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पंजाब में फिर से आग चिंगारी किसने लगाई

हिंदुस्तान की हुकूमत सैक्युलर हुकूमत है, मुझे बताओ कि कभी देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने कहा कि हिंदू राष्ट्र की बात कहने वालों पर कार्रवाई करेंगे? इस का मतलब फर्क है. हिंदुओं और सिखों के इंस्पिरेशन का फर्क है. सिख नहीं कर सकते लेकिन हिंदू अपनी बात कर सकते हैं.

“मुझे यह लगता है कि दबाने से कुछ नहीं दबता. इंदिरा गांधी ने यह कर के देख लिया, क्या नतीजा निकला? अब ये भी कर के देख लें. हम तो हथेली पर सिर रख कर चल रहे हैं. हमें मौत का भय होता तो इन रास्तों पर चलते ही न, गृहमंत्री अपनी इच्छा पूरी कर के देख लें.

“500 वर्षों से हमारे पूर्वजों ने इस धरती पर खून बहाया है. इस धरती के दावेदार हम हैं. इस दावे से हमें कोई पीछे नहीं हटा सकता. न इंदिरा हटा सकी थीं और न ही नरेंद्र मोदी या अमित शाह हटा सकते हैं. दुनियाभर की फौजें आ जाएं, हम मरते मर जाएंगे लेकिन अपना दावा नहीं छोड़ेंगे.” यह कहना है नए नए चर्चा में आए अमृतपाल सिंह का.

अरसे बाद पंजाब से फिर अलगाव की बात पूरे दमखम और हुड़दंग के साथ उठी है. अमृतपाल सिंह का नाम रातोंरात दुनियाभर की जबान पर आ गया, नहीं तो लोगों ने यह मान लिया था कि खालिस्तान का मुद्दा इंदिरा गांधी के जमाने में जनून पर था जो ठंडा पड़ चुका है और इस के नाम पर अब कोई फसाद पंजाब में नहीं होगा. यह आख़िरकार सभी को सुकून देने वाली बात थी. पर अब न केवल अमृतपाल की बातों और वक्तव्यों से बल्कि हरकतों से भी साफ लग रहा है कि उस बोतल का ढक्कन `किसी` ने खोल दिया है जिस में अलग खालिस्तान नाम का जिन्न 80 के दशक के उत्तरार्ध से कैद था.

अमृतपाल ने पिछली 20 फरवरी को जो कहा उसे हलके में न लेने की कई वजहें हैं. खालिस्तान की मांग तो आजादी मिलने के पहले से ही उठने लगी थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई अलगाववादी अब हिंदू राष्ट्र के नारों का हवाला देते यह कह रहा है कि उस के पास भी कुछ भी कहने और करने की छूट और शह क्यों न हो जब कट्टर हिंदू भारत में ही हिंदू राष्ट्र की मांग कर सकते हैं. ऐसे में वह सिख खालिस्तान की मांग क्यों नहीं कर सकता. इस सवाल का कोई सटीक जवाब न तो गृहमंत्री अमित शाह दे पाएंगे और न ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन्हें इंदिरा गांधी का हश्र याद है.

आखिर ऐसा क्यों कहा अमृतपाल ने, इस सवाल का जवाब उस की उम्र की तरह बहुत लंबाचौड़ा नहीं है. 30 साल का यह शख्स अमृतसर जिले के जुल्लू खेड़ा गांव का है. यह गांव बाबा बकाला तहसील के तहत आता है. पढ़ाई में असफल और फिसड्डी रहने के बाद अमृतपाल साल 2012 में कामकाज की तलाश में दुबई चला गया और परंपरागत ट्रांसपोर्ट बिजनैस करने लगा. उस के पिता तरसेम सिंह और मां बलविंदर कौर को इस बात का सपने में भी अंदाजा कभी नहीं रहा होगा कि उन का यह बेटा यों दुनियाभर में उन के नाम की भी पहचान कराएगा.

कुछ महीनों पहले तक अमृतपाल को उस के करीबी लोग ही जानते थे. बीती 10 फरवरी को उस के तमाम करीबी जुल्लू खेड़ा में इकट्ठा हुए थे क्योंकि इस दिन अमृतपाल की शादी थी. उस की पत्नी किरणदीप कौर भारतीय मूल की एक एनआरआई है.

अगस्त 2022 में अमृतपाल वापस देश आ गया और आते ही ‘वारिस पंजाब दे’ नाम के संगठन से जुड़ गया. यह संगठन पंजाबी ऐक्टर दीप सिद्धू ने खड़ा किया था. 15 फरवरी, 2022 को 37 वर्षीय दीप सिद्धू की मौत कुंडली मानेसर पलवल एक्सप्रेसवे पर एकसड़क हादसे में हो गई थी. यह हादसा इतना जबरदस्त था कि उन की कार पूरी तरह डैमेज हो गई थी पर उन की अमेरिका से लौटी पत्नी रीना राय को ज्यादा चोटें नहीं आई थीं. इस हादसे और मौत को शुरू में शक की निगाह से देखा गया था क्योंकि दीप सिद्धू लालकिले की हिंसा के आरोपी थे जिन्होंने 26 जनवरी, 2021 को लालकिले पर सिख झंडा फहराया था जिस के चलते उन के कई दिग्गज नेताओं से मतभेद थे.

किसान आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले दीप सिद्धू खासे शिक्षित थे जिन्होंने वकालत करने के बाद मौडलिंग में कैरियर बनाया था और फिर कुछ पंजाबी फिल्मों में भी काम किया था. फिल्मों से ज्यादा नाम और पहचान उन्हें किसान आंदोलन के दौरान मिली जब उन्होंने प्रदर्शनों में जम कर हिस्सा लिया था और फर्राटेदार इंग्लिश में भाषण दिया था. इस के पहले उन्हें साल 2019 के लोकसभा चुनाव में गुरुदासपुर में भाजपा के उम्मीदवार अभिनेता सन्नी देओल के चुनावप्रचार में देखा गया था लेकिन लालकिले की हिंसा के बाद दोनों में दूरियां और तल्खियां बढ़ गई थीं.

पंजाब के मुक्तसर के दीप सिद्धू अपने दौर के चर्चित खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाला के न केवल जबरदस्त प्रशंसक थे बल्कि उसे अपना रोल मौडल भी मानते थे. जाहिर है ‘वारिस पंजाब दे’ एक खास मकसद से बना संगठन था जिस का मनसूबा अलग देश है. यह मनसूबा खुलेतौर पर अमृतपाल के मुखिया बनने के बाद उजागर होने लगा था. उस की सभाओं में ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ के गूंजते नारे आने वाले वक्त की भयावह तसवीर खींच रहे थे.

बीती 23 फरवरी को पंजाब सहित देशभर में उस वक्त सन्नाटा छा गया था जब अमृतसर के नजदीक अजनाला थाने के बाहर अमृतपाल अपने सैकड़ों साथियों सहित पुलिसकर्मियों से भिड़ गया था. ये लोग अपने एक गिरफ्तार साथी लवप्रीत सिंह तूफान की रिहाई की मांग कर रहे थे. दूसरे दिन ही जादू के जोर से वह रिहा भी हो गया था. उसी दिन से अमृतपाल हीरो बन गया और उसे भिंडरावाले 2.0 का भी खिताब दे दिया गया है. अब ढका मुद्दा कुछ नहीं रह गया. ‘वारिस पंजाब दे’ का खालसा राज स्थापित करने का एजेंडा दुनिया के सामने पूरी तरह बेपरदा है.

 

इतिहास भी हुआ बेपरदा

पंजाब की गिनती देश के खुशहाल राज्यों में की जाती है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. लेकिन इस खुशहाली पर अलगाव की काली छाया भी चस्पां है. आमतौर पर माना यह जाता है कि यह यानी खालिस्तान की मांग 1970-80 के दशक की है लेकिन हकीकत में यह लगभग 100 साल पुरानी है जो रहरह कर सिर उठाती रही है. 19वीं शताब्दी की शुरुआत में जब यह तय हो चुका था कि ब्रिटिश हुकूमत आजादी तो देगी लेकिन उस की शर्त देश का बंटवारा होगा तो सभी धर्मों के नेताओं ने अलगअलग देशों की मांग शुरू कर दी थी.

31 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल  नेहरु ने पूर्ण स्वराज्य की बात कही थी जिस पर सिद्धांततया सभी सहमत थे पर असहमति के स्वर भी सुनाई दिए थे जिन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत हिंदू राष्ट्र नहीं होगा.

मुसलमानों की तरफ से मोहम्मद अली जिन्ना ने अलग मुसलिम राष्ट्र की मांग रखी थी तो भीमराव आंबेडकर ने दलितों की अगुआई करते मोतीलाल नेहरू का विरोध किया था. तब के निर्विवाद सिख नेता शिरोमणि अकाली दल के मास्टर तारा सिंह ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग की थी.

1947 में बंटवारा हुआ पर सिखों की मांग मांग ही रह गई, पंजाब बन गया. पाकिस्तान बन गया, पंजाब भी 2 हिस्सों में बंट गया. एक तरह से सिखों की मांग किनारे रह गई पर वे खामोश नहीं बैठे रहे. अकाली दल अलग राज्य की अपनी मांग पर अड़ा रहा. आजादी के बाद उस ने इस बाबत लगातार आंदोलन किए जिन में ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ को सिखों का खासा समर्थन मिला. सिखों की मांग को किनारे करने में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का रोल अहम था जिन्होंने मास्टर तारा सिंह को शीशे में उतारते अकाली दल को अपनी तरफ मिला लिया था. इस के बाद 1956 में अकाली दल ने कांग्रेस के हवाले से सिखों के तमाम तरह के हितों की गारंटी ली थी.

धर्म, भाषा, क्षेत्र और जाति के लिहाज से अलग पंजाब की मांग गलत या नाजायज नहीं थी, इसलिए साल 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह मांग मान भी ली थी लेकिन उन्होंने हिंदुओं का खयाल ज्यादा रखा था. पंजाब 3 हिस्सों में बंट गया. हिंदीभाषियों के हिस्से में हरियाणा आया, सिखों को पंजाब मिला और तीसरा हिस्सा केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ शहर बना. इस से पहले 1956 में जब भाषा के आधार पर राज्यों का बंटवारा हुआ था तब अलग पंजाब की मांग पर ध्यान नहीं दिया गया था क्योंकि तब अधिकतर सिखों ने अपनी मातृभाषा हिंदी बताई थी. यह खास हैरत की बात नहीं थी क्योंकि तब ‘हिंदी बचाओ आंदोलन’ जोरों पर था. उसी साल हिमाचल प्रदेश को अलग राज्य का दर्जा देते जवाहर लाल नेहरू ने अकालियों को एक और झटका दिया था जो यह प्रदेश भी मांग रहे थे.

हैरत की बात यह थी कि कांग्रेस और कट्टरवादी हिंदू पार्टी जनसंघ दोनों ही हिंदी पर जोर दे रहे थे जिस के चलते पंजाबी हिंदू भी हिंदुओं को गुरुमुखी में शिक्षा देने का विरोध करने लगे थे. पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो ने क्षेत्रीय फार्मूले को लागू ही नहीं किया. उस से सिख समुदाय फिर से खुद को अलगथलग महसूस करने लगा.

 

एक दुखद भविष्यवाणी

अनदेखी, गुस्से और भड़ास ने जगजीत सिंह चौहान जैसे अलगाववादी नेता को शह दी जो 70 के दशक में ब्रिटेन में बैठ कर ‘खालिस्तान आंदोलन’ चलाने लगा था. उस से पहले रिपब्लिकन पार्टी के इस नेता को पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर अकाली दल वाली गठबंधन सरकार में बनाया गया था. ब्रिटेन शिफ्ट होने के बाद जगजीत सिंह ने बाकायदा खालिस्तान का पूरा खाका और नक्शा तैयार कर रखा था. वह विदेशी अखबारों में विज्ञापनों के जरिए खालिस्तान आंदोलन के लिए चंदा भी मांगता था. 1979 में तो उस ने हद ही कर दी थी और खालिस्तान नैशनल काउंसिल की स्थापना करते खुद को ‘रिपब्लिक औफ खालिस्तान’ का राष्ट्रपति भी घोषित कर दिया था.

जो लोग खालिस्तान की मांग का जिम्मेदार भिंडरावाला या अमृतपाल को मानते हैं, उन्हें यह जान कर हैरत ही होगी कि इस स्वयंभू राष्ट्रपति ने तो खालिस्तानी पासपोर्ट, डाक टिकट और खालिस्तानी करैंसी भी जारी कर दी थी. और तो और, उस ने कुछ यूरोपीय देशों और ब्रिटेन में खालिस्तानी दूतावास भी खोल दिए थे. जगजीत सिंह के हाथ बहुत लंबे थे. पाकिस्तान सहित कई देशों ने उस के खालिस्तान को अघोषित मान्यता दे रखी थी.

80 के दशक में भिंडरावाले की बढ़ती ताकत ने इंदिरा गांधी को चिंतित कर दिया था हालांकि सियासी पंडित यह मानते हैं कि उस के उत्थान में इंदिरा गांधी का बड़ा योगदान था. अब तक जगजीत सिंह की ताकत और पहुंच कमजोर पड़ने लगे थे. भिंडरावाले के उस से संबंधों पर उंगली उठती रहती थी पर किसी के पास कोई सुबूत नहीं था ठीक वैसे ही जैसे आज अमृतपाल और दीप सिंह सिद्धू के संबंधों के नहीं हैं.

जगजीत सिंह ने 12 जून, 1984 को बीबीसी को दिए गए एक इंटरव्यू में पूरे आत्मविश्वास से कहा था कि कुछ दिनों बाद आप को खबर मिल जाएगी कि श्रीमती गांधी और उन के परिवार का सिर काट दिया गया है. सिख यही करेंगे और सचमुच 31 अक्तूबर, 1984 को यह हो गया. इंदिरा गांधी की हत्या उन के ही 2 सुरक्षाकर्मियों ने कर दी.

