्हारी नजरों को. सम?ादारी जो न मिली विरासत में.’

‘तुम गलत व्यू में ले रहे हो.’

‘तो सही तुम्हीं बात देतीं.’

मेरी तंद्रा फिर से टूट गई जब अभिलाषा आ कर मेरे गले से लिपट गई. मैं ने अभिलाषा को भले जन्म न दिया हो लेकिन वह मेरी बेटी से बढ़ कर है. मेरी सहेली, मेरी हमराज. कुछ भी तो नहीं छिपा है अभिलाषा से. मेरी और मोहित की शादी के समय अभिलाषा 6 साल की थी. दहेज में साथ ले कर मोहित के घर आ गई थी मैं. अब मेरी दुनिया अभिलाषा ही है.

‘‘ओहो…, कहां खोई हैं मेरी दीदी?’’

‘‘ना रे, सोच रही थी तेरी शादी में किस को बुलाऊं, किस को नहीं? तू ही बता किसेकिसे बुलाना चाहेगी? मैं तो सम?ा नहीं पा रही किसे बुलाना है, किसे नहीं?’’

‘‘दीदी, मैं सम?ा रही हूं आप की समस्या. आप विश्वास रखो आप जिसे भी बुलाएंगी वे हमारे शुभचिंतक ही होंगे, न कि हम पर ताने कसने वाले. चाहे वे हमारे पापा ही क्यों न हों. यदि उन्हें हमारी खुशी से खुशी नहीं तो मत ही बुलाइएगा. पर मु?ो ऐसा क्यों लग रहा है कि आप कुछ और ही सोच रही हैं.’’

‘‘अरे नहीं, कोई बात नहीं है. तू एंजौय कर अपनी शादी. तेरी खुशी से बढ़ कर मेरे लिए कोई चिंताफिक्र नहीं.’’

‘‘कुछ तो छिपा रही हो दीदी, क्या अपनी बहन को भी नहीं बताओगी?’’

‘‘मैं ने कहा न, कोई बात नहीं. क्या मु?ो थोड़ी देर आराम करने देगी?’’ मैं ?ां?ाला कर बोली.

मैं पहली बार अभिलाषा पर ?ां?ालाई थी. वह भी असहज हो कर चली गई. मैं कैसे बताती मु?ो क्या चिंता खाए जा रही थी? अतीत के पन्ने को फिर से उधेड़ने की हिम्मत अब रही नहीं और उस में उल?ा कर निकलने की काबिलीयत भी अब पस्त हो चुकी है. जो मोहित के रहते कभी नमकतेल का भाव न जान सकी थी वह आज आशियाना सजाना चाहती है. जुगनू की रोशनी जैसा कमल के इश्क को तवज्जुह देती रह गई पूरी जिंदगी. कभी सम?ा ही नहीं पाई मोहित की खामोशी को.

भरसक उस ने मु?ो अपने पावर का इस्तेमाल कर के अपनाया था. लेकिन वह पावर भी तो उस का प्यार ही था. कहां मैं एक औरकेस्ट्रा में नाचने वाली खूबसूरत मगर मगरूर लड़की और कहां मोहित ग्वालियर के राजमहल के केयरटेकर का बेटा. काले रंग का गोलमटोल ठिगना जवान. मु?ो शुरू से ही पसंद नहीं था. लेकिन उसे पता नहीं किस शो में मैं दिख गई थी और वह मु?ा पर फिदा हो गया था.

मैं मोहित को कभी प्यार करने की सोच भी नहीं सकती थी. भले ही वह और उस के दोस्तों ने मेरे पिता को लालच की कड़ाही में छौंक दिया हो लेकिन मु?ो इंप्रैस न कर सका. मैं तो शादी जैसे लफड़े में पड़ना ही नहीं चाहती थी. लेकिन पापा ने मोहित के साथ शादी के बंधन में बांध दिया. मु?ो उन्मुक्त हो कर नाचना था.

अपनी मरजी के लड़के से प्यार और फिर शादी करना चाहती थी. पर इस में जबरन पापा की भी कोई गलती नहीं थी. मेरे आशिकों की बढ़ती तादाद और मिलने वाली प्रशंसा व रुपयों से मेरा ही दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ बैठा था. मैं कला को भूल चुकी थी. मेरे लिए नाचना केवल व्यापार बन कर रह गया था. और व्यापार में सबकुछ जायज होता है. बस, यही मैं सम?ाती थी. और सम?ातेसम?ाते इतना गिर गई कि गिरती ही चली गई. कौमार्य कब भंग कर आई, पता ही नहीं चला. पापा की चिंता और फैसला दोनों ही अपनी जगह जायज थे परिस्थिति के अनुसार. और शादी कर मैं ग्वालियर से गुड़गांव डीएलएफ आ गई.

गुड़गांव में ही तो कमल से मिली थी. वह हरियाणवीं लोकसभा के स्टेज प्रोग्राम में अनाउंसर का काम करता था. जब भी आता था तो रंगीनियां साथ ले कर ही आता था. उस के छींटेदार चुटकुले, हरियाणवी लोकगीतों के ?ाड़ते बोल, रोमांटिक शेरोशायरी में बात करने का अंदाज मु?ो आकर्षित करने लगा. मैं कमल में अपने टूटे सपनों को ढूंढ़ती रहती.

देखते ही देखते कमल, मोहित से ज्यादा मेरा दोस्त बन गया. हम दोनों एकदूसरे के समक्ष खुलने लगे. उस की रोजरोज के स्टेज प्रोग्राम पर की जाने वाली चर्चाएं, खट्टीमीठी नोंक?ोक वाली बातें, उस के हंसनेबोलने का स्टाइल सब मु?ो भाने लगा. सबकुछ तो उस में कमाल ही था. गेहुआं रंग पर मद्धिममद्धिम मोहक मुसकान. किसी भी महिला को कैसे अपनी ओर आकर्षित किया जाता है, यह कोई कमल से सीखे.

मैं कमल के रंग में रंगने लग गई थी. मु?ो उस से प्यार होने लगा. मैं कमल के प्रति समर्पित होने लगी. लेकिन मु?ो कमल की आर्थिक स्थिति हमेशा से खलती रही पर उसे कोईर् परवा नहीं थी. वह असीम पर निर्भर रहता. उसी दौरान असीम से भी मिलवाया था मु?ो और मोहित को, कुछ ही समय में असीम हमारे परिवार में घुलमिल गया.

उन दिनों असीम की उम्र 23-24 के लगभग होगी. इधर अभिलाषा की भी उम्र 14-15 की होने जा रही थी. एक तरफ नईनई जवानी, दूसरी तरफ गांवदेहात से आया आशिक. उस पर से मेरे घर का माहौल, जहां मैं खुद इश्क के जाल में फंसी थी वहां अपनी बहन को कैसे रोक पाती. कमल असीम को प्यार और शादी के सपने दिखाता रहा और रुपए ऐंठता रहा. पर सच तो यह है कि मैं प्यार में थी ही नहीं, बल्कि वासनाग्रस्त थी. जब खुद की ही आंखों पर हवस की पट्टी चढ़ी हो तो बहन को किस संस्कार का वास्ता देती.

मोहित के औफिशियल टूर पर जाते ही मैं खुद को कमल के हवाले सौंप दिया करती. मैं पूरी तरह ब्लैंक पेपर की तरह कमल के सामने पन्नादरपन्ना खुलती जाती और कमल उस पर अपने इश्क के रंग से रंगबिरंगी तसवीरें बनाता रहता. उस की आगोश में मैं खुद को भूल जाती थी. वह मेरे मखमली बदन को चूमचूम कर कविताएं लिखता. सांस में सांसों को उबाल कर जब इश्क की चाशनी पकती, मैं पिघल जाया करती.

मु?ो एक  अजीब सी ताकत अपनी ओर खींचने लगती. मैं कमल के गरम बदन को अपने बदन में महसूस करने लगती. उस के बदन के घर्षण को पा कर मैं मदहोश हो जाती. वह मेरे दिलोदिमाग पर बादल की तरह उमड़ताघुमड़ता और मेरे शरीर में बारिश की तरह ?ामा?ाम बूंदों की बौछारें करने लगता. मैं पागलों की तरह प्यार करने लगती कमल से. मु?ो उस के साथ संतुष्टि मिलती थी.

मैं इतनी पागल हो चुकी थी कि भूल गई थी कि मैं प्रैग्नैंट भी हूं. मोहित के बच्चे की मां बनने वाली हूं. मु?ो सिर्फ और सिर्फ अपनी खुशी, अपनी दैहिक संतुष्टि चाहिए थी. मैं ने सैक्स और प्यार में से केवल और केवल सैक्स चुना. मु?ो तनिक भी परवा न रही अपने ममत्व की. मेरी ममता तनिक भी नहीं सकपकाई मोहित के बच्चे को गिराते हुए.

जब मेरे गुप्तांगों में सूजन आ जाया करती या मेरे रक्तस्राव न रुकते तब असीम दवाईयां ला कर देता मु?ो. उस ने भी कई बार सम?ाने की कोशिश की, ये सब गलत है भाभी. पर मेरी ही आंखों पर हवस की, ग्लैमर की पट्टी बंधी थी. मैं कुछ सोचनेसम?ाने के पक्ष में ही नहीं थी. मैं खुद को मौडर्न सम?ाती रही. और फिर से मैं जब दोबारा प्रैग्नैट हुई वह बच्चा तुम्हारा नहीं था, वह कमल का बच्चा था. मैं कमल के बच्चे की मां बनने वाली थी.

