Story in Hindi
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हरीतिमा के आने से सरिता की परेशानी बहुत कम हो गई थी, क्योंकि वह घर का सारा काम संभाल लेती थी. पहले सरिता घर के बहुत से काम निबटा लेती थी. लेकिन जब से पति बीमार हुए थे और बिस्तर पकड़ चुके थे तब से पार्ट टाइम कामवाली बाई से उस का काम नहीं चलता था. उसे परमानैंट नौकरानी की जरूरत थी जो पूरा घर संभाल सके.
सरिता को पति का मैडिकल स्टोर सुबह से रात तक चलाना होता था. दुकान में 3 नौकर थे. सरिता बीच में थोड़ी देर के लिए खाना खाने और फ्रैश होने घर आती थी. सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक उसे मैडिकल स्टोर पर बैठना पड़ता था. काम सारा नौकर ही करते थे लेकिन हिसाब उसे ही देखना पड़ता था.
काफी समय तक सरिता को बहुत समस्या हुई. घर में एक बेटा, एक बेटी थे जो 8वीं और 9वीं क्लास में पढ़ते थे. उन के लिए चाय, नाश्ता, सुबह का टिफिन तैयार कर के स्कूल भेजना और शाम की चाय के बाद भोजन तैयार करना और खिलाना सब हरीतिमा की जिम्मेदारी थी.
बीमार पति को समय पर दवाएं और डाक्टर के बताए मुताबिक भोजन देना… यह सब हरीतिमा के बिना मुमकिन नहीं था.
सरिता जब बहुत परेशान हो गई तब उस ने एजेंसी में जा कर कई बार परमानैंट नौकरानी का इंतजाम करने के लिए कहा.
एक दिन एजेंसी के मालिक ने कहा, ‘‘अभी तो कोई लड़की नहीं है. जल्द ही असम और बिहार से लड़कियां आने वाली हैं. मैं आप को बता दूंगा.’’
सरिता ने एजेंसी वाले से कहा, ‘‘आप ज्यादा कमीशन ले लेना. लड़की को अच्छी तनख्वाह के साथ रहनेखाने की सारी सुविधाएं भी दूंगी लेकिन मुझे उस की सख्त जरूरत है.’’
और जल्द ही एजेंसी वाले का फोन आ गया. एजेंसी से 13 साल की हरीतिमा को लाने के बाद सरिता की सारी मुसीबतों का हल हो गया.
हरीतिमा सुबह से रात तक चकरघिन्नी बनी रहती. पूरे घर का काम करती. घर के हर सदस्य का ध्यान रखती.
हर समय पूरा घर साफसुथरा रहता. हरीतिमा हमेशा काम करती नजर आती. न कोई नखरा, न कोई शिकायत और न कोई छुट्टी.
13 साल की खूबसूरत, गोरी, नाजुक, मेहनती हरीतिमा बिहार के एक छोटे से गांव की थी. घर की माली हालत खराब थी. मां बीमार थीं. घर में 2 छोटे भाई थे. उस के पिता बचपन में ही गुजर गए थे.
शुक्रवार को जब मैडिकल स्टोर बंद रहता तब सरिता उस से बात करती. उस से पूछती, ‘‘किसी चीज की कोई जरूरत हो तो बेझिझक कहना. खाने में जो पसंद हो, बना कर खा लिया करो.’’
हरीतिमा को पढ़ने का शौक था. सरिता उस के लिए किताबें भी ला देती.
पति रतनलाल के एक के बाद एक 2-3 बड़े आपरेशन हुए थे. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी.
सरिता पति के कमरे में कम ही जाती थी. कमरे से आती दवाओं और गंदगी की बदबू से उसे उबकाई आती थी. पति की ऐसी बुरी दशा देखने का भी उस का मन नहीं करता था.
पति बिस्तर पर लेटे रहते. काफी समय तक तो उन के मलमूत्र का मार्ग बंद कर प्लास्टिक की थैलियां लटका दी गई थीं. उन्हें साफ करने का काम पहले तो एक नर्स करती थी, बाद में रतनलाल खुद करने लगे थे. लेकिन अब हरीतिमा ने इस जिम्मेदारी को संभाल लिया था.
सरिता को लगता था कि उस के पति की जिंदगी एक तरह से खत्म ही हो चुकी है. उन्हें बाकी जिंदगी बिस्तर पर ही गुजारनी है. ठीक हो भी गए तो पहले जैसे नहीं रहेंगे.
सरिता ने अपना कमरा अलग तैयार कर लिया था. अपनी जरूरतों के हिसाब से सबकुछ अपने कमरे में रख लिया था. बच्चे बड़े हो रहे थे. वह गलती से ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी कि बच्चों की जिंदगी पर उस का बुरा असर पड़े.
सरिता की उम्र 40 साल थी और पति की उम्र 45 साल के आसपास. पिछले एक साल से वह पति की दुकान और घर सब देख रही थी.
आज रतनलाल को प्लास्टिक की थैली निकलवाने जाना था, लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं था.
सरिता को साथ जाना था लेकिन उस ने कह दिया, ‘‘मैं जा कर क्या करूंगी? मुझ से यह सब देखा नहीं जाता. तुम हरीतिमा को साथ ले जाओ. फिर मुझे दुकान भी देखनी है. काम करूंगी तो पैसा आएगा. आप के इलाज में लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं.’’
तय हुआ कि हरीतिमा ही साथ जाएगी.
रतनलाल अस्पताल से 3 दिन बाद घर वापस आए. उन्हें परहेज के साथ दवाएं समय पर लेनी थीं.
हरीतिमा बोर न हो, इस वजह से सरिता शुक्रवार को उसे बच्चों के साथ बाहर घुमाने ले जाती. बच्चे जो खाते, हरीतिमा को भी खिलाया जाता. चाट, पकौड़े, गोलगप्पे. बच्चे पार्क में खेलते तो हरीतिमा भी साथ में खेलती. बच्चों के लिए कपड़े खरीदने जाते तो हरीतिमा के लिए भी खरीदे जाते.
चाट खाते समय एक लड़के ने हरीतिमा से बात की. सरिता को अच्छा नहीं लगा. लौटते समय सरिता ने उस से पूछा, ‘‘तुम इसे कैसे जानती हो?’’
‘‘मेरे मुल्क का है मैडम.’’
‘‘मुल्क के नहीं राज्य के. मुल्क तो हम सब का एक ही है,’’ सरिता ने हंसते हुए कहा, फिर उसे समझाया, ‘‘देखो हरीतिमा, तुम मेरी बेटी जैसी हो. इस उम्र में लड़कों से दोस्ती ठीक नहीं है. अभी तुम्हारी उम्र महज 15 साल है.’’
अब हरीतिमा को अकसर ऐसी हिदायतें मिलने लगी थीं.
रतनलाल लाठी के सहारे घर में ही टहलने लगे थे. एक बार वे लड़खड़ा कर गिर गए. तब से सरिता ने हरीतिमा को हिदायत दी, ‘‘तुम अंकल को थोड़ा बाहर तक घुमा दिया करो. कहीं और कोई परेशानी न हो जाए.’’
तब से हरीतिमा घर से थोड़ी दूर बने पार्क में उन के साथ जाने लगी. वह पहले जैसी शांत और सहमी हुई नहीं थी. अब वह हंसने, बोलने लगी थी. खुश रहने लगी थी.
लेकिन हरीतिमा के खिलते शरीर और उस में आए बदलावों को देख कर सरिता जरूर चिंता में रहने लगी थी. उसे उस लड़के का चेहरा याद आया तो क्या बाहर जा कर इतनी उम्र में वह सब करने लगी थी हरीतिमा, जो उस की उम्र की लिहाज से गलत था? कहीं पेट में कुछ ठहर गया तो? सरिता ने एजेंसी वाले को सारी बात फोन पर बताई.
एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘मैडम, यह उस का निजी मामला है. हम और आप इस में क्या कर सकते हैं? वह अपनी नौकरी से बेईमानी नहीं करती. आप के घर की देखभाल ईमानदारी से कर रही है. और आप को क्या चाहिए?’’
सरिता को लगा कि एजेंसी वाला ठीक ही कह रहा है. फिर हरीतिमा उस की जरूरत बन गई थी. जरूरी नहीं कि दूसरी लड़की इतनी ईमानदार हो, मेहनती हो.
सरिता इस बात को भूलने की कोशिश कर ही रही थी. 2-4 दिन ही गुजरे थे कि सरिता ने हरीतिमा को उलटी करते हुए देख लिया.
सरिता घबरा गई. उस ने प्यार से हरीतिमा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘तुम ने आखिर बेवकूफी कर ही दी. जब यह सब कर रही थी तो सावधानी क्यों नहीं बरती? कितना समय हो गया? अभी जा कर अपने चाहने वाले के साथ मिल कर डाक्टर से अबौर्शन करा लो. बाद में मुसीबत में पड़ जाओगी और तुम्हारे आशिक को बलात्कार के जुर्म में जेल हो जाएगी. इतना तो समझती होगी कि 18 साल से कम उम्र की लड़की से संबंध बनाना बलात्कार कहलाता है?’’
हरीतिमा ने कुछ नहीं कहा.
‘‘चुप रहने से काम नहीं चलेगा…’’ सरिता ने गुस्से में कहा, ‘‘मैं इस हालत में तुम्हें काम पर नहीं रख सकती. अभी इसी वक्त निकल जाओ मेरे घर से.’’
हरीतिमा रोने लगी. उस ने सरिता के पैर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैडम, गलती हो गई. मुझे माफ कर दीजिए. आप ही कोई रास्ता निकालिए. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’
सरिता को गुस्सा तो था लेकिन हरीतिमा की जरूरत भी थी. उस ने अपने परिचित डाक्टर को दिखाया. एक महीने का पेट था. 5,000 रुपए ले कर डाक्टर ने आसानी से पेट गिरा दिया.
सरिता ने फिर डांटा, समझाया और दोबारा ऐसी गलती न करने को कहा.
रात में उसे अपने पास बिठा कर प्यार से पूछा, ‘‘कौन है वह, जिस के साथ तुम्हारे संबंध बने? चाटपकौड़े की दुकान में मिला वह लड़का?’’
हरीतिमा चुप रही. सरिता समझ गई कि वह बताना नहीं चाहती.
रतनलाल की ठीक होती तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. उन्हें फिर अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों ने हालत गंभीर बताई. जिस कैंसर से वे उबर चुके थे, वही कैंसर उन्हें पूरी तरह अंदर ही अंदर खोखला कर चुका था.
अस्पताल में ही रतनलाल की मौत हो गई. उस दिन सरिता फूटफूट कर रोई और हरीतिमा अकेले में अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करती रही.
पति के अंतिम संस्कार की सारी रस्में निबट चुकी थीं. सरिता की जिंदगी अपने ढर्रे पर आ चुकी थी. बच्चे अपनी पढ़ाई में लग चुके थे. दुख की परतें अब छंटने लगी थीं.
तभी फिर सरिता को हरीतिमा में वे सारे लक्षण दिखे जो एक गर्भवती औरत में दिखाई देते हैं. इस बार हरीतिमा अपने पेट को छिपाने की कोशिश करती नजर आ रही थी.
सरिता ने उसे गुस्से में थप्पड़ जड़ कर कहा, ‘‘फिर वही पाप…’’ इस बार हरीतिमा ने जवाब दिया, ‘‘पाप नहीं, मेरे प्यार की निशानी है.’’
हरीतिमा का जवाब सुन कर सरिता सन्न रह गई, ‘‘प्यार समझती भी हो? यह प्यार नहीं हवस है, बलात्कार है. चलो, अभी डाक्टर के पास,’’ सरिता ने गुस्से में कहा.
‘‘मैं नहीं गिराऊंगी.’’
‘‘यह कानूनन अपराध है. जेल जाएगा तुम्हारा आशिक.’’
‘‘कुछ भी हो, मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी.’’
‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? समझती क्यों नहीं हो?’’
‘‘हां, मेरा दिमाग खराब है. प्यार ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है.’’
‘‘बुलाओ इस बच्चे के बाप को.’’
‘‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’
‘‘क्या… कौन है वह?’’
‘‘मैं उन्हें बदनाम नहीं करना चाहती.’’
‘‘चली जाओ यहां से.’’
हरीतिमा चली गई. सरिता ने एजेंसी वाले को फोन कर दिया.
एजेंसी वाले ने कहा, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं सब संभाल लूंगा.’’
सरिता निश्चिंत हो गई. कुछ दिन बीत गए. एक दिन वह घर की साफसफाई करने लगी. पति के कमरे का नंबर आया तो सरिता ने पति के सारे कपड़े, पलंग, बिस्तर सबकुछ दान कर दिया. वह एक अरसे बाद पति के कमरे में गई थी.
