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सांझ की सखियां : भाग 2

मां ने भी अपनी बेटी के घर रहने के लिए स्वयं को तैयार कर लिया था और सामान पैक करने लगी थीं. आखिर कब तक अकेले रहूंगी, परिस्थिति ही कुछ ऐसी बन गई कि अब बेटी के घर रहना ही होगा. पर निशा की मां मन में खुश भी थी कि अपने नाती के साथ बाकी बचा जीवन कट जाएगा. आखिर पति के न रहने पर जहां असुरक्षा का भाव मन में पैदा हो गया है, वहीं दूसरी तरफ समय न कटने की समस्या भी तो है. तकरीबन 3 माह बाद निशा की मां उषा उन के घर में थी. मिलने पर दोनों मांबेटी गले लग कर जी भर कर रो लीं और मन हलका कर लिया.

अब निशा की भी फिक्र कुछ कम हो गई थी. सुबह देर से सो कर उठती, तो मां नाश्ता तैयार कर लेती. बेटे ऋत्विक के स्कूल के होमवर्क की समस्या भी खत्म हो गई थी. नानी अपने नाती को होमवर्क भी करवा देती.

जिस तरह से न्यूज चैनलों पर कोरोना से हुई मौतें एवं अस्पताल का मंजर दिखाया जा रहा था. हर तरफ दहशत का माहौल था. बाला स्वयं मन में डर रहा था कि उस की मां भी मदुरै में अकेली रहती हैं. रोज अपनी मां के हालचाल फोन पर जान लेता, पर वह भी तो एकलौता बेटा है. आखिर मां की जिम्मेदारी उस पर ही तो है. पिता के न रहने पर मां ने ही तो अकेले रह कर नौकरी कर उसे पालापोसा. जब तक कालेज जाती थी और बात थी. रिटायरमेंट के बाद तो अब सारा दिन घर में अकेली ही रहती हैं. पहले कितना रोब और रुतबा हुआ करता था कालेज की प्राचार्या डा. के. भवानी का. लेकिन अब करीब 70 साल की उम्र, उसपर ये कोरोना. मां अकेले ही तो सब्जी, राशन की व्यवस्था करती है, सोचते हुए बाला एक दिन निशा से बोला, “सोचता हूं मेरी मां भी तो अकेली हैं, उन्हें भी यहां चेन्नई में ले आऊं.”

निशा ने मन ही मन कुछ सोचते हुए हामी भरी और  गरदन हिला कर बोली, “तुम ठीक कहते हो बाला, हम दोनों अपनेअपने मातापिता की एकलौती संतान हैं, ऐसे में उन की जिम्मेदारी हम पर ही तो है.”

बाला ने अपनी मां को फोन पर बात करते हुए चेन्नई सेटल होने के लिए बात की. पहले तो डा. भवानी ने नानुकर की, फिर बोली, “आज नहीं तो कल तुम्हारे पास ही आना है. सोचती थी कि जब तक हाथपैर चलें, किसी पर बोझ न बनूंगी, पर अब ये कोरोना के चलते मन ही मन  स्वयं डरने लगी हूं. इतनी मौतें हो रही हैं पूरे देश में, आसपास में कितने पोजिटिव  केस हुए, कुछ पुनः स्वस्थ हो गए और कुछ जान से हाथ धो बैठे. ऐसे में तुम्हारे सिवा मेरा कौन सहारा है भला.”

अगले माह बाला की मां भी उन के घर में आ गई थीं. हालांकि निशा को मन में कुछ अजीब लग रहा था. दोनों समधिनों में यदि आपस में पटरी न खाई तो वह कैसे संभालेगी दोनों को?

कुछ दिन घर का माहौल बड़ा ही अजीब सा रहा. निशा की मां को घर में परायापन सा महसूस होने लगा. आखिर बेटी की मां जो ठहरी, वह मन ही मन सोचती, भवानी तो इस घर में हक से रह सकती है क्योंकि यह उस के बेटे का घर है. अब वह रसोई में जाती तो थोड़ी हिचकिचाती, क्या पकाऊं? भवानी के सामने तो जैसे उस के हाथ ही न चलते.

बाला की मां शुरू से ही आत्मनिर्भर रही, उस के पति तो बहुत पहले ही गुजर चुके थे. सो न किसी से कुछ उम्मीद थी और न ही कोई सहारा. लेकिन अब बेटे का घर है तो क्या? जब तक हाथपैर चलें काम करो. इसलिए वह भी सुबहसुबह रसोई में काम  करने लग जातीं.

ऋत्विक बहुत ही खुश रहता. कभी दादी  के साथ लूडो खेलता, तो नानी के साथ सांपसीढी. आखिर जब से लौकडाउन हुआ, वह भी तो कितना अकेला सा हो गया था. स्कूल की औनलाइन क्लास और मातापिता दोनों वर्क फ्रोम होम होने से उन्हें उस के लिए समय नहीं था. पहले आया आती थी तो पार्क में खेलने ले जाती थी. किंतु अब कोरोना का खौफ ऐसा कि बच्चे भी पार्क में खेलने नहीं आते और निशा आया को भी नहीं बुला रही है. वह अकेला टीवी भी देखे तो आखिर कब तक? बोर हो जाता था, पर अब तो जैसे दोनों हाथ में लड्डू हैं.

कभीकभार निशा को समस्या आती, जब उस की स्वयं की मां नाश्ते में पोहा बनाना चाहती और बाला की मां इडलीसांभर की तैयारी करती.

अभी तक उन के घर में अकसर उत्तर भारतीय खाना ही बनता रहा था. जब कभी बाला को दक्षिण भारतीय इडली, डोसा, मेंदू बड़ा, सांभर, रसम, अप्पम , पनियारम खाने को जी करता तो वे किसी अच्छे साउथ इंडियन ज्वाइंट में चले जाते.

दूसरी समस्या थी कि निशा की मां तो मारवाड़ी होने के कारण राजस्थान के छोटे से शहर झालावाड़ में रही. वहां कहां दक्षिण भारतीय खाने की महक मिलती थी.

भवानी द्वारा बनाई गई सब्जी पर कसे नारियल से गार्निशिंग, कड़ी पत्ता का छोंक मानो उस के मुंह के स्वाद को बेस्वाद कर देता. लेकिन बाला को अपनी मां के हाथ के खाने का स्वाद मिलता तो जैसे वह निहाल हो जाता. निशा भी अपनी मां का पकाया खाती तो थोड़ा ज्यादा ही खा लेती और पेट भारी हो जाता.

बाला और निशा दोनों तो प्रसन्न थे, पर दोनों समधिनों में आपसी सामंजस्य बैठना भी तो जरूरी था.

निशा की मां सोचती कि सवेरे जल्दी उठ कर वह रसोई संभाल ले, जबकि बाला की मां भवानी भी इसी होड़ में लगी थी.

बाला और निशा दोनों ही इस स्थिति को भलीभांति समझ रहे थे, किंतु दोनों ही बड़े समझदार थे. यह सब तो जब उन्होंने लवमैरिज की थी, तभी समझ लिया था कि उत्तर और दक्षिण भारतीय रीतिरिवाज और खानपान की समस्या घरपरिवार में न आने देंगे.

दोनों ही अपनीअपनी मां को समझने और समझाने में लगे हुए थे.

अतीत का साया : भाग 2

मृदुला ने आगे पढ़ने का लक्ष्य अपने पिता के समक्ष रखा. उन के सहयोग से उस ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री हासिल की और वहीं एक गर्ल्स कालेज में लैक्चरर बन गई.

धीरेधीरे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते अपने बेटे अरुण की ओर मृदुला ने इतना ध्यान लगाया कि वह हर कक्षा में प्रथम आता. एमएससी में भी प्रथम आया. वह चाहती थी कि अरुण आईएएस अफसर बने, पर वह यह भूल गई थी कि उस में तो उस के पिता के संस्कार विद्यमान होंगे.

अरुण ने तो एमएससी करते ही कहा कि पीएचडी करने अमेरिका जाना चाहता है. अब मृदुला एक बार फिर उसी चौराहे पर खड़ी थी, पर अब निर्णय स्वयं को ही लेना था. किसी को दोष दिए बिना, काफी सोचने के बाद और देश के हालात नजर में रख उस ने निश्चय कर लिया कि वह अरुण को अमेरिका भेजेगी, पर वह उस गलती को नहीं दोहराएगी जो अविनाश के मातापिता ने की थी.

उस की सहमति की देर थी कि अरुण ने अमेरिका में दाखिला पाने की तैयारियां शुरू कर दीं. मृदुला को तो तब पता लगा जब उस का दाखिला मिशिगन यूनिवर्सिटी में हो गया और उसे एक अच्छी रिसर्च असिस्टैंटशिप भी मिल गई. देखतेदेखते उस के जाने का समय आ गया.

मृदुला कालेज के दाखिलों में इतनी व्यस्त थी कि वह अरुण की विदेश जाने की तैयारी में भी मदद न कर सकी. वह क्या ले जा रहा था क्या नहीं, यह भी उसे पता नहीं था. एअरपोर्ट छोड़ने तो गई पर उस दिन भी पूरा दिन वह उस के साथ नहीं बिता पाई, क्योंकि कालेज में कोई खास मीटिंग थी.

अपने जाने की खुशी और यारदोस्तों की मुलाकातों में अरुण को भी उस का अभाव नहीं खटका और न ही अरुण के जाने की चिंता और खुद के अकेले रह जाने के एहसास ने मृदुला को ही सताया.