मेरी जिंदगी पर से तुम्हारा वजूद खत्म होने को था. मैं पूरी तरह से कमल से प्यार की गहराई में थी. मु?ा पर मेरा खुद का जोर नहीं था. कमल पिता बनने की खुशी में एक पल भी मु?ो अकेला न छोड़ता. सुबह औफिस निकलते ही कमल आ जाया करता. शाम तक मेरे साथ रहता और फिर तुम्हारे आने के समय एकआध घंटे के लिए मार्केट में निकल जाता, अपने और तुम्हारे लिए कुछ खानेपीने का सामान लेने. और तुम्हारे आने के एकआध घंटे बाद फिर वापस आ जाता. कमल तुम्हारे सामने मु?ो माया कह कर भी संबोधित नहीं करता था. तुम्हें तो शायद पता भी नहीं कि वह अकसर तुम्हारे लिए कौकटेल ड्रिंक ही बनाया करता था ताकि तुम्हें होश ही न रहे और हम अपनी मनमानी करते रहें.

मैं कमल की हरकतों पर खुश हो जाया करती थी. उस के माइंड की तारीफ करते न थकती. हमें तुम सिर्फ और सिर्फ बेवकूफ नजर आते थे.

पूरे 9 महीने हां, पूरे 9 महीने तक कमल का बच्चा मेरे पेट में रहा. 9 महीने बाद हम एक बेटे के मांबाप बन गए. तुम मु?ा से प्रैग्नैंसी के दौरान दूर रहे लेकिन कमल उस पीरियड में भी डाक्टरी सु?ाव से संबंध बनाता रहा. तुम पिता बन कर बहुत खुश हुए थे और हम अपने प्यार को मंजिल पर पहुंचा कर खुश थे. तुम न्यू बौर्न बेबी का नाम एम अल्फाबेट से रखना चाहते थे लेकिन कमल का मन था प्रेम नाम रखने का. मैं ने भी कमल की हां में हां मिलाते हुए प्रेम नाम पर मुहर लगा दी.

तुम प्रेम से बेपनाह प्रेम करने लगे. तुम्हारे लिए प्रेम ही सबकुछ हो गया था. प्रेम के नाम से जागना, प्रेम के नाम से सोना. सबकुछ प्रेम पर ही अटक गया था तुम्हारा. और मैं लापरवाहों की तरह बस कमल और कमल करती रहती.

पर मामला वहीं रुक जाता तो अच्छा होता शायद. अब कमल का हक मु?ा पर बढ़ने लगा था. मैं पूरी तरह से कमल की हो गई थी. प्रेम के भविष्य को ले कर मैं तुम से कभी कोईर् चर्चा करना पसंद नहीं करती. कमल जो कहता वही मु?ो सही लगता. रात में हम साथसाथ जरूर सोते पर मैं तुम्हें छूने तक न देना चाहती थी. मु?ो घृणा होती थी तुम से. मेरी शारीरिक जरूरतें कमल दिन में पूरा कर दिया करता था. तुम्हारी जरूरत महज रुपएपैसों को ले कर रह गई थी. मेरा बस चलता तो मैं तुम्हें अपने साथ भी न रखती, लेकिन कमल हर बार मु?ो मना लेता था. उस की नजर में तुम्हारे जैसा बेवकूफ शायद कोई नहीं था. हम तुम्हारा शोषण करते रहे और तुम शोषित होते रहे.

लेकिन अब केवल तुम्हारे शोषित होने या मेरे त्रियाचरित्र का खेल खेलने तक बात न रह गईर् थी. कमल की इच्छाएं बढ़ने लगी थीं. वह अपनी म्यूजिक कंपनी लौंच करना चाहता था. जिस में मु?ो वह डांसर लौंच करता, म्यूजिक वीडियों में. मैं पूरी तरह से उस के समर्थन में खड़ी थी. मु?ो अपने अधूरे सपने सच होने की संभावनाएं पूरी होती लगीं. मैं जागते हुए सपने देखने लगी. पर एक सचाई यह भी थी कि कमल को इस सपने को पूरा करने के लिए बहुत बड़ी रकम की आवश्यकता थी जिस का जुगाड़ कमल चाह कर भी करने में असमर्थ था.

मार्केट में उस की छवि ऐसी थी कि कोई 2 रुपए तक उधार न दे. हमारा सपना पूरा करने का एक मात्र रास्ता घर को बेच कर रुपए जुटाने पर आ अटका. कमल मेरा माइंड पूरी तरह वाश कर चुका था. चूंकि फ्लैट मेरे नाम से तुम ने लिया था, इसलिए कानूनी तौर पर तुम्हारा कोई इंटरफेयर वैलिड नहीं था. तुम ने बहुत ही मेहनत से फ्लैट लिया था. मेरी मनमानी पर पहली बार तुम ने आपत्ति की थी. तुम्हें मंजूर न था फ्लैट का बिकना. पर मैं ने तुम्हारी एक न चलने दी. मु?ो तुम्हें तुम्हारी औकात दिखाने में भी वक्त न लगा. आवेश में मैं तुम्हें नामर्द तक कह गई थी. और प्रेम के जन्म की भी सारी सचाई खोल कर रख दी थी. तुम ठगे से सुनते रह गए थे. मैं बोलती जा रही थी और तुम भावविहीन, विस्मित हो चुपचाप घर से निकल गए थे जो आज तक लौट कर नहीं आए. तुम्हारे जाते ही मैं ने फ्लैट बेच दिया. हम अब पूरी तरह से स्वतंत्र थे.

हमारे सपने सच होने वाले हैं, मैं तो बस यही सोचती रह गई और कमल धीरेधीरे मु?ा से पैसे लेता चला गया. कभी किसी स्टार सिंगर के संग मीटिंग के नाम पर तो कभी औफिस सैटलमैंट के नाम पर. कभी म्यूजिक डायरैक्टर के हाफ पेमैंट का बहाना बनाता तो कभी वीडियो डायरैक्टर, कैमरामैन, स्पौट बौय को देने के नाम पर. वह पैसे मांगता रहा और मैं पैसे देती रही. दिल्ली के कई शूटिंग स्पौट पर भी ले कर जाता था. मैं तो मुग्ध हो जाया करती थी. कैमरे की फ्लैश लाइट में खो जाया करती थी मैं. सीन, लाइट, कैमरा सुनते ही मेरे अंदर ?ार?ारी सी होने लगती.

कमल के ?ाठे लाइवशो का सिलसिला अधिक दिन न चल सका. मेरे पैसे खत्म होने लग गए. कमल की मांगें बढ़ती ही गईं. फ्लैट बिक चुका था. अकाउंट खाली हो चुका था. अब उस की नजर मेरे गहनों पर थी. लगभग गहने भी उस ने बिकवा दिए. मैं रुपएरुपए को तरसने लग गई. मेरी जरूरतें मुंह खोले मु?ो चिढ़ाने लगीं. मैं बरबाद हो चुकी थी.

चालबाजी- भाग 2 : कृष्ण कुमार की अद्भुत लीला

‘मालूम है सर.’ उस ने जूते पर कपड़ा मारा.

‘मेरा नाम कृष्ण कुमार है.’ मैं ने दूसरा पांव रखा.

‘मालूम है सर.’ उस ने दूसरे जूते पर भी कपड़ा फेरा.

‘तुम्हें कैसे मालूम.’ मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘तुम्हें मेरा नाम कैसे मालूम.’

‘आप जैक्सन कम्पनी में लैब असिस्टेंट हैं.’ मेरा चेहरा देख कर वह हंस पड़ा, ‘आप के कार्ड पर लिखा है.’

उस ने मेरे गले में लटके कंपनी के आई कार्ड की तरफ इशारा किया. मैं ने झटके से पैर स्टैंड से हटा लिया. लडक़ा न सिर्फ तेज बुद्धि का था वरन तेज दृष्टि का भी था. वह अंगे्रजी पढ़ भी लेता था. दो लोग और पालिश के लिए आ गए थे.

‘तुम कभी कमरे पर आना.’ मैं ने जेब से दस रुपए निकाले, ‘इतवार को समय मिले तो आना. मैं अकेले ही रहता हूं. ये लो.’

‘आऊंगा सर. पर आज रुपए रहने दीजिए.’

‘क्यों. रुपए क्यों रहने दूं. ये तो तुम्हारी मेहनत का है.’

‘आपने आज मुझ से इतनी देर बात कर ली सर. नहीं तो हम से बात कौन करता है. आज रहने दीजिए. कल से दीजिएगा.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है अनुपम. रुपया तो तुम्हें लेना ही होगा.’

‘अच्छा ये रुपया आप अपने पास जमा कर लीजिए.’ उस ने दूसरे आदमी की तरफ रबर की चप्पलें बढ़ा दीं व उस का जूता उठा लिया. ‘बल्कि अब से आप पालिश का रुपया जमा कर लिया कीजिए. जब जरूरत होगी मैं आपसे ले लिया करूंगा.’