कमरा पूरी तरह खाली था. बस, एक पैन और डायरी रखी थी. सरिता ने डायरी के पन्ने पलटे. कुछ जगह हिसाब लिखा हुआ था. कुछ कागजों पर दवा लेने की नियमावली. एक पन्ने पर हरी स्याही से लिखा था हरीतिमा. यह नाम पढ़ कर वह चौंक गई. उस ने अपने कमरे में जा कर हरीतिमा के बाद पढ़ना शुरू किया…
‘सरिता, माना कि 15 साल की लड़की से प्यार करना गलत है. उस से संबंध बनाना अपराध है. लेकिन इस अपराध की हिस्सेदार तुम भी हो. मैं बीमार क्या हुआ, तुम ने मुझे मरा ही समझ लिया. अपना कमरा बदल लिया. मेरे कमरे में आना, मुझ से मिलना तक बंद कर दिया.
‘‘मेरे दिल पर क्या गुजरती होगी, तुम ने सोचा कभी? लेकिन तुम तो जिम्मेदारियां निभाने में लगी थीं. मैं तो जैसे अछूत हो चुका था तुम्हारे लिए.
‘सच कहूं तो मैं तुम्हारी बेरुखी देख कर ठीक होना ही नहीं चाहता था. लेकिन मैं ठीक हुआ हरीतिमा की देखभाल से. उस के प्यार से.
‘हां, मैं ने हरीतिमा से तुम्हारी शिकायतें कीं. उस से प्यार के वादे किए. उस के पैर पड़ा कि मेरी जिंदगी में तुम्हीं बहार ला सकती हो. मुझे तुम्हारी जरूरत है हरीतिमा. मैं तुम से प्यार करता हूं.
‘कम उम्र की नाजुक कोमल भावों से भरी लड़की मेरे प्यार में बह गई. उस ने मेरी जिस्मानी और दिमागी जरूरतें पूरी कीं.
‘हां, वह मेरे ही बच्चे की मां बनने वाली है. मैं उस के बच्चे को अपना नाम दूंगा. दुनिया इसे पाप कहे या अपराध, लेकिन वह मेरा प्यार है. मेरी पतझड़ भरी जिंदगी में वह हरियाली बन कर आई थी.
‘इस घर पर जितना तुम्हारा हक है, उतना ही हरीतिमा का भी है. लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि मैं बचूंगा नहीं. अचानक से सारे शरीर में पहले की तरह भयंकर दर्द उठने लगा है.
‘मैं तुम से किसी बात के लिए माफी नहीं मांगूंगा. चिंता है तो बस हरीतिमा की. अपने होने वाले बच्चे की. उसे तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए. तुम्हारा बंगला, तुम्हारा बैंक बैलैंस नहीं चाहिए. उसे बस सहारा चाहिए, प्यार चाहिए.’
डायरी खत्म हो चुकी थी. सरिता अवाक थी. उसे अपने पति पर गुस्सा आ रहा था और खुद पर शर्मिंदगी भी. किस तरह झटक दिया था उस ने अपने पति को. बीमारी, लाचारी की हालत में. हां, वही जिम्मेदार है अपने पति की बेवफाई के लिए. इसे बेवफाई कहें या अकेले टूटे हुए इनसान की जरूरत.
सरिता को उसी एजेंसी से दूसरी लड़की मिल चुकी थी. उस ने पूछा, ‘‘तुम हरीतिमा को जानती हो?’’
‘‘नहीं मैडम, एजेंसी वाले जानते होंगे.’’
सरिता ने एजेंसी में फोन लगा कर बात की.
एजेंसी वाले ने कहा, ‘क्या बताएं मैडम, किस के प्यार में थी? बच्चा गिराने को भी तैयार नहीं थी. न ही मरते दम तक बच्चे के बाप का नाम बताया.’
‘‘मरते दम तक… मतलब?’’ सरिता ने पूछा.
‘हरीतिमा बच्चे को जन्म देते समय ही मर गई थी.’
‘‘क्या…’’ सरिता चौंक गई ‘‘और बच्चा…’’
‘‘वह अनाथाश्रम में है.’’
सरिता सोचने लगी, ‘एक मैं हूं जिस ने पति के बंगले, कारोबार, बैंक बैलैंस को अपना कर पति को छोड़ दिया बंद कमरे में. बीमार, लाचार पति. बच्चों तक को दूर कर दिया. और एक गरीब हरीतिमा, जिस ने न केवल बीमारी की हालत में पति की देखभाल की, अपना सबकुछ सौंप दिया. यह जानते हुए भी कि उसे कुछ नहीं मिलेगा सिवा बदनामी के.
‘उस ने अपने प्यार की निशानी को जन्म दिया. वह चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी? इस धनदौलत पर उस का भी हक बनता था. वह ले सकती थी लेकिन उस ने सबकुछ छोड़ दिया अपने प्यार की खातिर. उस ने एक बीमार मरते आदमी से प्यार किया और उसे निभाया भी और एक मैं हूं…
‘चाहे कुछ भी हो जाए, मैं हरीतिमा के प्यार की निशानी, अपने पति के बच्चे को इस घर में ला कर रहूंगी. मैं पत्नी का धर्म तो नहीं निभा सकी, पर उन की संतान के प्रति मां होने की जिम्मेदारी तो निभा ही सकती हूं.’
सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद सरिता बच्चे को घर ले आई.
पेशे से मैकैनिक 22 साल का शफीक खान भोपाल की अकबर कालोनी में परिवार के साथ रहता था. उस की कमाई भी ठीकठाक थी और दूसरी परेशानी भी नहीं थी. लेकिन बीते 18 अक्तूबर को उस ने घर में फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली. ऐशबाग थाने की पुलिस ने जब मामला दर्ज कर तफतीश शुरू की तो पता चला कि शरीफ की शादी कुछ महीने पहले ही हुई थी और उस की बीवी शादी के बाद पहली बार मायके गई तो फिर नहीं लौटी. शरीफ और उस के घर वालों ने पूरी कोशिश की थी कि बहू घर लौट आए. लेकिन कई दफा बुलाने और लाने जाने पर भी उस ने ससुराल आने से इनकार कर दिया तो शरीफ परेशान हो उठा और वह तनाव में रहने लगा. फिर उसे परेशानी और तनाव से बचने का बेहतर रास्ता खुदकुशी करना ही लगा.
22 साल की उम्र ज्यादा नहीं होती. फिर भी इस उम्र में शादी हो जाए तो मियांबीवी हसीन सपने देखते हैं. एकदूसरे से वादे करते हैं और चौबीसों घंटों रोमांस में डूबे रहते हैं, पर कई मामलों में उलटा भी होता है. जैसाकि अगस्त के महीने में भोपाल के ही एक और नौजवान अभिषेक के साथ हुआ था. उस की शादी को भी ज्यादा दिन नहीं हुए थे. लेकिन बीवी मायके गई तो फिर उस ने ससुराल आने से साफ इनकार कर दिया.
अभिषेक खातेपीते इज्जतदार घराने का लड़का था. अच्छे काम की तलाश में था. घर में पैसों की कमी न थी और शादी के पहले ही उस की ससुराल वालों को बता दिया था कि नौकरी या करोबार अभिषेक की बहुत बड़ी जरूरत नहीं. लड़का अच्छा था, ग्रैजएुट था, सेहतमंद था और मालदार घराने का था, इसलिए ससुराल वालों ने अनामिका (बदला नाम) की शादी उस से धूमधाम से कर दी. जब पहली विदाई के लिए अभिषेक के घर वालों ने समधियाने फोन किया तो यह सुन कर सन्न रह गए कि बहू ससुराल नहीं लौटना चाहती. वजह पूछने पर कोई साफ जवाब नहीं मिला. कुछ दिन में सब ठीक हो जाएगा. अभी बहू बच्ची ही तो है. मायके का लगाव नहीं छोड़ पा रही है जैसी बातें सोच कर अभिषेक के घर वाले सब्र कर गए. लेकिन अभिषेक ज्यादा सब्र नहीं रख पाया और उस ने भी शफीक की तरह जीवन समाप्त करने का कदम उठा डाला.
मौज के दिनों में मौत
शादी के बाद के शुरुआती दिन शादीशुदाओं के लिए बेहद रंगीन, रोमांटिक, हसीन होते हैं, लेकिन शफीक और अभिषेक जैसे नौजवानों की भी कमी नहीं, जिन के हिस्से में महज इस वजह से मायूसी, तनाव और ताने आते हैं, क्योंकि उन की बीवियां मायके से नहीं लौटतीं. मौजमस्ती के इन दिनों अगर बीवी की यह बेरुखी कोई शौहर न झेल पाए तो बात कतई हैरत की नहीं, क्योंकि आमतौर पर इस का दोष उस के सिर मढ़ दिया जाता है जो खुद नहीं समझ पाता कि आखिरकार क्यों बीवी वापस नहीं आ रही.
बीवियों के मायके में रहने या वहां से न आने की कई वजहें होती हैं, लेकिन समाज और रिश्तेदार उंगली पति की मर्दानगी पर उठाने का लुत्फ उठाते हैं. कई दफा ये ताने कि इस में दम नहीं होगा या बीवी का पहले से ही मायके में किसी से चक्कर चल रहा होगा, इसलिए वापस नहीं आ रही. इस से नातजरबेकार पति परेशान हो उठता है. बीवी से बात करता है तो वह साफसाफ वजह नहीं बताती पर साफसाफ यह जरूर कह देती है कि मुझे नहीं रहना तुम्हारे और तुम्हारे घर वालों के साथ. तब शौहर के सपने चकनाचूर हो जाते हैं. एक मियाद के बाद वह भी यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि उस का पहले से कहीं चक्कर चल रहा होगा. शादी तो उस ने घर वालों के दबाव में आ कर कर ली होगी.
पर मेरा क्या कुसूर, यह सवाल जब शौहर के जेहन में बारबार हथोड़े की तरह बजता है और इस का कोई मुकम्मल जवाब कहीं से नहीं मिलता तो उसे जिंदगी और दुनिया बेकार लगती है. उसे लगता है सारे लोग उसे ही घूरघूर कर यह कहते देख रहे हैं कि कैसे मर्द हो, जो बीवी को काबू में नहीं रख पाए? जरूर तुम्हीं में कोई कमी होगी.
धीरेधीरे शफीक और अभिषेक जैसे शौहरों की हालत पिंजरे में फड़फड़ाते पक्षी की तरह होने लगती है. वे गुमसुम रहने लगते हैं, लोगों से कन्नी काटते हैं, अपना काम सलीके और लगन से नहीं कर पाते. बीवी की याद आती है तो हर कीमत पर वे वापस लाना चाहते हैं, लेकिन बीवी किसी भी कीमत पर आने को तैयार नहीं होती तो इन का मरने की हद तक उतारू हो जाना चिंता की बात समाज के दबाव और कायदेकानून के लिहाज से है. कई दफा तो घर वाले भी शौहरों का साथ यह कहते हुए नहीं देते कि तुम जाने और तुम्हारी बीवी. हमारी जिम्मेदारी शादी कराने की थी जो हम ने पूरी कर दी. अब वह नहीं आ रही तो हम क्या उस की चौखट पर अपनी नाक रगड़ें?
क्या हैं वजहें
बीवी के ससुराल वापस न आने की वजहों पर गौर करें तो पहली और अहम बात है उस की नादानी, नासमझी और जिम्मेदारियां न उठा पाने की नाकामी. जाहिर है, इस का सीधा संबंध उम्र से है, जो वक्त रहते ठीक हो जाता है. लेकिन कई मामलों से समझ आता है कि वाकई लड़की का मायके में किसी से चक्कर था. और वह आशिक के दबाव में है या ब्लेकमैलिंग की शिकार है. कई लड़कियां घर वालों की खुशी के लिए शादी तो कर लेती हैं, पर अपने पहले प्यार को नहीं भूल पातीं. इसलिए भी उन का शौहर से लगाव नहीं हो पाता. विदिशा के उमेश की शादी को 2 साल हो चले हैं, लेकिन उस की बीवी भी ससुराल नहीं आती. पहली रात ही उस ने दिनेश को बता दिया था कि वह भरेपूरे परिवार में नहीं रह सकती, इसलिए वह अलग हो जाए. इस पर उमेश ने समझा कि ऐसा तो होता रहता है. आजकल हर लड़की आजादी से रहना चाहती है. धीरेधीरे बीवी घर वालों से घुलमिल जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा.