अरुण अमेरिका चला गया. टैलीफोन आते रहते थे. समय मिलता तो कभीकभार पत्र भी लिख देता था. मृदुला अपने कालेज और होस्टल की दुनिया में कुछ ऐसी खो गई कि उसे भी अकेलेपन का एहसास न के बराबर ही था.

समय गुजरता जा रहा था. वह और अरुण दोनों ही अपनीअपनी दुनिया में खोए हुए थे. अरुण को पीएचडी मिलने वाली थी. उस ने लिखा कि मृदुला उस अवसर पर अवश्य आए. यहां सब के मातापिता इस अवसर पर अवश्य आते हैं, ऐसा यहां का चलन है. साथ ही, उस ने यह भी लिख भेजा था, ‘मैं ने आप की बहू बनाने के लिए एक भारतीय मूल की लड़की पसंद कर ली है जो आप को भी अच्छी लगेगी.’

मृदुला उस दिन भी सोच नहीं पाई थी कि खुश हो या दुखी? हर मां की यही इच्छा होती है कि उस का लड़का खूब पढ़े और उस की धूमधाम से शादी हो, पर उस दिन भी अतीत की यादों ने उसे  झक झोर दिया था, मगर उसे यह संतोष जरूर था कि वह अविनाश की तरह तो कुछ नहीं कर रहा है.

ऐसा विचार आते ही उस का मन एक बार फिर प्रफुल्लित हो गया था और वह खो गई थी अमेरिका जाने के विचारों में. सोच रही थी, कामनाएं तो सदैव साकार होती हैं. चाहे स्वप्न में ही क्यों न हों, पर उस की तो इतनी पुरानी इच्छा वास्तव में पूरी होने जा रही थी. यह सोचसोच कर वह ऐसी खुश हो रही थी कि न जाने क्या पा लिया.

मृदुला अमेरिका गई. अरुण और कविता उसे लेने एअरपोर्ट आए. कविता को देखते ही वह सम झ गई थी कि यह वही लड़की है जिस के बारे में अरुण ने लिखा था. अधिक परिचय तो नहीं हुआ, पर वह मन ही मन अरुण की पसंद से संतुष्ट ही नहीं, अतिप्रसन्न भी थी, क्योंकि लड़की बहुत सुंदर व भारतीय संस्कारों में पली लग रही थी.

डिग्री मिलने के बाद अरुण के पास समय ही समय था और सैमेस्टर खत्म होने की वजह से कविता के पास छुट्टियां थीं. सो, दोनों ही मृदुला को घुमाने में लग गए थे.

समय तेजी से बीत रहा था. 15 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा. छुट्टियां खत्म हो गई थीं और जब मृदुला को फ्लैट में अकेले रहना पड़ा था तो उस का ध्यान अरुण के रहनसहन की ओर जाना स्वाभाविक था.

अरुण के एक ग्रुप फोटोग्राफ में एक अधेड़ व्यक्ति को देख कर मृदुला को उस का चेहरा कुछ परिचित सा लगा था, परंतु उस ने यह सोच कर उस विचार को वहीं रफादफा कर दिया कि इस मानसपटल पर ऐसे न जाने कितने लोगों की छवि विद्यमान होगी. फिर भी, जब अरुण आया था तो पूछने पर उस ने बताया था कि उस के बहुत ही नेक एक प्रोफैसर हैं जिन्होंने शुरू में उस की बहुत मदद की थी.

अरुण की यह बात वहीं आईगई हो जाती, परंतु जब वह कविता के घर वालों के निमंत्रण पर उस के घर गई तो उसे ऐसा आघात लगा कि उस की तड़पन वह आज भी भुला नहीं पा रही थी.

हुआ यह कि बातोंबातों में कविता के पिता ने कहा कि उन के मित्र प्रोफैसर अविनाश, जोकि आजकल ‘सेवेटिकल लीव’ पर यूरोप गए हुए हैं, की वजह से कविता की मुलाकात अरुण से हुई. उन का कहना था कि अरुण जैसा मेधावी छात्र उन्होंने पहले कभी नहीं देखा.

कद्रदान : भाग 2

कुछ सामाजिक रीतिरिवाजों को ध्यान में रख कर और कुछ दीप्ति के शौक को देख कर उस ने गृहप्रवेश के समय भोज की व्यवस्था की थी. सभी नजदीकी रिश्तेदारों को न्योता दिया था, हालांकि वह जानता था कि यह सब उस के बजट से बाहर जा रहा है.

पर मकान कौन सा रोजरोज बनता है. नांगल तो होना ही चाहिए. मकान बनाते समय इतने जीवजंतुओं की हत्या होती है तथा बहुत से पेड़पौधों को भी काटा जाता है, इसलिए इन सब के दोष निवारण हेतु हवन, पूजापाठ तथा इसी धरती पर बैठ कर ब्रह्मभोज तो बहुत जरूरी है. ये सभी बातें सुनतेसुनते ही उस ने उम्र पाई थी और इस कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार हो गई थी वरना वह तो इन सब ढकोसलों और फुजूलखर्ची में विश्वास नहीं

रखता था. समीर वैसे भी पूजापाठ और अंधविश्वास से दूर रहने वाला इंसान

था. पर दीप्ति के कहने पर उसे सब मानना पड़ा.

‘‘भैया…’’ प्रेमा ने आते ही समीर को गले से लगा लिया और समीर के भांजेभांजी पूजा और प्रतीक ने शरमा कर अपने मामा के पैर छुए. तब समीर ने कहा, ‘‘चलिए कुंवर साहब, अंदर चलिए. थोड़ा जलपान कर लीजिए. आप सफर से आए हैं, थोड़ा आराम कीजिए. फिर मैं आप को तसल्ली से पूरा

मकान दिखाऊंगा.’’

‘‘अरे भैया, हमें कोई आरामवाराम की जरूरत नहीं है. हम तो सब से पहले मकान देखेंगे. इसी के लिए तो इतनी दूर से आए हैं. जलपान तो हम रास्तेभर करते आए हैं,’’ कुंवर साहब ने सदा की तरह मजाकिया लहजे में कहा और समीर ने दीप्ति को आवाज दी, ‘‘दीप्ति, देखो प्रेमा, कुंवर साहब और बच्चे आ गए हैं. तुम्हें याद कर रहे हैं.’’

समीर की आवाज सुन कर दीप्ति उधर ही आ गई.

‘‘नमस्कार दीदी, नमस्कार कुंवर साहब,’’ उस ने थोड़ा ?ाकते हुए कहा.

‘‘चलो प्रेमा, कुंवर साहब को पहले अपना घर दिखा देते हैं. बाकी काम बाद में करेंगे,’’ समीर ने हंसते हुए कहा.

‘‘ठीक है, जैसी इन की इच्छा.’’

समीर और दीप्ति दोनों आगेआगे और पीछेपीछे प्रेमा और कुंवर साहब व बच्चे चल पड़े.

अपना नवनिर्मित मकान दिखाने का आनंद तो वही जानता है जो पहले तो बड़े लगन, परिश्रम और अर्थभार को सहन कर के अपने सपनों का महल बनवाता है और उस की नजरों में वही मकान दुनिया का सब से सुंदर तथा सुखसुविधा संपन्न घर होता है.

‘‘यह देखो प्रेमा, यह ड्राइंगरूम है. सामने वाली दीवार पर जो वालपेपर लगा है, वह दीप्ति की पसंद का है और इस में जो सोफा रखा है वह मेरी पसंद का. यानी कि यह ड्राइंगरूम हम दोनों की मिलीजुली पसंद का है,’’ समीर ने ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘बहुत सुंदर है और कितना बड़ा भी. भैया, इस में 20-22 मेहमान भी एकसाथ आ जाएं तो भी यह खालीखाली लगेगा.’’

‘‘मम्मी, यह सोफा कितना सुंदर है,’’ प्रेमा की बेटी ने सोफे पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘और कितना सौफ्ट भी,’’ कह कर

उस पर बैठ कर उछलने लगी.

‘‘नहीं बेटा, ऐसे नहीं उछलते. खराब हो जाएगा,’’ कह कर प्रेमा ने ?ाट से उसे हाथ पकड़ कर उठा दिया और वह बच्ची सकुचाई सी एक ओर खड़ी हो गई मानो उस ने कितना बड़ा अपराध किया हो.

‘‘यह देखो, यह रसोई है. इस की टाइल्स देखो, कितनी सुंदर हैं.’’

‘‘हां भैया, बहुत सुंदर हैं. एक कपड़ा घुमाया और सब साफ,’’ फिर अपने पति की ओर मुंह कर के बोली, ‘‘सुनोजी, जब हम घर बनवाएंगे तो हम भी ऐसी ही टाइल्स लगवाएंगे अपनी रसोई में. देखिए न, ये दराजें कितनी सुंदर हैं और कितनी आरामदायक भी,’’ प्रेमा ने एक दराज को खोलते हुए कहा, ‘‘कितना भी सामान रख लो इन के अंदर, बाहर कुछ दिखाई नहीं देता. रसोई हमेशा साफसुथरी लगती है.’’

‘‘मैं ने तो तुम्हारे भैया से पहले ही कह दिया था कि मु?ो मौड्यूलर किचन चाहिए. चिमनी भी पहले ही लगवा ली है ताकि चिकनाई से रसोई खराब न हो. थोड़ा बजट ज्यादा हो गया पर एक बार जो हो जाए, बाद में सब होना मुश्किल हो जाता है,’’ दीप्ति ने बड़े गर्व के साथ कहा.

