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‘तुम एक बार बोल कर तो देखतीं. मैं तुम्हारी कला के बीच कभी नहीं आता.’

‘आज जानती हूं तुम कभी न आते. लेकिन उस समय कहां सम?ा पाई थी मैं. सम?ा गई होती तो आज मैं...’

‘मैं क्या?’

‘तुम नहीं सम?ोगे.’

‘मैं तब भी नहीं सम?ा सकता था और आज भी नहीं सम?ा सकता तुम्हारी नजरों को. सम?ादारी जो न मिली विरासत में.’

‘तुम गलत व्यू में ले रहे हो.’

‘तो सही तुम्हीं बात देतीं.’

मेरी तंद्रा फिर से टूट गई जब अभिलाषा आ कर मेरे गले से लिपट गई. मैं ने अभिलाषा को भले जन्म न दिया हो लेकिन वह मेरी बेटी से बढ़ कर है. मेरी सहेली, मेरी हमराज. कुछ भी तो नहीं छिपा है अभिलाषा से. मेरी और मोहित की शादी के समय अभिलाषा 6 साल की थी. दहेज में साथ ले कर मोहित के घर आ गई थी मैं. अब मेरी दुनिया अभिलाषा ही है.

‘‘ओहो..., कहां खोई हैं मेरी दीदी?’’

‘‘ना रे, सोच रही थी तेरी शादी में किस को बुलाऊं, किस को नहीं? तू ही बता किसेकिसे बुलाना चाहेगी? मैं तो सम?ा नहीं पा रही किसे बुलाना है, किसे नहीं?’’

‘‘दीदी, मैं सम?ा रही हूं आप की समस्या. आप विश्वास रखो आप जिसे भी बुलाएंगी वे हमारे शुभचिंतक ही होंगे, न कि हम पर ताने कसने वाले. चाहे वे हमारे पापा ही क्यों न हों. यदि उन्हें हमारी खुशी से खुशी नहीं तो मत ही बुलाइएगा. पर मु?ो ऐसा क्यों लग रहा है कि आप कुछ और ही सोच रही हैं.’’

‘‘अरे नहीं, कोई बात नहीं है. तू एंजौय कर अपनी शादी. तेरी खुशी से बढ़ कर मेरे लिए कोई चिंताफिक्र नहीं.’’

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