लेकिन जिस तालमेल की उम्मीद दिनेश कर रहा था वह बीवी और घर वालों के बीच नहीं बैठा तो 2-3 बार ससुराल आ कर बीवी ने ऐलान कर दिया कि अब कुछ भी हो जाए वह मायके में ही रहेगी. उमेश जैसे पतियों की समझ में नहीं आता कि कैसे इस स्थिति से निबटें, क्योंकि ससुराल वाले भी अपनी बेटी का साथ देते हैं. उधर यारदोस्त, नातेरिश्तेदार और समाज वाले भी बातें बनाना शुरू कर देते हैं, तो पूरा घर हैरानपेरशान हो जाता है. मगर उमेश ने बुजदिली का रास्ता न चुनते हुए अदालत की पनाह ली. एक वकील की सलाह पर कोर्ट में बीवी को वापस आने के लिए दरख्वास्त लगा दी. वह सोच रहा था कि इस से बीवी को अक्ल आ जाएगी. लेकिन हुआ उलटा. ससुराल वालों और बीवी ने उस के घर वालों के खिलाफ दहेज मांगने और परेशान करने का झूठा मामला दर्ज करा दिया. उमेश गिरफ्तार हो गया. कुछ दिन बाद जमानत पर छूट आया, लेकिन अब वह खुद नहीं चाहता कि ऐसी बेगैरत, झूठी और बेवफा औरत के साथ जिंदगी काटे, इसलिए अब वह तलाक चाहता है.
कई मामलों में बीवियां अपनी कोई कमजोरी या छोटीमोटी जिस्मानी या दिमागी बीमारी छिपाने के लिए भी ससुराल नहीं लौटतीं इधर कानून भी ज्यादा मदद हैरानपेरशान शौहरों की नहीं कर पाता. वजह काररवाई का लंबा चलना, बदनामी होना और अदालत में गुनहगारों सरीखे खड़े रहना होती है. इसलिए अधिकतर शौहर अदालत के नाम से घबराते हैं. जाहिर है, बीवी का वापस न आना ऐसी समस्या है, जिस का कोई सटीक हल नहीं मगर हल यह भी नहीं है कि खुदकुशी कर ली जाए. ऐसा भी नहीं है कि ससुराल न लौटने की जिम्मेदार बीवी ही हो. कुछ मामलों में पति की बेरोजगारी, निकम्मापन, घर में पूछपरख न होना, नामर्दी जैसी वजहें भी होतीं हैं.
क्या है हल
ऐसे शौहर क्या करें, जिन की बीवियां लाख समझानेबुझाने पर भी ससुराल नहीं आतीं? इस का सटीक जवाब किसी के पास नहीं. वजह हर मामले में थोड़ी अलग होती है. बीवी मायके में रहे तो शौहर को समझ और सब्र से काम लेना चाहिए और लोगों की बातों और तानों पर ध्यान नहीं देना चाहिए. सब से पहले वजह ढूंढ़नी चाहिए. अगर बीवी की पटरी घर वालों से नहीं बैठ रही है या वह जिद्दी और गुस्सैल स्वाभाव की है तो अलग रहना ही बेहतर रहता है. यह ठीक है कि जिन मातापिता ने जन्म दिया, पालापोसा, तामील दिलाई और अपने पैरोेें पर खड़ा किया उन्हें एक कल की लड़की के लिए छोड़ देने का फैसला खुद को धिक्कारने वाला ही नहीं शर्मिंदगी भरा भी होता है, लेकिन सवाल चूंकि पूरी जिंदगी का होता है, इसलिए कारगर यही साबित होता है.
बेहतर यह फैसला लेने से पहले घर वालों को भरोसे में ले कर सारी बात समझाई जाए. बेटे की इस मजबूरी को अब मातापिता समझने लगे हैं, इसलिए उन्हें रोकते नहीं. ससुराल वापस न आने की वजह अगर बीवी का शादी से पहले के प्यार का चक्कर हो तो अलग होने से भी कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि बीवी सुधरने या पहले को तो छोड़ने से रही. इसलिए ऐसे मामले में तलाक देना बेहतर होता है. लेकिन इस के लिए सब्र और हिम्मत की जरूरत होती है. पहले बीवी से इस बाबत खुल कर बात करना चाहिए. अपनी जिद पर नहीं अड़ना चाहिए, क्योंकि यह तय है कि वह आप की हो कर नहीं रह सकती. धीरेधीरे जब वह समझ जाए और तलाक के लिए तैयार हो जाए तो बजाय मुकदमे के रजामंदी से तलाक लेना बेहतर होता है. इस के लिए कानून की धारा हिंदू मैरिज ऐक्ट 13 (सी) में इंतजाम है, जिस के तहत मियांबीवी दोनों अदालत में दरख्वाहस्त देते हैं कि खयालात न मिलने से उन का साथ रहना मुमकिन नहीं, इसलिए तलाक कर दिया जाए. इस के लिए अदालत दोनों को सोचने के लिए 6 महीने या 1 साल का वक्त देती है, जिसे खामोशी से गुजार देना शौहर के लिए फायदेमंद रहता है. इस मियाद के बाद भी दोनों अदालत में अपनी बात पर कायम रहें तो तलाक आसानी से हो जाता है. आमतौर पर आपसी रजामंदी से तलाक में शौहर बीवी का सारा सामान और दहेज में मिले तोहफे व नक्दी लौटा देता है. लेकिन इस की लिखापढ़ी दरख्वाहस्त में जरूर करनी चाहिए.
कमउम्र बीवियां अगर ससुराल में तालमेल न बैठा पाने की शिकायत करें तो बजाय जल्दबाजी के सब्र से काम लेना चाहिए. ऐसी बीवियां शौहर से ज्यादा वक्त चाहती हैं इसलिए शादी के बाद हनीमून पर जाना और वक्तवक्त पर कुछ दिनों के लिए घूमने जाना कारगर साबित होता है ताकि बीवी का शौहर से लगाव बढ़े. इस के बाद भी बात न बने तो समाज से घबरा कर शराब पीने लगना, बीवी और उस के घर वालों को धमकाना, लड़नाझगड़ना या फिर खुदकुशी कर लेना बेवकूफी है. थोड़ा इंतजार कर हालात देखना ठीक रहता है. लोग क्या कहेंगे, बीवी बदचलन है या खुद को कमजोर समझने लगना जैसी बातें समस्या का हल नहीं हैं. समस्या का हल है तलाक जो आसानी से नहीं होता, लेकिन देरसबेर हो ही जाता है. इस दौरान बेहतर रहता है कि आने वाली जिंदगी के सपने नए सिरे से बुने जाएं और पैसा कमाया जाए. याद रखें जिंदगी जीने के लिए होती है, जिसे किसी दूसरे की गलती पर कुरबार कर देना कतई बुद्धिमानी की बात नहीं.
सैक्स में जल्दबाजी नहीं
यह दिलचस्प मामला भी भोपाल का है, जिसे शौहर के बहनोई ने सुलाझाया. हुआ यों कि उस के साले की बीवी ससुराल नहीं आ रही थी. बात फैली तो तरहतरह की बातें होने लगीं. बहनोई ने साले को भरोसे में ले कर वजह पूछी तो पता चला कि गड़बड़ पहली ही रात हो हो गई थी. शौहर जबरन हमबिस्तरी करने पर उतारू था और बीवी डर रही थी. जब वह नहीं मानी तो शौहर ने जबरदस्ती की कोशिश की लेकिन कायमयाब नहीं हो पाया. दूसरे दिन बीवी बहाना बना कर सास के पास सो गई और 4 दिन बाद विदा हो कर मायके चली गई. इस दौरान वह पति के वहशियाना बरवात से काफी डरीसहमी रही. मायके जा कर उस ने सुकून की सांस ली और मातापिता से कह दिया कि अब वह ससुराल नहीं जाएगी. मां ने पुचकार कर वजह पूछी तो उस ने सच बता दिया. दोनों के घर वालों के बीच बातचीज हुई. शौहर को उस के जीजा ने समझाया कि सैक्स के मामले में जल्दबाजी न करें. धीरेधीरे करे तो बीवी का डर खत्म हो जाएगा और वह खुद साथ देने लगेगी. बात शौहर की समझ में आ गई. अब 3 साल बाद हालात यह है कि बीवी मायके नहीं जाना चाहती क्योंकि उस के डर की जगह प्यार ने ले ली. 1 साल के बच्चे की मां भी है. यानी सैक्स से डर भी कभीकभार ससुराल न लौटने की वजह बन जाता है. ऐसे मामलों में जिम्मेदारी पति की बनती है कि वह पहली रात को ही शेर बनने के चक्कर में न पड़े. बीवी से प्यार से पेश आए, उस का डर खत्म करे.
हरसिंगार अपने छोटे से दवाखाने में एक मरीज को देख रहा था कि अचानक सबइंस्पैक्टर चट्टान सिंह अपने कुछ साथियों के साथ वहां आ गया और उसे गाली देते हुए बोला, ‘‘डाक्टर के बच्चे, तुम डकैत नारायण को अपने घर में जगह देते हो और डाके की रकम में हिस्सा लेते हो?’’ हरसिंगार गालीगलौज सुन कर सन्न रह गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस के ऊपर इतना गंभीर आरोप लगाया जाएगा.
हरसिंगार खुद को संभालता हुआ बोला, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मुझे अपने पेशे से छुट्टी नहीं मिलती, फिर चोरडकैतों से मेलजोल कैसे करूंगा? शायद आप को गलतफहमी हो गई है या किसी ने आप के कान भर दिए हैं.’’ चट्टान सिंह का पारा चढ़ गया. उस ने हरसिंगार को पीटना शुरू कर दिया. जो भी बीचबचाव करने पहुंचा, उसे भी 2-4 डंडे लगे.
मारपीट कर हरसिंगार को थाने में बंद कर दिया गया. उस पर मुकदमा चलाया गया. गवाही के कमी में फैसला उस के खिलाफ गया. उसे एक साल की कड़ी सजा मिली. गवाही पर टिका इंसाफ कितना बेकार, कमजोर और अंधा होता है. हरसिंगार करनपुर गांव का रहने वाला था, पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लाइसैंसशुदा डाक्टर बन गया था और उस ने बिजरा बाजार में अपना काम शुरू कर दिया था.
हरसिंगार बहुत ही नेक इनसान था. वह हर किसी के सुखदुख में शामिल होने की कोशिश करता था. हरसिंगार के गांव का पंडित शिवकुमार एक टुटपुंजिया नेता और पुलिस का दलाल था. हरसिंगार उसे फूटी आंख नहीं सुहाता था. वह उसे नीचा दिखाने के लिए मौके की तलाश में लगा रहता. डकैत नारायण की हलचलों ने उस के मनसूबों को हवा दी और हरसिंगार उस की साजिश का शिकार बन गया.
पंडित शिवकुमार का तमाम नामी डाकुओं से संबंध था. डकैती के माल के बंटवारे में भी उस का हिस्सा होता था. डाकू नारायण की हलचलें आसपास के गांवों में लोगों की नींद हराम किए हुए थीं. लोकल थाने को खानापूरी तो करनी थी. पंडित शिवकुमार के इशारे
पर झूठ ने सच का गला दबोचा और हरसिंगार निशाना बना दिया गया. हरसिंगार को कारागार की जिस कोठरी में रखा गया था, उसी में दूसरा फर्जी अपराधी रामदास बंद था. उस का कोई अपराध नहीं था. वह शहर के एक अमीर अपराधी की साजिश का शिकार बना था.
कुछ दिनों में ही हरसिंगार और रामदास दोस्त बन गए. एकदूसरे को समझने में उन्हें देर नहीं लगी. एक दिन रामदास हरसिंगार से बोला, ‘‘तुम मुझ से बहुत छोटे हो. मुझे अंगरेजों के जमाने की बहुत सी बातें याद हैं. नेता कहते हैं कि अंगरेज भारत की धनदौलत लूट कर ले गए और देश को कंगाल
बना दिया. ‘‘मैं भी मानता हूं कि देश कंगाल हो गया है. जमींदारों के जरीए अंगरेजों ने जनता को बहुत दबाया. अंगरेजों के भारत से चले जाने और जमींदारी खत्म हो जाने के बाद नेताओं, अफसरों और कारोबारियों ने जनता का खून चूसना शुरू कर दिया. शासक तो बदल गए, पर शासन के तौरतरीके में खास बदलाव नहीं हुआ.