जाहिर है जगजीत सिंह को इस बात का आभास था कि सिख इंदिरा गांधी से खासे और मरनेमारने की हद तक नाराज हैं जिस की बड़ी वजह ‘औपरेशन ब्लूस्टार’ था.

 

औपरेशन नहीं अधूरी सर्जरी

इमरजैंसी के बाद 1980 में इंदिरा गांधी की शानदार वापसी हुई. उस समय उन के सामने सब से बड़ी चुनौती पंजाब में पनपता अलगाववाद, आतंक और हिंसा थीं जिन की जड़, फूल, पत्ते, टहनियां और पेड़ तक जरनैल सिंह भिंडरावाला था. खालिस्तान की मांग शबाब पर थी. सुलगते पंजाब का नायक भिंडरावाला कांग्रेस और इंदिरा गांधी सहित देशभर के लिए भस्मासुर कैसे बन चुका था, इसे समझने के लिए 80 के दशक पर एक नजर डालनी जरूरी है.

अब बहुत आसानी और सहजता से कहा जा सकता है कि औपरेशन ब्लूस्टार 1 से 8 जून, 1984 तक की गई एक सैन्य कार्रवाई थी जो अमृतसर के हरमिंदर साहिब परिसर में की गई थी. इस का मकसद कुख्यात खालिस्तानी समर्थक भिंडरावाला को वहां से खदेड़ना था क्योंकि उस की अगुआई में अलगाववादी ताकतें फलफूल रही थीं जिन्हें खासतौर से पाकिस्तान का सहयोग और समर्थन मिला हुआ था.

मोगा जिले का जरनैल सिंह भिंडरावाला आज के अमृतपाल की तरह ही मामूली खातेपीते घर का नौजवान था और सिखों के एक धार्मिक समूह दमदमी टकसाल का मुखिया था. वह भी कम पढ़ालिखा था और अपने मकसद को पूरा करने के लिए हिंसा को जरूरी मानता था. उस ने अलगाववाद को जम कर हवा दी और युवाओं को अपनी मुहिम से जोड़ने लगा. लेकिन धीरेधीरे वह देशविरोधी बातें करने लगा. उस की पूछपरख बढ़ने लगी तो सभी दलों के नेताओं ने भी उसे घेरना शुरू कर दिया. उन में एक अहम नाम तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का है जो दमदमी टकसाल का मुखिया बनने पर उसे बधाई देने पहुंचे थे. दूसरा बड़ा नाम शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष गुरुचरण सिंह तोहड़ा का आता है.

1978 की वैशाखी को आज भी पंजाब में खूनी कहा जाता है क्योंकि उस दिन अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों की हिंसक झड़प में 13 अकाली मारे गए थे. उस के बाद मनाए गए रोष दिवस में भिंडरावाला ने हिस्सा लिया था और फिर वह जगहजगह भड़काऊ भाषण देने लगा था. फिर तो पंजाब में हिंसा का ऐसा तांडव हुआ कि शेष भारत के लोग वहां के नाम से डरने लगे थे.

1981 में हिंद समाचार समूह के संस्थापक लाला जगत नारायण की हत्या का जिम्मेदार भी भिंडरावाला को माना गया था और 1983 में पंजाब के डीआईजी ए एस अटवाल की हत्या में भी उस का हाथ बताया गया.

देखते ही देखते खुलेआम हत्याएं पंजाब का रूटीन बन गईं. आएदिन अलगाववादी रेलें रोकने लगे, बसें जलाने लगे और हवाई जहाज किडनैप करने लगे. अब किसी को कहने और पूछने की जरूरत नहीं रह गई थी कि यह सब क्यों और किस के इशारे पर हो रहा है. पुलिस इस खूंखार आतंकी के सामने असहाय थी और आम लोगों में दहशत थी. लोग केंद्र सरकार से दखल की मांग करने लगे थे.

इंदिरा गांधी के लिए एकदम से कोई भी फैसला लेना आसान नहीं था क्योंकि उन की शह भी भिंडरावाला के साथ कुछ सालों पहले तक हुआ करती थी, जब वे विपक्ष में थीं. पंजाब वह राज्य था जिस में उन के 1977 में लगाए गए आपातकाल का कोई खास विरोध नहीं हुआ था. लेकिन 1977 में ही अकाली दल ने सभी को चौंकाते जनता पार्टी और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ सरकार बनाई तो इंदिरा गांधी को यह इस हद तक नागवार गुजरा था कि उन्होंने अकाली दल को पंजाब से नेस्तनाबूद करने की कसम खा ली थी. इस की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बेटे संजय गांधी और अपने वफादार व भरोसेमंद नेता ज्ञानी जैल सिंह को सौंप दी थी. उस चुनाव में कांग्रेस को 117 में से महज 17 सीटें मिली थीं और अकाली दल 58 सीटों पर जीता था.

भिंडरावाला की पहुंच तब तक शहरी इलाकों के साथसाथ देहाती इलाकों में भी हो चुकी थी. इंदिरा गांधी ने बिना भविष्य के बारे में सोचेसमझे भिंडरावाला को हर संभव सहयोग दिया, एवज में उस ने कांग्रेस का चुनावप्रचार किया था जिस के चलते 1980 के लोकसभा चुनाव में उम्मीद से ज्यादा कामयाबी मिली थी. उस के खाते में 13 में से 12 सीटें आई थीं जबकि अकाली दल एक सीट पर सिमट कर रह गया था. इसी तरह विधानसभा चुनाव में उस बार कांग्रेस 61 सीटें ले गई थी और अकाली 37 पर सिमट गए थे.

लेकिन तब तक पानी सिर से गुजर चुका था. खुद को पंजाब का शासक समझने और मानने लगा भिंडरावाला चुनावी डील के बाद इस हद तक बेलगाम हो चुका था कि उस ने दरबार साहिब में अपना दरबार लगाना शुरू कर दिया था. उस की अपनी एक अदालत थी जिस में वह इंसाफ भी करने लगा था. इस जिद्दी और सनकी शख्स का आतंक ही इसे कहा जाएगा कि पुलिस वाले तक उस के इशारों पर नाचने लगे थे, फिर क्या अकाली, निरंकारी, रामदसिया और रविदासिया सभी उसे मौजूदा पंजाब व भविष्य के खालिस्तान का मसीहा स्वीकार चुके थे.

 

1980 में जब पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनी थी तब दरबारा सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था जो भिंडरावाला को खतरा समझ आलाकमान को आगाह करते रहे थे लेकिन उन की बात अनसुनी कर दी गई. इधर हालात दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे थे. इसलिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. तब तक भिंडरावाला को इंदिरा गांधी की मंशा की भनक लग चुकी थी, इसलिए वह भी आरपार की लड़ाई के मूड में आ गया और ‘स्वर्ण मंदिर’ में अपने हथियारबंद समर्थकों सहित कैद हो गया. इंदिरा गांधी ने एक कूटनीति के तहत उसे बातचीत का प्रस्ताव भेजा जिसे उम्मीद के मुताबिक उस ने ठुकरा दिया.

1 जून, 1984 को पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया, चारों तरफ से आवाजाही बंद कर दी गई. मीडिया को अमृतसर छोड़ने को कह दिया गया और मेजर कुलदीप सिंह को औपरेशन ब्लूस्टार की जिम्मेदारी सौंपी गई. इस मुठभेड में टैंकों तक का इस्तेमाल किया गया था. घोषिततौर पर सेना के 83 जवान शहीद हुए और 500 से ज्यादा आतंकी मारे गए जिन में भिंडरावाला भी शामिल था. उस की मौत के बाद लोगों ने चैन की सांस ली और जम कर धर्म आधारित राजनीति को कोसा, पर किसी ने कोई सबक लिया हो, ऐसा लगता नहीं.

सेना को पहली बार किसी धर्मस्थल में दाखिल हो कर अपने ही देश में युद्ध लड़ना पड़ा. सबकुछ निबट गया पर सिखों ने इसे सहजता से नहीं लिया. जगजीत सिंह का अंदाजा सही निकला. 2023 में अब हिंदू-सिख मंथन से निकल रहे अमृतपाल का उदय बता रहा है कि औपरेशन ब्लूस्टार एक आधीअधूरी सर्जरी था क्योंकि धर्मांधता फिर सिर चढ़ कर बोल रही है.

 

कौन से हिंदुओं का राष्ट्र

यह धर्मांधता अकेले सिखों की नहीं, बल्कि हिंदुओं की भी है जिस की ढाल या आड़ कभी भिंडरावाला ने भी ली थी और अब अमृतपाल ले रहा है. हिंसा के पैमाने पर ये दोनों ही गलत हैं लेकिन उन के हिंदू राष्ट्र क्या और कैसे, के सवालों का जवाब तो भगवा गैंग को आज नहीं तो कल देना ही पड़ेगा, नहीं तो हालात उन से भी नहीं संभलेंगे.

भिंडरावाला भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 को कोसते हुए कहता था कि सिख, जैन और बौद्धों को अल्पसंख्यक करार देते किस आधार पर सिखों को हिंदू धर्म का हिस्सा कहा गया? इस अनुच्छेद के स्पष्टीकरण 2 खंड (2) के उपखंड (ख) के मुताबिक, हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उस के अंतर्गत सिख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश हैं और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा.

लाख टके का सवाल जो सदियों और युगों से जवाब का मुहताज है वह यह है कि आखिरकार हिंदू हैं कौन, जिन के नाम पर राष्ट्र बनाने का आसमान सिर पर उठा रखा है. सवाल तो यह भी अनुत्तरित है कि जो सिख, बौद्ध और जैन धर्म पौराणिक हिंदू धर्म के पाखंडों और कुरीतियों के विरोध में बने थे उन्हें किस आधार पर हिंदू माना जा रहा है.

इसी तर्ज पर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को भी किस तर्क व तथ्य पर हिंदू करार दे कर उन्हें हिंदू राष्ट्र की संख्या में जोड़ा जा रहा है जबकि इन जातियों के लोग खुद को पूर्णहिंदू नहीं मानते. यानी, कुछ मानों में हिंदू वह नहीं है जो खुद को हिंदू कहे और हिंदू वह भी नहीं है जिसे दूसरे हिंदू कहें. जब तक कायदे से जातिगत जनगणना नहीं होगी तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि कौन सी जाति की आबादी कितनी है. कौन सी जाति हिंदू है और कौन सी नहीं क्योंकि हिंदू पुराण बहुत से लोगों को पशु और ढोलों के सामान मानता है, मनुष्य या हिंदू नहीं.

हिंदू शब्द की उत्पत्ति को ले कर कई थ्योरियां प्रचिलित हैं लेकिन उन में से अधिकतर भौगोलिक हैं, जातिगत नहीं. अब अगर जैन, बौद्ध और सिख धर्मों सहित दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को अलग कर दिया जाए तो कुल सनातनी हिंदू 12 करोड़ भी नहीं बचते जो सभी ऊंची जाति के हैं, इन में भी ब्राह्मण बाकियों के आका हैं.

यही लोग हिंदू राष्ट्र का हल्ला दिनरात मचा रहे हैं और अब यह जताने की साजिश रच रहे हैं कि जो किसी दूसरे धर्म का नहीं है वह हिंदू है या उसे भी हिंदू मान लिया जाए फिर भले ही इस में उस की सहमति हो या न हो. यानी, ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, मोहन भागवत ने कुनबा जोड़ा’ वाली बात है जो कहते हैं कि जो भी इस देश में रहता है वह हिंदू है. अगर ऐसा है तो फिर तो पाकिस्तान में रहने वाले भी सभी हिंदू हुए क्योंकि वह पूरा देश भारत का ही हिस्सा तो है.

अगर अमृतपाल कह रहा है, ‘मैं सिख हूं, मुझे हिंदू मत कहो’ तो वह गलत नहीं है. जब सब हिंदू हैं और हिंदू राष्ट्र बनना चाहिए जैसी बात कही जाती है तो उस का सब से ज्यादा सड़कों पर विरोध पंजाब में होता है क्योंकि वहां सिख बहुलता में हैं. इस के बाद ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ सहित आदिवासी बाहुल्य वाले राज्यों से आवाज आती है कि हम आदिवासी हैं, हिंदू नहीं हैं.

इस लिहाज से हिंदू वही बचते हैं जो वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृतियां, संहिताएं, रामायण और गीता मानते व बांचते हैं और उन में लिखे निर्देशों का पालन करते हैं. वे यज्ञहवनपूजापाठ करते हैं, मंदिरों में उमड़ते हैं, दानदक्षिणा देते हैं. ये लोग संख्या में 8 करोड़ के लगभग हैं. मुमकिन है कि कुछ ज्यादा हों लेकिन हिंदू राष्ट्र की मांग कुछ यों कर रहे हैं जैसे ऊपर से कोई आकाशवाणी हुई हो. हां, नीचे से जरूर नएनवेले आधा दर्जन ब्रैंडेड बाबा, जो हिंदी बेल्ट में जगहजगह विराजे प्रवचन कर रहे हैं, हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं.

ये सभी भगवा गैंग के मैंबर हैं और दरबार लगाते अरबों रुपए कमा रहे हैं. ये बाबा मुसलमानों के खिलाफ लोगों को भड़का कर अपने उल्लू सीधे कर रहे हैं. मुमकिन है अमृतपाल जैसे लोग मुसलिमोफोबिया से इंस्पायर हो कर भड़क रहे हों और बाहरी देशविरोधी तत्त्व उन की मदद कर रहे हों जिस से देश को कमजोर किया जा सके. लेकिन हिंदू राष्ट्र की बात कैसे देश को कमजोर कर रही है, यह किसी से छिपा नहीं है. मुसलमानों के अलावा दूसरे गैरहिंदू भी डरे हुए हैं जिन्हें देश पराया सा लगने लगा है.