‘‘अरे भाई, आप लोगों के लिए क्या मुश्किल है. अब हमारे जैसों की बात करो तो फिर भी सोचना पड़ता है,’’ प्रेमा के पति ने समीर की पीठ पर जोर से हाथ मारते हुए कहा और समीर का चेहरा आत्मसम्मान से भर गया और वह और भी पुलकित मन से घर दिखाने लगा.

जैसेजैसे प्रेमा और उस के परिवार के सभी सदस्य उन के मकान को देखते जा रहे थे और उन की प्रशंसा कर रहे थे, समीर का मन आत्मसंतोष से भरता जा रहा था.

पर प्रेमा की बातों से उन्हें बारबार यह भी लग रहा था कि यह सब देख कर उन की बहन को अपनी आर्थिक विपन्नता का एहसास हो रहा है. जिस लालसाभरी नजरों से बच्चे कभी बाथरूम के नलों को हाथ लगा कर, कभी रेशमी परदों को छू कर अपनी बालसुलभता दर्शा रहे थे, उस से यह साफ जाहिर था कि उन्हें यह घर एक शानदार महल से कम नहीं लग रहा था. खैर, यह तो अपनाअपना संयोग है, इस में वह कर भी क्या सकता था. हां, एक भाई के रूप में वह उसे यथासंभव सहयोग अवश्य दे सकता था.

पर इंसान की मानसिकता ऐसी होती है कि जितना उस के पास होता है उसे उतना ही कम लगता है. सो, समीर और दीप्ति कभी अपनी बहन की अधिक सहायता नहीं कर पाते थे क्योंकि उन की कमाई उन की स्वयं की इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही कम पड़ती नजर आती थी.

‘‘प्रेमा, यह देखो यह बाहर लौन की जगह है. थोड़े ही दिनों में यहां पर हरीभरी घास और रंगबिरंगे फूल लग जाएंगे तो यह घर और शानदार लगेगा. यह गाड़ी की पार्किंग, यह देखो मेन गेट पर जो लैंप लगे हैं, वे इंपोर्टेड हैं.’’

रात के खाने का वक्त हो चला था. अब सभी के पेट में चूहे कूदने लगे थे और थकान भी महसूस होने लगी थी, इसलिए मकान देखनेदिखाने के सिलसिले को वहीं विराम दे कर सभी दूसरे कामों में व्यस्त हो गए.

‘‘अरे समीर, तू ने मु?ो लिवाने के लिए यह खटारा सी गाड़ी क्यों भेज दी? इस का एसी तो शायद काम ही नहीं करता,’’ प्रभा दीदी ने घर में घुसते ही समीर को उलाहना दिया.

प्रभा समीर की बड़ी बहन थीं. कुदरत उस का विवाह एक अतिसंपन्न घराने में हुआ था, सो मायके में उस की तूती बोलती थी.

प्रभा की बात सुनते ही समीर सकपका गया और उसे अपनी एक वर्ष पूर्व खरीदी गई गाड़ी सचमुच खटारा लगने लगी पर फिर भी हिम्मत कर के वह बोला, ‘‘नहीं दीदी, एसी तो ठीक ही काम करता है. दरअसल, गरमी ही बहुत है. आप ठहरीं महलों में रहने वाली, आप को जरा भी कष्ट की आदत नहीं है. सो, अब आप थक गई होंगी. आप जा कर थोड़ा आराम कर लीजिए. हम ने आप के कमरे का एसी पहले से ही औन कर रखा है ताकि कमरा ठंडा हो जाए.’’

फिर इतनी ही देर में दीप्ति दौड़ीदौड़ी उधर आई और थोड़ा ?ाकते हुए बोली, ‘‘नमस्कार दीदी, मैं ने आप के लिए गाड़ी भिजवा दी थी. कहीं लेट तो नहीं हो गई थीं?’’

प्रभा ने दीप्ति की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. बस, रहस्यमयी तरीके से मुसकरा दी और बोली, ‘‘अब तू मु?ो मेरा कमरा दिखा दे. मैं यह कपड़े बदलूंगी. बाप रे, इस प्योर शिफौन की साड़ी में भी कितनी गरमी लग रही है. न जाने लोग सस्ते सिंथैटिक कपड़े कैसे पहनते हैं? हां, मेरे नहाने के पानी में बर्फ भी डलवा देना. सूरज निकल आया है. टंकी का पानी गरम हो गया होगा. हां, और नहाने के बाद मैं शिकंजी लूंगी और नीबू ज्यादा मत निचोड़ना, शिकंजी कड़वी हो जाती है. चीनी कम डालना. शुगरफ्री हो तो वह ठीक रहेगी.’’

सफर कुछ थम सा गया : भाग 2

जया कह उठती, ‘‘बताओ तो, तुम्हारी अनदेखी कब की? सूरज, बाकी सब बाद  में… मेरे दिल में पहला स्थान तो सिर्फ तुम्हारा है.’’

सूरज उसे बांहों में भींच कह उठता, ‘‘क्या मैं यह जानता नहीं?’’

उदय 4 साल का होने को आया. सूरज अकसर कहने लगा, ‘‘घर में तुम्हारे जैसी गुडि़या आनी चाहिए अब तो.’’

एक दिन घर में घुसते ही सूरज चहका, ‘‘भेलपूरी,’’ फिर सूंघते हुए किचन में चला आया, ‘‘जल्दी से चखा दो.’’

भेलपूरी सूरज की बहुत बड़ी कमजोरी थी. सुबह, दोपहर, शाम, रात भेलपूरी खाने को वह हमेशा तैयार रहता.

सूरज की आतुरता देख जया हंस दी, ‘‘डाक्टर हो, औरों को तो कहते हो बाहर से आए हो, पहले हाथमुंह धो लो फिर कुछ खाना और खुद गंदे हाथ चले आए.’’

सूरज ने जया के सामने जा कर मुंह खोल दिया, ‘‘तुम्हारे हाथ तो साफ हैं. तुम खिला दो.’’

‘‘तुम बच्चों से बढ़ कर हो,’’ हंसती जया ने चम्मच भर भेलपूरी उस के मुंह में डाल दी.

‘‘कमाल की बनी है. मेज पर लगाओ. मैं हाथमुंह धो कर अभी हाजिर हुआ.’’

‘‘एक प्लेट से मेरा क्या होगा. और दो भई,’’ मेज पर आते ही सूरज ने एक प्लेट फटाफट चट कर ली.

तभी फोन की घंटी टनटना उठी. फोन सुन सूरज गंभीर हो गया, ‘‘मुझे अभी जाना होगा. हमारा एक ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो गया. हमारे कुछ अफसर, कुछ जवान घायल हैं.’’

जया भेलपूरी की एक और प्लेट ले आई और सूरज की प्लेट में डालने लगी तो ‘‘जानू, अब तो आ कर ही खाऊंगा. मेरे लिए बचा कर रखना,’’ कह सूरज बाहर जीप में जा बैठा.

ट्रक दुर्घटना जया की जिंदगी की भयंकर दुर्घटना बन गई. फुल स्पीड से जीप भगाता सूरज एक मोड़ के दूसरी तरफ से आते ट्रक को नहीं देख सका. हैड औन भिडंत. जीप के परखचे उड़ गए. जीप में सवार चारों लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया.

जया की पीड़ा शब्दों में बयां नहीं की जा सकती. वह 3 दिन बेहोश रही. घर मेहमानों से भर गया. पर चारों ओर मरघट सा सन्नाटा. घर ही क्यों, पूरी कालोनी स्तब्ध.

जया की ससुराल, मायके से लोग आए. उन्होंने जया से अपने साथ चलने की बात भी कही. लेकिन उस ने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया. सासससुर कुछ दिन ठहर चले गए.

जया एकदम गुमसुम हो गई. बुत बन गई. बेटे उदय की बातों तक का जवाब नहीं. वह इस सचाई को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि सूरज चला गया है, उसे अकेला छोड़. जीप की आवाज सुनते ही आंखें दरवाजे की ओर उठ जातीं.

इंसान चला जाता है पर पीछे कितने काम छोड़ जाता है. मृत्यु भी अपना हिसाब मांगती है. डैथ सर्टिफिकेट, पैंशन, बीमे का काम, दफ्तर के काम. जया ने सब कुछ ससुर पर छोड़ दिया. दफ्तर वालों ने पूरी मदद की. आननफानन सब फौर्मैलिटीज पूरी हो गईं.

इस वक्त 2 बातें एकसाथ हुईं, जिन्होंने जया को झंझोड़ कर चैतन्य कर दिया. सूरज के बीमे के क्व5 लाख का चैक जया के नाम से आया. जया ने अनमने भाव से दस्तखत कर ससुर को जमा कराने के लिए दे दिया.

एक दिन उस ने धीमी सी फुसफुसाहट सुनी, ‘‘बेटे को पालपोस कर हम ने बड़ा किया, ये 5 लाख बहू के कैसे हुए?’’ सास का स्वर था.

‘‘सरकारी नियम है. शादी के बाद हकदार पत्नी हो जाती है,’’ सास ने कहा.

‘‘बेटे की पत्नी हमारी बहू है. हम जैसा चाहेंगे, उसे वैसा करना होगा. जया हमारे साथ जाएगी. वहां देख लेंगे.’’