‘‘आजादी मिलने से पहले लोग सोचते थे कि जब हम आजाद होंगे तो खुली हवा में सांस लेंगे. जोरजुल्म से छुटकारा पा जाएंगे, पर सबकुछ ख्वाब बन कर रह गया. ‘‘अंगरेजों के राज में चोरियां बहुत कम होती थीं, डकैतियां न के बराबर थीं. राहजनी का नामोनिशान नहीं था. यह अलग बात है कि वे अपने देश के फायदे के लिए गलत काम करते थे पर उन्होंने नियमकानूनों को ताक पर नहीं रख दिया था…’’ बोलतेबोलते रामदास जोश से भर उठा और अचानक उसे जोरों की खांसी आने लगी. खांसतेखांसते उस की सांस फूलने लगी.
हरसिंगार ने रामदास का सिर अपनी गोद में रख लिया और धीरेधीरे सहलाने लगा. कुछ देर बाद खांसी बंद हुई. हरसिंगार ने उसे एक गिलास पानी पिलाया, तब कहीं जा कर उस की हालत सुधरी. जेल का कामकाज करने में वे दोनों ज्यादातर साथ रहा करते थे. अच्छा साथी मिल जाने पर समय भी अच्छी तरह कट जाता है.
एक साल बाद हरसिंगार को जेल से रिहा कर दिया गया. इस एक साल में ही उसे चारों ओर काफी बदलाव दिखाई देने लगा. उस की घर लौटने की इच्छा मर चुकी थी. वह जानता था कि घर पहुंचने पर गांव व पासपड़ोस के लोग ताने मार कर उस का कलेजा छलनी कर देंगे और उस का जीना दूभर हो जाएगा. बहुत देर सोचने के बाद हरसिंगार अनजानी मंजिल की ओर चल पड़ा. घर वाले इंतजार कर रहे थे कि सजा खत्म होने पर जेल से छूटते ही वह घर लौट आएगा पर उन के जेल के फाटक
पर पहुंचने से पहले ही वह वहां से जा चुका था. महीनों बीत गए पर हरसिंगार का कहीं अतापता नहीं था. उस की बीवी उस का रास्ता देखती रही. बेटे के बहुत पूछने पर वह जवाब देती, ‘‘तुम्हारे बापू परदेश गए हैं. छुट्टी मिलने पर घर वापस आएंगे.’’
एक दिन रतीपुर थाने का असलहाघर लुट जाने और वहां के थाना इंचार्ज चट्टान सिंह की लाश के 4 टुकड़े कर दिए जाने की खबर ने आसपास के पूरे इलाके में दहशत फैला दी. 2 सिपाहियों के शरीर भी कई टुकड़ों में काट दिए गए थे. बेरहम हत्यारे छोटे से छोटा असलहा तक नहीं छोड़ गए थे. कई महीने तक लोगों की नींद हराम रही.
पुलिस वालों की ऐसी दर्दनाक हत्या पहले कभी सुनने में नहीं आई थी. प्रशासन थर्रा उठा. काफी छानबीन के बाद भी हत्यारे का कोई सुराग नहीं मिल पाया था. शक के आधार पर लोग पकड़े जाते और ठोस सुबूत न होने के चलते छोड़ दिए जाते. महीनों तक यही सिलसिला चलता रहा.
लोग अब खुल कर कहने लगे थे कि जब पुलिस अपनी हिफाजत करने में नाकाम है, तो वह जनता की हिफाजत कैसे कर पाएगी. रतीपुर थाने की वारदात के महीनों बाद भी उस इलाके के लोगों का डर दूर नहीं हुआ. सेठों, महाजनों और रईसों के घरों में डाके पड़ने लगे. डकैतों का एक नया गिरोह हरकत में आ गया था. पासपड़ोस के सभी जिले इस गिरोह की चपेट में थे. कभीकभी महीनों तक खामोशी रहती और अचानक धड़ाधड़ डकैतियों का सिलसिला चल पड़ता. इस गिरोह का सरदार लखना था. उस में गजब
की फुरती थी. जो पुलिस वाला उस के सामने पड़ता, वह जिंदा न बचता. लखना कभी किसी गरीब और बेसहारा को नहीं सताता था. समय और जरूरत के मुताबिक वह उन की मदद भी करता था. धीरेधीरे गरीब लोग उस को बेहद चाहने लगे और वक्तजरूरत पर इस गिरोह के लोगों को पनाह भी देने लगे.
गरीब जनता का भरोसा लखना पर जितना जमता गया, पुलिस महकमे पर उतना ही घटता गया. लखना पुलिस स्टेशन को सूचित कर देता कि आज फलां जगह डकैती डालूंगा. मगर पुलिस लखना के डर से उस के जाने के बाद ही मौके पर पहुंचती थी.
गरीबों का दुखदर्द जानने के लिए लखना हुलिया बदल कर गांवों में घूमता रहता था. एक दिन वह तड़के ही किसान के रूप में विशनपुर गांव के उत्तरी छोर से निकला. विशनपुर और महिलापुर की सरहद पर नीम का एक पेड़ था जिस के नीचे एक छोटा सा चबूतरा बना था. चबूतरे पर बैठी एक अधेड़ विधवा फूटफूट कर रो रही थी.
लखना का ध्यान उस की ओर गया तो वह उस के पास पहुंच कर बोला, ‘‘माई, तुम क्यों रो रही हो?’’ वह विधवा रुंधे गले से बोली,
‘‘5 साल पहले मेरे पति और बेटे को हैजा हो गया था. मैं अपनी बेटी के साथ बच गई. अब बेटी जवान हो चली है. उस के हाथ पीले करने की चिंता मुझे खाए जा रही है. शादी कोई हंसीखेल नहीं है. कहां से इतने रुपए इकट्ठे कर पाऊंगी?’’ विधवा की बातें सुन कर लखना का दिल भर आया और वह बोला, ‘‘माई, तुम लड़की ढूंढ़ो. आज से ठीक एक महीने बाद मैं इसी जगह पर मिलूंगा. पर ध्यान रखना कि यह बात किसी को पता न चले.’’
तय दिन और तय समय पर लखना नीम के चबूतरे पर पहुंचा. वहां विधवा पहले से ही मौजूद थी. लखना ने उसे कुछ रुपए दिए और जातेजाते कहा, ‘‘2 दिन बाद जरूरी सामान पहुंचना शुरू हो जाएगा.’’
आटा, चावल, दाल, चीनी, घी, तेल, बेसन, मैदा और लकड़ी समेत शादी में इस्तेमाल होने वाले सभी सामान तांगे पर लद कर विधवा के घर पहुंचने लगे. गांव वाले अचरज में पड़ गए. शादी के दिन कन्यादान का इरादा कर के लखना भी वहां पहुंचा और समय पर कन्यादान किया.
पुलिस को लखना के गांव में होने की खबर मिल चुकी थी. लखना के खिलाफ गई सभी मुहिमों में नाकाम होने के चलते पुलिस बहुत ही बदनाम हो चुकी थी. लेकिन वह इस सुनहरे मौके को गंवाना नहीं चाहती थी. लखना भी बहुत चौकन्ना था. अपने साथियों के साथ वह गांव के बाहर के बगीचे में पहुंच गया.
पुलिस दल ने उसे ललकारा. दोनों ओर से गोलियों की बरसात होने लगी. पुलिस के कई जवान हताहत हुए. लखना के 2 साथी मारे गए और 2 उस के इशारे पर भाग निकले.
एक सनसनाती गोली लखना के सीने में लगी और वह वहीं जमीन पर गिर गया. गिरते समय उस की पगड़ी और मुंह पर बंधी काली पट्टी खिसक गई. सिपाही सूर्यपाल ने उसे पहचान लिया और हड़बड़ा कर बोला, ‘‘हरसिंगार भैया, तुम…’’
हरसिंगार ने टूटती आवाज में जवाब दिया, ‘‘हां सूर्यपाल, मैं ही हूं. तुम तो पुलिस में भरती हो गए. मैं भी अच्छी जिंदगी जीना चाहता था और उस दिशा में कदम बढ़े भी थे पर तुम्हारी खाकी वरदी ने मुझे डाकू बनने के लिए मजबूर कर दिया.’’ लखना के शरीर से बहुत ज्यादा खून निकल चुका था. वह कुछ और कहना चाहता था. उस के होंठ कुछकुछ हिले पर धड़कन अचानक रुक गई.
‘क्यों बेटा, क्या तुम से बात करने के लिए अपौइंटमैंट लेना पड़ेगा.’ उस ने कहना चाहा पर प्रकट में बोली, ‘‘बेटा, मैं बहुत बीमार हूं, हार्ट की प्रौब्लम हो गई है. डाक्टर ने एंजियोग्राफी करने के लिए कल ऐडमिट होने को कहा है. मैं तो अकेली हूं, कैसे मैनेज करूंगी.’’
एक पल को मान्या चुप रही, फिर बोली, ‘‘मां, डाक्टर से कहो कि किसी प्रकार दवाओं से एक माह कट जाए तो ठीक होगा तब तक हम लोग लौट आएंगे. बड़ी मुश्किल से यह प्रोग्राम बना है, कैंसिल करना मुश्किल है. मृणाल तथा रोहित जीजा बड़े ही ऐक्साइटेड हैं. आप समझ रही हैं न.’’
‘‘हां बेटा, मैं सब समझ रही हूं. तुम लोग अपना प्रोग्राम खराब न करो’’ वसुधा ने आहत स्वर में कहा. अब? अब क्या करें, क्या नागेश से ही मदद लेनी होगी. शायद यही ठीक होगा और उस ने नागेश को फोन मिला दिया.
हौस्पिटल में ऐडमिट होने के तत्काल बाद ही उस का इलाज शुरू हो गया. 4 घंटे की लंबी प्रक्रिया के बाद उसे औब्जर्वेशन में रखा गया. दूसरे दिन उसे रूम में शिफ्ट कर दिया गया. उसे कुछ पता भी नहीं चला कि सबकुछ कैसे हुआ. जब होश आया तब उस ने नागेश को अपने बैड के पास आरामकुरसी पर आंखें बंद किए हुए अधलेटे देखा. बड़ा ही मासूम लग रहा था, थकान तथा चिंता की लकीरें चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. उस का एक हाथ उस के हाथ पर था. उस
ने धीरे से नागेश के हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख दिया. नागेश चौंक कर उठ गया. ‘‘क्या हुआ वसु, तबीयत अब कैसी लग रही है?’’ बेचैनी थी उस के स्वर में. यह वसुधा ने भी महसूस किया.
वसुधा यह सोचसोच कर अभीभूत हो रही थी कि नागेश न होते तो क्या होता. संतानों ने तो अपनाअपना ही देखा. मां का क्या होगा, इस से किसी को मतलब नहीं. वह कृतज्ञता से दबी जा रही थी.
3 दिन वह हौस्पिटल में रही और इन 3 दिनों में नागेश ने उस की सेवा में दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा. चौथे दिन वह नागेश के सहारे ही वापस आई. बेहद कमजोरी आ गई थी. नागेश ने हर तरह से उस की सेवा की. इलाज के दौरान जो भी व्यय होता रहा, नागेश ने खुशीखुशी उसे वहन किया. ऐसा प्रतीत होता था मानो वह प्रायश्चित्त कर रहा हो. जब वसुधा पूरी तरह स्वस्थ हो गई तब नागेश ने उस की देखभाल के लिए एक नर्स का इंतजाम कर दिया और उस से विदा मांगी.
वसुधा का मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. उस के जी में आता था कि दौड़ कर नागेश को रोक ले. उस ने बैड से उठने का उपक्रम किया किंतु तब तक नागेश जा चुका था. वह चुपचाप बैठी, सोचने लगी, कहीं वह नागेश को दोबारा खो तो नहीं रही है? नहीं, इतने वर्षों के विछोह के बाद, इतनी मुश्किलों के बाद नागेश उसे मिला है, अब वह उसे दूर नहीं जाने देगी. लेकिन वह उसे किस अधिकार से रोक सकती है.
नागेश की आंखों में उस के लिए चाहत साफसाफ दिखती थी. पर प्रकट में उस ने कुछ भी नहीं कहा. तो क्या हुआ, तेरी इतनी सेवा उस ने की, क्या यह उस का प्यार नहीं था? हां, प्यार तो था, पर मुझे अपनाएंगे ही, इस का क्या भरोसा, और फिर हमारी शादी वाली उम्र भी तो नहीं है, वह खुद ही बोल उठी.
सायंकाल नागेश फलों का जूस ले कर आया, उस का हालचाल पूछा और अपने हाथों से उसे जूस पिलाया. तभी वसुधा ने उस का हाथ थाम लिया, ‘‘क्यों इतनी सेवा कर रहे हो? छोड़ दो न मुझे अकेले. यह तो मेरा प्रारब्ध है, कोई क्या कर सकता है?’’