 

एजेंडा हिंदू राष्ट्र का

अलगाववादी किसी भी धर्म के हों, उन के पास अपने प्रस्तावित देश का पूरा ब्योरा होता है. जगजीत सिंह की तरह उन की प्लानिंग भी फूलप्रूफ होती है. अमृतपाल ने क्या योजना बनाई है, इस का खुलासा जब होगा तब होगा लेकिन हिंदू राष्ट्र की मांग पर अड़े हिंदू साधुसंतों ने अपने देश का खाका खींचते एक अलग संविधान भी बना लिया है. यह खालिस्तान से ज्यादा खतरनाक और चिंताजनक है.

बीती 13 फरवरी को यह खबर आई थी कि साधु, संतों और शंकराचार्यों ने यह तय किया है कि हिंदू राष्ट्र का संविधान 750 पृष्ठों का होगा जिस में कुछ पृष्ठ तैयार किए जा चुके हैं. जो “विद्वान ”लोग यह मसौदा तैयार कर रहे हैं उन में हिंदू राष्ट्र निर्माण समिति के प्रमुख कमलेश्वर उपाध्याय, वरिष्ठ अधिवक्ता बी एन रेड्डी, रक्षा विशेषज्ञ आनंद वर्धन, सनातन धर्म के जानकार चंद्रमणि मिश्रा और विश्व हिंदू महासंघ के अध्यक्ष अजय सिंह शामिल हैं.

इस प्रकार हिंदू राष्ट्र का संविधान बनाने का काम असल में अमृतपाल सिंह जैसों को प्रोत्साहन करना है कि देशों में मरजी के संविधान, उस की सीमाएं बनाना गलत नहीं. हिंदू राष्ट्र बनाना सेवा विस्तार के लिए होगा, यह जरूरी नहीं है. जरूरी यह है कि कुछ लोग भारत में ही एक अन्य राष्ट के बारे में कैसे सोच रहे हैं?

इस निर्माणाधीन संविधान के मुताबिक, देश की राजधानी दिल्ली के बजाय वाराणसी होगी और काशी में संसद बनेगी जिसे धर्मसंसद कहा जाएगा. वाराणसी स्थित शंकराचार्य परिषद के अध्यक्ष स्वामी आनंद स्वरूप के मुताबिक, हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों और ईसाईयों को वोट देने का अधिकार नहीं रहेगा. न्याय द्वापर युग की तर्ज पर होगा. यह वही युग है जिस में गुरु द्रोणाचार्य ने आदिवासी युवक एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में कटवा कर ले लिया था. वही द्वापर युग जिस में सूतपुत्र कर्ण को धोखे से मार दिया गया था और वही द्वापर युग जिस में लाचार द्रौपदी के कपड़े भरी सभा में दुशासन ने उतार दिए थे और सारे शूरवीर व विद्वान क्षत्रिय सिर झुकाए यह चीरहरण देखते रहे थे. इस में और भी कई बातें हैं जिन्हें जगजीत सिंह और भिंडरावाला भी कहते रहे थे और अब अमृतपाल भी कह रहा है. ऐसे में फिर इन में और उन में फर्क क्या?

आज भी दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की मारकुटाई आम बात है. उन का शोषण सवर्णों का हक है जिस का लाइसैंस रामचरितमानस सहित सभी हिंदू धर्मग्रंथों ने उन्हें दिया हुआ है. पिछले दिनों कई दलित नेताओं ने इस लिखे पर एतराज जताया है जिस पर खूब बवंडर भी मचा, तो ऊंची जाति वाले खामोश हैं इस मुद्दे पर. सरिता का पिछला अंक (मार्च प्रथम, 2023) देखें जिस में तर्क और तथ्यपरक ढंग से इस सच और ब्राह्मण मंशा को उधेड़ा गया है. उस में प्रमुखता से यह कहा गया है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत धर्मग्रंथों में बदलाव की बात पर गौर कर सकते हैं. इस बात की पुष्टि बीती 5 मार्च को हुई भी जब उन्होंने नागपुर में यह कहा कि धर्मग्रंथों की दोबारा समीक्षा होनी चाहिए.

उक्त लेख में धर्मग्रंथों के हवाले से साबित किया गया है कि कोई और नहीं, अकेले ब्राह्मण ही हिंदू होते हैं क्योंकि धर्मग्रंथ उन की प्रशस्ति से भरे पड़े हैं और उन के अधिकार बेहिसाब हैं. वे संविधान से ऊपर हैं. ये लोग भगवान के दूत या दलाल कुछ भी कह लें, हैं. इन का संविधान मनुस्मृति है, आंबेडकर वाले संविधान से ये खार और खौफ दोनों खाते हैं क्योंकि वह बराबरी का दर्जा सभी को देता है और वंचितों, कमजोरों व शोषितों को आरक्षण तथा संरक्षण देता है.

 

गुरुद्वारों से भगाया था ब्राह्मणों को

अमृतपाल हिंदू राष्ट्र की मांग से चिढ़ा हुआ है और वह उसी की ढाल भी लिए हुए है. कोई मुसलमान कुछ कहता तो उसे झट से यह कहते दुत्कार दिया जाता कि ‘तो फिर पाकिस्तान चले जाओ’, अब अमृतपाल से तो यह नहीं कहा जा सकता कि खालिस्तान चले जाओ क्योंकि ब्राह्मण नहीं चाहते कि खालिस्तान बने. वे अभी तक सिखों से चिढ़ते हैं, इस की भी एक दिलचस्प दास्तां है जिस का शीर्षक ‘गुरुद्वारा सुधार आंदोलन’ है.

गुरुनानक ने मुगलों से हिंदुओं की रक्षा के लिए सिख धर्म बनाया था जिस में अधिकतर वे छोटी जाति के लोग शामिल किए गए थे जिन्हें हिंदू धर्मग्रंथ शूद्र कह कर दुत्कारते रहे हैं. लेकिन सिख बनने के बाद शूद्रों को सम्मान और बराबरी का दर्जा मिला तो उन में एक अलग फीलिंग आई और वे सिख रीतिरिवाजों को मानने लगे. यहां तक तो सिखों और हिंदुओं में कोई खास  मतभेद नहीं थे.

मतभेद 1920 के लगभग उजागर होने शुरू हुए थे जब ‘गुरुद्वारा सुधार आंदोलन’ ने जोर पकड़ा. 18वीं शताब्दी तक गुरुद्वारे असल में एक तरह की धर्मशाला हुआ करते थे जिन में मुसाफिरों, मेहमानों और सैनिकों के ठहरने व खानेपीने की व्यवस्था होती थी. एक तरह से ये सामाजिक गतिविधियों के केंद्र थे. फिर धीरेधीरे इन में पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन होने लगे. इन गुरुद्वारों का संचालन एक तरह के ब्राह्मण पुजारियों के हाथों में हुआ करता था जिन्हें महाद कहा जाता था. शूद्र तो मन से सिख हो गए थे पर ब्राह्मण नहीं हुए थे. धीरेधीरे ब्राह्मण पुजारियों ने गुरुद्वारों को भी लूटखसोट का अड्डा बना डाला.

इन पुजारियों को सिख धर्म के मूलभूत सिद्धांतों से कोई सरोकार नहीं था. ये लोग चढ़ावा वसूलने लगे और मूर्तिपूजा व ज्योतिष जैसे अंधविश्वास फैला कर भी लोगों को मूर्ख बना कर पैसे ऐंठने लगे. इतना ही नहीं, इन्होंने छोटी जाति वालों को गुरुद्वारों में आने से रोकना शुरू किया तो सिखों को यह नागवार गुजरा क्योंकि सिख धर्म में जातिगत भेदभाव, ढोंग, पाखंड और कर्मकांडों की सख्ती से मनाही थी. यह लूटखसोट सिखों को खतरा लगी तो उन्होंने इस का विरोध शुरू कर दिया. इस के बाद ही अकाली दल और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी वजूद में आए. हालांकि छोटेमोटे विवाद और फसाद होते रहे लेकिन गुरुद्वारों का प्रबंधन पुजारियों के चंगुल से छूट कर सिखों के हाथ में आ गया.

यह बात ब्राह्मणों को अखरी क्योंकि उन की मुफ्त की मलाई मारी गई थी. लिहाजा, उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक सिखों का मजाक बनाना शुरू कर दिया जो अभी तक जारी है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तो सिखों को आतंकवादी और खालिस्तानी कह कर प्रताड़ित किया जाने लगा. इस से यह तो पता चलता है कि हिंदू-सिख नफरत की जड़ें कितनी गहरी हैं और यह जहरीला पेड़ लगाया किस ने है. चूंकि सिख खुद को हिंदू नहीं मानते, इसलिए उन से नफरत की जाती है ठीक वैसे ही जैसे मुसलमानों, ईसाईयों, दलित, पिछड़ों और आदिवासियों से की जाती है, फर्क सिर्फ नफरत की मात्रा का है.

किसान आंदोलन में चूंकि ज्यादातर किसान पंजाब के थे, इसलिए उन्हें खालिस्तानी और आतंकी कह कर उकसाने की कोशिश की गई पर किसानों ने अभूतपूर्व धैर्य और अनुशासन दिखाते अड़ंगा डालने वालों की मंशा पर पानी फेर दिया और इसलिए वे जीते भी, जिस के चलते पहली दफा जिद्दी और अड़ियल सरकार उन के सामने झुकी.

बात अकेले किसानों की नहीं है और न पहले कभी रही है. सार्वजनिक स्थानों पर तो सिखों का तरहतरह से मजाक बनाया ही जाता है. भगवंत मान जब पंजाब के मुख्यमंत्री बने थे तो उन की शराब की आदत पर खूब ताने कसे गए थे. मीम बनाबना कर उन का मखौल उड़ाया गया था मानो हिंदू शराब को हाथ भी न लगाते हों.

सिखों को खेल के मैदान में भी नहीं बख्शा जाता. सितंबर 2022 में एशिया कप क्रिकेट के भारतपाकिस्तान मैच के दौरान उभरते खिलाड़ी अर्शदीप सिंह से पाकिस्तानी खिलाड़ी आसिफ अली का कैच छूटने से भारत हार गया था. इस पर अर्शदीप को जम कर ट्रोल खालिस्तानी कह कर किया गया था.

हालांकि यह शुरुआत पाकिस्तान से हुई थी लेकिन भारत के गलीमहल्लों में भी यह छूटा कैच अर्शदीप को खालिस्तानी करार दे रहा था. हैरत की बात यह भी थी कि ऐसा कहने वाले वे युवा ज्यादा थे जिन्हें खालिस्तान का क ख ग घ भी नहीं मालूम. उन से इस सवाल की उम्मीद करना फुजूल की बात थी कि आखिर सिखों की इमेज ऐसी क्यों है, क्या वे हिंदुस्तानी नहीं हैं. बात का बतंगड़ बनाने वाले न्यूज चैनल भी चुप्पी साध गए थे, मानो वे इस ट्रोलिंग से सहमत हों. यह सिखों के प्रति पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या है?

इस नफरत और पूर्वाग्रह का शिकार औरतें भी खूब रही हैं. इसलिए सिख धर्म अपना कर अकेले शूद्रों ने ही राहत की सांस नहीं ली थी बल्कि महिलाओं ने भी आजादी और जिदंगी के सही माने समझे थे जिन्हें हिंदू धर्म की जकड़न और घुटन से आजादी मिली थी.

 

सिख औरतें बनाम सवर्ण औरतें

15वीं सदी में जब गुरुनानक ने पंजाब में सिख धर्म की नींव रखी थी तब उस में ज्यादातर शामिल होने वाले हिंदू छोटी जातियों के थे. आज उन की अलग पहचान और पूछपरख है तो इस में महिलाओं का योगदान बराबरी का है. सिख धर्म में औरतों को बराबरी का दर्जा हर स्तर पर मिला हुआ है लेकिन हिंदू सवर्ण महिलाएं आज भी भेदभाव और ज्यादती की शिकार हैं. उन के शिक्षित और आत्मनिर्भर होने से इतना भर फर्क पड़ा है कि वे कुछ पैसा अपनी मरजी से खर्च कर सकती हैं.

धर्म कोई भी हो, उस का समाज पर गहरा असर हमेशा रहता है. सवर्ण महिला की स्थिति अभी भी दोयम दर्जे की है. उसे पुरुषों के बराबर आजादी नहीं है और उस की गुलामी का वीभत्स चित्रंण धर्मग्रंथों में मिलता है. हिंदुओं के संविधान मनुस्मृति के अध्याय 2 के श्लोक 66 और अध्याय 9 के श्लोक 181 के मुताबिक, असत्य जिस तरह अपवित्र है उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं. पढ़नेपढ़ाने, वेद मंत्र बोलने या उपनयन का स्त्रियों को अधिकार नहीं. यह शूद्र स्त्रियों के लिए नहीं, सवर्ण स्त्रियों के लिए दिया गया पौराणिक आदेश है.

इसी स्मृति के अध्याय 5 के 154वें श्लोक में निर्देश है कि पति सदाचारहीन हो, अन्य स्त्रियों में आसक्त हो, दुर्गुणों से भरा हो, नपुंसक हो फिर भी स्त्री को उसे देव की तरह पूजना चाहिए. यह आदेश भी सवर्ण स्त्रियों के लिए है. शूद्र और दलितों की स्त्रियां तो हमेशा ही सेवा करती रहेंगी.

जब धर्मग्रंथ शूद्रों की बात करते हैं तो पूरे स्त्री और पुरुषवर्गों की बात करते हैं लेकिन जब बात औरतों की होती है तो उन का अभिप्राय सिर्फ सवर्ण महिलाओं से होता है. तमाम नियमकायदे, कानून, बंदिशें, व्रतउपवास, त्योहार उन्हीं के लिए गढ़े गए हैं जिन्हें वे किसी न किसी रूप में अभी तक ढो रही हैं.