जया की सांस थम गई. एक झटके में उस की आंख खुल गई. ऐसी मन:स्थिति में उस ने उदय को अपने दोस्त से कहते सुना, ‘‘सब कहते हैं पापा मर गए. कभी नहीं आएंगे. मुझ से तो मेरी मम्मी भी छिन गईं… मुझ से बोलती नहीं, खेलती नहीं, प्यार भी नहीं करतीं. दादीजी कह रही थीं हमें अपने साथ ले जाएंगी. तब तो तू भी मुझ से छिन जाएगा…’’

पाषाण बनी जया फूटफूट कर रो पड़ी. उसे क्या हो गया था? अपने उदय के प्रति इतनी बेपरवाह कैसे हो गई? 4 साल के बच्चे पर क्या गुजर रही होगी? उस के पापा चले गए तो मुझे लगा मेरा दुख सब से बड़ा है. मैं बच्चे को भूल गई. यह तो मुरझा जाएगा.

उसी दिन एक बात और हुई. शाम को मेजर देशपांडे की मां जया से मिलने आईं. वे जया को बेटी समान मानती थीं. वे जया के कमरे में ही आ कर बैठीं. फिर इधरउधर की बातों के बाद बोलीं, ‘‘खबर है कि तुम सासससुर के साथ जा रही हो? मैं तुम्हारीकोई नहीं होती पर तुम से सगी बेटी सा स्नेह हो गया है, इसलिए कहती हूं वहां जा कर तुम और उदय क्या खुश रह सकोगे? सोच कर देखो, तुम्हारी जिंदगी की शक्ल क्या होगी? तुम खुल कर जी पाओगी? बच्चा भी मुरझा जाएगा.

क्या आप का बिल चुका सकती हूं : भाग 2

‘‘अज्ञात ऐडवैंचर. मैं लगातार घूमती हूं. अपना खुद का तकिया और चादर भी साथ रखती हूं, ताकि देह जहां तक हो, बनी रहे लेकिन जानती हूं कि मेरे हाथ में कल नहीं है.’’

वह मुसकराया, ‘‘इस क्षण मेरे लिए क्या सोचती हैं आप?’’

मैं हंसी, ‘‘इतना तो तय हो ही सकता है कि मैं अपने खाएपिए के अपने हिस्से का हिसाब चुकता करूं…तुम्हें ‘आप’ कह कर तुम से मिला हुआ परिचय तुम्हें लौटाऊं और हम अपनाअपना रास्ता लें.’’

‘‘ऐसा रास्ता है क्या, जिस पर सामने ठिठक जाने वाले लोग मिलते ही नहीं? ऐसा परिचय होता है क्या जिसे समूचा पोंछा जा सके? और अनाम रिश्तों में ‘तुम’ से ‘आप’ हो जाने से क्या होता है?’’

‘‘कुछ लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं…और साथ में इतने अद्भुत कि हर पल उन का ही ध्यान रहता है? और इतने अपवाद क्यों?…कि या तो किताबों में मिलें या ख्वाबों में…या मिल ही जाएं तो बिछड़ जाने को ही मिलें?’’ वह बोला.

मैं उस की आंखों में उभरती तरलता को देखती रही. वह कहता रहा…

‘‘हम जब किसी से मिलते हैं तो उस मिलन की उमंग को धीरेधीरे फीका क्यों कर देते हैं? जिंदा रहते भी उसे मार क्यों देते हैं?’’

‘‘अधिक निकटता और अधिक दूरी हमें एकदूसरे को समझने नहीं देती…’’ मैं उस से एक गहरा संवाद करने के मूड में आ गई, ‘‘हमें एक ऐसा रास्ता बने रहने देना होता है, जो खत्म नहीं होता, वरना उस के खत्म होते ही हम भी खत्म हो जाते हैं और हमारा वहम टूट जाता है.’’

उस ने मेरी आंखों में देखा और कहना शुरू किया, ‘‘जिन्हें जीना आता है वे किसी रास्ते के खत्म होने से नहीं डरते, बल्कि उस के सीमांत के पार के लिए रोमांचित रहते हैं. भ्रम तब तक बना रहता है जब तक हम आगे के दृश्यों से बचना चाहते हैं…सच तो यह है कि रास्ते कभी खत्म नहीं होते…न ही भ्रम…अनदेखे सच तक जाने के लिए भ्रम ही तो बनते हैं. किश्तियों के डूबने से पता नहीं हम डरते क्यों हैं?’’

मैं उसे ध्यान से सुनने लगी.

‘‘सुखी, संतुष्ट बने रहने के लिए हम औसत व्यक्ति बन जाते हैं, जबकि चाहतें अनंत हैं…दूरदूर तक.’’

‘‘कभीकभी हम सहमत हो कर भी अलग तलों पर नजर आते हैं…मैं तुम्हारी इस बात को शह दूं तो कहूंगी कि मैं वहां खत्म नहीं होना चाहती जहां मैं ‘मुझ’ से ही मिल कर रह जाऊं…मुझे अपनी हर हद से आगे जाना है. अपने कदमों को नया जोखिम देने के लिए अपनी हर पिछली पगडंडी तोड़नी है…’’

वह हंसा. कहने लगा, ‘‘पर इस लड़खड़ाती खानाबदोशी में हम जल्दबाज हो कर अपने को ही चूक जाते हैं. इसी में हमारी बेचैनियां आगे दौड़ने की लत पाल लेती हैं. क्या ऐसा नहीं?’’

मैं सोचने लगी कि अब हम एकदूसरे के साथ भी हैं और नहीं भी.

मुझे चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘विवाह को आप कैसे देखती हैं?’’

‘‘अनचाही चीज का पल्ले पड़ जाने वाली एक वाहियात रस्म.’’

वह फिर हंस कर बोला, ‘‘विवाहित या अविवाहित होना मुझे बाहर की नहीं, भीतर की घटना लगती है. जीना नहीं आता हो तो सारी इच्छाएं पूरी हो जाने पर भी बेमतलब के साथ से हम नहीं बच पाते. ज्यादातर लोग विवाहित हो कर ही इस से बच सकते हैं…या दूसरे को बचा सकते हैं, ऐसे ही किसी संबंध में आ कर. हालांकि मैं नहीं मानता कि मनुष्य नामक स्थिति की अभी रचना हो भी सकी है…मनुष्य जिसे कहा जाता है वह शायद भविष्य के गर्भ में है, वरना विवाह की या किसी भी स्थापित संबंध की जरूरत कहां है? हम अकसर अपने से ही संबंधित हो कर आकाश खोजते रह जाते हैं…’’

फिर हम झील में बदलते नजारों में डूबने का अभिनय सा करते रहे.

चुप्पी लंबी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘उस रोज तुम ने मेरी पुकार नहीं सुनी और चले गए…मुझ से बचना चाहा तुम ने…मगर आज क्यों तुम ने मुझे पुकारा?’’

वह मेरे चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आप अकेली बैठी थीं. कितनी ही देर से आप के चेहरे पर अकेलेपन की मायूसी देखता रहा, कैसे न पुकारता? पुकारने से बचना और किसी मायूस से बच कर भागना एक ही बात है. कैसी विडंबना है…अब सोच रहा हूं, आप से यह भी नहीं पूछा कि आप करती क्या हैं?’’

मैं यह सोच कर हंसी कि फंस गए बच्चू, इस दुनिया में बहुत कुछ तय नहीं किया जा सकता. अगर किया भी जा सके तो अगले ही पल वह होता है जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

वह चुप रहा. काफी देर के बाद उस ने पूछा, ‘‘घर से निकलते वक्त आप के मन में क्या होता है?’’

अटूट बंधन : भाग 2

त्रिशा अपनी आदत के अनुसार मुसकरा उठी. शालिनी को जरा परे धकेलते हुए बोली, ‘‘जाओ, मैं नहीं करती तुम से बात. जब देखो एक ही रट.’’

तभी अचानक त्रिशा का मोबाइल बज उठा. ‘‘उफ, कितनी लंबी उम्र है उन की. नाम लिया और फोन हाजिर,’’ शालिनी उछल पड़ी. ‘‘खूब इत्मीनान से जी हलका कर लो. मैं तो चली,’’ कहती हुई शालिनी कमरे से बाहर निकल गई.

दरअसल, बात यह थी कि कुछ ही दिनों में त्रिशा का प्रेमविवाह होने वाला था. डा. आजाद, जिन से जल्द ही त्रिशा का विवाह होने वाला था, लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक थे. त्रिशा और आजाद ने दिल्ली के एक स्पैशल स्कूल से साथसाथ ही पढ़ाई पूरी की थी. उस के बाद आजाद अपने घर लखनऊ वापस आ गए थे. वहीं से उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की और फिर अपनी रिसर्च भी पूरी की. रिसर्च पूरी करने के कुछ ही दिनों बाद उन्हें यूनिवर्सिटी में ही जौब मिल गई. ऐसा लगता था कि त्रिशा और आजाद एकदूसरे के लिए ही बने थे.

स्कूल में लगातार पनपने वाला लगाव  और आकर्षण एकदूसरे से दूर हो कर प्यार में कब बदल गया, पता ही नहीं चला. शीघ्र ही दोनों ने विवाह के अटूट बंधन में बंधने का फैसला कर लिया. दोनों के न देख पाने के कारण जाहिर है परिवार वालों को स्वीकृति देने में कुछ समय तो लगा, पर उन दोनों के आत्मविश्वास और निश्छल प्रेम के आगे एकएक कर सब को झुकना ही पड़ा.