नागेश के होंठों पर हलकी सी स्मित आई, तत्काल ही बोल उठा, ‘‘कौन कहता है कि तुम अकेली हो? जब तक मैं हूं, तुम अकेली नहीं होगी, वसु. अगर तुम्हें एतराज न हो तो हम अपने रिश्ते को एक नाम दे दें.’’ थोड़े विराम के बाद वह धीमे से बोला, ‘‘वसु, क्या मुझ से विवाह करोगी?’’
वसुधा चौंक उठी, ‘‘विवाह, इस उम्र में? नहीं, नहीं, नागेश, समाज हमें जीने नहीं देगा. लोगों को बातें बनाने का अवसर मिल जाएगा. मैं भी लोगों की नजरों में गिर जाऊंगी और फिर स्वयं मेरे बच्चे भी मेरा ही नाम धरेंगे.’’
‘‘क्या तुम समाज की इतनी परवा करती हो? क्या दिया है समाज ने तुम को? अकेलापन, अवसाद, त्रासदी. क्या एक स्त्री को जीने के लिए ये तीनों सहारे हैं? क्या तुम्हें हंसने का, खुश रहने का अधिकार नहीं है? और शादी केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं की जाती है, एक उम्र आती है जब हर व्यक्ति को एक साथी की जरूरत होती है. और इस समय मुझे तुम्हारी और तुम्हें मेरी जरूरत है. यदि हां कर दो तो शायद हम बीते हुए पलों को नए रूप में जी सकेंगे. यह सच है कि 35 वर्षों पूर्व का बीता हुआ समय लौट कर नहीं आ सकेगा, पर आगे जो भी समय है, हम उसे भरपूर जिएंगे.
‘‘तुम कहती हो, बच्चे तुम्हारा ही नाम धरेंगे, तो जरा सोचो, तुम ने अपने बच्चों के लिए क्या नहीं किया, क्याक्या तकलीफें नहीं उठाईं और जब तुम्हारा समय आया तब सब ने मुंह फेर लिया. अब उन्हें अपनाअपना परिवार ही दिख रहा है. उन की दृष्टि में तुम्हारा कोई भी अस्तित्व नहीं है. तुम उन को व्यवस्थित करने का एक साधन मात्र थीं.
मैं तुम्हें बच्चों के खिलाफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि जीवन की वास्तविकता दिखा रहा हूं. यह समाज ऐसा ही है और तुम्हारे बच्चे भी इस से परे नहीं हैं. उन की निगाहों में तुम एक आदर्श मां हो जिस ने जीवन की सारी समस्याओं का अब तक अकेले सामना कर के अपने बच्चों का पालनपोषण किया जोकि तुम्हारा कर्तव्य भी था. किंतु उन्हें यह याद नहीं कि उन का भी कुछ कर्तव्य है. उन्होंने तुम को ग्रांटेड समझ लिया. तुम्हारी अपनी क्या इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं तथा उन से तुम्हारी क्या अपेक्षाएं हैं, उन्हें किसी भी चीज से सरोकार नहीं. हो सकता है कि वे लोग तुम्हें मां का दरजा दे रहे हों परंतु इस से क्या तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी कामनाएं दमित हो जानी चाहिए?
बच्चे भी इसी समाज का अंग हैं. समाज से परे वे कुछ भी नहीं सोच सकते हैं. वैसे, तुम चाहो तो अपने बच्चों से सलाह कर लो. देखो, वे लोग क्या राय देते हैं?’’ कह कर नागेश थोड़ा दुखी हो कर चला गया.
वसुधा ने कुणाल को फोन मिलाया. उस का फोन टूंटूं कर रहा था. उस ने कई बार फोन मिलाया. बड़ी देर बाद फोन लग ही गया. ‘‘हैलो,’’ कुणाल का स्वर थोड़ा खीझा हुआ था, ‘‘क्या हुआ, मां, इस समय क्यों फोन किया?’’ स्वर से स्पष्ट था कि उसे इस समय वसुधा का फोन करना पसंद नहीं आया था.
‘‘बेटा, बात यह है कि मुझे हार्ट प्रौब्लम हो गई है, एंजियोग्राफी हुई है. एक सप्ताह बीत गया है. अब ऐसा लग रहा है कि अकेले रहना मुश्किल है. किसी न किसी को तो मेरे पास होना ही चाहिए. वह तो एक परिचित थे, जिन्होंने बहुत मदद की और अभी भी एक नर्स इंगेज कर रखी है.’’
‘‘ठीक किया. देखो मां, किसी के पास इतनी फुरसत नहीं है और अब अपना ध्यान स्वयं रखना होता है. वान्या दीदी तथा मान्या भी अपने परिवार के साथ यूरोप टूर पर जा रही हैं. वे दोनों भी नहीं आ पाएंगी. अपना खयाल रखना और हां, उन सज्जन को मेरा हार्दिक धन्यवाद कहना जिन्होंने तुम्हारी इतनी सहायता की,’’ फोन कट गया.
वसुधा स्तब्ध थी. ये मेरी संतानें हैं जिन के लिए मैं ने अपने किसी सुख की परवा नहीं की. मृगेंद्र की मृत्यु के समय वह एकदम ही युवा थी. बहुतों ने उस से विवाह करने के लिए कोशिश की पर वह अपने बच्चों को छोड़ कर नहीं रह सकती थी और 3-3 बच्चों के साथ उसे कोई स्वीकार भी नहीं करता. सो, वह अपने बच्चों के लिए ही जीती रही. किंतु क्या मिला उसे? आज बच्चों को इतनी फुरसत नहीं है कि वे मां का खयाल रख सकें.
वसुधा को ऐसा लगता है कि उस का वह स्वप्न, जिस में वह अथाह जलराशि में तिनके की तरह बह रही थी, और अदृश्य साया उस को थामने के लिए हाथ बढ़ा रहा था, क्या उसे आज की परिस्थितियों की ओर ही इंगित कर रहा था? और वह हाथ, जो किसी अदृश्य साए का था, शायद वह नागेश का ही था. हां, अवश्य ही, वह नागेश ही रहा होगा.
अब वह निर्णय लेने की स्थिति में आ गई थी. सब ने उसे मूर्ख समझा, ठीक है. लेकिन अब वह और मूर्ख नहीं बनना चाहती. उस का भी अपना जीवन है, उस की भी अपनी हसरतें हैं जिन्हें अब वह पूरा करेगी. यदि बच्चों को उस की आवश्यकता होगी तो वे स्वयं उस के पास आएंगे और उस ने उसी क्षण एक निर्णय ले लिया. उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.
दरवाजे की घंटी बजी, नर्स ने द्वार खोला, नागेश ही था. ‘‘क्या हुआ वसु, क्या तबीयत खराब लग रही है? डाक्टर को बुलाएं?’’ चिंता उस के हर शब्द में भरी हुई थी.
‘‘नागेश, कोर्ट कब चलना होगा? अब रुकने से कोई लाभ नहीं. मुझे भी तुम्हारा साथ चाहिए, बस. और कुछ नहीं,’’ वसुधा का स्वर भराभरा था. ‘‘और बच्चे?’’ नागेश ने कहा. ‘‘उन्हें बाद में सूचित कर देंगे,’’ वसुधा ने दृढ़ता से कहा.
‘‘ओह वसु, भावातिरेक में नागेश ने उस का हाथ पकड़ लिया. मेरी तपस्या सफल हुई. अब हम अपना शेष जीवन भरपूर जिएंगे,’’ कह कर नागेश ने वसुधा का झुका हुआ चेहरा ठुड्डी पकड़ कर उठाया. दोनों की आंखें आंसुओं से लबरेज थीं और नागेश की आंखों से टपक कर आंसू की 2 बूंदें वसुधा की आंखों में बसे आंसुओं से मिल कर एकाकार हो रही थीं. और वसुधा, नागेश की अमरलता बन कर उस से लिपटी हुई थी. अब, उन के सामने एक नया क्षितिज बांहें पसारे खड़ा था.
कई बरस पुरानी बात है. लुधियाना के सीएमसी (क्रिश्चियन मैडिकल कालेज) अस्पताल में पीडिएट्रिक सर्जरी यूनिट के इंचार्ज हुआ करते थे डा. योगेश कुमार सरीन. सीएमसी से थोड़ा आगे डा. जेनी का नॄसगहोम था. डा. जेनी से डा. सरीन का अच्छा परिचय था. एक दिन वह किसी काम से उन के यहां गए तो देखा कि डा. जेनी किसी ङ्क्षचता में डूबी थीं. डा. सरीन ने उन्हें गुडमौॄनग कहा तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठीं, “डा. सरीन, वैरी गुडमौनग. यह तो बहुत अच्छा हुआ कि आप आ गए. आइए, आप खुद देखिए यहां कैसी आश्चर्यजनक घटना घटी है.”
डा. जेनी डा. सरीन को लेबररूम के साथ वाले कमरे में ले गईं और एक बैड पर लेटी बच्ची उन्हें दिखाई. उस बच्ची को देख कर डा. सरीन चौंके. बैड पर एक नहीं, 2 नवजात बच्चियां लेटी थीं. आम इंसानों की तरह उन के भी 2-2 हाथ, 2-2 पैर थे.
मगर खास बात यह थी कि दोनों के धड़ बीच से जुड़े थे. एक का पेट कहां पर खत्म हुआ और दूसरी का कहां से शुरू हुआ, इस का पता गहराई से देखने पर भी नहीं चल रहा था. दोनों की एक ही नाभि थी, जबकि टांगें विपरीत दिशा में थीं. उन की स्थिति 180 डिग्री का कोण दर्शा रही थी.
उन बच्चियों को देख कर सरीन ने डा. जेनी से पूछा, “डिलीवरी कितने बजे हुई है?”
“सुबह करीब 7 बजे. हैरान करने वाली बात यह है डाक्टर साहब कि डिलीवरी पूरी तरह नौरमल थी. मेरी तो यही समझ में नहीं आ रहा कि मेरे हाथों एकदम सहज रूप से यह डिलीवरी हो कैसे गई?”
“कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता. खैर, बच्चियों को देख कर जच्चा का क्या रिएक्शन रहा? अभी वह कहां है?”
“वह तो बेहोश पड़ी है. लेकिन उस का पति यहीं है. उस से कोई बात करना चाहें तो बुला लेती हूं. ऐसी विचित्र संतान देख कर मेरी तरह वह भी काफी परेशान है.”
डा. सरीन चुपचाप खड़े सोचते रहे. उन्हें सोचते देख डा. जेनी भी चुप हो गईं. कुछ देर बाद वह बोले, “हां, बच्चियों के पिता को बुलवा लें.”
डा. जेनी ने एक कर्मचारी को भेज कर उन बच्चियों के पिता राजकुमार को बुलवा लिया. वह लुधियाना के धूरीलाइन एरिया का रहने वाला था और एक हौजरी कंपनी में मशीन औपरेटर था. उस ने बताया कि उस की पत्नी लता के प्रसव का समय नजदीक आने पर वह चैकअप के लिए इसी नॄसगहोम में लाया था. उसे बताया गया कि लता के गर्भ में जुड़वां बच्चे हैं.
यह पता लगने के बाद वह पत्नी का विशेष ध्यान रखने लगा. अब जब उस की पत्नी को अजीबोगरीब बच्चियां पैदा हुई हैं तो वह असमंजस में है कि क्या करे.
राजकुमार की बात खत्म होने पर डा. सरीन बोले, “चलो जो होना था, वह हो गया. इन बच्चियों को ले कर अब आगे क्या सोच रहे हो?”
डा. सरीन की बात सुन कर राजकुमार की आंखों में आंसू भर आए. लग रहा था जैसे वह अभी रोने वाला है. वह किसी तरह अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए बोला, “डाक्टर साहब, यहां से घर जाते ही सब लोग हम पर हंसेंगे. मैं भला उन्हें क्या जवाब दूंगा. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा. आखिर इन बच्चियों का हम करेंगे क्या?”
“ये तुम्हारी अपनी औलाद हैं न कि गैर की. इन के बारे में फैसला तुम्हीं को लेना पड़ेगा.”
“मैं क्या फैसला लूं डाक्टर साहब, लता अभी बेहोशी में है. होश में आने पर जब वह इन अजीबोगरीब बच्चियों को देखेगी तो उस का हार्ट फेल हो जाएगा. घबराहट में इस वक्त मेरी भी टांगें कांप रही हैं.”
“किस बात की घबराहट है तुम्हें, बताओ? इस सब में तुम्हारी तो कोई गलती नहीं है. बहरहाल, यह सब ठीक भी हो सकता है.”
“मतलब, क्या ये बच्चियां ठीक हो सकती हैं.” राजकुमार ने भावुक हो कर कहा.