बहुत बारीकी से इस भेदभाव को देखें तो `विद्वानों` के हिंदू राष्ट्र के निर्माणाधीन संविधान में इस बाबत कोई जिक्र ही नहीं है कि सवर्ण हिंदू महिलाओं को क्या दिया जाएगा. बात सच भी है क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल का वचनपत्र नहीं है जिस में सभी धर्मों व जातियों की महिलाओं के लिए ढेर से वादे, योजनाएं और सहूलियतें होती हैं. यह गुरुओं का संविधान है जो पुराने संविधानों की नकल होगा और उन में सवर्ण औरतों के लिए क्याक्या है, सरिता के नियमित पाठक यह बेहतर जानते हैं.

सवर्ण महिलाओं के प्रति हिंदू ऋषिमुनियों से ले कर शंकराचार्यों तक के विचार बहुत संकरे रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे शूद्रों के प्रति थे कि ये दोनों ही पशुवत हैं. इस कमी को सिख गुरुओं ने डंके की चोट पर दूर किया जिस से पंजाब एक खुशहाल राज्य है. वहां की एक बड़ी कमी धर्मांधता है जो अमृतपाल के जरिए प्रदर्शित हो रही है.

इस नव अलगाववादी का यह सवाल और खयाल चिंताजनक है कि जब हिंदू राष्ट्र की मांग हो सकती है तो निशाने पर सिख ही क्यों? कल को मराठी, बंगाली, गुजराती और उड़िया समेत हर कोई यही मांग हिंसक हो कर करने लगेगा (हालांकि छिटपुट करते भी रहते हैं) तो देश का क्या होगा, यह हर किसी के सोचने की बात है जिस की जड़ में हिंदू राष्ट्र का होहल्ला है. अगर कोई एक कुएं में गिर रहा है तो दूसरे द्वारा उस का अनुसरण करना किसी के भले की बात नहीं.

रही बात पंजाब की, तो इतिहास गवाह है कि धार्मिक हिंसा से सब से ज्यादा नुकसान आम सिखों का ही हुआ है. मुगलों से ले कर अब तक वे ही इस का खमियाजा भुगतते रहे हैं. 1984 के दंगों के जख्म अभी पूरी तरह सूखे नहीं हैं. नुकसान किसानों और युवाओं का भी होना तय है, इसलिए अलगाववादियों को किसी भी स्तर पर प्रोत्साहन, खासतौर से धार्मिक और आर्थिक, नहीं मिलना चाहिए जोकि हिंदू राष्ट्र के नाम पर नवोदित हिंदू गुरुओं को इफरात से मिल रहा है. अब देखना दिलचस्प होगा कि पंजाब में यह जिम्मेदारी कौन लेगा केंद्र सरकार या राज्य सरकार या फिर खुद सिख जो पीढ़ियों से भुक्तभोगी हैं और वर्तमान में सुकून से जीना चाहते हैं.

शिक्षा विशेष: स्कूलों की बिल्डिंग पर जाएं या टीचर्स पर

स्कूल की भव्य  बिल्डिंग  को अच्छी शिक्षा का पैमाना बना दिया गया है. पेरैंट्स चाहते हैं कि उन के बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ाई करें और वे स्कूल की बिल्डिंग देख कर बच्चे का एडमिशन करा देते हैं. लेकिन क्या अच्छी बिल्डिंग में अच्छी पढ़ाई होती भी है? पेरैंट्स यही चाहते हैं कि उन का बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ाई करे ताकि उस का भविष्य बेहतर बने. इस के लिए वे बड़ी फीस चुकाते हैं.

कई बार वे अपने बच्चों को ऐसे स्कूल में दाखिला दिला देते हैं जहां पर स्कूल की बिल्ंिडग तो अच्छी होती है पर स्कूल के टीचर अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं होते या उन को पढ़ाने का सही तरीका नहीं पता होता. ऐसे में पेरैंट्स के सामने दुविधा यह होती है कि वे बच्चे का एडमिशन कराते समय स्कूल की  देखें कि टीचर्स को देखें जिन से बच्चों को पढ़ना होता है. बच्चों को कानूनी शिक्षा की तैयारी करा रहीं रोमा बच्चानी कहती हैं,

‘समय की मांग है कि अच्छी शिक्षा के लिए स्कूल में अच्छी शिक्षा के सारे मापदंड पूरे किए जाएं, जिन में स्कूल की बिल्डिंग भले ही बहुत भव्य न हो पर बच्चों की शिक्षा और सुरक्षा को ले कर डिजाइन की गई हो. स्कूल में अच्छे टीचर्स के साथ ही साथ सांइस लैब, लाइब्रेरी और खेल का मैदान जरूर हों. पेरैंट्स काफी हद तक यह बात समझाते हैं.’

अगर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बात करें तो यहां कई चमकदमक वाले स्कूल भी हैं लेकिन अगर प्राथमिकता के लिहाज से देखें तो लामार्ट्स कालेज, सैंट फ्रांसिस, लैरेटो कौन्वेट, माउंट कार्मेल कालेज और मौंटफोर्ट स्कूल ऐसे हैं जो पेरैंट्स की पहली पसंद हैं. ये सभी इंग्लिश मीडियम संस्थान हैं, जहां की शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई सब से पहले होती है. इस के बाद ऐसे स्कूल खुले जिन के नाम मौंटेसरी पर रखे गए. इन में सिटी मौंटेसरी स्कूल का नाम सब से पहले आता है जहां पर स्कूल का बाजारीकरण कर दिया गया. इस की वजह वे पेरैंट्स भी थे जिन के बच्चे पढ़ने में अच्छे नहीं थे मगर उन के पास पैसा था. वे सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना नहीं चाहते थे.

सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना वे शान के खिलाफ समझाते थे. कौन्वेंट स्कूल में बच्चों को एडमिशन नहीं मिल पाता था. इन के लिए सिटी मौंटेसरी जैसे स्कूलों ने पढ़ाई की व्यवस्था की. एक तरह से देखें तो यह कोई गलत काम भी नहीं था. इन स्कूलों ने बिजनैस मौडल बना कर शिक्षा का बाजारीकरण भले ही किया लेकिन जरूरतमंद लोगों के लिए शिक्षा की सुविधा को पहुंचाने का काम किया. पेरैंट्स को लुभाती है चमकदमक कुछ ऐसे स्कूल भी हैं जो महंगी शिक्षा और चमकदमक से भले ही दूर हैं पर वे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलाते हैं.

ये स्कूल अभी भी सीबीएसई और आईसीएसई से अधिक यूपी बोर्ड के स्कूल हैं. लखनऊ और बाराबंकी जिले का पायोनियर मौंटेसरी इंटर कालेज ऐसे ही स्कूलों में है. इस की 16 ब्रांचों में करीब 15 हजार बच्चे पढ़ते हैं. लखनऊ और बाराबंकी में अच्छी और सस्ती शिक्षा व्यवस्था को ले कर यह बड़ा नाम है. पायोनियर मौंटेसरी इंटर कालेज की प्रिंसिपल शर्मिला सिंह कहती हैं, ‘‘आज जब छोटी क्लास में बच्चे का एडमिशन कराने पेरैंट्स आते हैं तो सब से पहले वे क्लासरूम देखते हैं. पंखे और एसी को देखते हैं. चेयर्स और क्लास का इंटीरियर कैसा है और बच्चों का बाथरूम कैसा है,

यह देखते हैं. शायद ही कोई ऐसा अभिभावक आता हो जो टीचर्स के बारे में पूछता हो. उसे यह अपेक्षा तो रहती है कि बच्चा अच्छे से पढ़े पर अगर टीचर उसे डांट दे तो उसे दिक्कत होती है. वह छोटे बच्चे की कही गई बात को सही मानता है पर टीचर की बात को सही नहीं मानता. पेरैंट्स के व्यवहार में बड़ा बदलाव आ गया है.’’ दिखावे का प्रभाव एसआर इंटरनैशनल स्कूल और एसआर ग्लोबल स्कूल के चेयरमैन पवन सिंह चौहान कहते हैं, ‘‘स्कूल के डायरैक्टर या चेयरमैन जैसे प्रमुख पद पर बैठे हुए व्यक्ति को खुद अब बच्चों के बीच जाना पड़ता है. वह उन के साथ संवाद रखे तो बच्चे बात को सम?ाते हैं.

कई बार पेरैंट्स से भी समझदार बच्चे होते हैं. मैं बच्चों को जब समझता हूं कि वे मैदे से बनी चीजों की जगह पर हैल्दी चीजों का प्रयोग करें तो बच्चा अपने घर में जा कर कहता है कि चेयरमैन सर ने हमें खाने से मना किया है. अगर बच्चे को कोई परेशानी होती है तो वह हमें जब तक बता नहीं देता तब तक उसे संतोष नहीं होता. कई बार वह टीचर की बात को भले ही न माने पर हमारी बात जरूर मान लेता है.’’ एसआर इंटरनैशनल स्कूल इंग्लिश माध्यम का स्कूल है.

उस में 2 हजार बच्चे पढ़ते हैं. एसआर ग्लोबल स्कूल में हिंदी और इंग्लिश दोनों माध्यमों से पढ़ाई होती है. उस में 12 हजार के करीब बच्चे पढ़ते हैं. पवन सिंह चौहान मानते हैं कि बदलते दौर में पेरैंट्स गुणवत्ता के साथ ही साथ अपने बच्चे के लिए हर तरह की सुविधा चाहते हैं. यही कारण है कि छोटेछोटे जिलों और शहरों में बहुत अच्छे स्कूल खुल रहे हैं, लेकिन सुविधा के साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती तो कई स्कूल ऐसे हैं जिन के यहां अच्छी सुविधा देने के बाद भी छात्र नहीं हैं. ऐसे में व्यवस्था और शिक्षा के बीच तालमेल कर के ही आगे बढ़ा जा सकता है.’’

जेब को देख कर स्कूल चुनें पहले समाज में दिखावा कम था. बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना सरल होता था. अब सरकारी स्कूल में भेजते ही लोग उस को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं. इसलिए पेरैंट्स नामी और दिखावे वाले स्कूल में बच्चे को भेजने को विवश महसूस करते हैं. इस का असर न केवल उन की जेब पर पड़ता है बल्कि कई बार यह बच्चे के अंदर भी हीनभावना भर देता है. कोविड जैसे संकट के दौर में कई बच्चों के नाम स्कूल से इस कारण कटवाने पड़े क्योंकि पेरैंट्स की नौकरी चली गई और वे बच्चे की महंगी फीस भरने की स्थिति में नहीं थे. ऐसे में स्कूल का चुनाव अपनी जेब और रिस्क को देखते हुए करें. काउंसलर कल्पना द्विवेदी सिंह कहती हैं,

‘‘अच्छी शिक्षा कम फीस और दिखावे वाले स्कूल में भी हो सकती है. ऐसे में केवल सामाजिक दबाव में बच्चे को महंगे स्कूल में भेजना सही फैसला नहीं माना जा सकता. आज के दौर में केवल स्कूली शिक्षा ही से काम नहीं चलता. स्कूली शिक्षा के बाद कोचिंग, ट्यूशन और होस्टल में रहना. तमाम तरह के दबाव होते हैं. इस के अलावा एक खास बात और है कि अब अधिकतर बच्चों का प्लेसमैंट उतनी अच्छी सैलरी पर नहीं होता है जितनी उम्मीद की जाती है. ऐसे में अगर आप ने लोन ले कर या किसी दबाव में पैसे का प्रबंध किया है तो बच्चे पर अनावश्यक दबाव होता है.’’

ऐसे में जरूरी है कि बच्चे को स्कूल भेजने के पहले अपना पूरा बजट बना लें. यह सोच लें कि महंगी नहीं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को चुनिए. जिस से बच्चे और आप दोनों पर दबाव न पड़े. अगर कोई दिक्कत भविष्य में आ भी जाए तो उस के साथ तालमेल बैठाया जा सके. महंगी शिक्षा वाले बच्चों को किसी तरह की गारंटी नहीं होती है. कई बार सामान्य शिक्षा व्यवस्था वाले स्कूलों के बच्चे भी अच्छा प्रदर्शन कर जाते हैं. यह बच्चे की अपनी क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कितनी मेहनत करता है, किस तरह की उस में सीखने की क्षमता है. सारा प्रदर्शन उस के सीखने की क्षमता पर निर्भर करता है. उसी के हिसाब से वह अपना प्रदर्शन करता है. हालांकि उस की सफलता का श्रेय स्कूल ले जाते हैं.

मार्च महीने में खेती से जुड़े जरूरी काम

मार्च महीने में रबी की तमाम खास फसलें पकने की राह पर होती हैं. गेहूं की बालियों में दूध तैयार होने लगता है और साथ ही दाने बनने शुरू हो जाते हैं. लिहाजा, फसल का खासतौर पर खयाल रखना चाहिए. गेहूं की बालियों में दूध बनने के दौरान पौधों को पानी की ज्यादा दरकार होती है, ऐसे में खेतों की सिंचाई का खास खयाल रखें. मार्च में तिलहनी फसल सरसों की फसल पक कर तैयार हो चुकी होती है. जब सरसों फलियां पक कर सुनहरेपीले रंग की हो जाएं, तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए.

गन्ने की नई फसल की बोआई भी मार्च में शुरू हो जाती है, बोआई करने से पहले गन्ने के टुकड़ों को उपचारित करना न भूलें. आजकल गन्ना बोने के लिए शुगरकेन प्लांटर का इस्तेमाल किसान करने लगे हैं. खेत में गन्ना बोने से पहले अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद जरूर डालें गन्ने के साथ सहफसली खेती भी की जा सकती है. गन्ने के 2 कूंड़ों के बीच लोबिया, मूंग या उड़द बो सकते हैं. चारे के लिहाज से बोया जाने वाला मक्का भी 2 कूंड़ों के बीच लगाया जा सकता है. इस तरह गन्ने के साथ अतिरिक्त फसलें बो कर किसान ज्यादा फायदा उठा सकते हैं.