त्रिशा के बेंगलुरु आने के बाद आजाद बहुत खुश थे. ‘‘चलो अच्छा है, वहां तुम्हें इतने अच्छे दोस्त मिल गए हैं. अब मुझे तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करनी पड़ेगी.’’

‘‘अच्छी बात तो है, पर इस बेफिक्री का यह मतलब नहीं कि आप हमें भूल जाएं,’’ त्रिशा आजाद को परेशान करने के लिए यह कहती तो आजाद का जवाब हमेशा यही होता, ‘‘खुद को भी कोई भूल सकता है क्या.’’

आज जब त्रिशा आजाद से बात कर रही थी तो आजाद को समझते देर न लगी कि त्रिशा आज उन से कुछ छिपा रही है, ‘‘क्या बात है, आज तुम कुछ परेशान हो?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘त्रिशा, इंसान अगर खुद से ही कुछ छिपाना चाहे तो नहीं छिपा सकता,’’ आजाद की आवाज में कुछ ऐसा था, जिसे सुन कर त्रिशा की आंखें डबडबा आईं. ‘‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मैं आप से कल बात करती हूं,’’ यह कह कर त्रिशा ने फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

अगले दिन त्रिशा और प्रकाश के बीच औफिस में भी कोई बात नहीं हुई. ऐसा पहली बार ही हुआ था. प्रकाश का मिजाज आज एकदम उखड़ाउखड़ा था.

‘‘चलो,’’ शाम को उस ने त्रिशा के पास आ कर कहा. रास्तेभर दोनों ने कोई बात नहीं की. होस्टल आने ही वाला था कि त्रिशा ने खीझ कर कहा, ‘‘तुम कुछ बोलोगे भी कि नहीं?’’

‘‘मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए.’’

कितनी डूबती हुई आवाज थी प्रकाश की. 3 साल में त्रिशा ने प्रकाश को इतना खोया हुआ कभी नहीं देखा था. पिछले 2 दिन में प्रकाश में जो बदलाव आए थे, उन पर गौर कर के त्रिशा सहम गई. ‘क्या वाकई प्रकाश… क्या प्रकाश… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,’ त्रिशा का मन विचलित हो उठा. ‘मुझे तुम से कल बात करनी है. कल छुट्टी भी है. कल सुबह 11 बजे मिलते हैं. गुडनाइट,’’ कहते हुए त्रिशा गाड़ी से उतर गई.

जैसा तय था, अगले दिन दोनों 11 बजे मिले. बिना कुछ कहेसुने दोनों के कदम अनायास ही पार्क की ओर बढ़ते चले गए. त्रिशा के होस्टल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही शहर का सब से बड़ा व खूबसूरत पार्क था. ऐसे ही छुट्टी के दिनों में न जाने कितनी ही बार वे दोनों यहां आ चुके थे. पार्क के भीतरी गेट पर पहुंच कर दोनों को ऐसा लगा जैसे आज असाधारण भीड़ उमड़ पड़ी हो.

भीड़भाड़ और चहलपहल तो हमेशा ही रहती है यहां, पर आज की भीड़ में कुछ खास था. सैकड़ों जोड़े एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले अंदर चले जा रहे थे. बहुतों के हाथ में गुलाब का फूल, किसी के पास चौकलेट तो किसी के हाथ में गिफ्ट पैक. पर प्रकाश का मन इतना अशांत था कि वह कुछ समझ ही नहीं सका.

हवा जोरों से चलने लगी थी. बादलों की गड़गड़ाहट सुन कर ऐसा मालूम होता था कि किसी भी पल बरस पड़ेंगे. मौसम की तरह प्रकाश का मन भी आशंकाओं से घिर आया था. त्रिशा को लगा, शायद आज यहां नहीं आना चाहिए था. तभी अचानक उस का मोबाइल बज उठा. ‘‘हैप्पी वैलेंटाइंस डे, मैडम,’’ आजाद की आवाज थी.

‘‘ओह, मैं तो बिलकुल भूल ही गई थी,’’ त्रिशा बोली.

‘‘आजकल आप भूलती बहुत हैं. कोई बात नहीं. अब आप का गिफ्ट नहीं मिलेगा, बस, इतनी सी सजा है,’’ आजाद ने आगे कहा, ‘‘अच्छा, अभी हम थोड़ा जल्दी में हैं. शाम को बात करते हैं.’’

आज बैंच खाली मिलने का तो सवाल नहीं था. सो, साफसुथरी जगह देख दोनों घास पर ही बैठ गए. त्रिशा अकस्मात पूछ बैठी, ‘‘क्या तुम वाकई सीरियस हो?’’

‘‘तुम समझती हो कि मैं मजाक कर रहा हूं?’’ प्रकाश का स्वर रोंआसा हो उठा.

पहला विदोही : भाग 2

‘‘ऐसा नहीं होगा, तुम्हारे प्रेम के प्रतिदान में मैं तुम्हें अपने साथ प्रतिष्ठित करूंगा. तुम विश्वास रखो,’’ पृषघ्र ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘मेरे लिए यही प्रतिदान पर्याप्त है कि आप ने मेरे प्रेम को स्वीकार किया. ऋषियों द्वारा स्थापित इन कठोर नियमों और परंपराओं को तोड़ना सरल नहीं है, कुमार. परंपराओं और नियमों की चट्टानों से हम सिर फोड़तेफोड़ते मृत्युपर्यंत विजयी नहीं हो सकेंगे. आप अपना शिक्षण पूर्ण कर राजगृह को लौट जाएंगे और यह गुर्णवी यथावत ‘गुर्णवी’ ही रह जाएगी.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होगा. मैं शक्ति के बल पर इस सनातनी व्यवस्था को बदल दूंगा.’’

‘‘मैं जानती हूं कुमार, आप जैसा क्षत्रिय वीर दूरदूर तक नहीं है. आप की तलवार की गति मैं ने देखी है. आप के धनुष की टंकार भी सुनी है और बाणों को आप की आज्ञा के प्रतिकूल जाते कभी नहीं पाया. आप केवल आप ही हैं परंतु केवल शस्त्रों से तो समाज नहीं बदल सकता. मु  झे लगता है, हम दोनों को एकदूसरे तक पहुंचने में हजारों वर्ष लगेंगे.’’

‘‘तुम्हें मु  झ पर विश्वास नहीं है या चुनौती दे रही हो?’’ गंभीर स्वर में पृषघ्र ने पूछा.

‘‘मैं एक अबला और उस पर भी शूद्रा, भला आप को क्या चुनौती दे सकती हूं. परंतु मैं ने जो भी कहा है वह यथार्थ है, नभ में चमकते इस चंद्रमा की तरह,’’ कहते हुए उस ने आकाश में चमकते चंद्रमा को इंगित किया.

‘‘नहीं, गुर्णवी, तुम ने पृषघ्र को केवल चाहा है, प्रेम किया है. उस की शक्ति और बाह्य रूप को देखा है, उस के अंतर्मन को नहीं जाना. आओ, तुम्हें विश्वास दिला दूं,’’ कहते हुए पृषघ्र ने उस का हाथ पकड़ा और   झटके से उठा कर अपने बाईर्ं ओर चट्टान पर खड़ा कर लिया.

‘‘सुनो, दसों दिशाओे, दिग्पालो और पंचभूतात्माओ, सभी मेरी घोषणा सुनो. मैं वैवस्वत मनु का पुत्र, कुमार पृषघ्र आज से, इसी क्षण से इस गुर्णवी (जूती) को, जो शूद्री (अछूत कन्या) है, शूद्रता से मुक्त करता हूं. इस का नाम अब से गुणमाला होगा,’’ कुमार की यह घोषणा रात्रि के अंधकार में गूंज उठी.

परंतु यह घोषणा गुणमाला को प्रसन्न न कर सकी. वह वसिष्ठ के भय से आतंकित हो, स्थिर नेत्रों से पृषघ्र को देखती रह गई.

‘‘चलो, गुणमाला, तुम्हें तुम्हारे आवास पर पहुंचा दूं,’’ कुमार ने उस की कटि में अपनी दीर्घ भुजा डाल कर कहा, ‘‘अब तुम निश्ंिचत और प्रसन्न रहो. मेरी शिक्षा पूर्ण होने पर यथासमय हम विवाह करेंगे. तुम राजरानी बनोगी,’’ पृषघ्र ने हथेली से उस का चेहरा थपथपा दिया.

उस मृगनयनी के अश्रु छलक गए.

कुमार पृषघ्र की घोषणा वायुमंडल में गूंजती हुई ऋषिवर वसिष्ठ तक भी पहुंची. वे विचलित हो गए. वसिष्ठ गुणमाला के बुद्धिकौशल और अनुपम रूपराशि के जादू से परिचित थे. उन्हें लगा, धरती पैरों तले खिसक रही है और वे शून्य में गिरते चले जा रहे हैं, कहीं ठौर नहीं मिल रहा है.

एकाएक वे सावधान हो कर बैठ गए, ‘कुछ करना ही होगा. यह युवक संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर देगा,’ वे सोचते रहे, ‘हो सकता है, पृषघ्र उस से विवाह भी करना चाहे. तब तो ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व ही समाप्त हो जाएगा क्योंकि वर्चस्व की सारी शक्तियां क्षत्रियों के बल पर ही तो आश्रित हैं. यदि शूद्र स्त्रियां क्षत्रियों के हृदय मार्ग से हो कर महलों में प्रवेश कर गईं तो राजा और राजनीति दोनों ही ब्राह्मणों के हाथों से चली जाएंगी. और जिस दिन ऐसा होगा, इन के सारे घाव हरे हो जाएंगे…और फिर…फिर…’ भयानक बदले के एहसास से वे कांप उठे.