‘चलो ठीक है.’ मैं ने नोट वापस रख लिया. ‘मैं तुम्हारा बैंक में एकाउंट खुलवा दूंगा. तुम आना. मैं तुम्हारे लिए वैकेंसी ढूढुंगा.’

उस ने मुस्करा कर सर हिला दिया व ध्यान से जूते में पालिश लगाने लगा. धीरेधीरे अनुपम मुझ से खुलने लगा.

अनुपम की मां थी. बाप नहीं था. छोटी बहनें थीं जो पढ़ रही थीं. एक आठवी में थी व एक पांचवीं में थी. वह वाकई रहता कहां था यह उस ने स्पष्ट नहीं बताया था. मैं जब भी पूछता था वह टाल जाता था. बस यही कहता कि बीस किलोमीटर दूर रहता है. उस के पिता जी जब तक ङ्क्षजदा थे तब तक सब ठीकठाक था. उन के मरने के बाद उस के चाचा ने सब कुछ पर कब्जा कर उन्हें निकाल दिया था.

‘तुम यहीं कोई कमरा किराए पर क्यों नहीं ले लेते अनुपम.’ एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘तुम तो वहां भी किराए पर ही रहते हो.’

‘यहां किराया मंहगा है सर.’ वह जूतों पर पालिश कर चुका था व अब ब्रश से उन्हें चमका रहा था.

‘अरे बहुत कम फर्क पड़ेगा. फिर तुम्हारा ट्रेन का किराया भी तो बचेगा.’

‘मैं ने एमएसटी बनवा लिया है. उस से किराया कम लगता है. फिर मेरी बहनें भर तो वहीं पढ़ रही है. वहां उन की फीस माफ है.’

‘वे लड़कियां हैं. मैं ने जूते पहन लिए. फिर तुम लोगों की तो यहां भी फीस माफ हो जाएगी. यहां की पढ़ाई भी अच्छी है.’

‘नहीं सर. वहां हमारा मकान भी है. ठीक है चाचा ने हमें निकाल दिया है पर हम लोग लगे तो हैं ही.’

‘तो क्या तुम लोगों ने मुकदमा कर दिया है.’

‘एकदम से मुकदमा तो नहीं किया है. पर पिता जी के एक दोस्त हैं. वे वकील हैं. वही उन से बात कर रहे हैं. शायद चाचा लोग कुछ देने की भी बात करने लगे हैं.’

‘तुम्हारा तीन सौ जमा हो गया है.’ मैं ने जेब से एक छोटी सी नोटबुक निकाल कर आज की तारीख लिखी- ‘चलो तो अब तुम्हारा बैंक में एकाउंट खुलवा दूं.’

‘अभी रहने दीजिए सर.’ वह एक कपड़े से अपने हाथों में लगी पालिश की कालिख पोंछ रहा था, ‘आप के पास है तो बैंक से अच्छा ही है.’

‘और अगर कभी मैं तुम्हारा रुपया ले कर भाग जाऊं तो.’ मैं हंसा

‘ऐसा नहीं हो सकता सर.’ वह मुस्कराया भी नहीं.

‘क्यों. क्यों नहीं हो सकता.’ मैं हंस पड़ा.

‘आप अच्छे आदमी हैं सर. यूआरएगुड मैंन.’

मेरी हंसी रूक गई. मैं उसे आश्चर्य से देखता रह गया.

कुछ समय बीत गया.

उसी के बाद एक दिन मेरी मां को दिमाग का दौरा पड़ा. भाई ने फोन कर के बताया. डाक्टरों ने उन्हें सेरेब्रल थ्राम्बोसिस जैसा कुछ बताया था. भाई ने बताया कि ना तो वे कुछ बोल ही पा रही थीं और ना ही कुछ समझ पा रही थीं. उस ने मुझ से तुरंत आ जाने को कहा. जब उस का फोन आया था तब मैं लैब में यानी आफिस में था. मैं घबरा गया. अपने लैब इंचार्ज के पास गया व उन से छुट्टी मांगी. मां की बीमारी के बारे में जान कर मुझे तुरंत एक सप्ताह की छुट्टी दे दी गई. मैं तुरंत घर आया व एक बैग में कुछ कपड़े वगैरह डाल कर स्टेशन भागा. आधे घंटे बाद मुझे अपने शहर की गाड़ी मिल गई. गाड़ी से मेरे शहर का रास्ता आठ घंटे का था. रात बारह बजे के पहले मैं घर पहुंच गया.

मां अभी अस्पताल में ही थीं. पिता जी व भाई अस्पताल के बरांदे में दरी बिछा कर लेते थे. मां इमरजेंसी में थीं. भाई की पत्नी घर चली गई थी. पिताजी को देखते ही मैं फूट कर रो पड़ा. पिता जी भी अपने को न संभाल सके. भाई ने हम दोनों को संभाला.

मां की गंभीर हालत के कारण उन का दूसरे दिन ही बड़ा आपरेशन किया गया. दो दिन तक हमारी सांस ऊपर नीचे होती रही. पर तीसरे दिन से उन की हालत में सुधार होने लगा. पांचवें दिन उन को घर भेज दिया गया. इस हमारजेंसी में मेरी पर्स में रखा अनुपम का चार सौ रुपया भी बड़ा काम आया. पिताजी के कहने पर मैं वापसी की तैयारी करने लगा.

मैं रात की गाड़ी पकड़ कर सुबहसुबह आ गया. थोड़ा समय कमरे को झाडऩे बुहारने में लगा. इस के बाद शेव कर के नहाने में आधा घंटा लगा. जूता पहनने लगा तो पालिश की याद आई. सोचा चलते समय पालिश कर लूंगा व अनुपम से भी मिल लूंगा. सिर्फ झाड़ कर जूता पहन लिया व ताला बंद कर के बाहर आ गया. सही मायनों में अनुपम के चार सौ रुपए बड़े सही समय पर काम आए थे. उस समय एकएक रुपए का महत्व था. नहीं तो उस दिन इतनी रात में रुपए का इंतजाम नहीं हो पाता. अम्मां के जीवन के लिए शायद उन दवाओं की बेहद जरूरत थी.

मुखौटा, भाग 2 : ड्राइवर को क्यों हो रही थी बेचैनी?

‘‘मैं बचपन में अमलनेर में रहता था. वहां स्कूल में पढ़ता था. नईम नाम है मेरा. क्या आप वहां के कालू मिस्त्री को पहचानते हैं?’’

‘‘हां, वे अच्छे कारीगर हैं और कसाली में रहते हैं,’’ मैं ने बताया.

‘‘अरे, आप तो हमारी पहचान के निकले.’’

हम दोनों की बातचीत का सिलसिला चल पड़ा.

‘‘साहब, 20 साल से मैं ड्राइविंग कर रहा हूं. मुंबई, अहमदाबाद हर रोज केले ले जाने का ट्रिप लगता है. 20 साल से एक ही मालिक के पास काम कर रहा हूं. वे मु?ो छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.’’

‘‘ईमानदारी से काम करने वाले को कोई आदमी कैसे छोड़ेगा?’’

‘‘अरे साहब, आप ईमानदारी की बात कर रहे हैं… मैं ने 20 साल में पैसा नहीं कमाया लेकिन नाम कमाया है, इज्जत कमाई है. इस रास्ते पर हवलदार भी मु?ो सलाम करते हैं.’’

तब तक क्लीनर ने ट्रक पर सवार हो कर कहा, ‘‘चलो, नईम चाचा.’’

ट्रक चल पड़ा. रास्ते में हम दोनों की बातचीत फिर शुरू हो गई.

‘‘आप को क्या बताऊं साहब, अगर सामने से इलाके का विधायक भी आ जाए तो वह गाड़ी खड़ी कर के मु?ा से 2 मिनट बात जरूर करेगा. हम ने इतनी इज्जत कमाई है.’’

‘‘हम अमलनेर कितनी देर में पहुंचेंगे?’’

‘‘1 घंटे में.’’

उसी समय एक जीप ने पूरी तेजी से हमारे ट्रक को ओवरटेक किया. सामने से एक मोटरसाइकिल आ गई. जीप का ड्राइवर कंट्रोल खो बैठा और उस ने मोटरसाइकिल सवार को टक्कर मार दी.

ट्रक का ड्राइवर रफ्तार कम करते हुए चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे, मारा गया बेचारा.’’

क्लीनर भी आंखें फाड़ कर देखने लगा. टक्कर की तेज आवाज सुन कर मेरी छाती भी धड़कने लगी. मोटर- साइकिल रास्ते के समीप के गड्ढे में जा गिरी. ट्रक कुछ आगे जा कर रुका. जीप वाले को गाली देते हुए नईम ट्रक से उतरा. मैं भी उस के पीछे उतरा. मोटरसाइकिल पर सवार दोनों व्यक्ति काफी दूर जा कर गिरे थे. चालक के सिर पर काफी चोट लगी थी और उस में से खून बह रहा था. उस के पीछे बैठा व्यक्ति दर्द से बिलख रहा था.

‘‘उस्मान, पानी की बोतल ला,’’ नईम चिल्लाया. उस्मान ने पानी की बोतल ला कर दी तो उस ने पानी की धार जख्मी व्यक्ति के मुंह में डाली. तभी एक दूध वाले की मोटरसाइकिल आ कर खड़ी हुई.