दलहनी फसल मूंग की बोआई का इरादा हो, तो इस काम को 15 मार्च के बाद कर सकते हैं. आमतौर पर मूंग की बोआई का काम 15 मार्च से 15 अप्रैल के दौरान निबटाना मुनासिब होता है. बोआई करने से पहले बीजों को उपचारित करना न भूलें. बोआई लाइनों में करें पिछले दिनों बोई गई सूरजमुखी के खेतों पर नजर डालें. यदि खेतों में नमी कम दिखाई दे, तो जरूरत के हिसाब से सिंचाई करें. यदि खेत में पौधे ज्यादा घने दिखाई दें, तो अतिरिक्त पौधे उखाड़ दें. आलू की फसल भी इन दिनों पूरी तरह तैयार हो जाती है. यदि फसल पूरी तरह तैयार हो चुकी हो, तो जल्दी से जल्दी उस की खुदाई का काम खत्म करें.

खुदाई के लिए पोटैटो डिगर यंत्र का इस्तेमाल करें व अलगअलग साइड के आलू की छंटाई कर व्यवस्थित करें. खुदाई करने के बाद खेतों को आगामी फसल के लिए तैयार करें. मार्च के महीने में हलदी, अदरक की बोआई भी आप कर सकते हैं. बोआई करने के लिए हलदी और अदरक की एकदम स्वस्थ गांठों का इस्तेमाल करें. पिछले दिनों लगाई गई भिंडी, राजमा व लोबिया के खेतों में अगर खरपतवार दिखाई दें, तो खेतों की निराईगुड़ाई करें. ज्यादातर तो बैगन की रोपाई का काम फरवरी में कर लिया जाता है, मगर अभी भी बैगन लगाने का इरादा हो तो मार्च में भी इस की रोपाई कर सकते हैं. पिछले महीने लगाए गए बैगन के पौधों की निराईगुड़ाई करें व तमाम खरपतवार निकाल दें.

इस के बाद जरूरी लगे तो हलकी सिंचाई करें. इन दिनों मटर की फसल तैयार हो जाती है. मटर की फलियां सूख कर पीली लगने लगें, तो कटाई का काम निबटाएं. अपने आमअमरूद के बागों का मुआयना करें, क्योंकि मार्च के दौरान हापर कीट और फफूंद से होने वाले रोगों का खतरा बढ़ जाता है. बीमारियों या हापर कीट का अंदेशा लगे, तो कृषि विज्ञान केंद्र के माहिरों से सलाह ले कर दवाओं का इस्तेमाल करें. अपने अमरूद, आम व पपीता वगैरह के पुराने बागों की सही तरीके से सफाई करें. इस महीने पपीते के पौधे तैयार करने के लिए नर्सरी में बीज बो सकते हैं. यदि पहले बोए गए बीजों से पौधे तैयार हो चुके हों, तो उन की रोपाई करें.

फूलों की खेती के लिए रजनीगंधा और गुलदाउदी की रोपाई करें. रोपाई के बाद पौधों की हलकी सिंचाई जरूर करें. पशुओं के रहने की जगह पर ध्यान दें और जरूरत के मुताबिक उम्दा कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें ताकि हानिकारक कीड़ों से बचाव हो सके. गायभैंसें अगर हीट में आएं तो बगैर वक्त गवाएं उन्हें समय रहते अस्पताल ले जा कर या डाक्टर बुला कर गाभिन कराएं. मवेशी डाक्टर से पूछ कर अपने तमाम मवेशियों गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि को पेट के कीड़े मारने वाली दवा जरूर खिलाएं. आने वाले समय में दिनोंदिन गरमी भी बढ़ेगी, इसलिए पशुओं के लिए अभी से ठंडक का इंतजाम कर लें

Crime Story: काली की प्रेमिका

एक दिन कालीचरण हीराकली के घर आया तो वह घर में अकेली थी और आईने के सामने बैठी शृंगार कर रही थी. उस की साड़ी  का आंचल गोद में गिरा हुआ था. हीराकली की कसी देह आईने में नुमाया हो रही थी.
कालीचरण चुपचाप पीछे खड़ा हो गया. जैसे ही हीराकली ने आईने में कालीचरण को देखा तो उस ने चौंकते हुए अपना आंचल ठीक करने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी कालीचरण उस का हाथ थामते हुए बोला, ‘‘हीरा भाभी, ऊपर वाले ने खूबसूरती देखने के लिए बनाई है. तुम इसे ढक क्यों रही हो. मेरा वश चले तो अपने सामने तुम को कभी आंचल डालने ही न दूं. इस खूबसूरती को परदे में बंद मत करो.’’

हीराकली उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के गांव मधौया के रहने वाले तेजराम की बीवी थी. कालीचरण भी इसी गांव का रहने वाला था. वह तेजराम का दोस्त था, इसलिए उस का तेजराम के यहां आनाजाना था. हीराकली गांव के रिश्ते में कालीचरण की भाभी लगती थी.कालीचरण हीराकली को चाहता था, इसलिए वह तेजराम की गैरमौजूदगी में उस के यहां चक्कर लगाता रहता था. उस दिन भी जब वह उस के घर गया तो वह घर में अकेली थी. उसे शृंगार करते देख कर कालीचरण ने उस से शरारत की तो वह बोली, ‘‘पागल कहीं के, तुम को तो हमेशा शरारत सूझती है. काली, एक बात बताऊं, जब भी तुम मुझे छूने की कोशिश करते हो तो मुझे डर लगता है कि कहीं मुसकान के पापा न देख लें और तुम्हारी चोरी पकड़ी जाए.’’ हीराकली मुसकराई.

‘‘अरे भाभी, इस बात को ले कर तुम चिंता क्यों करती हो. मुझे सिर्फ इतना बताओ कि मेरी शरारत से तुम्हें तो कोई परेशानी नहीं होती. बुरा तो नहीं मानती मेरी छेड़छाड़ का?’’‘‘बिलकुल नहीं. पर एक बात बताओ कि तुम्हारी इन बातों का मतलब क्या है? कहीं तुम मुझ पर डोरे डालने की कोशिश तो नहीं कर रहे?’’ हीराकली ने कालीचरण के मन की थाह लेनी चाही.‘‘भाभी, जब तुम जान ही गई हो तो दिल की बात तुम्हें बता ही दूं. सच यह है कि भाभी, मैं तुम्हें प्यार करता हूं. जिस रोज मैं तुम्हें देख नहीं लेता, अजीब सी बेचैनी महसूस होती है. तभी तो किसी न किसी बहाने से यहां चला आता हूं. तुम्हारी चाहत कहीं मुझे पागल न…’’

कालीचरण की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि हीराकली बोली, ‘‘पागल तो तुम हो ही चुके हो. तुम ने कभी मेरी आंखों में झांक कर देखा है कि उन में तुम्हारे लिए कितनी चाहत है. दिल की भाषा को आंखों से पढ़ पाने में भी तुम अभी अनाड़ी ही हो.’’‘‘सच कहा तुम ने, मैं अनाड़ी ही निकला लेकिन आज यह अनाड़ी खिलाड़ी बनना चाहता है.’’ कहते हए कालीचरण ने हीराकली के चेहरे को अपने हाथों में भर लिया. पलभर बाद हीराकली उस की बांहों में कैद थी.आंखें बंद कर उस ने अपना सिर कालीचरण के सीने पर टिका दिया. कालीचरण का दिल तेज गति से धड़कने लगा. वह हीराकली को बांहों में उठा कर बैड पर ले गया. फिर दोनों ने अपनी हसरतें पूरी कर लीं.

शराब पीपी कर खोखले हो चुके पति तेजराम के शरीर में अब वह बात नहीं रह गई थी जो हीराकली की देह की आग को बुझा पाती. इसलिए उस के कदम कालीचरण की तरफ बढ़ गए थे. आज कदम जब मंजिल तक पहुंचे तो उस की चाहत पूरी हो गई.उत्तर प्रदेश के जिला पीलीभीत के बरखेड़ा थाना क्षेत्र में एक गांव है मधौया. परसादीलाल इसी गांव में सपरिवार रहते थे. उन के पास खेती की 10 बीघा जमीन थी. उस पर खेती कर के वह अपने परिवार का भरणपोषण करते थे. उन के परिवार में पत्नी पार्वती के अलावा 3 बेटे बुद्धसेन, तेजपाल व चेतराम और 2 बेटियां मीना और सीमा थीं. दोनों बेटियों के हाथ पीले करने के बाद उन्होंने बुद्धसेन का विवाह हीराकली से कर दिया था.

विवाह के कुछ समय बाद बुद्धसेन की जहर खाने से संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. पति की मौत के बाद हीराकली का विवाह देवर तेजराम से रीतिरिवाज से कर दिया गया. तेजराम से विवाह के बाद हीराकली 2 बेटियों और एक बेटे की मां बनी. इसी बीच तेजराम के मातापिता का देहांत हो गया. पिता की जो 10 बीघा जमीन थी, वह दोनों भाइयों तेजराम और चेतराम के बीच आधीआधी बंट गई.तेजराम के हिस्से में 5 बीघा जमीन आई थी. उसी पर खेती कर के वह अपने परिवार का खर्च चलाता था. उसे शराब की बुरी लत लग गई थी. रोज शाम को वह शराब ले कर बैठ जाता और घंटों पीता रहता. कालीचरण भी मधौया गांव में रहता था. आपराधिक प्रवृत्ति का कालीचरण 40 साल की उम्र में भी अविवाहित था. वह तंत्रमंत्र व झाड़फूंक के नाम पर भी लोगों को ठगने का काम करता था.

कालीचरण और तेजराम में दोस्ती थी. इसी दोस्ती के चलते कालीचरण का तेजराम के घर आनाजाना शुरू हो गया. कालीचरण की नजर तेजराम की पत्नी हीराकली पर गई तो पहली नजर में ही वह उस के दिल में उतर गई. तेजराम के घर पर वह तेजराम से बात जरूर करता था लेकिन उस की निगाहें बारबार हीराकली पर ही जा कर रुकती थीं. हीराकली को भी कालीचरण अच्छा लगा था.

कालीचरण की भूखी नजरों की चुभन उस की देह को सुकून पहुंचाती थी. तेजराम और कालीचरण में दोस्ती कराने में सब से बड़ा हाथ शराब का था. रोज शाम को दोनों बैठ कर साथसाथ शराब पीते और खाना खाते.कालीचरण जानबूझ कर खुद कम पीता और तेजराम को ज्यादा पिला देता. तेजराम के बेसुध होने पर वह हीराकली से जी भर कर बातें करता और उस की खूबसूरती की खूब तारीफ करता.
धीरेधीरे हीराकली को भी उस की बातों में रस आने लगा और उस की बातें, उस का साथ उसे भाने लगा. इस दौरान मौका मिलने पर कालीचरण हीराकली के जिस्म को भी छू लेता था. कालीचरण की मंशा हीराकली से छिपी नहीं रह सकी.

कालीचरण की चाहत भरी आंखों और मजबूत कदकाठी देख कर मीना का भी दिल डोल गया था. इस का एक कारण यह था कि कालीचरण हीराकली से संजीदगी और इज्जत के साथ बातचीत करता था, जबकि तेजराम उस के साथ बेहूदगी से पेश आता था. साथ ही शराब के नशे में उस के साथ मारपीट करता था.
हीराकली दिल के तराजू में तेजराम और कालीचरण को कई बार तौल चुकी थी. उसे हर बार तेजराम के मुकाबले कालीचरण का ही पलड़ा भारी नजर आया था.

कालीचरण तो पहले से ही हीराकली पर आसक्त था. वह उस के सौंदर्य को अपनी बांहों में समेटने की चाहत रखता था. बस देर थी तो अपनी चाहत का इजहार करने की.कहते हैं कि जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है. आखिर एक दिन कालीचरण को हीराकली के सामने अपने दिल की बात कहने का मौका मिल ही गया और उस के बाद दोनों के बीच वह रिश्ता बन गया, जो दुनिया की नजर में अनैतिक कहलाता है.

जब तन से तन का रिश्ता कायम हुआ तो फिर दोनों उसे बारबार दोहराने लगे. तेजराम जैसे ही खेतों पर जाने के लिए निकलता तो हीराकली कालीचरण को फोन कर देती. कालीचरण तुरंत उस के पास आ धमकता और फिर दोनों अपनी हसरतें पूरी करते.यह राज आखिर कब तक राज बना रहता. आखिर दोनों की रंगरलियों की पोल खुल गई. एक दिन तेजराम हीराकली से यह कह कर घर से निकला कि वह काम से शहर जा रहा है और रात तक लौटेगा.

तेजराम के निकलते ही हीराकली ने कालीचरण को फोन कर के बता दिया कि आज मौका अच्छा है, इसलिए वह तुरंत आ जाए. कालीचरण भी बिना ज्यादा देर किए हीराकली के घर पहुंच गया.
आते ही उस ने हीराकली के गले में अपनी बांहों का हार डाल दिया, ‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो, थोड़ा सब्र तो करो.’’ हीराकली कसमसाते हुए बोली.‘‘कुआं जब सामने हो तो प्यासे को सब्र थोड़े ही होता है.’’
‘‘तुम्हारी इन्हीं बातों ने मुझे दीवाना बना रखा है. न दिन को चैन मिलता है और न रातों को. पता है, जब मैं तेजराम के साथ होती हूं तो केवल तुम्हारा ही चेहरा मेरे सामने होता है.’’ हीराकली ने इतना कह कर कालीचरण के गालों को चूम लिया. कालीचरण से भी नहीं रहा गया, वह हीराकली को बांहों में उठा कर पलंग पर ले गया. फिर दोनों के बीच कामक्रीड़ा शुरू हो गई.

इसी बीच दरवाजा खटखटाने की आवाज आई तो दोनों के दिमाग से वासना का ज्वार उतर गया. हीराकली ने किसी तरह अपने अस्तव्यस्त कपड़ों को ठीक किया और दरवाजा खोलने भागी. जैसे ही उस ने दरवाजा खोला, सामने तेजराम को देख कर उस के चेहरे का रंग उड़ गया. ‘‘तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’ हकलाते हुए हीराकली ने पूछा.