प्रात: हवन आदि के पश्चात ऋषि वसिष्ठ ने सभी शिष्यों की उपस्थिति में पृषघ्र से कठोर स्वर में पूछा, ‘‘तुम ने कल रात क्या अनर्थ किया, जानते हो?’’

‘‘क्या अनर्थ किया है?’’ शांत स्वर में उस ने प्रतिप्रश्न किया.

‘‘भोले मत बनो कुमार, तुम ने एक शूद्र कन्या को उस की शूद्रता से मुक्त किया है. तुम पतित हो रहे हो.’’

‘‘मैं पतित हो रहा हूं, पर कैसे? एक नारी को शूद्रता की दासता से मुक्त करने से मैं पतित कैसे हो गया, गुरुदेव?’’ पृषघ्र का स्वर अत्यंत नम्र था.

‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकते. ऐसा करने से एक क्रम बन सकता है जो हमारी सामाजिक व्यवस्था को छिन्न- भिन्न कर देगा,’’ वसिष्ठ कठोर स्वर में बोले.

‘‘यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है गुरुदेव, जिस में मानव ही मानव को हेयदृष्टि से देखता है, उस का शोषण और तिरस्कार करता है. इस व्यवस्था को बदलना होगा.’’

‘‘किसी भी बदलाव के लिए न तो तुम अधिकृत हो और न ही सक्षम. यह कार्य हम ऋषियों की अनुमति के बगैर नहीं हो सकता. तुम होते कौन हो?’’ गुरु वसिष्ठ क्रोधित होने लगे.

‘‘क्षमा करें, गुरुदेव मैं यह कार्य प्रारंभ कर चुका हूं. जैसे प्रकृति अपने परिवर्तन के लिए किसी की मोहताज नहीं होती वैसे ही मैं ने भी शुरुआत की है,’’ पृषघ्र बोला.

‘‘तुम उद्दंड हो रहे हो,’’ क्रोधावेश में वसिष्ठ बोले, ‘‘आज तुम ने उस शूद्री को मुक्त करने की बात की है और कल उस से विवाह भी कर सकते हो.’’

‘‘हां, गुरुदेव, शिक्षा पूर्ण होते ही मैं उसे अपनी अर्धांगिनी बनाऊंगा,’’ पृषघ्र ने शांत भाव से उत्तर दिया.

वसिष्ठ की आशंका सच निकली. ‘कल को तो यह समस्त शूद्र जाति को सवर्णों में सम्मिलित कर देगा. क्रोध से यह मानने वाला नहीं लगता. कोई युक्ति करनी होगी,’ उन्होंने विचार किया.

‘‘तुम क्या कह रहे हो, पुत्र? तुम उस से विवाह भी करोगे, यह कैसे हो सकता है? तुम जानते हो, एक शूद्री से उत्पन्न की हुई जारज संतान तुम्हारी उत्तराधिकारी नहीं हो सकेगी. उसे कोई मान्यता नहीं देगा. तुम राजवंशी हो और वह एक छोटे कुल की स्त्री,’’ वसिष्ठ ने कोमल स्वर में सम  झाने का प्रयास किया.

‘‘नहीं, गुरुदेव, छोटे या घटिया तो कर्म होते हैं, कोई कुल नहीं…और स्त्री तो धरती है. धरती की कोई जाति नहीं होती. वह तो बीज (पुरुष) है, जो विभिन्न किस्मों में उगता है. इस में धरती का कोई दोष नहीं होता. दोषी तो बीज होता है.’’

कैक्टस के फूल : भाग 2

ममता पटना में केंद्रीय विद्यालय में अध्यापिका थी और सौरभ भी उन दिनों वहीं कार्यरत था. छुट्टियों के बाद पटना जा कर पहला काम जो उस ने किया वह था ममता से मुलाकात. स्कूल के अहाते में अमलतास के पीले गुच्छों वाले फूलों की पृष्ठभूमि में ममता का सौंदर्य और भी दीप्त हो आया था. वह तो ठगा सा रह गया किंतु तब भी ममता ने यथार्थ की खुरदरी बातें ही की थीं, ‘‘वह विवाह के बाद भी नौकरी करना चाहती है क्योंकि इतनी अच्छी स्थायी नौकरी छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है.’’

सौरभ तो उस समय भावनाओं के ज्वार में बह रहा था. ममता जो भी शर्त रखती वह उसे मान लेता फिर इस में तो कोई अड़चन नहीं थी. दोनों को पटना में ही रहना था. अड़चन आई 6 वर्ष बाद जब सौरभ का स्थानांतरण बिहार शरीफ के लिए हो गया. उस की हार्दिक इच्छा थी कि ममता नौकरी छोड़ दे और उस के साथ चले. 5 वर्ष की मीनी का उसी वर्ष ममता के स्कूल में पहली कक्षा में प्रवेश हुआ था. चीनी साढ़े 3 वर्ष की थी. वैसे सौरभ नौकरी छोड़ने को न कहता यदि ममता का तबादला हो सकता. वह केंद्रीय विद्यालय में थी और प्रत्येक शहर में तो केंद्रीय विद्यालय होते नहीं. परंतु ममता इस के लिए किसी प्रकार सहमत नहीं थी. उस के तर्क में पर्याप्त बल था. सौरभ के कई सहकर्मियों ने बच्चों की शिक्षा के लिए अपने परिवार को पटना में रख छोड़ा था. उन लोगों की बदली छोटेबड़े शहरों में होती रहती है. सब जगह बढि़या स्कूल तो होते नहीं. फिर आज मीनीचीनी छोटी हैं कल को बड़ी होंगी.

उस ने अपनी नौकरी के संबंध में कुछ नहीं कहा था परंतु सौरभ नादान तो नहीं था. मन मार कर ममता और बच्चों के रहने की समुचित व्यवस्था कर के उसे अकेले आना पड़ा. गरमी की छुट्टियों में पत्नी और बच्चे उस के पास आ जाते, छोटीछोटी छुट्टियों में कभी दौरा बना कर, कभी ऐसे ही सौरभ आ जाता.

गत 4 वर्षों से गृहस्थी की गाड़ी इसी प्रकार धकियाई जा रही थी. अकेले रहते और नौकर के हाथ का खाना खाते उस का स्वास्थ्य गड़बड़ रहने लगा था. 2 जगह गृहस्थी बसाने से खर्च भी बहुत बढ़ गया था. परंतु ममता की एक मुसकान भरी चितवन, एक रूठी हुई भंगिमा उस की सारी झुंझलाहट को धराशायी कर देती थी और वह उस रूपपुंज के इर्दगिर्द घूमने वाला एक सामान्य सा उपग्रह बन कर रह जाता.

9 बजे ममता और बच्चियों के जाने के बाद सौरभ ने स्नान किया, तैयार हो कर सोचा कि सचिवालय का एक चक्कर लगा आए. पटना स्थानांतरण के लिए किए गए प्रयासों में एक प्रयास और जोड़ ले. दरवाजे पर ताला लगा कर चाबी सामने वाले मकान में देने के लिए घंटी बजाई. गृहस्वामिनी निशि गीले हाथों को तौलिए से पोंछती हुई बाहर निकलीं, ‘‘अरे भाईसाहब, आप कब आए?’’

‘‘कल रात,’’ सौरभ ने उन्हें चाबी थमाने का उपक्रम किया. निशि ने चाबी लेने में कोई शीघ्रता नहीं दिखाई, ‘‘अब तो भाईसाहब, आप यहां बदली करवा ही लीजिए. अकेली स्त्री के लिए बच्चों के साथ घर चलाना बहुत कठिन होता है. बच्चे हैं तो हारीबीमारी चलती ही रहती है, यह तो कहिए आप के संबंधी कपिलजी हैं जो आप की अनुपस्थिति में पूरी देखरेख करते हैं, आजकल इतना दूसरों के लिए कौन करता है?’’

सौरभ अचकचा गया, वह तो कपिल को जानता तक नहीं. ममता ने झूठ का आश्रय क्यों लिया? उस ने निशि की ओर देखा, होंठों के कोनों और आंखों से व्यंग्य भरी मुसकान लुकाछिपी कर रही थी.

‘‘हां, बदली का प्रयास कर तो रहा हूं,’’ सौरभ सीढि़यों से नीचे उतर आया. नए जूते के कारण उंगलियों में पड़े छाले उसे कष्ट नहीं दे रहे थे क्योंकि देह में कैक्टस का जंगल उग आया था.

सचिवालय के गलियारे में इधरउधर निरुद्देश्य भटक कर वह सांझ गए लौटा. मीनीचीनी की मीठी बातें, ममता की मधुर मुसकान उस पर पहले जैसा जादू नहीं डाल सकीं. 10 वर्षों की मोहनिद्रा टूट चुकी थी.

ममता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबादले की फाइल आगे बढ़ी?’’

‘‘कुछ होनाहवाना नहीं है, सभी तो यहीं आना चाहते हैं. मैं तो सोचता हूं कि अब हम सब को इकट्ठे रहना चाहिए.’’

‘‘यह कैसे संभव होगा?’’ ममता के माथे पर बल पड़ गए थे.

‘‘संभव क्यों नहीं है? यहां का खर्च तुम्हारे वेतन से तो पूरा पड़ता नहीं. दोनों जनों की कमाई से क्या लाभ जब बचत न हो.’’