‘‘कौन तात्याभाई?’’ वह चिल्लाया.

‘‘किस ने ठोकर मार दी?’’ दूध वाले ने पूछा. पास आ कर उस दूध वाले ने उस जख्मी व्यक्ति को पहचाना. वह उसी के गांव का रहने वाला था. वह ट्रक और ड्राइवर की ओर देख कर चिल्लाया, ‘‘तुम ने टक्कर मारी इस मोटरसाइकिल को?’’

‘‘अरे भाई, इस को जीप वाले ने ठोकर मारी है. मैं तो इंसानियत के नाते इसे पानी पिला रहा हूं. वरना इस सुनसान रास्ते पर इसे कौन देखेगा? चाहो तो तुम पूछ लो इस जख्मी से.’’

नईम ने अपनी सफाई पेश की. मैं ने भी नईम की बात का समर्थन किया.

उसी समय जख्मी व्यक्ति चिल्लाने लगा, ‘‘उस जीप वाले को पकड़ो, उसी ने टक्कर मारी है.’’

‘‘अब तो आप को यकीन हुआ?’’ नईम ने उस दूध वाले से पूछा.

इसी बीच उस रास्ते पर 2-3 और मोटरसाइकिल वाले भी आ गए. सब अपनीअपनी हांक रहे थे. जख्मी को तुरंत अस्पताल पहुंचाना जरूरी था. पुलिस को खबर करने की जरूरत थी. वहां आया दूध वाला जख्मी मोटरसाइकिल चालक के घर खबर देने चला गया.

‘‘ऐसा करते हैं कि जख्मी को हम ट्रक में डाल कर चोपड़ा ले जाते हैं और वहां सरकारी अस्पताल में भरती करा देते हैं.’’

नईम के इस प्रस्ताव को सब ने मान लिया. जख्मी को उठा कर ट्रक में डाल कर नईम ने तेजी के साथ ट्रक भगाया. 2 लोग हमारे साथ आए और बाकी वहीं रुक गए.

‘बेचारे की जान बचनी चाहिए,’ नईम बड़बड़ाने लगा.

10-15 मिनट में ट्रक सरकारी अस्पताल पहुंच गया. जख्मी को अस्पताल में भरती करवाया गया. तब तक पुलिस भी वहां पहुंच गई. इस चक्कर में मु?ो देर होती जा रही थी. नईम को भी जल्दी पहुंचना था क्योंकि उस के ट्रक में केले लदे थे. इस दुर्घटना के चलते अब घंटे भर की और देरी हो गई थी.

ड्राइवर नईम को लग रहा था कि जख्मी को भरती कराने के बाद उसे छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन पुलिस ने उसे ट्रक रोकने के लिए कहा.

‘‘ट्रक भगाने की कोशिश मत करो,’’ एक हवलदार ने उसे डांट दिया.

‘‘हम ने इंसानियत के नाते इसे यहां पहुंचाया है,’’ नईम ने हाथ जोड़ कर पुलिस से अपनी सफाई पेश की.

‘‘इसे किसी जीप वाले ने ठोकर मारी है यह हम कैसे मान लें?’’

पुलिस वाले के तर्क के सामने नईम कुछ बोल नहीं पाया, फिर भी अपनी सफाई पेश करने की कोशिश की.

‘‘साहब, हम ने कौन सा बुरा काम किया है?’’

‘‘?ाठ मत बोलो, इसे तुम्हारे ट्रक ने ही ठोकर मारी है.’’

एक पुलिस वाला उसे डांटने लगा. मैं खामोशी से उन की बातचीत सुन रहा था.

‘‘साहब, आप चाहें तो इन से पूछ लो, ये हमारे पैसेंजर हैं,’’ नईम गिड़गिड़ाया.

‘‘वह मैं कुछ नहीं जानता. ट्रक में माल भरा जाता है या पैसेंजर. इस मामले की पूरी छानबीन होने तक हम तुम्हें जाने नहीं देंगे. तुम ट्रक को पुलिस थाने में छोड़ दो.’’

हवलदार की बात से नईम घबरा गया. बोला, ‘‘मेरा केले का ट्रक है, जाने दीजिए. और मैं ने कोई बुरा काम नहीं किया है.’’

‘‘अपनी बात तू साहब को बताना, मैं कुछ नहीं जानता. ट्रक को तो पुलिस स्टेशन में ही जमा करवाना पड़ेगा.’’

हवलदार की बात से नईम की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा फिर वह क्यों इस ?ामेले में फंसा. होश आने पर जख्मी मोटरसाइकिल वाला जब तक बयान नहीं देता तब तक उसे छुटकारा मिलने की कोई गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि पुलिस की नजर में नईम ही गुनाहगार था.

‘‘अगर उस ने होश में आ कर बयान दिया कि जीप वाले ने ही उसे टक्कर मारी है तब तुम जा सकोगे,’’ उसे डांट कर हवलदार डाक्टर के कैबिन में चला गया. नईम और मैं बाहर ही खड़े रहे.

‘‘देखो साहब, मैं ने कौन सा बुरा काम किया है?’’

तब तक दूसरे जख्मी को ऐंबुलैंस में डाल कर अस्पताल में लाया गया. डाक्टर ने उस की जांच कर के उसे ‘ब्राट डैड’ घोषित कर दिया और पोस्टमार्टम के लिए रवाना कर दिया. तब तक रात के 12 बज चुके थे. अस्पताल में रोने और चीखनेचिल्लाने की आवाजें बढ़ने लगीं. डाक्टर और नर्सों की दौड़धूप जारी थी. नईम बेचैनी के साथ इधरउधर चक्कर काट रहा था. जख्मी के रिश्तेदारों ने उस के ट्रक का घेराव कर लिया था. इस से नईम और भी घबरा गया.

‘‘साहब, मैं अपने सेठ को फोन कर के आता हूं,’’ कह कर वह फोन के बूथ की ओर बढ़ा तो मैं उस के पीछेपीछे चल दिया. क्लीनर गाड़ी छोड़ कर पहले ही भाग चुका था.

‘‘हैलो, बाबू सेठ. मैं नईम बोल रहा हूं. मैं अभी चोपड़ा में हूं.’’

‘‘अभी तक तू चोपड़ा में क्या कर रहा है? कब अहमदाबाद पहुंचेगा?’’

‘‘नहीं, बाबू सेठ, यहां रास्ते में एक ऐक्सीडैंट हो गया है.’’

‘‘अपनी गाड़ी का?’’

गहरी साजिश, भाग 2 : नक्सली दंपती ने पुलिस से क्या कहा ?

एक दिन अंधेरे जंगल में अकेले व सूनेपन का फायदा उठा कर कुंजाम ने मरकाम को बांहों में भरा और कहा, ‘मुझ से शादी करोगी.’

इस पर मरकाम ने उस से चुहल करी, ‘मैं तो कर चुकी!’

उस ने तैश में मुझे झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘किस से?’

मरकाम ने उसे अपनी आगोश में भरते हुए उसी जोशीले अंदाज में कहा, ‘तुम्हीं से.’

इस तरह वे दोनों एकदूजे में समा गए. यह सिलसिला चल पड़ा, तो उन्होंने नक्सली नेताओं के नानुकुर के बावजूद एक देवगुड़ी में शादी कर ली. फिर वह दिन भी निकट आ गया जब मरकाम को 6 माह का गर्भ ठहर चुका था.

अब, प्रसव को ले कर चिंता बढ़ने लगी. एक दिन जंगल में पुलिस के डर से मरकाम जैसेतैसे खाना खाई और एके 47 बगल में दबाए उस पेड़ की घनी छांव में जा बैठी जिस में पत्ता बिछा कर डी कुंजाम पहले से बैठा था और आने वाले बच्चे को ले कर भविष्य के सपने बुन रहा था.

सुस्ताने के लिए बैठने पर उस के मन में विचारों का तांता उमड़ने लगा, ‘उस का प्रसव जंगल में होगा, तो होगा कैसे? यहां न अस्पताल है, न डाक्टर, न नर्स; न कोई सुविधा. उस के लिए तो यह भी बंधनकारी है कि वह किसी अस्पताल में जा कर भरती नहीं हो सकती. अजीब शामत है इस जौब में. जहां भी जाएगी, उस की पहचान उजागर हो जाएगी और लेने के देने पड़ जाएंगे.’

वह यह भी सोच रही थी, ‘जब आला नक्सली नेताओं की बीवियों की डिलीवरी का वक्त होता है तब वे किस तरह सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल में एडमिट हो जाती हैं. उन के बच्चों को मैट्रो सिटीज में या फिर विदेशी स्कूलों में दाखिला मिल जाता है. लेकिन उस के जैसे टटपुंजिए नक्सली लीडरों को न सुरक्षित प्रसव की सुविधा मिलती है, न बच्चों को माकूल तालीम की सहूलियतें.’

उस का दिमाग यह भी खलबली मचाने लगा, ‘इन बियाबान जंगलों में न रहने का ठौर, न खाने का ठिकाना है. यहां है तो पुलिस का डर और जंगलजंगल भटकाव. और लोगों को गन से डराधमका कर अपना उल्लू सीधा करने का नाजायज तरीका.’