‘‘क्यों…क्या मुझे अपने घर में आने के लिए भी किसी से इजाजत लेनी होगी? अब दरवाजे पर ही खड़ी रहोगी या मुझे अंदर भी आने दोगी.’’ तेजराम बोला.हीराकली को एक तरफ धकेलता हुआ तेजराम अंदर घुसा तो सामने कालीचरण को देख कर उस का माथा ठनका, ‘‘अरे, तुम कब आए?’’
तेजराम ने पूछा तो कालीचरण से था लेकिन वह घूर रहा था हीराकली को. हीराकली का व्यवहार उसे कुछ अजीब सा लगा. वह खुद को असहज महसूस कर रही थी. उस के बाल बिखरे हुए थे, माथे की बिंदी गले पर चिपकी हुई थी. कालीचरण भी परेशान सा दिख रहा था. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद कालीचरण वहां से चला गया.

उस के जाने के बाद तेजराम ने हीराकली से सीधा सवाल दागा, ‘‘कालीचरण यहां क्या करने आया था?’’
‘‘मुझे क्या पता, तुम से ही मिलने आया होगा.’’ हकलाते हुए हीराकली बोली.‘‘लेकिन मुझ से तो उस ने कोई बात नहीं की.’’‘‘अब मैं क्या जानूं, यह तो तुम्हें ही पता होगा.’’ हीराकली ने कहा तो तेजराम गुस्से का घूंट पी कर रह गया. दरअसल, सब कुछ समझते हुए भी वह उस समय कुछ नहीं बोला.तेजराम को एक बार हीराकली और कालीचरण के संबंधों के बारे में शक पैदा हुआ तो वह फिर बढ़ता ही गया. तेजराम ने सख्ती का रुख अख्तियार कर लिया. वह घुमाफिरा कर पहले हीराकली से कालीचरण के आने के बारे में पूछता. हीराकली तेजराम की बातों का उलटासीधा जवाब देती तो वह उस की पिटाई कर देता.

इसी बीच तेजराम बीमार पड़ गया. ऐसा बीमार पड़ा कि चारपाई से लग गया. कुछ दिन में ही आंत फटने से उस की मौत हो गई. पति की मौत के बाद तो हीराकली आजाद हो गई. तेजराम की 5 बीघा जमीन भी हीराकली को मिल गई. बाकी 5 बीघा जमीन देवर चेतराम के नाम थी. हीराकली की नजर उस जमीन पर भी थी. उस ने चेतराम से खुद के साथ विवाह करने की बात कही तो चेतराम ने उसे बड़े तीखे स्वर में जवाब दिया कि वह उस के 2 भाइयों को तो खा चुकी, क्या अब उसे भी खाना चाहती है. चेतराम के इस जवाब पर हीराकली कुछ नहीं बोली.

इस के बाद 3 दिसंबर, 2019 को पीलीभीत के दियोरिया कलां थाना क्षेत्र में जादोपुर-रंभोजा गांव के लोगों ने सड़क किनारे एक अज्ञात युवक की लाश पड़ी देखी. लाश के पास कुछ दूरी पर बाइक भी पड़ी थी. गांव के किसी व्यक्ति ने इस की सूचना दियोरिया कलां थाने को दे दी.सूचना पा कर थानाप्रभारी शहरोज अनवर पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए. मृतक की उम्र लगभग 30-32 साल रही होगी. उस के गले में कंटीला तार कसा हुआ था. उस की आंखें भी फूटी हुई थीं. हत्यारे ने बड़ी बेदर्दी से हत्या को अंजाम दिया था.
मृतक के कपड़ों की तलाशी ली गई तो उस की जेब से एक मोबाइल फोन मिला. उस मोबाइल में एक नंबर भाभी के नाम से सेव था. थानाप्रभारी शहरोज अनवर ने उस नंबर पर फोन किया तो दूसरी ओर से किसी महिला ने उठाया.

पूछने पर उस ने अपना नाम हीराकली और गांव का नाम मंधोया बताया. डायल किए गए नंबर के बारे में पूछने पर उस ने वह नंबर अपने देवर चेतराम का बताया. थानाप्रभारी ने चेतराम की लाश मिलने की बात उसे बता दी.कुछ ही देर में हीराकली मौके पर पहुंच गई. उस ने लाश की शिनाख्त अपने देवर चेतराम के रूप में की और लाश के पास मिली बाइक को चेतराम की बताया. थानाप्रभारी अनवर ने बाइक को कब्जे में ले कर लाश पोस्टमार्टम के लिए मोर्चरी भेज दी.

इस के बाद पुलिस ने हीराकली की तहरीर के आधार पर अज्ञात के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया. थानाप्रभारी शहरोज अनवर ने गांव वालों से पूछताछ की तो उन्होंने चेतराम की हत्या में सीधे कालीचरण का नाम लिया. उन्होंने बताया कि कालीचरण और हीराकली के बीच अवैध संबंध हैं.
इस के बाद थानाप्रभारी ने हीराकली के मोबाइल नंबर की काल डिटेल्स निकलवाई. घटना की रात हीराकली के नंबर पर एक नंबर से फोन आया था. वह नंबर कालीचरण का था. इस का मतलब यह था कि घटना में कालीचरण के साथ हीराकली भी शामिल थी.

6 दिसंबर, 2019 को सुबह साढ़े 6 बजे मकरंदापुर तिराहे पर किसी महिला के दवा मांगने पर कालीचरण उसे दवा देने आया था. मुखबिर से सूचना मिलने पर थानाप्रभारी शहरोज अनवर ने अपनी टीम के साथ वहां पहुंच कर कालीचरण को गिरफ्तार कर लिया. इस के बाद हीराकली को भी गिरफ्तार कर लिया गया. थाने ला कर जब दोनों से पूछताछ की गई तो दोनों ने पूरी कहानी बयां कर दी.हीराकली पति तेजराम के न होने से आजाद हो गई थी. कालीचरण बेरोकटोक उस के घर आताजाता और उस के पास घंटों पड़ा रहता. यह बात पूरा गांव जानता था. चेतराम को भी इस बारे में पता चल गया था. उस ने नजर रखी तो बात सच निकली.

यह बात चेतराम को बहुत अखरी. भाभी को गांव भर में सरेआम इज्जत उछालना चेतराम से बरदाश्त नहीं हो रहा था. उस का हीराकली से रोज विवाद होने लगा. इसी बीच चेतराम ने अपनी एक बीघा जमीन बेच दी. इस पर हीराकली चेतराम से खूब लड़ी.हीराकली ने अपने संबंधों के बीच चेतराम को आते देखा तो वह उस से छुटकारा पाने का रास्ता सोचने लगी. वैसे भी उस के हटने से उसे दोहरा लाभ होने वाला था.
एक तो वह उस के हटने के बाद कालीचरण के साथ आराम से जिंदगी बिता सकती थी, दूसरा चेतराम की शेष 4 बीघा जमीन भी उसे मिल जाती. उसे यह भी डर था कि कहीं अपनी बाकी जमीन भी चेतराम न बेच दे.

उस ने कालीचरण को पूरी बात बताई कि चेतराम के मरने से उन दोनों का किस तरह फायदा होगा. कालीचरण वैसे भी अपराधी किस्म का था. अपने 2 साथियों पराग यादव और धर्मवीर के साथ गोरखपुर के रामदास यादव की हत्या कर के गांव भाग आया था. इसलिए जब हीराकली ने चेतराम को ठिकाने लगाने की बात कही तो वह उस की बात मानने को तैयार हो गया.

2 दिसंबर की रात कालीचरण चेतराम को शराब पिलाने के बहाने ले गया. चेतराम अपनी बाइक से उस के साथ गया. शराब खरीद कर वे दोनों घर से लगभग 7 किलोमीटर दूर जादोपुर और रंभोजा गांव के बीच सड़क किनारे बैठ कर शराब पीने लगे. कालीचरण ने चेतराम को अधिक शराब पिलाई.

चेतराम के नशे में धुत होने पर कालीचरण ने कंटीले तार से उस का गला कस दिया. इस के बाद उस ने गुस्से में चेतराम की आंखें भी फोड़ दीं. चेतराम को मौत के घाट उतारने के बाद उस ने हीराकली को फोन कर के चेतराम की हत्या कर देने की सूचना दे दी और वहां से फरार हो गया.लेकिन दोनों गुनाह कर के बच न सके और कानून की गिरफ्त में आ गए. आवश्यक कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दोनों को न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया गया.

एक ही नाव पर सवार : महिमा ने करुणा से क्या छीना था?

अभीअभी मंथन का फोन आया था. उस के फोन ने करुणा के मन के पट खोल दिए, जिन से आए झोंके के साथ करुणा अतीत में उड़ चली.

वह दिन आज भी उस के मानस पटल पर अंकित है, जब मंथन और 2 बच्चों, अंकित और संचित सहित सुखद संसार था उस का. तब उसे क्या पता था कि सुख के जिन सतरंगी रंगों में वह सराबोर है, वे इतने कच्चे हैं कि काली घटा की एक झड़ी ही उन्हें धो देगी. पर, सच सामने आ ही गया.

एक दिन मंथन सारे बंधन तोड़ कर महिमा के मोहपाश में बंध गया. जिस घने वृक्ष की छाया में वह अपने नन्हेमुन्ने 2 बच्चों के साथ निश्चिंत और सुरक्षित थी, जब वह वृक्ष ही उखड़ गया तो खुले आकाश के नीचे उसे कड़ी धूप और वर्षा का सामना तो करना ही था.

कुछ दिन तो इस आघात के प्रहार से सुधबुध खोए हाथ पर हाथ धरे बैठी करुणा महिमा को कोसती रही, जिस ने उस का सर्वस्व छीन लिया था. फिर जीवनयापन का प्रश्न सामने आया. मम्मीपापा थे नहीं और भैया सुदूर आस्ट्रेलिया में बस गए थे. मात्र स्नातक, अनुभवहीन को नौकरी मिलना आसान न था. ऐसे में उस की बचपन की सहेली रुचि उस का संबल बनी. उसी की प्रेरणा और सहयोग से अपनी एकमात्र पूंजी आभूषण बेच कर उस ने एक बुटीक खोला.

धीरेधीरे उस के कौशल और परिश्रम से बुटीक सफलतापूर्वक चलने लगा, जिस से उस की माली हालत तो मजबूत हो गई, पर प्यार और विश्वास की छत के अभाव में घर अधूरा ही रहा.

बच्चे जब भी पापा के लिए मचलते, करुणा महिमा को शापित करती जिस ने इन निश्छल बच्चों से उन के पापा की छत्रछाया छीन ली थी.

उस का दिन बच्चों के पालनपोषण और बुटीक के कार्यों में कब बीत जाता, उसे पता ही न चलता, पर रात्रि के अंधकार में जब वह शैय्या पर लेटती तो अनायास ही यह कल्पना कि मंथन की बांहों में महिमा होगी, उसे विचलित कर देती और वह अपमान और घृणा से झुलसती हुई तपती शैय्या पर करवटों में ही रात काट देती. उसे मंथन का प्यार, मनुहार और प्रणय याद आता. उसे विश्वास ही न होता कि जो व्यक्ति उस पर इतना आसक्त था वह कैसे इतनी दूर चला गया.

वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचती कि सुदर्शन और उच्च पदासीन मंथन को महिमा ने अपने तिरियाचरित्तर से फंसा लिया होगा, पर उस की आस का दीप अभी बुझा न था. उस में एक लौ अभी भी प्रज्वलित थी, जो मंथन के लौटने का विश्वास दिलाती थी. इसी आशा में वह आएदिन उपवास करती, मन्नतें मानती. उस की तो बस, एक ही आकांक्षा थी, महिमा को पराजित कर मंथन को वापस पाना.

करुणा को स्वयं के दुख और संघर्ष तो प्रताड़ित करते ही थे, पर उन से भी अधिक कष्ट उसे तब होता, जब लोग अपनी उत्सुकता शांत करने हेतु तरहतरह के विचित्र, व्यक्तिगत प्रश्न पूछते और सहानुभूति के आवरण में उस के घावों पर नमक छिडक़ते.

करुणा का स्वाभिमान इन बातों से लहूलुहान हो जाता था, पर किसी को चुप कराना उस के वश में न था. अत: वह खून का घूंट पी कर रह जाती थी और उस के मन का दबा आक्रोश महिमा के प्रति उस की घृणा को और भी बढ़ा देता था.

उस ने एक बार महिमा को समारोह में देखा था. मंथन और महिमा एकदूसरे का हाथ थामे घूम रहे थे. लज्जित तो मंथन और महिमा को होना चाहिए था, जो अवैध संबंधों का पोषण कर के समाज के नियमों का उल्लंघन कर रहे थे, पर लोगों की उत्सुकता भरी नजरें और महिमा की गर्वमिश्रित मुसकान को सहना करुणा के वश में न था. अत: वह बीच में ही घर लौट आई, पर उस दिन महिमा की विजय दृष्टि का जो दंश उस के दिल में चुभा, वह निरंतर टीसता रहा.

कालचक्र निर्बाध गति से घूमता रहा. करुणा के तप और परिश्रम से अंकित और संचित क्रमश: कंप्यूटर कोर्स और एमबीए करने पूना और अहमदाबाद चले गए. अब करुणा शहर की प्रतिष्ठित ड्रैस डिजाइनर थी, पर अति व्यस्त दिनचर्या में भी उस टीस से वह उबर न पाई थी.

एक दिन करुणा सूट की डिजाइन बनाने में लीन थी, तभी फोन घनघना उठा. किसी ग्राहक का फोन होगा, सोच कर उस ने रिसीवर उठाया. उधर से आते स्वर ने उस के दिल की धड़कनें बढ़ा दीं. आज वर्षों बाद उसे मंथन ने फोन किया था. उस की आवाज पहचानने में करुणा को एक क्षण भी न लगा.

आज मंथन की आवाज में विशेष प्रेम और आत्मीयता थी. उस नेे कहा, ‘‘करुणा, मैं जानता हूं कि क्षमायोग्य नहीं हूं, पर यदि तुम मुझे क्षमा कर दो तो मैं घर लौटना चाहता हूं.’’