‘‘क्या सबकुछ रुपयों के तराजू पर तोला जाएगा? मीनीचीनी को केंद्रीय विद्यालय में शिक्षा मिल रही है, वह क्या कुछ नहीं?’’

‘‘आजकल सब शहरों में कान्वेंट स्कूल खुल गए हैं…फिर तुम स्वयं उन्हें पढ़ाओगी. तुम नौकरी करना ही चाहोगी तो वहां भी तुम्हें मिल जाएगी.’’

‘‘और मेरी 12 वर्षों की स्थायी नौकरी? क्या इस का कुछ महत्त्व नहीं?’’ ममता का क्रोध चरम पर था.

‘‘अब सबकुछ चाहोगी तो कैसे होगा?’’ हथियार डालते हुए सौरभ सोच रहा था. मैं क्यों ममता के तर्ककुतर्कों के सामने झुक जाता हूं? अपनी दुर्बलता से उत्पन्न खीज को दबाते हुए वह मन ही मन योजना बनाने लगा कि कैसे वह अपने क्रोध को अभिव्यक्ति दे.

दूसरे दिन प्रात:काल ही वह जाने के लिए तैयार हो गया. ममता ने आश्चर्य से टोका, ‘‘आज तो छुट्टी है…सुबह से ही क्यों जा रहे हो?’’

‘‘मुझे वहां काम है,’’ उस ने रुखाई से कहा. ममता को जानना चाहिए कि वह भी नाराज हो सकता है.

वापस आने के बाद भी सौरभ को चैन नहीं था. हर समय संदेह के बादलों से विश्वास की धूप कहीं कोने में जा छिपी थी. मन में युद्ध छिड़ा हुआ था, ‘स्त्री की आत्मनिर्भरता तो गलत नहीं, कार्यरत स्त्री की पुरुषों से मैत्री भी अनुचित नहीं फिर उस का सारा अस्तित्व कैक्टस के कांटों से क्यों बिंधा जा रहा है?’

विवेक से देखने पर तो सब ठीक लगता है परंतु भावना का भी तो जीवन में कहीं न कहीं स्थान है. इच्छा होती है कि एक बार उन लोगों के सामने मन की भड़ास पूरी तरह निकाल ले. इसी धुन में 3-4 दिन बाद वह पुन: पटना पहुंचा. उस समय शाम के 7 बज रहे थे. द्वार पर ताला लगा था.

निशि ने भेदभरी मुसकान के साथ बताया, ‘‘कपिलजी के साथ वे लोग बाहर गए हैं.’’

वह उन्हीं की बैठक में बैठ गया. आधे घंटे बाद सीढि़यों पर जूतेचप्पलों के शोर से अनुमान लगा कि वे लोग आ गए हैं. सौरभ बाहर निकल आया. आगेआगे सजीसंवरी ममता, पीछे चीनी को गोद में लिए कपिल और हाथ में गुब्बारे की डोर थामे मीनी. अपने स्थान पर कपिल को देख कर आगबबूला हो उठा.

ममता भी सकपका गई थी, ‘‘सब ठीक है न?’’

‘‘क्यों, कुछ गलत होना चाहिए?’’ अंतर की कटुता से वाणी भी कड़वी हो गई थी.

‘‘नहींनहीं, अभी 3 दिन पहले यहां से गए थे, इसी से पूछा.’’

‘‘मुझे नहीं आना चाहिए था क्या?’’ सौरभ का क्रोध निशि और कपिल की उपस्थिति भी भूल गया था.

अपने अपने रास्ते : भाग 2

फिर कामयाबी का सिलसिला चल पड़ा. विवेक बतरा नियमित आर्डर लाने लगा. बाहर जाने, विदेशी ग्राहकों से मिलने, बात करने, डील फाइनल करने आदि कामों के सिलसिले में सविता, विवेक के साथ जाने लगी. नियमित मिलनेजुलने से दोनों करीब आने लगे. विवेक बतरा इस बात से काफी प्रभावित था कि सविता एक किशोरवय की बेटी की मां होने के बाद भी काफी जवान नजर आती थी.

एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों में सभी दूरियां मिट गईं. सविता की औरत को एक मर्द की और विवेक के मर्द को एक औरत की जरूरत थी. अपने प्रौढ़ावस्था के पुराने खयालों के पति की तुलना में विवेक बतरा स्वाभाविक रूप से ताजादम और जोशीला था, दूसरी ओर विवेक बतरा के लिए कम उम्र की लड़कियों के मुकाबले एक अनुभवी औरत से सैक्स नया अनुभव था.

एक रोज सहवास के दौरान विवेक बतरा ने कहा, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’

इस सवाल पर सविता सोच में पड़ गई. विवेक उस से काफी छोटा था. उस को हमउम्र या छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से मिल जाएंगी. अपने से उम्र में इतनी बड़ी महिला से वह क्या पाएगा?

‘‘क्या सोचने लगीं?’’ सविता को बाहुपाश में कसते हुए विवेक ने कहा.

‘‘कुछ नहीं, जरा तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार कर रही थी. मैं तुम से उम्र में बड़ी हूं. तलाकशुदा हूं. एक किशोर लड़की की मां हूं. तुम्हें तुम्हारी उम्र की लड़की आसानी से मिल जाएगी.’’

‘‘मैं ने सब सोच लिया है.’’

‘‘फिर भी फैसला लेने से पहले सोचना चाहती हूं.’’

इस के बाद विवेक और सविता काफी ज्यादा करीब आ गए. दोनों में व्यावसायिक संबंध काफी प्रगाढ़ हो गए. विवेक अन्य फर्मों को आयातनिर्यात के आर्डर देने से कतराने लगा, उस की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा काम सविता की कंपनी को मिले.

सविता भी उसे पूरी तरजीह देने लगी. उस ने अपने दफ्तर में विवेक के बैठने के लिए एक केबिन बनवा दिया जो उस के केबिन से सटा हुआ था. धीरेधीरे अनेक ग्राहकों को, जो पहले सविता के ग्राहक थे, विवेक अपने केबिन में बुला कर हैंडल करने लगा. आफिस स्टाफ को भी विवेक अधिकार के साथ आदेश देने लगा. मालकिन या मैडम का खास होने के कारण सभी कर्मचारी न चाहते हुए भी उस का आदेश मानने लगे.

अभी तक विवेक, सविता से हर आर्डर पर कमीशन लेता था. सविता ने उस को कभी अपने व्यापार का हिसाबकिताब नहीं दिखाया था. मगर वह कभी कंप्यूटर से और कभी लेजर बुक्स से भी व्यापार के हिसाबकिताब पर नजर रखने लगा.

अभी तक विवेक फर्म का प्रतिनिधि और एजेंट ही था. उस को किसी सौदे या डील को फाइनल करने का अधिकार न था. ऐसा करने के लिए या तो वह फर्म का पार्टनर बनता या फिर उस के पास सविता का दिया अधिकारपत्र होता मगर एकदम से उस को यह सब हासिल नहीं हो सकता था. जो भी था आखिर वह एक एजेंट भर था, जबकि सविता फर्म की मालकिन थी.

वह एकदम से सविता से पावर औफ अटौर्नी देने को या पार्टनर बनाने को नहीं कह सकता था इसलिए वह अब फिर से सविता से विवाह के लिए कहने लगा था.

‘‘शादी किए बिना भी हम इतने करीब हैं फिर शादी की औपचारिकता की क्या जरूरत है?’’ सविता ने हंस कर कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी होममिनिस्टर कहलाएं. आप जैसी इतनी कामयाब और हसीन खातून का खादिम बनना समाज में बड़ी इज्जत की बात है,’’ विवेक ने सिर नवा कर कहा.

इस पर सविता खिलखिला कर हंस पड़ी. आखिर कोई स्त्री अपने रूपयौवन की प्रशंसा सुन कर खुश ही होती है. उस शाम विवेक उसे एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में खाना खिलाने ले गया. वहीं एक ज्वैलरी शोरूम से हीरेजडि़त एक ब्रेसलेट ले कर भेंट किया तो सविता और भी अधिक खुश हो गई.

उस शाम यह तय हुआ कि सविता 3 दिन के बाद अपना पक्का फैसला सुनाएगी.

इन 3 दिनों के बीच में किसी विदेशी फर्म को एक सौदे के लिए भारत आना था जिसे अभी तक सविता खुद ही हैंडल करती आई थी. विवेक भी इस फर्म के प्रतिनिधि के रूप में सविता के साथ उस फर्म के प्रतिनिधि से मिलना चाहता था.

इस बार का सौदा काफी बड़ा था. दोपहर को सविता के दफ्तर में मिस रोज, जो एक अंगरेज महिला थी, ने सविता और विवेक से बातचीत की. सौदा सफल रहा. विवेक ने भी अपने वाक्चातुर्य का भरपूर उपयोग किया. मिस रोज भी विवेक के व्यक्तित्व से खासी प्रभावित हुई.

फिर कांट्रैक्ट साइन हुआ. सविता कंपनी की मालकिन थी. अत: साइन उसी को करने थे. विवेक खामोशी से सब देखता रहा था.

मिस रोज विदा होने लगी तो सविता ने उस को सौदा फाइनल होने की खुशी में रात के खाने पर एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में आमंत्रित किया. मिस रोज ने खुशीखुशी आना स्वीकार किया.