उस ने अपनी फिक्रमंदी अपने पति व छोटामोटा नक्सली लीडर डी कुंजाम को बताई कि उस के गर्भ में पल रहा बच्चा 6 माह का होने वाला है. आगे का दिन कैसे कटेगा और वह प्रसव कहां होगी?

इस पर उस के पति ने उस के गाल पर हाथ रख कर उस को ढाढस बंधाया, ‘चिंता मत कर. कुछ न कुछ रास्ता निकलेगा. डाक्टर या नर्स पकड़ कर लाएंगे या किसी दाई का इंतजाम करेंगे.’

इस पर वह चिंतातुरता से बोली, ‘सुरक्षित प्रसव ही नहीं, प्रसव के बाद प्रसूता को एक ऐसी सगी महिला के साथ की जरूरत होती है, जो उस की हमदर्द हो, जो जच्चाबच्चा को उठाने, नहलाने, धोने, कपड़े बदलने और फूल जैसे बच्चे की सिंकाई करने का काम पूरी तन्मयता से करे.’

वह जरा रुकी. फिर अपनी व्यथा उस ने और स्पष्ट करी, ‘इस में जरा भी कोताही दोनों की जान पर बन आती है.’

डी कुंजाम ने दाएं हाथ से अपने सीने पर हाथ रख कर उसे भरोसा दिलाया, ‘फिकर नौट, मैं हूं न. सब निबटा दूंगा.’

‘आनेवाले बच्चे की खातिर मेरा तो जी करता है कि पुलिस के पास जा कर हथियार डाल दूं और मायके में जा कर रहूं. इस से प्रसव की चिंता नहीं रहेगी. किसी न किसी अस्पताल में आसानी से प्रसव…’ उस ने अपने मन में उठ रहे विचारों के तूफान को डी कुंजाम को बता कर कम करने की कोशिश करनी चाही.

ऐसा सुना, तो डी कुंजाम ने मेरे मुंह में हाथ रख कर सख्त लहजे में नाराजगी जताई, ‘ऐसा सपने में भी मत सोचना. यही बात आला लीडरों को पता चलेगी कि बी मरकाम हथियार डालने का विचार रखती है, तो वे तेरेमेरे जान के दुश्मन बन जाएंगे.’

‘यह तो ज्यादती हुई. इस से तो यही लगता है कि हम एक ऐसे परजीवी प्राणी हैं, जो अपनी मरजी से सरेंडर भी नहीं कर सकते?’ वह जरा तैश में बोली.

डी कुंजाम ने अपनी पत्नी के मुख से बगावती बातें सुनीं, तो अगलबगल देखा और आहिस्ते बोला ताकि ऐसी बातें कानोंकान न फैलें, ‘यही तो विडंबना है हम उग्रवादियों की. ऐसे संगठनों में शामिल होने के बाद तुम्हारीहमारी नहीं; संगठन की मरजी चला करती है.’

बहरहाल, एक दिन विशालकाय ठगड़ा पहाड़ से घिरे एक कंदरा में उन का प्रशिक्षण कैंप आयोजित किया गया. इस में नवनियुक्त नक्सलियों के साथ वे छोटेमोटे लीडर दंपती भी शुमार किए गए जिन की पत्नियां गर्भवती थीं. इन के अलावा वे भी, प्रशिक्षण में बुलाए गए, जो सैन्यबलों के खिलाफ औपरेशनों में लड़खड़ाते नजर आते थे.

ठगड़ा पहाड़ के चारों ओर जहांजहां पगडंडियां हैं, वहांवहां ऐसे लड़ाके तैनात किए गए, जो ठगड़ा पहाड़ी के चप्पेचप्पे से वाकिफ थे.

प्रशिक्षण में दूसरे प्रदेश से खास प्रशिक्षक सुरेंद्र व महेंद्र बुलाए गए थे, जो बारीबारी से अपना लैक्चर दे रहे थे. उन के साथ वहां डौक्टर व नर्स भी मौजूद थे.

सब से पहले सुरेंद्र ने अपना प्रशिक्षण ‘लाल सलाम, जिंदाबाद’ के नारों के साथ आरंभ किया और संगठन का इतिहास व उस का ध्येय बताया, ‘वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल प्रांत के नक्सलबाड़ी नामक गांव में नक्सली आंदोलन आरंभ हुआ. आदरणीय चारू मजूमदार व कानू सान्याल इस के संस्थापक थे. यही वजह है कि इन का नाम संगठन में सम्मान से लिया जाता है.

‘संस्थापकों का खास मकसद जमींदारों व सामंतों की ज्यादतियों के खिलाफ लोगों को एकजुट करना था. इस में संस्थापक सदस्यों को तनिक कामयाबी भी हासिल हुई. सब से ज्यादा राहत खेतिहर श्रमिकों व सीमांत किसानों को मिली.

‘इस आंदोलन में किसानों की मुख्य मांग थी कि बड़े काश्तकारों को छोटा करो और बेनामी जमीनों का यथोचित वितरण. तब बंगाल में कम्युनिस्ट सत्तासीन थे, इसीलिए वहां किसान आंदोलन चरम पर जा पहुंचा.

‘किसानों ने कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में समितियां और हथियारबंद दस्ते बनाए और जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया. साथ ही, सभी झूठे दस्तावेज जलाए जाने और कर्ज के प्रनोट नष्ट किए जाने लगे. कालांतर में इसी अराजकता ने नक्सलवादी आंदोलन का खौफनाक रूप ले लिया.

जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- भाग 2

मीनल और प्रशांत सोनू को ले कर घर आ गए. 2-3 दिन ठीक रहने के बाद सोनू को फिर से हलकाहलका बुखार रहने लगा. एक दिन घर के सामने पड़ोस के बच्चे खेल रहे थे. सोनू की जिद पर मीनल ने उसे खेलने भेज दिया.मीनल आंगन में खड़ी हो कर बेटे को देख रही थी कि अचानक एक बच्चे को पकड़ने के लिए दौड़ने की कोशिश करता सोनू लड़खड़ा कर गिर गया.

उस का सिर तेजी से एक नुकीले पत्थर से टकराया. खून की धार फूट पड़ी. मीनल घबरा कर जल्दी से उसे डाक्टर के यहां ले कर दौड़ी. डाक्टर ने दवा लगा कर पट्टी बांध दी.घटना के 5वें दिन अचानक सोनू बेचैन हो कर हाथपैर पटकने लगा, अजीब तरह से कराहने लगा. मीनल ने उस का बदन छुआ तो उसे तेज बुखार था. मीनल ने तुरंत प्रशांत को फोन लगाया. प्रशांत औफिस से उसी समय घर आया और वे सोनू को शहर के चाइल्ड स्पैशलिस्ट के पास ले गए. उन्होंने तुरंत उसे ऐडमिट करवाया.

उस का सीटी स्कैन करवाया तो पता चला कि चोट से शरीर में मौजूद संक्रमण मस्तिष्क तक चला गया है और तेज बुखार व संक्रमण के चलते सोनू को ब्रेन हैमरेज हो गया है.मीनल तो यह सुन कर होश ही खो बैठी. कुछ दिनों तक वे लोग अपने शहर में इलाज कराते रहे लेकिन सोनू की स्थिति में सुधार न होता देख डाक्टर ने प्रशांत से सोनू को दिल्ली ले जाने के लिए कहा.

मीनल और प्रशांत तुरंत सोनू को दिल्ली ले आए.सोनू का हाथ थामे मीनल ने गहरी सांस ली. सोनू अब भी बेचैनी और दर्द से हाथपैर पटक रहा था और एक मां बेबस सी बैठी थी. सच, कुदरत के आगे इंसान कितना लाचार है.सुबह 8 बजे डा. बनर्जी अपनी टीम सहित सोनू का निरीक्षण करने आ पहुंचे. उन्होंने सोनू को देखा और उस की रिपोर्ट की जांच की. डाक्टर व नर्सों को कुछ नई दवाइयों के बारे में बताया और फिर प्रशांत को बुलवाया.‘‘देखिए, हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए एक नई दवा स्टार्ट कर दी है. जरूरत पड़ी तो एकदो दिन में एक सीटी स्कैन करवा लेंगे,’’

डा. बनर्जी ने प्रशांत और मीनल से कहा.‘‘सोनू कब तक ठीक हो जाएगा डाक्टर साहब?’’ प्रशांत ने पूछा.‘‘हम ने मस्तिष्क के संक्रमण के लिए जो नई ऐंटीबायोटिक शुरू की है, 2-3 दिन इस को देखते हैं, क्या असर होता है फिर आगे के इलाज की योजना बनाएंगे,’’ कह कर डा. बनर्जी वहां से दूसरे मरीज के पास चले गए.अगले 2 दिनों तक सोनू की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखा तो डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया.