करुणा कुछ क्षण तो विमूढ़ सी रह गई. उस के कंठ से शब्द ही न फूटे, फिर चौंक कर बोली, ‘‘इस घर के द्वार तो तुम्हारे लिए सदा ही खुले थे, तुम ही न आए.’’

यह सुन कर मंथन उत्साहित हो गया. बोला, ‘‘करुणा, तुम महान हो. मैं तो डर रहा था कि तुम मुझे दुत्कार दोगी. पर, सच मानो तो आज भी मैं तुम्हें दिल से प्यार करता हूं और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

यही वे शब्द थे, जिन्हें सुनने को करुणा वर्षों से तरस रही थी. उस के मस्तिष्क में महिमा की गर्वमिश्रित मुसकान घूम गई. महिमा पर विजय के एहसास ने मंथन के प्रति सारे गिलेशिकवे मिटा दिए. उस ने निश्चित किया कि आज वह स्वयं जा कर मंथन को लाएगी, जिस से अपनी आंखों से महिमा को पराजित देख सके.

शाम तक करुणा की मित्रमंडली उस की विजय उद्घोषणा सुन चुकी थी. वह सब को बता देना चाहती थी कि मंथन प्यार तो उसी को करता है.

जब घड़ी ने 5 बजाए, तो वह चौंक कर उठी और एक बार दर्पण में स्वयं का निरीक्षण किया और अपने यत्न से संवारे रूप पर स्वयं ही मोहित हो कर वर्षों से प्रतीक्षित विजय अभियान पर चल पड़ी.

करुणा अपनी गाड़ी स्वयं चला कर मंथन के बताए पते पर पहुंची. मंथन बाहर ही खड़ा बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पर, करुणा को तो महिमा का पराजित रूप देखना था. लिहाजा, वह स्वयं ही अंदर चली गई.

हताश महिमा निढाल सी बैठी थी. उस के सूजे लाल नेत्र उस की व्यथा का वर्णन कर रहे थे. करुणा को देखते ही महिमा रो पड़ी, ‘‘करुणाजी, मैं आप की अपराधी हूं. पर, सच मानिए, जब मैं ने मंथन से संबंध बनाए तब मुझे पता भी न था कि यह विवाहित हैं और जब पता चला तो बहुत देर हो चुकी थी. मुझ पर दया करिए और मंथन को मत ले जाइए.’’

‘‘क्यों…?’’ इस पर करुणा ने व्यंग्य से कहा, ‘‘तुम ने तो मेरा घर उजाड़ दिया और आज जब मेरे पति घर लौटना चाहते हैं, तो तुम मुझ से दया की आस कर रही हो.’’

‘‘यह सच है कि मैं मंथन के प्यार में अंधी हो गई थी, पर जब मुझे पता चला कि वह विवाहित हैं, तो मैं ने उन से दूर जाने का निर्णय ले लिया था. तब मंथन स्वयं ही हठ कर के मेरे पास आए थे और तब मैं निर्बल पड़ गई. मेरे स्वार्थ का ही मुझे आज दंड मिल रहा है. अब आप यदि मंथन को ले गई, तो मैं सड़क पर आ जाऊंगी…’’ महिमा सिर झुका कर बोली और अंदर जा कर 5-6 साल की अपनी बच्ची को ले आई, जो बोल भी नहीं सकती थी.

तब करुणा को पता चला कि मंथन और महिमा की मूकबधिर बेटी है और कंपनी के किसी आर्थिक घोटाले में मंथन की नौकरी भी चली गई है.

महिमा की विजय पताका फहरा कर गिर गई. अब उसे समझ में आया कि अचानक मंथन को उस के प्रति प्यार क्यों उमड़ा. अभी कुछ देर पहले जिस मंथन पर उसे प्यार आ रहा था, उस के चेहरे का आवरण गिर गया और स्वार्थ व नीचता का जो घिनौना रूप उस के सामने जो खुल कर आया, उसे देख कर करुणा ने मुंह फेर लिया.

जिस महिमा को नीचा दिखाने का उस ने वर्षों से सपना संजोया था, अब वह उसे स्वयं को प्रतिरूप लगी और उस बच्ची की याचना करती आंखों में उसे उस दिन के सहमेसिकुड़े अंकित और संचित दिखे. आज उसे अनुभव हुआ कि वह और महिमा तो एक ही नाव पर सवार हैं, जिन्हें डुबोने वाला मंथन है. वह व्यर्थ ही वर्षों से महिमा से घृणा करती रही. सच तो यह है कि मंथन न उसे प्यार करता है और न महिमा को, वह तो बस, स्वयं को प्यार करता है और निजी सुविधानुसार प्यार का पात्र चुन लेता है.

करुणा के हृदय में जागृत प्रेमस्रोत हिमखंड बन गया. वह दृढ़ता से खड़ी हुई और बोली, ‘‘महिमा, अगर तुम्हारी आंखें खुल गई हों तो चलो, मैं तुम्हें अपने बुटीक में काम दे कर जीवनयापन योग्य बना दूंगी.’’

फिर वह मंथन की ओर देखती हुई बोली, ‘‘आज के बाद हमारी नाव डुबोने वाला डूबेगा, हम नहीं.’’

महिमा वास्तविकता के धरातल पर आ चुकी थी. अत: अपने भविष्य की सुरक्षा हेतु वह तुरंत करुणा के साथ चल दी. मंथन अविश्वास से लुटा हुआ उन्हें जाते हुए देखता रहा.
……….

फेसबुक पोस्ट : करुणा का हंसताखेलता परिवार महिमा ने तहसनहस कर दिया था. उस ने करुणा का पति मंथन जो उस से छीन लिया था. दुख की मारी करुणा ने किसी तरह खुद को संभाला और अपनी जिंदगी को पटरी पर लाई. फिर अचानक एक दिन मंथन का फोन आया और करुणा गदगद हो गई. वह लौट पर मंथन की ओर. पर उस की मुराद पूरी हुई?

बाबापंथी : धोखा देते पोंगा पंडित

एक सज्जन मुंह में पान चबाते हुए बोले, ‘‘अंधभक्ति का चोला ओढ़े इतनी जनता आती कहां से है, जबकि जिस से भी पूछो, सब कहेंगे कि हम तो अंधभक्त नहीं हैं, हम तो आंख खोल कर बाबाओं पर भरोसा करते हैं.’’

पान बेचने वाले दुकानदार ने कहा, ‘‘कोई धर्म कभी पाखंड का साथी नहीं होता, न ही मर्यादाहीन. फिर ये नईनई उपजें कहां से हो जाती हैं, जो भक्तों की श्रद्धा पर ही चोट कर जाती हैं. आंखें कितनी भी खोल कर रखो, जब अंतर्मन पर ही पट्टी बंधी है तो क्या खुलेंगी आंखें. भक्ति में इतनी शक्ति है कि बाबा गए अंदर तो भक्तों का शुरू हो जाता है तांडव बाहर. फिर वे न देखते आसपास, फिर मिटाते हैं वही जो वस्तुएं होती हैं खास.’’

वे सज्जन थोड़ा मुसकराए और बोले, ‘‘अच्छी भक्तों की बात उड़ाई, मुझे एक किस्से की याद दिलाई. कुछ समय पहले एक बाबा जेल गए थे, वहां का थानेदार ही उन का भक्त निकला और सारी सुधसुविधाएं जेल में दे दीं. अब बाबाजी भक्तों के लिए जेल में हैं, लेकिन हैं आराम से. ज्ञान बांटते हैं बाकी कैदियों को और जेल में भक्त जुटाते शान से. कुछ महीनों में बेल मिल जाती है, तो घर पर आराम से छुट्टियां बिताते हैं, कुछ तो जा कर विदेश भी घूम आते हैं. न्याय व्यवस्था की कमी सब को ले डूबी. बस, उभर पाए ये बाबा हैं, जो भक्तों को मोहजाल में फंसा ले जाते हैं.’’

आसपास के खड़े हुए व्यक्तियों के चेहरे पर एक मुसकान छा गई जैसे उन के मन की बात बिना बोले ही मैदान में आ गई.

फिर उस सज्जन व्यक्ति की नजर दुकानदार की दुकान में रखे पान के मसालों पर पड़ी, तो पाया कि बाबा इलायची, बाबा लौंग, बाबा 300, बाबा 120, बाबा पानमसाला, लक्खमी गुलकंद, चमनबहार और बाबाओं का हो गया पान पर भी अधिकार.

पैसे देने के लिए जैसे ही जेब में हाथ डाला, केसरिया नोट पहले हाथ में आया. पान चबाया और बाबा के पोस्टर लगे खंभे पर नीचे ही पीक डाला.

फिर सज्जन बोले, ‘‘दान एक ऐसा पुण्य का काम है, जिसे सभी करना चाहते हैं. और आजकल कुछ लोगों ने धर्म को पैसा कमाने का एक साधन समझ लिया है और बखूबी इस का इस्तेमाल भी कर रहे हैं. भूल जाते हैं वे कि भगवा एक रंग नहीं, बल्कि एक सचाई है. जिस का रंग जब चढ़ता है, तो सूर्य सा अलग चमकता है और जब उतरता है तो भक्तों के भरोसे को तोड़ कर तो सफेद रंग ही सजता है.

सूर्य में 7 रंग होते हैं, फिर भी सफेद रंग ही दिखता है, बाकी 6 रंग इंद्रधनुष की छटा में सिमट जाते हैं. सफेद रंग तो शांति का प्रतीक है, चाहे घर में हो, शरीर पर हो या…, अलग ही दिखता है.

दुकानदार बोला, “भाई साहब, शांति मिलना भी समय की बात है. शांति की तलाश में लोग बाबाओं की शरण में जाते हैं, उन्हें शांति मिले या न मिले, लेकिन बाबाओं को असीम शांति और भरपूर लक्ष्मी मिलती है जिस से उन की जिम्मेदारी बन जाती है अपनी दुकान को यों ही चलाते रहने की. अब दुकान नहीं चलेगी तो कमाई कैसे मिलेगी. आप ने अभी पान खाया, मेरा फर्ज बन गया अच्छा पान बनाने का. फिर चाहे आप पीक कहीं भी थूको, बाबा की कृपा से, मुझे क्या. मेरी दुकान तो चल रही है.”

सज्जन बड़ी गंभीरता से बोले, “सही बात है. दुकान खोली है तो चलानी भी पड़ेगी. आदमी भले ही कहे कि हम तो अंधविश्वासी नहीं हैं, लेकिन जब परेशान होता है या कोई अपना दुखी है, तब इन्हीं बाबाओं की याद आती है और आदमी को पता भी नहीं लगता कि वह कब अंधविश्वास में फंस गया है.

“सनातन कभी छलकपट का साथी नहीं था. सच है जो वह सामने आना ही है एक दिन, कितना भी रामनाम जपो. सच होगा तो श्रद्धा कायम रहेगी भक्तों की वरना भक्तों का भरोसा जब उठता है, बाबा तब जेल में दिखता है.”

दुकानदार बोला, “सही बात है. मेरी दुकान में फायदा है, कंपनी का नाम भले बाबा हो, लेकिन धोखाधड़ी नहीं मिलेगी. यहां पान के साथसाथ देशदुनिया की खबर भी मुफ्त में मिलेगी.”

लेखिका-20

हंसिका मोटवानी की मां ने शादी में लड़के वालों से हर मिनट के पैसे लिए थें, जानें क्यों

एक्ट्रेस हंसिका मोटवानी और सोहेल कुथूरिया की शादी काफी ज्यादा रॉयल थी, इस शादी की तस्वीर खूब वायरल हुई थी, जिसे लोगों ने खूब लाइक कमेंट किया था. इनकी शादी साल 2022 दिसंबर में राजस्थान के मुंडता पैलेस में हुआ था.

जहां इनके करीबी दोस्त और रिश्तेदार मौजूद थें, बता दें कि हंसिका की मां शादी के शुभ मुहूर्त को लेकर काफी ज्यादा चिंतित थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि मोटवानी जो होते हैं वो समय के पाबंद होते हैं और कुथूरिया टाइम के पावंद नहीं होते हैं , ऐसे में उन्होंने अपी बेटी के होने वाले ससुराल वालों को 5 लाख रूपय पर मिनट का चार्ज किया था कि अगर लेट हुए तो इतने पैसे तुम्हें देने पड़ेंगे.

 

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बाद में हंसिका सोहेल को मंडप में इंतजार करता देखकर इमोशनल हो गई थीं, हंसिका ने बताया कि मैं आज अपने प्यार के साथ शादी करने जा रही हूं, इस बात से मैं काफी ज्यादा खुश हूं. मेरे जीवन का यह सबसे खूबसूरत एहसास हैं. सारी चीजें रियल हो रही है.  मुझे उस वक्त रोना आ गया था.

बता दें कि हंसिका के पति सोहेल एक बिजनेसमैन हैं, वह इवेंट मैनेजमेंट हैं, साथ में वह अपनी पत्नी के बिजनेस में भी हाथ बंटाते हैं. पिछले साल नवंबर में हंसिका के साथ सगाई करने के बाद से सभी को चौका दिया था. खैर शादी के बाद से दोनों काफी ज्यादा खुश हैं.

अनुपमा की सहेली की हो रही है शादी जानें कौन बनेगा दुल्हा

टीवी सीरियल अनुपमा इन दिनों दर्शकों की पहली पसंद बना हुआ है, इस सीरियल की कहानी इन दिनों छोटी अनु की कहानी के इर्द गिर्द चल रहा है. जो अपनी मां माया कपाड़िया के साथ घर को छोड़कर जा चुकी हैं.

अब जल्द ही शो में एक नए कपल की एंट्री होने वाली है, जिसके बाद से कहानी में ट्विस्ट आने वाली है, शो में एक नई कैमेस्ट्री शुरू होने वाली है,शो में ऐसा देखा गया था कि अनुज की बचपन की दोस्त देविका की दोस्ती धीरज से हो गई है, और दोनों एक दूसरे को डेट करने लगे हैं.