डा. सरीन ने राजकुमार की पीठ पर हाथ रखते हुए उसे ढांढ़स बंधाते हुए कहा, “मैडिकल साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है कि असंभव मानी जाने वाली बातें संभव होने लगी हैं. कोई बड़ी बात नहीं कि औपरेशन द्वारा अलग कर के इन्हें नौरमल जिंदगी जीने लायक बना दिया जाए.”
“ऐसा है तो डाक्टर साहब कर दीजिए इन का औपरेशन. मैं तो समझता हूं कि औपरेशन के बाद दोनों में से एक भी बच गई तो हमारे जीवन में खुशियां लौट आएंगी.” उस ने कहा.
“देखो, औपरेशन के बाद एक बचेगी, दोनों मर जाएंगी या फिर दोनों बच जाएंगीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. इस मुद्दे पर कुछ भी सोचने के बजाय फिलहाल तुम यह बताओ कि औपरेशन का खर्च उठा सकते हो?”
डा. सरीन के सवाल का जवाब देने के बजाय राजकुमार ने उन्हीं से सवाल किया, “कितना खर्च आ सकता है?”
“कम से कम एक लाख रुपए तो मान कर चलिए.”
एक लाख रुपए का नाम सुन कर राजकुमार के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगीं. वह एकदम मरी सी आवाज में बोला, “डाक्टर साहब, जितना मैं कमाता हूं, उस से हमारी रोटी मुश्किल से चलती है. इतनी बड़ी रकम जुटाना हमारे बस की बात नहीं है.”
“ठीक है, तुम परेशान मत होओ. तुम्हारे जैसे असमर्थ लोगों के लिए हमारे यहां अस्पताल की तरफ से खर्च उठाने का प्रावधान है. इस बारे में मैं अस्पताल के अधिकारियों से बात करता हूं.” डा. सरीन ने कहा.
“डाक्टर साहब, अगर ऐसा हो जाए तो मैं आप का और अस्पताल वालों का एहसान कभी नहीं भूल पाऊंगा.”
इस के बाद राजकुमार को कमरे से बाहर भेज कर डा. सरीन ने डा. जेनी से इस बारे में चर्चा करते हुए कहा, “मेरी राय में बच्चियों को अभी सीएमसी ले जा कर उन के टेस्ट करा लेने चाहिए. जब सारे टेस्टों की रिपोर्ट आ जाएंगी, तभी इन के औपरेशन के बारे में सोचा जा सकेगा.”
“बच्चियों के पिता से आप की बात हो ही चुकी है. फिर हमें भला क्या एतराज हो सकता है. आप इन बच्चियों को सीएमसी ले जाएं.” डा. जेनी बोलीं.
“अभी इन्हें यहीं रहने दो. मैं इस बारे में पहले सीएमसी के अधिकारियों से बात कर लूं.” कह कर डा. सरीन वहां से चले आए. इस के बाद उन्होंने सीएमसी के डायरैक्टर डा. रिचर्ड डेनियल, डा. अब्राहम थौमस और मैडिकल सुपरिटैंडेंट डा. बसंत पवार से बात की. सब ने छूटते ही कहा, “डा. योगेश, यदि आप को लगता है कि ये बच्चियां औपरेशन द्वारा अलग हो सकती हैं तो उन्हें तत्काल यहां ले आओ. औपरेशन का खर्च अस्पताल वहन कर लेगा.”
इस तरह जन्म के 4 घंटों के अंदर ही बच्चियों को सीएमसी के आइसोलेशन रूम में भरती कर लिया गया. उस वक्त दिन के ठीक 11 बजे थे. तब तक राजकुमार के रिश्तेदारों को यह खबर मिल गई थी. उन में से कइयों ने तत्काल अस्पताल पहुंच कर अधिकारियों व डाक्टरों से अपनी नाराजगी जाहिर की. यह नाराजगी इस बात पर थी कि डाक्टर बच्चियों की जान की कीमत पर नया प्रयोग करने जा रहे थे.
कई वरिष्ठ डाक्टरों ने उन्हें समझाया कि वह इन बच्चियों पर प्रयोग नहीं कर रहे, बल्कि इन की सलामती के लिए औपरेशन कर रहे हैं. यह बात रिश्तेदारों की समझ में आई, तब कहीं जा कर वे लोग शांत हुए.
बाद में इन बच्चियों की बात पूरे शहर में फैल गई तो लोगों में उन्हें देखने की जिज्ञासा जाग उठी. वे बच्चियों की एक झलक देखने के लिए डाक्टरों से गुहार लगाने लगे. कई स्थानीय पत्रकार भी अस्पताल में उच्चाधिकारियों से मिले. लेकिन अस्पताल प्रशासन ने पत्रकारों से भी कह दिया कि अभी वे इस मामले को सार्वजनिक नहीं करना चाहते. अस्पताल की जिस ङ्क्षवग में उन बच्चिों के परीक्षण वगैरह चल रहे थे उस ङ्क्षवग के मुख्य दरवाजे पर ताला लगा दिया गया, ताकि कोई भी वहां न पहुंच सके.
डा. सरीन ने बच्चियों के भीतरी हिस्सों की जानकारी लेने के लिए एक्स-रे, सीटी स्कैन, एमआरआई आदि करवाए. इन की रिपोर्टों से पता चला कि बच्चियों के सैक्सुअल आर्गेंस कौमन हो चुके थे. पेशाब की 2 थैलियां थीं तो बड़ी आंत कौमन थी. योनि में 3-3 छेदों के बजाय 1-1 छेद था. एक छेद में से कभीकभी सिर्फ पेशाब आता था तो दूसरी के छेद में से मल व पेशाब दोनों आ रहे थे.
मतलब मल त्याग के लिए दोनों बच्चियों का एक ही द्वार था. एक बच्ची का दायां गुरदा और दूसरी बच्ची का बायां गुरदा एक ही पेडू में खुल रहे थे. दोनों में बड़ी आंत जहां एकसाथ जा रही थी, वहीं छोटी आंत एकदम अलग थी. अनेक टैस्ट करने पर भी योनि व बच्चेदानी का स्टेटस डाक्टरों को पता नहीं लग पा रहा था.
उक्त टैस्टों की रिपोर्टों के चलते निर्णय लिया गया कि बच्चियां जब 7 महीने की हो जाएं, तभी उन का औपरेशन किया जाना चाहिए. डाक्टरों को उम्मीद थी कि तब तक इन के भीतर कुछ अंग भी परिपक्व हो जाएंगे.
इस दौरान डाक्टरों व अधिकारियों के बीच औपरेशन की बारीकियों पर वार्ताएं व तैयारियां चलती रहीं. उस वक्त इन लोगों के सामने एक अन्य समस्या भी आई. समस्या यह थी कि सीएमसी में पीडिएट्रिक सर्जरी के एक ही डाक्टर थे डा. योगोश कुमार सरीन. जबकि इस अति नाजुक तथा अहम औपरेशन के लिए उन्हें सहयोग करने के लिए एक और डाक्टर की आवश्यकता थी.
ऐसे किसी डाक्टर की तेजी से तलाश शुरू हुई. चंडीगढ़ के पीजीआई (पोस्टग्रैजुएट इंस्टीट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज) अस्पताल के शिशु शल्य चिकित्सा विभाग में डा. जयकुमार महाजन एक साल के अनुबंध पर कार्यरत थे. अपने किसी सहयोगी के माध्यम से डा. सरीन को डा. महाजन के बारे में जानकारी मिली तो वह चंडीगढ़ जा कर उन से मिले. बातचीत होने पर वह उन्हें अपने लिए एकदम उपयुक्त लगे. डाक्टर महाजन भी उन के साथ काम करने के लिए तैयार हो गए. लेकिन वह पीजीआई के साथ हुए अनुबंध के बाद ही काम कर सकते थे.
डा. सरीन डा. महाजन के पीजीआई के अनुबंध के पीरिएड गुजरने का इंतजार करने लगे. जैसे ही डा. महाजन का पीजीआई चंडीगढ़ से अनुबंध खत्म हुआ, उन्होंने लुधियाना आ कर सीएमसी जौइन कर लिया. तब तक दोनों बच्चियां 7 महीने की हो चुकी थीं. लिहाजा डा. सरीन ने औपरेशन की तिथि निर्धारित कर दी. अपनी पूरी तैयारी और औपरेशन के रिहर्सल वगैरह डा. सरीन ने एक सप्ताह पहले ही से शुरू कर दिए.
अलगअलग विषयों वाले डाक्टरों की एक टीम इस कार्य को संपन्न करने के लिए तैयार की गई. डा. सरीन के औफिस में इस टीम के सदस्यों की रोजाना 2-3 घंटों की मीङ्क्षटग होने लगी. एकएक नुक्ते पर गहनता से विचार किया जाने लगा. फिर एक दिन डा. सरीन अपनी टीम के साथ औपरेशन थिएटर में गए और डमी पर औपरेशन कर के अपना रिहर्सल किया.
डा. सरीन ने पढ़ रखा था कि इश्चियो फेग्स टेटरीपस की श्रेणी में आने वाले केस के तहत भारत में इस तरह का पहला औपरेशन सन 1986 में कोलकाता में हुआ था. इसे डा. सुबीर चटर्जी ने किया था. इस औपरेशन की प्रक्रिया 4 महीनों तक चली थी. वह भी 2 चरणों में. दूसरी ओर डा. सरीन ऐसे औपरेशन को एक ही चरण में पूरा कर के नया कीॢतमान बनाने की योजना पर विचार कर रहे थे.
अपनी सभी तैयारियों के साथ डा. सरीन उस दिन भोर में ही तैयार हो कर अस्पताल पहुंच गए. अपने केबिन में एक घंटे से ज्यादा समय तक एकाग्रचित्त बैठ कर वह औपरेशन की तमाम स्थितियों पर गहराई से विचार करते रहे. सुबह के ठीक 7 बजे वह औपरेशन थिएटर में पहुंच गए.
पूरी तैयारी के बाद औपरेशन शुरू होने पर बच्चियों का मध्य भाग खुला तो एक आश्चर्यचकित करने वाली बात यह सामने आई कि बच्चियों की बच्चेदानी और योनि का एक ही रास्ता था. यूटेरस में ही आगे आंत के साथसाथ पेशाब के मसाने भी खुल रहे थे. यह जानकारी डा. सरीन को किसी भी टैस्ट से नहीं मिली थी. फिर भी उन्होंने औपरेशन शुरू किया. इस प्रक्रिया में उन्होंने बच्चियों की बड़ी आंत काट कर बराबर बांट दी. रेशों तक को उन्होंने पूरी बारीकी एवं सफाई के साथ आपस में जोड़ दिया.
औपरेशन में एनेस्थीसिया का भी अहम रोल रहा. डा. ललिता अफजल और डा. मेरी वर्गीज ने अपनी टीम के साथ इस भूमिका को बखूबी निभाया. बच्चियों के जिस्म को काट कर अलग कर दिए जाने के बाद आर्थोपीडियंस
डा. ए.के. माम और डा. अतुल ने अपनी टीम के साथ बच्चियों के कूल्हों की हड्डियों को पहले काटा, फिर सही स्थिति में जोड़ दिया. इस से उन की टांगें पूरी तरह सहज अवस्था में आ गईं. इस के बाद डा. अब्राहम थौमस की निजी देखरेख में हुए कौस्मैटिक सर्जरी के महत्त्वपूर्ण कार्य को भी संपन्न कर दिया गया.
इस तरह शाम के साढ़े 6 बजे एक बच्ची को औपरेशन थिएटर से निकाल कर इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में भरती कर दिया गया. ठीक एक घंटे बाद दूसरी बच्ची को भी औपरेशन थिएटर से निकाल कर आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया.
अस्पताल के भीतर कितना बड़ा इतिहास रचा जा रहा था, इस बात की जरा भी भनक बाहर किसी को न लगे, इस के पूरे प्रबंध किए गए थे. औपरेशन सफल हो जाने के एक हफ्ते बाद तक भी अस्पताल के बाहर किसी को इस बात की खबर नहीं लगी कि दोनों बच्चियों का औपरेशन हो गया या नहीं? और यदि हो गया तो वे किस स्थिति में हैं.
मैडिकल सुपरिटेंडेंट डा. बसंत पवार ने जब बच्चियों के स्वास्थ्य की जांच कर ली तो सीएमसी के डाइरैक्टर डा. रिचर्ड डेनियल और एमएस डा. बसंत पवार ने एक संवाददाता सम्मेलन कर अपने मैडिकल संस्थान की यह बहुत बड़ी सफलता सार्वजनिक की.