संक्रमण फैलने की वजह से अब की बार उस के मस्तिष्क के पिछले हिस्से भी क्षतिग्रस्त नजर आए.दूसरे दिन मीनल और प्रशांत हताश से बैठे थे कि रात में 8 बजे अचानक सोनू तेज आवाज में खींचखींच कर सांस लेने लगा. मीनल उस के सीने पर हाथ फेरने लगी. सिस्टर जल्दी से डाक्टर को बुला लाई. डाक्टर ने सोनू की स्थिति को देखते ही सिस्टर से कहा, ‘‘पेशेंट को तुरंत वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. सिस्टर, डा. यतिन को फौरन बुलाओ और जब तक यतिन आते हैं तब तक बाकी सब तैयारी हो जानी चाहिए.’’ डा. यतिन ने पहुंचते ही मीनल से कहा, ‘‘आप प्लीज बाहर वेट करिए. हमें सोनू को वैंटीलेटर पर शिफ्ट करना पड़ेगा. बाद में हम आप को बुलवा लेंगे.’’

मीनल चुपचाप बाहर आ गई. उस ने प्रशांत को सबकुछ बताया. दोनों धीरज रख कर बाहर बैठे रहे.करीब 2 घंटे बाद डा. यतिन ने प्रशांत और मीनल को बुलवाया और बताया, ‘‘सोनू खींचखींच कर सांस ले रहा था. इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में ब्रीदिंग कंट्रोल करने वाला भाग डैमेज हो गया है. मस्तिष्क के किसी भी भाग की क्षति स्थायी होती है. आई एम सौरी. देखते हैं,’’ डा. यतिन ने प्रशांत का कंधा थपथपाया और चले गए.अगले 2 दिनों में डा. बनर्जी ने फिर से सोनू का सीटी स्कैन करवाया और रिपोर्ट देख कर प्रशांत से बोले, ‘‘कल रात में इस का एक और बार ब्रेन हैमरेज हो चुका है.

संक्रमण की वजह से मस्तिष्क के ज्यादातर हिस्से क्षतिग्रस्त हो कर काम करना बंद कर चुके हैं. हमें अफसोस है, हम सोनू के लिए कुछ नहीं कर पाए.’’स्तब्ध सी मीनल धड़ाम से कुरसी पर गिर पड़ी. प्रशांत ने उस के कंधे पर अपना कांपता हुआ हाथ रख दिया. उन के घर का चिराग बस बु?ाने को ही है और वे नियति के हाथों कितने मजबूर हैं, लाचार हैं.

तीसरे दिन सुबह डा. लतिका ने प्रशांत और मीनल को अपने कैबिन में बुलवाया. डा. लतिका भी डा. यतिन की तरह ही पीडियाट्रिक्स की सीनियर डाक्टर थीं. उन्होंने पहले तो मीनल और प्रशांत को पानी पिलाया और फिर कहना प्रारंभ किया :‘‘देखिए, आप सोनू की हालत तो जानते ही हैं. संक्रमण की वजह से उस के ब्रेन के ज्यादातर हिस्सों ने काम करना बंद कर दिया था. आज सुबह न्यूरोलौजिस्ट ने उस की जांच की तो पता चला कि उस के पूरे मस्तिष्क की क्रियाशीलता खत्म हो चुकी है. डाक्टरी भाषा में कहें तो सोनू की ब्रेन डैथ हो चुकी है.’’‘‘नहीं…’’ मीनल चीत्कार कर उठी.

प्रशांत भी सुबक उठा. करीब 15 मिनट बाद मीनल और प्रशांत के दुख का ज्वार कुछ कम हुआ तो प्रशांत ने पूछा, ‘‘सोनू की सांस और धड़कन तो चल रही है, डाक्टर.’’‘‘जी, वह बस वैंटीलेटर (सिस्टोलिक ब्लडप्रैशर) के कारण चल रही है. अगर हम अभी वैंटीलेटर हटा लेते हैं तो उस की सांस और धड़कन बंद हो जाएगी. ब्रेन डैथ के मामले में हम 12 घंटे बाद दोबारा सारी जांच कर के यह तय करते हैं कि कहीं जीवन का लक्षण बाकी है या नहीं. तभी हम वैंटीलेटर हटाते हैं,’’

डा. लतिका ने सम?ाया, ‘‘लेकिन अगर आप चाहें तो सोनू का दिल हमेशा धड़कता रह सकता है.’’‘‘जी? वह कैसे?’’ मीनल और प्रशांत ने एकसाथ अचरज से पूछा.

मैं कहां आ गई- भाग 1

आंखें दिखाते ही सिर से पांव तक कांप जाती है.”

“मगर तुम यह क्यों भूल जाती हो कि पढऩेलिखने से अच्छाईबुराई में तमीज करना आ जाता है. जिस दिन ऐसा हो गया,

समझो, गई हाथ से.”

“समझ में नहीं आता, तुम्हारी इस बात पर हंसूं या कहकहे लगाऊं. जितने तमाशाई हमारे यहां आते हैं, माशाअल्लाह सब

पढ़ेलिखे होते हैं. अच्छे खानदानों से भी होते होंगे, लेकिन सफेद कपड़े पहन कर कीचड़ में आ जाते हैं. नरगिस कीचड़ में

कमल सी है.”

“तमाशा देखना अलग बात है, तमाशा बनना अलग. वे सब तमाशा देखने आते हैं, तमाशा बनने नहीं. नरगिस की बात और

है.”

“पैदा किए की तो खैर मोहब्बत होती ही है, मगर पालने की मोहब्बत भी कम नहीं होती. 4 साल की उम्र से पाला है उसे.”

“बेचारी तुम्हीं को अपनी मां समझती है,” गुलजार खां ने दांत निकालते हुए कहा. फिर एकदम संजीदा हो गया, “अच्छा, यह

बताओ, तुम से उस ने कभी अपने बाप का नाम पूछा है?”

“हां, बचपन में पूछती थी, मगर अब शायद समझ गई है कि इस बाजार में बाप नहीं, सिर्फ मां होती हैं.”

“अगर उसे मालूम हो जाए कि उस का कोई बाप भी है और तुम उस की मां नहीं हो तो सोचो, क्या होगा?”

“यह तो मैं बाद में सोचूंगी, पहले तुम यह बताओ कि तुम्हें आज हुआ क्या है?”

“हुआ यह है कि मुझे 20 हजार रुपए की जरूरत है.”

“मैं तुम्हें नरगिस की कीमत से बहुत ज्यादा दे चुकी हूं.”

“वह तो मुझे मिल चुकी है. अब मैं इस राज को छिपाने के लिए थोड़े से पैसे मांग रहा हूं. तुम्हें नहीं मालूम, किसी राज को

छिपाना कितना मुश्किल होता है.”

“अब तुम्हें देने के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है,” दिलशाद बेगम गुर्राई, “और हां, इस घमंड में मत रहना कि तुम

नरगिस को मेरे खिलाफ भडक़ा दोगे. मैं ने कच्ची गोलियां नहीं खेलीं. मैं तुम्हारी तरफ से उस के दिल में इतना जहर भर चुकी

हूं कि अब वह तुम्हारी सूरत से भी नफरत करती है.”

“सोच लो, दिलशाद बेगम.”

“सोच लिया. यह कोठा यूं ही नहीं चला रही हूं.”

दिलशाद बेगम के लहजे में इतना विश्वास था कि गुलजार खां खुशामद पर उतर आया, “दिलशाद बेगम, मैं ने तुम्हारी

कितनी खिदमत की है और तुम हो कि मामूली सी रकम के लिए इनकार कर रही हो.”

“इनकार नहीं कर रही, तुम्हारी धमकियों का जवाब दे रही हूं.”

“धमकियां कैसी? मैं तो मजाक कर रहा था. लाओ, जल्दी से रकम निकालो.”

“एक शर्त पर. आइंदा तुम मेरे पास रकम लेने नहीं आओगे.”

“मंजूर है.”

“तुम बैठो, मैं अभी आई.” कह कर दिलशाद बेगम अपने कमरे में चली गईं.

आगे क्या होता है, यह देखने या सुनने की नरगिस को जरूरत नहीं थी. वह उलटे कदमों वापस हुई और घर से बाहर निकल

गई. उस की हालत उस पङ्क्षरदे की तरह थी, जिस के पर काट कर तेज हवा में उसे छोड़ दिया गया हो. उस ने ये बातें

इत्तिफाक से सुन तो ली थीं, लेकिन उसे यह मालूम नहीं था कि सच्चाई का रहस्योद्घाटन कितना कष्टदायक होता है. कल तक

वह कितनी मजबूत थी. आज रेत की दीवार की तरह बैठी जा रही थी. अगर गुलजार खां उस से यह बात कहता तो शायद

वह कभी यकीन न करती. लेकिन दिलशाद बेगम, जिसे अब तक वह अपनी मां समझती रही थी, उस ने खुद कबूल किया था

कि वह उस की मां नहीं है.

नरगिस इस बाजार की गंदगी को कबूल कर चुकी थी. वह यहां पैदा हुई है तो यहीं के आदाब उस पर सजेंगे. उसे कभी भूले से

अपने बाप का खयाल आया भी था तो वह यह सोच कर हंस दी थी कि इस बाजार में किसे यह नेमत मिलती है, जो उसे

मिलेगी. लेकिन जैसे ही उस पर राज खुुला कि वह किसी की अमानत है, उसे खयानत के अहसास ने बेचैन कर दिया. वह अब

तक अपने बाप का नाम डुबोती रही है. लेकिन कौन बाप? गुलजार खां ने यह तो बताया ही नहीं. कहीं वह जल्दी तो वहां से

नहीं हट गईं? शायद उस ने बाद में नाम भी बताया हो.