 

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अब अनुपमा की जिगरी दोस्ती की जिंदगी बदलने वाली है, क्योंकि वो भी शादी की प्लानिंग कर रहे हैं, अनुपमा की कहानी में एक या बदलाव होगा, देविका और धीरज एक दूसरे के साथ जीवन जीने का प्लान कर रहे थें. देविका और धीरज एक-दूसरे को दूसरा मौका देने का प्लान बना रहे हैं.

बता दें कि यह शादी अनुज और अनुपमा के दिल को हल्का कर देगी, क्योंकि दोनों अपनी लड़ाई के कारण देविका और धीरज की खुशी को बर्बाद नहीं करना चाहते हैं, अब देविका ही है जो अनुज और अनुपमा की शादी को बचाएगी.

देविका और धीरज की शादी में अनुज और अनुपमा एक आइडियल कपल के रूप में आने की कोशिश करेंगे.

भ्रष्टाचार: मिड डे मील के घोटाले

मिड डे मील योजना शुरू की गई ताकि गरीब, पिछड़े, दलितों के बच्चे छोटी उम्र में बेलदारीमजदूरी करने की जगह स्कूलों में आएं और पढ़ाई करें. यह योजना कई मानों में भारत की सफल योजनाओं में गिनी जाती है पर इस योजना से जुड़े तमाम घोटालों ने गरीबों की थाली से भी निवाला छीनने का काम किया. देशभर के शासकीय प्राइमरी व मिडिल स्कूलों में चलने वाली मिड डे मील योजना यों तो गरीब व अति गरीब बच्चों के दोपहर के भोजन की पूर्ति के लिए आरंभ की गई है लेकिन बैकडोर से योजना में सेंधमारी करने और योजना में पलीता लगाने का काम भी धड़ल्ले से चल रहा है.

मिड डे मील योजना, जिसे मध्याह्न भोजन योजना भी कहा जाता है, ऐसे लालची प्रवृत्ति के लोगों के शिकंजे में आ गई है जो विद्यार्थियों का निवाला तक छीन लेने में गुरेज नहीं करते हैं. शासन के आदेश के मुताबिक, एमडीएम योजना के तहत गैरपूर्वोत्तर राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में केंद्र व राज्य सरकारें दैनिक भोजन के लिए खाना पकाने की लागत को 60:40 के अनुपात में सा?ा करती हैं. अन्य राज्यों के लिए यह अनुपात 90:10 का है. आशय यह है कि केंद्र व राज्य के मिश्रित वित्तीय सहयोग से चल रही है मिड डे मील योजना. एमडीएम में प्राइमरी स्कूल के बच्चों के लिए कुकिंग कास्ट प्रति विद्यार्थी 4.45 रुपए इन दिनों है तो मिडिल स्कूल के बच्चों के लिए यह राशि 7.45 रुपए.

इस में महंगाई के मद्देनजर समयसमय पर बढ़ोतरी की जाती रहती है. कहने को तो गांवों में योजना का संचालन महिला स्वसहायता समूहों द्वारा किया जाता है पर अधिकांश महिला समूहों, खासकर दूरदराज के महिला समूहों में महिलाओं के अनपढ़ होने का फायदा उठा कर उस पर पुरुषों ने अलिखित तौर से कब्जा कर रखा है और वे महिलाओं को उंगलियों पर नचा कर अपना उल्लू सीधा करने का काम करते रहते हैं. महिला समूहों में संचालित प्रोसीडिंग रजिस्टर में हालांकि अंगूठा महिलाओं से बाकायदा लगवा लिया जाता है लेकिन उन की निरक्षरता का लाभ उठा कर उस का लेखन अध्यक्ष या सचिव का आदमी करता है. वह अपनी मनमरजी चलाता हुआ दो नंबर के हिसाबकिताब को एक नंबर में बदल देता है और अपनी चमड़ी बचाए रखने के लिए उस पर समूह की अन्य महिलाओं के दस्तखत ले लेता है.

महानगरों, नगरों, शहरों यानी नगरीय निकायों में एमडीएम को एनजीओ के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है और एनजीओ वे बाहुबली भोजन ठेकेदार होते हैं, जो अपने आका, सियासतदो या आलाअफसर को छोड़ कर किसी की नहीं सुनते. वे अपने मन की करते हैं और जो सम?ा में आता है, वही खिलाते हैं. दरअसल एनजीओ वे भोजन माफियाएं हैं जिन के अपने होटल हैं. जो आला अफसरों व पहुंचे हुए राजनीतिज्ञों की शह पर सिस्टम को ठेंगे पर रखते हैं और अपने होटलों का बचाखुचा स्कूली बच्चों को परोसते हैं. इस का खमियाजा बच्चों के भोजन की गुणवत्ता में पड़ रहा है और उन्हें जो पोषकहीन, सड़ागला, बासी खाना परोसा जा रहा है, उसे वे मन मसोस कर खाने के लिए मजबूर हैं.

भोजन का मेनू शासन द्वारा एमडीएम का मेनू बाकायदा तैयार किया गया है और सभी स्कूलों में सर्कुलेट भी. सर्कुलेटेड पत्र में निर्देशित भी किया गया है कि मेनू को रसोईघर व स्कूल के प्रांगण में चस्पां किया जाए ताकि बच्चे उसे रोज देख कर मालूम कर सकें कि आज कौन सी सब्जी व दाल कितनी मात्रा में बनने वाली व परोसी जाने वाली है. लेकिन, मेनू को स्कूलों में शिक्षकों द्वारा जानबू?ा कर चस्पां नहीं किया जाता ताकि मनमरजी की सब्जी व दाल खिलाई जा सके, वह भी खस्ती, सस्ती, सड़ीगली और पोषक तत्त्वों से हीन सब्जी. परंतु, गरीब बच्चे हैं कि भूख के मारे उसे भी खाने के लिए विवश हो जाते हैं. उदाहरण के लिए, छतीसगढ़ शासन, लोक शिक्षण संचालनालय, रायपुर के पत्र क्रमांक/ममो/मीनू/ 2014/1411 द्वारा दिनांक 1 दिसंबर, 2014 को सभी जिलों को पत्र जारी कर साप्ताहिक मेनू का निर्धारण किया गया है.

इस के अनुसार, प्राथमिक और उच्चप्राथमिक स्कूल स्तर पर प्रत्येक सोमवार को चावल/सांभर दाल (कुम्हड़ा, लौकी, मुनगा या अन्य हरी सब्जी मिला कर) व पापड़ खिलाया जाना है. साथ ही, उपलब्धता के आधार पर मौसमी फल व गुड़, चना सोमवार से शनिवार तक हरेक दिन देना है. ऐसा ही मंगलवार को चावल/पंचरत्न दाल (मूंग, अरहर, चना, उड़द, मसूर आदि) व हरी सब्जी परोसा जाना है. इसी तरह बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार व शनिवार को अलगअलग आकर्षक मेनू शासन द्वारा निर्धारित किया गया है. यहां तक कि शनिवार को दूध की खीर और अंकुरित चना तय किया गया है.

परंतु अफसोस कि स्कूलों में मेनू की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और रोजाना गुणवत्ताहीन मसूर या अरहर की दाल और इल्ली लगा राशन का भात व कचरायुक्त आटा खिलाया जाता है, जो न केवल सरासर बेईमानी है, बल्कि बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खुलेआम खिलवाड़ भी है. ऐसा ही हालिया उदाहरण ?ारखंड के लोहरदगा में दिखा जहां खुद बच्चों ने ही मिड डे मील से किनारा कर लिया है. लोहरदगा शहरी इलाके के एक बालिका मध्य विद्यालय में बच्चों ने खाना खाने से मना कर दिया क्योंकि इस मिड डे मील को खाने से बच्चों की सेहत बिगड़ रही थी. बच्चों के मुताबिक, खाने में न तो कोई स्वाद होता है न ही हरी सब्जियां. बिना स्वाद के खाना तो कैसे भी खा लें, लेकिन समस्या यह है कि खाने में इस्तेमाल अनाज इतनी घटिया क्वालिटी का होता है कि खाते ही बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.

इस साल जनवरी में ?िलमिल स्थित अविनाश चंद्र चड्ढा राजकीय उच्चतर माध्यमिक कन्या विद्यालय में मिड डे मील खा कर 9 छात्राएं बीमार हो गईं. उन में से 3 छात्राएं 14 वर्ष से कम और 6 छात्राएं 14 वर्ष से अधिक आयु की थीं. मिड डे मील का खाना खाने के बाद छात्राओं ने पेटदर्द और उलटी की शिकायत की. अस्पताल ने छात्राओं के बीमार होने की वजह फूड पौइजनिंग बताई. छात्राओं ने बताया कि मिड डे मील में उन्हें दाल और चावल बांटे गए, जिस में से बदबू आ रही थी. उन्होंने मिड डे मील खाया और कुछ देर बाद ही पेटदर्द के साथ उन्हें उलटी होने लगी.

ऐसे ही पिछले साल बिहार के दरभंगा जिले में मिड डे मील खाने से 6 स्कूली बच्चे बीमार हो गए. स्थिति बिगड़ती देख आननफानन 3 बीमार बच्चों को दरभंगा मैडिकल कालेज अस्पताल के शिशु रोग विभाग में भरती कराया गया. बात मध्य प्रदेश की. पिछले साल अकाउंटैंट जनरल की रिपोर्ट में बताया गया कि यह महत्त्वाकांक्षी योजना कोविड के दौरान 2 साल के लंबे फुलस्टौप लग जाने के बाद जब पूरी तरह से फिर से शुरू हुई, इस ने स्कूली बच्चों की चिंता मिटाई नहीं, बल्कि उन्हें भूखा रखा और पूरी तरह से निराश कर दिया. 6 टेक होम राशन बनाने वाले संयंत्रों/फर्मों ने 6.94 करोड़ रुपए की लागत वाले 1125.64 एमटी टीएचआर का परिवहन करने का दावा किया.

वाहन डेटाबेस के सत्यापन के बाद पता चला कि इस्तेमाल किए गए वाहन वास्तव में मोटरसाइकिल, कार, औटो और टैंकर के रूप में पंजीकृत थे. डेटाबेस में ट्रक बिलकुल भी मौजूद नहीं थे. ऐसे ही पिछले साल फिरोजाबाद में तैनात चंद्रकांत शर्मा नाम के एक शिक्षक फर्जी दस्तावेजों से सोसाइटी का पंजीकरण करा स्कूली बच्चों का 11.46 करोड़ रुपए का मिड डे मील चट कर लिया. वह बेसिक शिक्षा, बैंकों समेत अन्य विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से वर्ष 2008 से 2015 तक मिड डे मील के नाम पर मिलने वाली धनराशि का घोटाला करता रहा और रकम को अपने और सगेसंबंधियों के खातों में जमा कर करोड़ों की संपत्ति खरीद ली. किचनशेड सरकारी स्कूलों में जो सब से गंदा और उपेक्षित स्थल होता है, उस का नाम किचनशेड या रसोईघर कहलाता है जो ज्यादातर स्कूलों के कोनों में बना होता है.

वहां धूलधक्कड़, मकड़ी के जाले, काकरौच, छिपकली, चूहे व उस के बिल, चीटियों की कतारें, काले एवं चीकट लगे व मटमैले खाना बनाने के बरतन, पानी रखने के गंदे ड्रम और अधधुली थालियां व कटोरियां सहज देखी जा सकती हैं. रसोइए का कर्तव्य रसोइए को शासन के आदेशानुसार प्रतिमाह 1,500 रुपया मानदेय दिया जाता है पर वह कच्चापक्का व बेस्वाद खाना बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है. जबकि उस को चाहिए कि वह न केवल किचन को साफसुथरा रखे, बल्कि किचन में उपयोगी बरतनों की भी नियमित साफसफाई करता रहे. उस को चावल को साफ कर बनाना चाहिए पर वह ऐसा नहीं करता. जो चावल राशन की दुकान से आता है, उसे ज्यों का त्यों बोरे से निकाल कर पका देता है.

जबकि उस में कीड़ेमकोड़े, कंकड़पत्थर और कूड़ेकचरे भरे होते हैं. यही हाल गेहूं का है. उस को भी बगैर धोए व सफाई किए ऐसे ही पिसवा दिया जाता है, जैसे बला टाली जा रही हो. यहां तक कि सब्जियों को सही से धोया नहीं जाता और आधाअधूरा व थोड़ाबहुत धो कर यों ही पका दिया जाता है. इतना ही नहीं, पिसे मिर्चमसाले, धनिया व हलदी की तो मत पूछो, वे निम्नस्तर के मिलावटी कचरे होते हैं जो खाने के काबिल नहीं होने के साथसाथ सेहत के लिए नुकसानदेह होते हैं. दायित्व शिक्षकों का एमडीएम को सही ढंग से संचालित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी एमडीएम प्रभारी शिक्षक और प्रधान अध्यापक की होती है पर वे अपने दायित्वों से आंखें मूंदे रहते हैं.

वे बीईओ, सीएमओ और बीडीओ को केवल उलटीसुलटी जानकारी देने का दायित्वभर निभाते रहते हैं. कारण, जो शिक्षक छुट्टी की एप्लीकेशन हाजिरी रजिस्टर में आएदिन रख कर फरारी मारने में लगे रहते हों उन से एमडीएम को ईमानदारी से चलाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अगर वे एमडीएम में दखल देते हैं तो वे गाहेबगाहे गैरहाजिर नहीं रह सकते. उन की पोलपट्टी रसोइया, समूह या एनजीओ वाले खोल देंगे तो उन को लेने के देने पड़ जाएंगे, उन की चोरी पकड़ी जाएगी. सो, मिलीभगत से मिड डे मील का गोरखधंधा चल रहा है और सब की आंखों में धूल ?ांक कर असल उद्देश्यों पर पानी फेरा जा रहा है.

लेखक-वीरेंद्र देवांगन 

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