उस शाम सविता ने आफिस जल्दी बंद कर दिया. फ्लैट पर नहा कर अपनी ब्यूटीशियन के यहां गई. नए अंदाज में मेकअप करवाने के बाद अब सविता और भी दिलकश लग रही थी.

ब्यूटीपार्लर से निकल कर सविता अपने लवर के पास गई. आज विवेक को उसे अपना पक्का फैसला सुनाना था. ज्वैलर्स के यहां से विवेक को देने के लिए उस ने एक महंगी हीरेजडि़त अंगूठी खरीदी.

मिस रोज ठीक समय पर आ गई. वह नए स्टाइल के स्कर्ट, टौप में थी. उस ने हाईहील के महंगे सैंडिल पहने थे. गहरे रंग के स्कर्र्ट व टौप उस के सफेद दूधिया शरीर पर काफी फब रहे थे.

विवेक बतरा भी गहरे रंग के नए फैशन के इवनिंग सूट में था. अपने गोरे रंग और लंबे कद के कारण वह ‘शहजादा गुलफाम’ लग रहा था.

तीनों ने हाथ मिलाए. फिर पहले से बुक की गई मेज के इर्दगिर्द बैठ गए. वेटर चांदी के गिलासों में ठंडा पानी सर्व कर गया.

थोड़ी देर बाद वही वेटर उन के पास आया और सिर नवा कर खड़ा हो गया तो सविता ने ड्रिंक लाने का आर्डर दिया.

थोड़ी देर बाद वेटर आर्डर सर्व कर गया. सभी अपनाअपना ड्रिंक पीने लगे. तभी हाल की बत्तियां बुझ गईं. डायस पर धीमाधीमा संगीत बजने लगा. हाल में एक तरफ डांसिंग फ्लोर था. कुछ जोड़े उठ कर डांसिंग फ्लोर पर चले गए.

यह कैसी विडंबना : भाग 2

‘‘अरे, आंटी आप, आइएआइए.’’

‘‘मुझे पता चला कि तुम वापस आ गई हो इस घर में. सोचा, मिल आऊं.’’

मेरी मां की उम्र की हैं आंटी. उन्हें आंटी न कहती तो क्या कहती.

‘‘अरे, मिसेज शर्मा कहो. आंटी क्यों कह रही हो. हमउम्र ही तो हैं हम.’’

पहला धक्का लगा था मुझे. जवाब कुछ होता तो देती न.

‘‘हां हां, क्यों नहीं…आइए, भीतर आइए.’’

‘‘नहीं ममता, मैं यह पूछने आई थी कि तुम्हारी बाई आएगी तो पूछना मेरे घर में काम करेगी?’’

‘‘अरे, आइए भी न. थोड़ी देर तो बैठिए. बहुत सुंदर लग रही हैं आप. आज भी वैसी ही हैं जैसी 15 साल पहले थीं.’’

‘‘अच्छा, क्या तुम्हें आज भी वैसी ही लग रही हूं. शर्माजी तो मुझ से बात ही नहीं करते. तुम्हें पता है इन्होंने एक लड़की रखी हुई है. अभी कुछ महीने पहले ही लड़की पैदा की है इन्होंने. कहते हैं आदमी हूं नामर्द थोड़े हूं. 4 बहनें रहती हैं पीछे कालोनी में, वहीं जाते हैं. चारों के साथ इन का चक्कर है. इस उम्र में मेरी मिट्टी खराब कर दी इस आदमी ने. महल्ले में कोई मुझ से बात नहीं करता.’’

रोने लगीं शर्मा आंटी. तब तरस आने लगा मुझे. सच क्या है या क्या हो सकता है, जरा सा कुरेदूं तो सही. हाथ पकड़ कर बिठा लिया मैं ने. पानी पिलाया, चाय के लिए पूछा तो वे आंखें पोंछने लगीं.

‘‘छोडि़ए शर्माजी की बातें. आप अपने बच्चों का बताइए. अब तो पोतेपोतियां भी जवान हो गए होंगे न. क्या करते हैं?’’

‘‘पोती की शादी मैं ने अभी 2 महीने पहले ही की है. पूरे 5 लाख का हीरे का सेट दिया है विदाई में. मुझे तो सोसाइटी मेें इज्जत रखनी है न. इन्हें तो पता नहीं क्या हो गया है. जवानी में रंगीले थे तब की बात और थी. मैं अपनी सहेलियों के साथ मसूरी निकल जाया करती थी और ये अपने दोस्तों के साथ नेपाल या श्रीनगर. वहां की लड़कियां बहुत सुंदर होती हैं. 15-20 दिन खूब मौज कर के लौटते थे. चलो, हो गया स्वाद, चस्का पूरा. तब जवानी थी, पैसा भी था और शौक भी था. मैं मना नहीं करती थी. मुझे ताश का शौक था, अच्छाखासा कमा लेती थी मैं भी. एकदूसरे का शौक कभी नहीं काटा हम ने.’’

मैं तो आसमान से नीचे गिरने लगी आंटी की बातें सुन कर. मेरी मां की उम्र की औरत अपनी जवानी के कच्चे चिट्ठे आम बातें समझ कर मेरे सामने खोल रही थी. सरला ने भी बताया था कि शहर के अमीर लोगों के साथ ही हमेशा इन का उठनाबैठना रहा है.

‘‘पक्की जुआरिन थीं शर्मा आंटी. आज भी ताश की बाजी लगवा लो. बड़ेबड़ों के कान कतरती हैं. पैसा दांतों से पकड़ती हैं…बातें लाखों की करेंगी और काम वाली बाई और माली से पैसेपैसे का हिसाब करेंगी.’’

सरला की बातें याद आने लगीं तो आंटी की बातों से मुझे घिन आने लगी. कितनी सहजता से अपने पति की जवानी की करतूतों का बखान कर रही हैं. पति हर साल नईनई लड़कियों का स्वाद चखने चला जाता था और मैं मसूरी निकल जाती थी.

‘‘बच्चे कहां रहते थे?’’ मैं ने धीरे से पूछा था.

‘‘मेरी बड़ी बहनें मेरे तीनों लड़कों को रख लेती थीं. आज भी सब मेरी खूबसूरती के चर्चे करते हैं. मैं इतनी सुंदर थी फिर भी इस आदमी ने मेरी जरा भी कद्र नहीं की. मैं क्या से क्या हो गई हूं. देखो, मेरे हाथपैर…इस आदमी के ताने सुनसुन कर मेरा जीना हराम हो गया है.’’

‘‘आप अपनी पुरानी मित्रमंडली में अपना दिल क्यों नहीं लगातीं? आखिर आप की दोस्ती, रिश्तेदारी इसी शहर में ही तो है. कहीं न कहीं चली जाया करें. आप के भाईबहन, आप की भाभी और भतीजीभतीजे…’’

‘‘शर्म आती है मुझे उन के घर जाने पर क्योंकि इन की वजह से मैं हर जगह बदनाम होती रहती हूं.’’

मैं सोचने लगी, बदनाम तो आंटी खुद कर रही हैं अपने पति को. पहली ही मुलाकात में उन्हें नंगा करने का क्या एक भी पल हाथ से जाने दिया है इन्होंने. मुझे भला आंटी कितना जानती हैं, जो लगी हैं रोना रोने.’’

उस दिन के बाद शर्मा आंटी अकसर आने लगीं. उन की छत पर ही धूप आती थी पर उन से चढ़ा नहीं जाता था. इसलिए वे मेरे आंगन में धूप सेंकने आ जाती थीं. अपनी जवानी के हजार किस्से सुनातीं. कभी शर्मा अंकल भी आ जाते तो नमस्ते, रामराम हो जाती. एक दिन दोनों बनठन कर कहीं गए. साथसाथ थे, खुश थे. मुझे अच्छा लगा.

दूसरे दिन दोनों साथसाथ ही धूप सेंकने आ गए. मैं ने चायपानी के लिए पूछा. वृद्ध हैं दोनों. मैं जवान न सही फिर भी उन से 25-30 साल पीछे तो चल ही रही हूं. उस दिन मक्की की रोटी और सरसों का साग बनाया था. सोचा पूछ लूं.

‘‘सच्ची में, मुझे तो सदियां हो गईं खाए.’’

‘‘आप खाएंगी तो ले आऊं?’’

‘‘हां, हां,’’ खुशी से भर उठीं आंटी.

दोनों ने उस दिन मेरे साथ ही दोपहर का खाना खाया. काफी देर गपशप भी करते रहे. शाम को मेरे पति आए तो हम दोनों उन के घर उन से मिलने भी चले गए. अच्छे पड़ोसी बन गए वे हमारे.

सरला हैरान थी.

‘‘बड़ी शांति है, जब से तुम आई हो वरना अब तक दस बार तमाशा हो चुका होता.’’

‘‘मेरी तो शर्मा आंटी से अच्छी दोस्ती हो गई है. अकसर कोई तीसरा आ जाए बीच में तो लड़ाई खत्म भी हो जाती है.’’

‘‘और कई बार तीसरा बुरी तरह पिस भी जाता है. अपना ध्यान रखना. इन्होंने तो अपनी उतार ही रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें,’’ सरला ने समझाया था मुझे, ‘‘बड़ी लेखिका बनी फिरती हो न. शर्मा आंटी जो कहानियां गढ़ लेती हैं उस से अच्छी तो तुम भी नहीं लिख सकतीं.’’

दीवाली के आसपास 3-4 दिन के लिए हम अपनी बेटी के पास जम्मू चले गए.

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