गली में उस वक्त सन्नाटा था. इक्कादुक्का लोग चलफिर रहे थे. इन गलियों में तो रातें जागती हैं, दिन सोते हैं. उस वक्त भी

दरोदीवार ऊंघ रहे थे. अगर सुगरा उसे बुला कर न ले गई होती तो वह भी इस वक्त सो रही होती. सुगरा उस के पड़ोस में

रहती थी और नरगिस की तरह वह भी तालीम की मंजिल से गुजर रही थी. सुगरा और वह एक ही उस्ताद से नाच की

तालीम हासिल कर रही थीं.

नरगिस इन्हीं खयालों में गुम थी कि उसे गुलजार खां आता दिखाई दिया.

“गुलजार खां.” नरगिस ने उसे हौले से पुकारा.

“हूं, क्या है?”

“तुम कल मुझ से मिल सकते हो?”

“क्यों?”

“बस, ऐसे ही.” नरगिस ने इठलाते हुए कहा.

“मैं आज ही एक हफ्ते के लिए शहर से बाहर जा रहा हूं.”

“मेरी खातिर एक दिन के लिए रुक नहीं सकते?” नरगिस फिर इठलाई.

नरगिस ने उस से कभी सीधे मुंह बात नहीं की थी. उस ने अदाएं दिखाईं तो गुलजार खां के मुंह में पानी आ गया, “चल, तू

कहती है तो रुक जाता हूं, लेकिन बात क्या है?”

“कल ही बताऊंगी.” नरगिस ने कहा और भागती हुई घर में चली गई.

नरगिस घर में दाखिल हुई तो दिलशाद बेगम उस के इंतजार में थी. दिलशाद बेगम उसे देखते ही गुर्राई, “कहां थीं तुम?”

नरगिस का जी चाहा कि उस से भी ज्यादा जोर से चीख कर कहे, ‘तुम यह पूछने वाली कोन होती हो?’ लेकिन अभी इस का

वक्त नहीं आया था. इसलिए बोली, “जरा देर के लिए सुगरा के पास गई थी.”

“खबरदार, जो कल से तू ने एक कदम भी बाहर निकाला.”

“अच्छा अम्मां.”

“और यह भी सुन लो. बहुत पढ़ चुकी. मैं कल मास्टर साहब को मना कर दूंगी. सिर्फ उस्तादजी आएंगे. हमारा रिश्ता किताबों

से नहीं, घुंघरुओं से है. उसी में मन लगाओ.”

नरगिस ने यह भी नहीं पूछा कि यह जुल्म क्यों कर रही हो? उस ने किसी प्रतिक्रिया का इजहार किए बगैर सिर झुका कर

अपने कमरे का रास्ता लिया. अब उसे यह सोचना था कि वह हालात से समझौता कर ले या उस माहौल से बगावत कर के

यहां से निकल जाए, लेकिन यहां से निकल कर कहां जाए? इस का फैसला गुलजार खां से मुलाकात के बाद ही किया जा

सकता था.

रात को नरगिस सोने के लिए लेटी तो नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. जिस बिस्तर पर वह शौक से लेटती थी, आज

गंदगी का अहसास हो रहा था. उसे अपनेआप से घिन आ रही थी. सोचतेसोचते जैसे किसी ने उस के जेहन में कोई झरोखा

खोल दिया.

उस ने उस झरोखे से बाहर झांक कर देखा. शादी का घर था, मेहमानों से भरा हुआ शोर था. 4 साल की एक बच्ची सुर्ख रंग के

कपड़े पहने, तितली की तरह इधर से उधर घूमती फिर रही थी. फिर उस के जी में न जाने क्या आया कि अकेली घर से बाहर

आ गई. सामने गुब्बारे वाला खड़ा था. वह उस के करीब जा कर खड़ी हो गई और हसरतभरी नजरों से गुब्बारों की तरफ

देखने लगी.

“गुब्बारा लोगी?” एक आदमी ने उस के करीब आ कर बड़े प्यार से पूछा.

“पैसे नहीं हैं.” वह बोली.

“पैसे मैं दिए देता हूं.” उस आदमी ने कहा.

“नहीं, अम्मा कहती हैं, किसी से पैसे नहीं लेते.”

“गैरों के लिए कहा होगा, मैं तो चचा हूं तुम्हारा.”

बच्ची राजी हो गई. गुब्बारे वाला इतनी देर में आगे बढ़ चुका था. वह उस की उंगली थामे आगे बढ़ती रही. फिर क्या हुआ

था? नरगिस ने याददाश्त के झरोखे में झांक कर देखा, दूर तक अंधेरा फैला हुआ था. रेल की सीटी की आवाज आई. वह रो

रही थी. फिर चुप हो कर सो गई. अम्मा का चेहरा तो कुछकुछ याद भी था, अब्बा तो बिलकुल याद नहीं थे.

नरगिस को ताज्जुब हो रहा था कि अब तक उसे ये बातें क्यों याद नहीं आई थीं. खयाल तक नहीं आया था इन बातों का.

गुलजार खां, तू ने यह क्या कर दिया? ऐसी बातें मेरे कानों में क्यों डाल दीं? मैं गफलत की नींद सो रही थी, तू ने मुझे क्यों

जगा दिया? क्या मैं अब ङ्क्षजदगीभर सो सकूंगी? जो बिछड़ गए, ङ्क्षजदा भी होंगे? ङ्क्षजदा हुए भी तो मुझे मिलेंगे कैसे?

दिन निकल गया.

नरगिस सोई कब थी कि जागती. उस ने अपने मंसूबे के मुताबिक जरूरी तैयारी की और गुलजार खां का इंतजार करने लगी.

दोपहर के करीब जब दिलशाद बेगम अपने कमरे में सो रही थी, गुलजार खां आ गया. वह उस वक्त आया ही इसलिए था कि

दिलशाद बेगम सो रही होगी.

“गुलजार खां, तुम अम्मा से पैसे मांग रहे थे?” नरगिस ने पूछा.

“हां, मांगे तो थे, लेकिन तुम्हें कैसे मालूम हुआ?”

“किसी ने भी बताया हो, मगर यह बात सही तो है न?”

“कह तो रहा हूं सही है.”

“क्या जरूरत आ पड़ी?”

“मेरी बेटी की शादी है. उस की मां को मैं तलाक दे चुका हूं. बेटी से भी नहीं मिलता, लेकिन है तो मेरा खून. उस की शादी का

सुना तो मैं ने सोचा, कोई जेवर बनवा दूं,. कुछ हक मेरा भी तो है.”

“क्या तुम अपनी बेटी से बहुत मोहब्बत करते हो?” नरगिस ने पूछा.

“मोहब्बत तो मुझे मालूम नहीं, किस बला का नाम है, लेकिन उस की शादी का सुना तो दिल चाहा कि मैं भी उस के लिए

कुछ करूं.”

“जिसे खुश करने के लिए अपना सब कुछ कुरबान करने को जी चाहे, वही महबूब होता है. इसी जज्बे का नाम मोहब्बत है.”

“होगा, मुझे क्या?” गुलजार खां लापरवाही से बोला.

“तुम अपनी बेटी से मिलते तो हो नहीं, बरसों से तुम ने उसे देखा भी नहीं होगा?”

“मिलने या न मिलने से क्या होता है. बेटी तो है वह मेरी.”

“वह भी तुम से मोहब्बत करती होगी?”

“क्यों नहीं करती होगी?”

“फिर तुम से मिलने क्यों नहीं आती?”

“अपनी मां के डर से. उस की मां बड़ी जालिम है.”

“मैं भी अपनी मां के डर से अपने बाप से नहीं मिलती.”

“कौन सी मां?” गुलजार खां अनजाने तौर पर पूछ बैठा.

“दिलशाद बेगम और कौन?” नरगिस ने इत्मीनान से जवाब दिया.

“हां, मगर बाप… बाप कौन है तुम्हारा?”

“यही पूछने के लिए तो मैं ने तुम्हें बुलाया है.”

“दिमाग खराब है क्या?” गुलजार खां ने झुंझला कर कहा, “मैं क्या ठेकेदार हूं तुम्हारे बाप का, और यह ठेकेदारी कबूल कर

भी ली तो इस बाजार में किसकिस के बाप को तलाश करता फिरूंगा?”

“अगर नहीं मालूम तो छोड़ो.” कह कर नरगिस अपनी जगह से उठी और जेवर का डिब्बा ला कर गुलजार खां के सामने रख

कर बोली, “ये कुछ जेवर हैं.”

“वह तो मैं भी देख रहा हूं, मगर तुम कहना क्या चाहती हो?”

“गुलजार खां, तुम ये जेवर अपनी बेटी को दे दो.”

“ये…ये… सब मेरा मतलब है, ये सब ले लूं?” गुलजार खां ने बेसब्री से जेवर की तरफ हाथ बढ़ाया.

“नहीं, ऐसे नहीं.”

“फिर कैसे?”

“मुझे जिस घर से उठाया था, उस घर की निशानदेही कर दो. मेरा बाप भी तो मेरी शादी के लिए पैसे जमा करता फिर रहा

होगा. उस की मेहनत ठिकाने लगा दो…”

“मेरा क्या वास्ता तुम्हारे बाप से…?”