अपनी बच्चियों के सफल औपरेशन पर राजकुमार और उस की पत्नी लता की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए. निशुल्क औपरेशन करने पर उन्होंने सीएमसी के प्रशासनिक अधिकारियों और डाक्टरों का आभार व्यक्त किया.
सोलहवीं सदी के प्रख्यात चिकित्सक एंबरोस पारे ने अपनी एक पुस्तक में लिखा था कि प्रकृति के विपरीत असाधारण रूप से जुड़े हुए प्राणियों को दैत्य कहा जाता है और वे प्राय: कुछ समय तक ही जीवित रहते हैं.
मगर आज के युग में ऐसा नहीं है. स्वास्थ्य संबंधी साहित्य में ऐसे कई किस्से मशहूर हुए हैं. सर्वाधिक मशहूर किस्सा एंग और चांग भाइयों का है, जो कि साएम में सन 1811 में पैदा हुए थे. उन के पिता चीनी थे, मां आधी चीनी व आधी साइमीस थी. एंग और चांग निचली छाती व नाभि की जगह आपस में जुड़े थे और उन के बीच के जुड़े भाग का दायरा 17 सेंटीमीटर था. 18 साल की उम्र में ये अमेरिका जा कर वारनस की सर्कस में भरती हो गए थे.
63 वर्ष जीने वाले इन भाइयों की नुमाइश कर वारनस ने खूब पैसे कमाए. यहीं से वारनस ने इन का नाम सिआमीज ङ्क्षट्वस रख दिया और यह संज्ञा आज भी विभिन्न तरह से जुड़े हुए बच्चों के लिए दी जाती है.
एंग और चांग ने जुड़वा बहनों से शादी की. एंग ने 9 बच्चे और चांग ने 10 बच्चे पैदा किए. अपने जीवन में एंग और चांग ने खूब पैसे कमाए, परंतु सारी ङ्क्षजदगी ये जानवरों की तरह दुनिया भर में प्रदॢशत किए गए. 63 वर्ष की उम्र में चांग की निमोनिया से मृत्यु हो गई. इस के 2 घंटे बाद एंग ने भी प्राण त्याग दिए. इन के पोस्टमार्टम में दोनों के बीच थोड़ा सा जिगर ही जुड़ा पाया गया. वर्तमान ज्ञान और शल्य चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार ऐसे केस को आसानी से अलग किया जा सकता है.
इतिहास ऐसी कितनी ही कहानियों से भरा है. अब तक 600 के करीब सिआमीज दुनिया भर मेें पैदा हो चुके हें. लेकिन कुछ ही जुड़वां प्राणियों को अलग करने की कोशिश की गई है. ऐसी प्रथम शल्य चिकित्सा सन 1689 में डा. फेरियस ने की थी. अगले 260 सालों में यानी सन 1950 तक केवल 12 ऐसे जुड़वां बच्चों को अलग करने की कोशिश की गई.
दुनिया भर में आज तक केवल 50 के करीब ऐसे जुड़वां सफलतापूर्वक अलग किए जा सके हैं. इन में से प्राय: 2 में से केवल एक को ही जीवित बचाया जा सका है. भारत में अब तक कुल 10 ऐसे जुड़वां बच्चे अलग किए गए, मगर सभी केसों में जिंदा केवल एक ही रह पाया था. लुधियाना वाले केस में एक लडक़ी आज भी जीवित और स्वस्थ है, जबकि दूसरी की कुछ दिनों बाद ही मृत्यु हो गई थी.
मैडिकल सूत्रों के अनुसार 189000 मामलों में एक केस कंजौइंड ङ्क्षट्वस का होता है. इन में एक तिहाई बच्चे 24 घंटों के भीतर मर जाते हैं. यों ऐसे केसों में मेल चाइल्ड के मुकाबले फीमेल चाइल्ड का सरवाइवल रेट 3.1 प्रतिशत है.
लीवर से जुड़ी बच्चियों जन्नत और मन्नत का औपरेशन कर के उन्हें सफलतापूर्वक अलग किया गया है और दोनों स्वस्थ एवं चुस्तदुरुस्त हैं.
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर के रहने वाले मोहम्मद सलीम की पत्नी सोनिया ने अंबाला के कस्बा बराड़ा के सरकारी अस्पताल में जन्नत और मन्नत को जन्म दिया था. इस से पहले इन के यहां 5 साल की नरगिस और 3 साल की नगमा नाम की बेटियां पैदा हुई थीं.
27 अगस्त, 2015 को पैदा होने वाली जन्नतमन्नत पेट और लिवर के निचले हिस्से से आपस में जुड़ी थीं. इन्हें अलग न किया जाता तो उन की मौत संभावित थी, यह सोच कर डाक्टरों ने इन्हें चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में रैफर करते हुए जन्म के 4 घंटों के भीतर वहां पहुंचा दिया.
पीजीआई में सर्जरी का फैसला करने के बाद पीडिएट्रिक सर्जरी टीम ने रेडियोलौजी डिपार्टमैंट की मदद ली. 3 महीनों तक दोनों बच्चियों के एमआरआई परीक्षण और सीटी स्कैन किए जाते रहे. इन इमेजिंग से पता चला कि दोनों बच्चियों के शरीर में एक ही लीवर था. अलबत्ता हार्ट, किडनी, इंटेस्टाइन व कुछ अन्य अंदरूनी अंग अलगअलग थे.
पैदाइश के वक्त बच्चियों का वजन काफी कम था, इस स्थिति में उन की सर्जरी करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था. 3 महीनों बाद जब उन का वजन बढ़ कर 4 किलोग्राम से ज्यादा हो गया, तब उन की सर्जरी करने पर विचार हुआ.
15 साल पहले भी ठीक इसी तरह का केस पीजीआई में आया था. मगर तब उन्हें अलग नहीं किया जा सका था. बाद में दोनों बच्चियों की मौत हो गई थी. लिहाजा इस बार पीजीआई प्रशासन इस मुद्दे पर बहुत चौकस था. किसी भी तरह के रिस्क के चलते वह अपने खाते में बदनामी लेने के हक में नहीं था.
जन्नत और मन्नत के पिता की आॢथक स्थिति ठीक न होने की वजह से इस औपरेशन पर होने वाला सारा खर्च अस्पताल प्रशासन द्वारा खुद वहन करने का भी निर्णय लिया गया. इस विशेष औपरेशन में इस्तेमाल होने वाले नए उपकरण खरीद कर 2 विशेष औपरेशन थिएटर भी तैयार करने की व्यवस्था की गई थी.
औपरेशन को अपने सफल अंजाम तक पहुंचाने के लिए डा. रवि कनौजिया, डा. जे.के. महाजन, डा. नीरजा और डा. संध्या की अगुवाई में 30 डाक्टरों की एक विशेष टीम तैयार की गई थी. इस टीम में पीडियाट्रिक, एनेस्थीसिया, पीडियाट्रिक आईसीयू व रेडियोलौजिस्ट विभागों से जुड़े तमाम अनुभवी डाक्टर थे. एक औपरेशन थिएटर में बच्चियों का औपरेशन कर के उन्हें अलग किया जाना था तो दूसरे में उन के आगे के अन्य औपरेशन किए जाने थे.
30 नवंबर, 2015 को इस औपरेशन की शुरुआत सुबह ही कर दी गई. यह क्रिया लगातार 8 घंटों तक चली. औपरेशन हर लिहाज से पूरी तरह कामयाब रहा. सर्जरी के बाद जन्नत तो जल्दी ठीक हो गई, लेकिन मन्नत को कुछ समय के लिए वैंटीलेटर पर रखना पड़ा था.
बहरहाल, अब दोनों बच्चियां पूरी तरह तंदरुस्त हो कर अपने मातापिता के साथ घर जा चुकी हैं.
इस औपरेशन के टीम लीडर डा. रवि कन्नौजिया के बताए अनुसार नारमल प्रेग्नैंसी में एंब्रयो फॢटलाइज होने के बाद टूटता नहीं है, जिस वजह से एक ही बच्चा पैदा होता है. यह एंब्रयो अगर फॢटलाइज होने के बाद टूटते हुए भी अगर कहीं से जुड़ा रह गया तो दोनों बच्चों के आपस में जुड़े रहने की संभावना बन जाती है. ऐसे ही बच्चों को मैडिकल साइंस में ‘कंजौइंड ट्विन्स’कहा जाता है
Arthritis Disease : खराब लाइफस्टाइल और अस्वस्थ खानपान की वजह से अर्थराइटिस यानी गठिया की समस्या तेजी से लोगों में बढ़ रही है. गठिया होने पर जोड़ों में सूजन के साथ-साथ असहनीय दर्द होने लगता है, जिसके कारण अपने रुटीन के काम करने में भी मुश्किल होती है. ऐसे में अर्थराइटिस से ग्रसित लोगों को अपने खाने और सेहत का विशेष ध्यान रखना होता है, नहीं तो जोड़ों का दर्द और ज्यादा बढ़ जाता है.
इसके अलावा कई बार जाने अनजाने में लोग कुछ ऐसी चीजे खा लेते हैं, जिससे जोड़ों में दर्द की समस्या और ज्यादा बढ़ जाती है. तो आइए जानते हैं गठिया (Arthritis Disease) के मरीजों को किन-किन फूड आइटम्स को खाने से बचना चाहिए.
गठिया रोग में किन-किन चीजों से परहेज करना चाहिए?
गठिया (Arthritis Disease) की समस्या से परेशान लोगों को अल्कोहल पीने से भी बचना चाहिए, क्योंकि ये जोड़ों के दर्द की समय्या को ट्रिगर करती हैं.
आज के समय में लोग प्रोसेस्ड फूड का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, लेकिन गठिया (Arthritis Disease) के मरीजों को इसे खाने से बचना चहिए. दरअसल, प्रोसेस्ड फूड को प्रिजर्व करने के लिए इसमें ट्रांस फैट का इस्तेमाल किया जाता है, जो कि शरीर के लिए हानिकारक होता है. इसके अलावा इससे जॉइंट पेन की समस्या भी बढ़ सकती है.
अर्थराइटिस (Arthritis Disease) के मरीजों को चीनी और नमक दोनों का सेवन सीमित मात्रा में करना चाहिए. सोडा, आइसक्रीम और कैंडी जैसी चीजों को अधिक मात्रा में खाने से जोड़ों में दर्द और सूजन की परेशानी बढ़ती है.
गेहूं में ग्लूटेन नामक प्रोटीन होता है, जो गठिया (Arthritis Disease) की समस्या को बढ़ाता है. इसके अलावा ग्लूटेन रिच फूड खाने से शरीर में इन्फ्लमेशन भी बढ़ता है, जिससे दर्द और सूजन की समस्या रहती है.
पिछले अंक में आप ने पढ़ा :
बरसों बाद वसुधा का सामना अपने पूर्व प्रेमी नागेश से होता है. वसुधा नागेश की यादों को दफना चुकी थी और बरसों पहले मृगेंद्र से विवाह कर 2 बच्चों की मां बन चुकी थी.
फिलहाल अब मृगेंद्र की मृत्यु हो चुकी थी और बच्चे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त थे. वसुधा अकेली ही शांत जीवन जी रही थी. नागेश के आने से एक बार फिर उस के अंतर्मन में उथलपुथल मच गई.
अब आगे पढ़िए…
चारों ओर अथाह जलराशि फैली थी, कहीं किनारा नजर नहीं आ रहा था. वसुधा पानी में घिरी हुई थी. क्या डूब जाएगी? आखिर उसे तैरना भी तो नहीं आता था. वह पानी में हाथपांव मार रही थी, ‘बचाओ…’ वह चिल्लाना चाह रही थी किंतु उस की आवाज गले में फंसीफंसी सी लग रही थी. शायद, गले में ही घुट कर रह जा रही थी. पर कोई नहीं आया बचाने और अब उस ने अपनेआप को लहरों के भरोसे छोड़ दिया. जिधर लहरें ले जाएंगी उधर ही चली जाएगी. और वह तिनके की तरह बह चली. उस ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं, देखें समय का क्या फैसला होता है.
तभी अचानक उसे ऐसा लगा जैसे एक अदृश्य साया सा सामने खड़ा है और अपना हाथ बढ़ा रहा था. वह उस हाथ को पकड़ने की कोशिश करती है, पर सब बेकार.
ट्रिनट्रिन फोन की घंटी बजी और वह चौंक कर उठ गई. कहां गई वह अथाह जलराशि, वह तो डूब रही थी. फिर क्या हुआ. वह तो बैड पर लेटी है. तो क्या यह स्वप्न था? यह कैसा स्वप्न था? लैंडलाइन का फोन लगातार बज रहा था. उस ने फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’ ‘‘हैलो, मां, मैं बोल रहा हूं कुणाल. आप कैसी हैं?’’
‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम बताओ कैसे हो? तृषा का क्या हाल है? डिलीवरी कब तक होनी है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.
‘‘वह ठीक है, इस माह की 25 तारीख तक उम्मीद है. पर आप परेशान मत होना. सासूमां प्रसव के समय आ जाएंगी. और हां, मेरा प्रोजैक्ट 2 वर्षों के लिए और बढ़ गया है. ओके, मां, बाय, सी यू.’’
कुछ क्षणों तक रिसीवर हाथ में लिए वह खड़ी रही. मन में विचार उठ रहा था, ‘बहू का प्रथम प्रसव है, मैं भी तो आ सकती थी, बेटा.’ उस ने कहना चाहा पर वाणी अवरुद्ध हो गई और वह कुछ भी न बोल सकी.
शायद बहुओं को अपनी सास पर उतना भरोसा नहीं रह गया है, तभी तो अभी भी मां का आंचल ही पकड़े रहना चाहती हैं.
मृगेंद्र की मृत्यु के बाद किस प्रकार उस ने अपने तीनों बच्चों की परवरिश की, यह तो वह ही जानती है. विवाह के तत्काल बाद ही कुणाल तृषा को ले कर जरमनी चला गया था. वसुधा की हसरत ही रही कि घर में बहू के
पायल की छनछन गूंजे. सुबह की दिनचर्या निबटा कर उस ने कौफी बनाई कि अकस्मात उस को उलझन सी होने लगी.
यह क्या, इस मौसम में पसीना तो आता नहीं. फिर क्या हुआ, उस ने कौफी का एक घूंट भरा, 2 बिस्कुट के साथ कौफी खत्म की. थोड़ा सा आराम मिला, किंतु फिर वही स्थिति हो गई. ऐसा लगा कि उस के सीने में हलकाहलका दर्द हो रहा है. पता नहीं क्या हो गया है, ऐसा तो कभी नहीं हुआ, तब भी नहीं जब मृगेंद्र की मृत्यु हुई थी. तो फिर यह क्या है? क्या हार्ट प्रौब्लम हो रही है, वह थोड़ा सशंकित हो रही थी. क्या डाक्टर को दिखाना होगा? हां, उसे डाक्टर की सलाह तो लेनी ही पड़ेगी. पर अकेले कैसे जाए, हो सकता है कि रास्ते में तबीयत और खराब हो जाए. ऐसे में क्या करे, किसी को बुलाए? क्या नागेश को फोन करे? हां, यही ठीक होगा.
उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.
‘‘मैं बोल रही हूं,’’ उस ने इतना ही कहा कि नागेश बोल उठा, ‘‘वसु, क्या बात है? ठीक तो हो न?’’
‘‘नहीं, कुछ तबीयत खराब लग रही है. डाक्टर को दिखाना पड़ेगा,’’ उस ने थोड़ा झिझक से कहा. ‘‘कोई बात नहीं, मैं अभी आता हूं.’’ और फोन कट गया.
वसुधा ने अपने कपड़े बदले और नागेश की प्रतीक्षा करने लगी. अभी भी उस के सीने में बायीं ओर हलकाहलका दर्द हो रहा था. गाड़ी का हौर्न बजा, नागेश आ गया था.
डाक्टर कोठारी अपने नर्सिंग होम में ही थे. बड़े ही मशहूर हार्ट सर्जन थे. जब नागेश वसुधा को ले कर वहां पहुंचा तो डाक्टर कोठारी ने कहा, ‘‘आइए, कर्नल सिंह, मैं आप की ही प्रतीक्षा कर रहा था.’’ वसुधा ने कृतज्ञता से नागेश की ओर देखा, कितनी चिंता है इन्हें, मन ही मन सोच रही थी.
डाक्टर कोठारी ने वसुधा का चैकअप किया और चैंबर से बाहर आए, ‘‘कर्नल सिंह, 30 प्रतिशत ब्लौकेज है, एंजियोग्राफी करनी होगी. कल आप इन्हें हौस्पिटलाइज कर दीजिए.’’
‘‘ठीक है, डाक्टर,’’ कह कर नागेश वसुधा को ले कर बाहर आ गया.
‘‘क्या तुम डाक्टर कोठारी को पहले से जानते हो?’’ वसुधा ने जिज्ञासा से पूछा. ‘‘हां, आर्मी में हम लोग साथ में ही थे और रिटायरमैंट के बाद इन्होंने जौब जौइन कर लिया. हम लोगों की अच्छी मित्रता थी,’’ नागेश ने कहा.
घर आ कर वसुधा चिंतित हो रही थी कि वह तो अकेली है, कैसे संभालेगी खुद को, कौन देखभाल करेगा उस की?
‘‘क्या सोच रही हो, वसु, कोई समस्या है? नागेश ने चिंतित स्वर में पूछा.
‘‘हां, नागेश, समस्या तो है ही. मैं अकेली हूं, कौन उठाएगा इतनी बड़ी जिम्मेदारी. कुणाल आ नहीं सकेगा, सोचती हूं बेटियों को ही खबर कर दूं.’’ वसुधा का चिंतित होना स्वाभाविक था.
‘‘तुम चाहो तो मैं फोन कर देता हूं. वैसे तो मैं हूं न. अभी तो तुम मेरी ही जिम्मेदारी हो,’’ नागेश ने आश्वस्त करते हुए कहा.
वसुधा संकोच के बोझ से दबी जा रही थी, तत्काल ही बोल उठी, ‘‘नहीं, नहीं, मैं ही फोन कर लेती हूं. आप का फोन करना उचित नहीं होगा. न जाने वे क्या सोचें.’’
नागेश ने आहत नजरों से उसे देखा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो वही करो. वैसे, मैं सदैव ही तुम्हारे लिए तत्पर रहूंगा. बस, एक फोन कर देना, हिचकना नहीं. मैं वही नागेश हूं.’’ और नागेश चला गया. वसुधा थोड़ी शर्मिंदा हो गई. वह तो मेरा इतना खयाल रख रहा है. और मैं, अभी भी उसे पराएपन का बोध करा रही हूं.
वसुधा ने वान्याको फोन मिलाया. बड़ी देर तक टूंटूं की आवाज आती रही. फिर उस ने बड़े दामाद रोहित को फोन किया. फोन लग गया. ‘‘हैलो’’ आवाज आई.
‘‘हां बेटा, रोहित, मैं बोल रही हूं, वसुधा. वान्या का फोन नहीं लग रहा है, क्या बात हो सकती है?’’
‘‘मम्मीजी, मैं तो इस समय मीटिंग में हूं. आप वान्या को दोबारा फोन मिला लीजिए.’’ और फोन कट गया.
अब वसुधा ने मान्या को फोन मिलाया ‘‘हां, मां, कैसी हो? पता है मां, मैं और दीदी अपने परिवार के साथ यूरोप जा रहे हैं पूरे एक माह के लिए. छुट्टियां वहीं बिताएंगे. बात दरअसल यह है मां कि रोहित जीजा और मेरे पति मृणाल अपनेअपने व्यवसाय में काम करते हुए थक गए हैं, कुछ दिन आराम करना चाहते हैं. सोचा था एक सप्ताह के लिए आप के पास आएंगे लेकिन थोड़ा चेंज भी तो जरूरी है. हां, आप बताएं कोई खास बात है जो इस समय फोन किया.’’
Khatron Ke Khiladi 13 : ‘खतरों के खिलाड़ी 13’ का लोगों को बेस्रबी से इंतजार है. जब से इस सीजन का प्रोमो जारी किया गया है, तभी से फैंस इसे देखने के लिए काफी एक्साइटमेंट है. शो की शूटिंग पूरी हो चुकी है और जल्द ही सभी कंटेस्टेंट्स इंडिया वापस आने वाले हैं.
हाल ही में चैनल की तरफ से शो का नया प्रोमो रिलीज किया गया, जिसमें ‘बिग बॉस 16’ के कंटेस्टेंट शिव ठाकरे (Shiv Thakare) खतरनाक स्टंट करते दिखाई दे रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ अर्चना गौतम (Archana Gautam) उन पर कॉमेंट कर रही हैं.
शो में देखने को मिलेगी शिव-अर्चना की नोकझोंक
रोहित शेट्टी के शो ‘खतरों के खिलाड़ी 13’ (Khatron Ke Khiladi 13) में भी शिव ठाकरे (Shiv Thakare) और अर्चना गौतम की नोकझोंक देखने को मिलेगी. ‘बिग बॉस 16’ में भी दोनों ने लव-हेट रिलेशनशिप शेयर किया था, जिसे दर्शकों का खूब प्यार मिला था.
दरअसल, ‘खतरों के खिलाड़ी 13’ के नए प्रोमो में दिखाया गया है कि एक तरफ जहां शिव पानी और बिजली के झटके वाले स्टंट कर रह रहे हैं और अन्य सभी कंटेस्टेंट् उनका हौसला बड़ रहे है. तो वहीं अर्चना गौतम (Archana Gautam) शिव को चिढ़ाते हुए पूछती हैं, ‘बिग बॉस समझ लिया क्या?’. शो के इस नए प्रोमो को देखने के बाद लग रहा है कि यहां पर भी दोनों ने प्यार और नफरत का रिश्ता साझा किया है.
Rohit Shetty’s Khatron Ke Khiladi 13 will begin airing from 15th July every Saturday and Sunday at 9:00 PM only on COLORS! #KhatronKeKhiladi13 pic.twitter.com/YfNVOBjzCi
— News18 Showsha (@News18Showsha) July 4, 2023
15 जुलाई से शुरू हो रहा है शो
बता दें कि, ‘खतरों के खिलाड़ी सीजन 13’ (Khatron Ke Khiladi 13) 15 जुलाई 2023 से शुरू हो रहा है. जो शनिवार और रविवार रात 9 बजे कलर्स चैनल पर देखने को मिलेगा.
Shehnaaz Gill : बॉलीवुड एक्ट्रेस शहनाज गिल आए दिन सुर्खियों में बनी रहती हैं. उन्होंने अपनी मासूमियत से लाखों लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं, लेकिन हकीकत में उनके दिल में अब तक कोई जगह नहीं बना पाया है. दरअसल हाल ही में अभिनेत्री ने अपने पास्ट रिलेशनशिप का दर्द बयां किया है. एक इंटरव्यू में जब उनसे (Shehnaaz Gill) पूछा गया कि क्या उन्हें कभी प्यार में धोखा मिला है? तो इस पर उन्होंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया और अपने दिल का हाल बताया.
शहनाज- मैनें कभी किसी को धोखा नहीं दिया
इंटरव्यू में शहनाज (Shehnaaz Gill) ने बताया कि उन्होंने कभी भी किसी को प्यार में धोखा नहीं दिया है, लेकिन कई बार उन्हें प्यार में धोखा जरूर मिला है. एक्ट्रेस ने कहा, ‘ आज तक मैंने किसी को भी धोखा नहीं दिया है, लेकिन सबने मुझे दिया है. जो भी गया मुझे छोड़कर गया, क्योंकि जब आपको ये बात पता चल जाती है कि इंसान का उसी समय दो या तीन जगह भी चल रहा है तो वह खुद ब खुद पीछे हट जाता है. वरना मैंने आज तक किसी को भी धोखा नहीं दिया.’
इसके आगे शहनाज ने कहा, ‘अब वो बहुत मजबूत हो गई हैं. धोखा देके चले जाओ, आओ और जाओ, दफा हो जाओ, भाड़ में जाओ.’
सिद्धार्थ को डेट कर रही थीं एक्ट्रेस!
बता दें कि, एक बार ‘बिग बॉस’ में हिमांशी खुराना ने खुलासा किया था कि शहनाज गिल सड़क पर खड़े होकर रो रही थी, क्योंकि उन्हें उनके बॉयफ्रेंड ने ब्रेकअप के बाद सड़क पर छोड़ दिया था.
इसके अलावा खबरों तो ये भी आई थी कि शहनाज गिल (Shehnaaz Gill) ‘बिग बॉस 13’ के विनर सिद्धार्थ शुक्ला को डेट कर रही थीं. यहां तक कि दोनों जल्द ही शादी भी करने वाले थे, लेकिन उससे पहले ही सिद्धार्थ की हार्ट अटैक से मौत हो गई. एक्टर की मौत के बाद शहनाज बुरी तरह से टूट गई थी. वह काफी समय तक सदमे में रही थी, लेकिन अब वह रिलेशनशिप से दूर सिर्फ अपने काम पर ध्यान दे रही हैं.