“अब कोई फायदा नहीं गुलजार खां, मुझे वह गुब्बारे वाला याद आ गया है, जिस के पीछेपीछे मैं चली थी. वह आदमी तुम ही

थे, जिस ने मेरी उंगली थाम कर कहा था, ‘गुब्बारा लोगी?’ तुम गुब्बारा तो नहीं दिला सके, यह कोठा दिला दिया.”

“ऐ लडक़ी, लानत भेज अपनी याददाश्त पर. मैं ऐसे घटिया काम नहीं करता.”

“गुलजार खां, मैं ने दिलशाद बेगम से तुम्हारी बातचीत सुन ली है. अब तुम सीधी तरह मुझे मेरे बाप का नाम बता दो.”

“मैं ऐसी बेहूदा बातों का जवाब नहीं देता. हिम्मत है तो दिलशाद बेगम से पूछो.”

“गुलजार खां, सोच लो. तुम्हारे 2 लफ्जों की कीमत ये सारे जेवर हैं.”

गुलजार खां के चेहरे का रंग बदलने लगा. लगता था, जैसे वह किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले सोचने की क्रिया से गुजर रहा है.

“गुलजार खां, तुम ने ङ्क्षजदगी में शायद ही कोई नेक काम किया हो. आज एक नेकी कमा लो. जरा सोचो, तुम्हारी बेटी

इतने जेवर देख कर कितनी खुश होगी.” नरगिस ने उस की गैरत को झिंझोड़ा.

“अगर दिलशाद बेगम को मालूम हो गया, तो…?”

“फिक्र मत करो. तुम्हारा नाम कहीं नहीं आएगा. तुम्हारा नाम लेने के लिए मैं यहां रहूंगी ही नहीं.”

“लेकिन मैं तुम्हें क्या बताऊं? इतना अरसा गुजर गया, मुझे कुछ याद नहीं रहा.”

“सोचो, गुलजार खां, सोचो. जेहन पर जोर डालो. याद करो. कुछ तो याद होगा.”

“सच्ची बात तो यह है कि मैं तुम्हारे बाप को जानता तक नहीं. वह मकान तक मुझे याद नहीं, जहां से मैं ने तुम्हें उठाया था.”

“वह शहर तो याद होगा.”

फ्रंटियर मेल, भाग 1 : क्या था मंजू का कारगर हथियार ?

अब जब मैं 75 का हो रहा हूं तो गाडिय़ां तो कैंसिल होती हैं पर वह फ्रंटियर मेल बहुत खास थी. मेरी समझ से एमए में सर्वप्रथम आना कोई बड़ी बात नहीं है. साथ ही, ऐसे भी कितने ही मिल जाएंगे जिन्होंने कभी भी दूसरे नंबर पर आना नहीं जाना. हां, आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसा ही कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति कालेज की हाकी टीम का कप्तान रहा हो, वादविवाद की प्रतियोगिता में भी जिसे अनगिनत पुरस्कार मिले हों तथा लखपत घराने का एकमात्र उत्तराधिकारी होने के नाते जिस को पढऩेलिखने की आवश्यकता ही कभी महसूस न हुई हो.

दिनेश में ये सब गुण प्रकृति ने मानो अपना चमत्कार दिखाने के लिए भर दिए थे. विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के सारे कीर्तिमान तोड़ कर जब वह विशेष अध्ययन के लिए अमेरिका गया तो हार्वर्ड के प्रोफैसर लोग भी उस की प्रतिभा से चकित रह गए थे. कुछ ही वर्षों में डौक्टरेट की डिग्री ले कर जब वह वहीं पर प्रोफैसर नियुक्त हो गया तो मेरे जैसे उस के अनेक सहपाठियों के सीने भी गर्व से कुछ इंच अधिक ही तन गए थे.

भारत लौटने का विचार दिनेश ने लगभग छोड़ ही दिया था. आखिर आ कर करता भी क्या. अर्थशास्त्र के जिस आधुनिक पहलू पर वह शोध कर रहा था, उस का ज्ञान भारत के कुछ इनेगिने व्यक्तियों को ही था. इस के विपरीत अमेरिका, विशेष कर हार्वर्ड में, एक से एक बड़े विद्वान भरे पड़े थे जिन के सहयोग से वह भी आकाश के तारे छू सकता था. नोबेल पुरस्कार जीतने की संभावना भी शायद उस के मस्तिष्क में उन्हीं दिनों दौड़ लगाने लगी थी.

लेकिन समय ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि एक कार दुर्घटना में उस के पिता की मृत्यु के कारण उसे भारत लौटना पड़ा. घर की व्यावसायिक स्थिति ठीक करतेकरते कुछ मास बीत गए और वह कुछ संभल ही पाया था कि कामदेव के एक तीर ने उस के रहेसहे हौसले भी पस्त कर दिए. उस का परिचय हुआ, हुआ क्या, कराया गया मंजू से, उस की होने वाली बहू के रूप में. जिस भोंदू ने जीवनभर सरस्वती के सिवा किसी और देवी का ध्यान ही न किया हो, अमेरिका जैसी पिशाचपुरी में भी जिस ने हर पल स्त्री को मांबहन के रूप में ही देखा हो, उस का मंजू जैसी अपूर्व सुंदरी के सपंर्क में आना मानो अकाल से पीडि़त भूखे को खीर मिल जाने के समान हुआ. वे घटनाएं सामने आने लगीं. न्यूजर्सी के इस अपने छोटे के मकान में वह सुगंध कहां है जो उन दिनों थी. वे घटनाएं साकार होने लगीं.

मंजू की सम्मोहन शक्ति में जकड़ कर उसे मालूम हुआ कि संसार में अर्थशास्त्र को छोड़ कर और भी शास्त्र हैं. अमेरिका का ध्यान उस ने अब छोड़ ही दिया था, उस स्थिति में जब कुछ ही दिनों में उस का विवाह होने वाला हो. एक कोमलांगी के नेत्रपाश कितने मजबूत हो सकते हैं, यह या तो तुलसीदास समझ पाए थे या मेरे मित्र दिनेश चंद्र शर्मा.

इस सब का तात्पर्य यह नहीं कि मंजू से विवाह होने के बाद अमेरिका के साथ ही दिनेश ने अपने विषय को भी तलाक दे दिया था. दिल्ली विश्वविद्यालय को उस ने गौरव प्रदान किया, वहां के अर्थशास्त्र विभाग का अध्यक्ष बन कर भारतीय आर्थिक समस्याओं पर आधारित कितने ही शोधकार्य उस ने आरंभ किए. 35 वर्ष की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते वह देश का प्रमुख अर्थशास्त्री गिना जाने लगा और अब 10 वर्षों बाद वह योजना आयोग का सदस्य था तथा सुनने में आ रहा था कि देश को आर्थिक संकट से निकालने के लिए उस को मंत्री बनाया जाने वाला है. दिल्ली में एक सुंदर बंगला, 2 कारें तथा कितने ही नौकरचाकर उस के पास थे और कभीकभी समाचारपत्रों में उस की खबरें छपने भी लगी थीं.

मैं दिनेश को उस समय से जानता हूं जब उसे नेकर के बटन तक बंद करने नहीं आते थे और उस की सदा बहने वाली नाक को पोंछने के लिए एक आया रूमाल लिए हमेशा उस के पीछे घूमती रहती थी. कालेज के अंत तक लगभग 20 वर्ष हम ने एकथ गुजारे थे, जिस के कारण एक अटूट सी घनिष्ठता हम दोनों में हो गई थी. हां, अमेरिका से लौटने के के बाद इधर मिलनाजुलना कुछ अवश्य कम हो गया था. कारण, वह था दिल्ली में और मैं मुंबई में. वैसे, पत्रव्यवहार अभी भी बदस्तूर जारी था.

उस दिन देहरादून से लौटते समय दिल्ली के स्टेशन पर पता चला कि अत्यधिक वर्षा के कारण मुंबई जाने वाली गाड़ी 6 घंटे देर से प्रस्थान करेगी. तो, सोचा कि यह अवसर दिनेश से मिलने के लिए उपयुक्त रहेगा और इस आशय से उस के घर टैलीफोन किया.

‘‘हैलो,’’ उधर से कोई बोला.

‘‘दिनेश है?’’

‘‘आप का नाम?’’

‘‘सुरेश.’’

‘‘सुरेश, कौन सुरेश?’’

‘‘सुरेश गुप्ता,’’ मैं ने कहा, ‘‘मैं दिनेश का मित्र हूं.’’

‘‘अजी, आजकल तो सभी उन के मित्र बने हुए हैं,’’ उपहासयुक्त स्वर में वह बोला, ‘‘नाम, काम वगैरह जब तक नहीं मालूम हो, साहब को फोन नहीं दिया जा सकता.’’

अब मेरे झल्लाने का अवसर था. साले का अभी से यह हाल है तो आगे तो न जाने क्या हाल करेगा. ‘‘तो सुनो,’’ मैं ने भी आवाज बिगाड़ते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम सुरेश गुप्ता, वल्द मक्खन लाल, निवासी मुंबई, उम्र 45 साल, एक बीवी का पति और 2 बच्चों का बाप. काम तुम्हारे साहब से पूछना है कि वे अभी तक साइकिल चलाना सीखे कि नहीं. और कुछ?’’

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