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एक दिन की बात : श्रेया क्या अपनी जिंदगी से खुश थी ?

स्कूल बस का ड्राइवर बेसब्री से हौर्न बजाए जा रहा था. श्रेया अपने दोनों बच्चों को लगभग घसीटती हुई बस की ओर भागी कि अगर बस छूट गई तो फिर उन्हें स्कूल पहुंचाने का झंझट हो जाएगा. पल्लव स्कूटर से छोड़ भी आएंगे तो उस के लिए श्रेया को एक लंबा लैक्चर सुनना पड़ेगा, ‘थोड़ा जल्दी उठा करो. आखिर बस वाले को पैसे किस बात के लिए दिए जाते हैं.’

इस पर श्रेया चिढ़ कर मन ही मन बुदबुदाती कि क्या सारी जिम्मेदारी मेरी है? बच्चे हैं या आफत की पुडि़या? थोड़ी जल्दी उठ कर उन्हें तैयार करने में खुद मदद कर दें, यह होता नहीं.

किंतु आवाज श्रेया के गले में घुट कर ही रह जाती, क्योंकि उस समय ड्राइंगरूम में परिवार के अन्य सदस्य चाय की चुसकियां ले रहे होते. उन के हाथ में ताजा अखबार होती थी, सुर्खियों पर टीकाटिप्पणी चल रही होगी. उस के कुछ कहने पर सभी उसे कुछ ऐसी निगाहों से देखेंगे जैसे वह लंबी सजा काट कर घर लौटी हो. एकाध फिकरे भी कसे जाएंगे, जैसे ‘जब मालूम है कि बस पौने 7 बजे आती है तो साढ़े 6 बजे तक बच्चों को तैयार कर लिया जाए.’

लगभग दौड़ते हुए श्रेया ने सड़क पार की कि बस चली न जाए. बस ड्राइवर ने श्रेया, बिट्टू और चिंटी को देख लिया था. वह धीरे से मुसकराया, क्योंकि अकसर ऐसी स्थितियों का सामना उसे रोज ही करना पड़ता है. बस रुकी देख श्रेया की जान में जान आई.

उस का घर भी तो गली के आखिरी छोर पर है. सड़क से दूरी चौथाई किलोमीटर से कम न होगी. यह कालोनी नई ही बसी है, सो सड़क अभी कच्ची ही है. जगहजगह बालू, कंकरीट और ईंटें बिखरी पड़ी हैं.

‘‘देखो, टिफिन का खाना खा लेना. तुम दोनों ने दूध भी ठीक से नहीं पिया है,’’ श्रेया बच्चों को हिदायतें देती जा रही थी.

‘‘मैं यह खाना नहीं खाऊंगा. अंडा चाप, नूडल्स क्यों नहीं दिए?’’ बिट्टू बोला.

दोनों बच्चे ठुनक रहे थे. श्रेया को बिट्टू, चिंटी की बेमौके की इस जिद पर क्रोध आया और तरस भी.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं कहते, खाओगे नहीं तो मजबूत कैसे बनोगे,’’ श्रेया बच्चों को मायूस नहीं करना चाहती थी.

‘‘अंकुर की मम्मी उसे टिफिन में रोजाना स्वादिष्ठ खाना देती है,’’ बिट्टू रोंआसा हो उठा.

‘‘तुम हमें वही सूखे टोस्ट और मक्खन दे देती हो.’’ चिंटी दुखी थी.

‘‘अच्छा, कल से मैं भी अच्छीअच्छी चीजें बना कर दिया करूंगी. आज टिफिन का खाना तुम लोग जरूर खा लेना,’’ श्रेया का स्वर भीग उठा. मां थी, बच्चों का दिल टूटता नहीं देख सकती थी, वह भी खानेपीने के प्रश्न पर.

‘‘अच्छा मम्मी, खा लेंगे.’’

‘‘प्रौमिस?’’

‘‘प्रौमिस.’’

एक अपना जमाना था, परांठे और अचार अम्मा दे देतीं, जो हम सभी चटखारे ले कर कितने स्वाद से खाते. इस के अलावा और कुछ चाहिए, यह कभी सोचा भी न था पर आज के बच्चे फास्ट फूड के दीवाने, अगड़मबगड़म सब खा लेंगे, लेकिन परांठा और पूरी देख कर मुंह ऐसा बनाएंगे जैसे यह जानवरों का भोजन हो. बित्तेभर के बच्चे हैं, किंतु खानेपीने की तालिका इतनी लंबी है कि कई नाम तो श्रेया को याद भी नहीं रहते.

आज वैसे भी देर हो चुकी थी, ‘बायबाय’ करते बच्चे बस में सवार हो गए.

स्कूली बच्चों से बस ठसाठस भरी थी. बस में जरूरत से ज्यादा बच्चे धक्कामुक्की कर रहे थे, पर उजड्ड खलासी बच्चों को भेड़बकरी की तरह ठूंस रहा था. उस ने चिंटी को हाथ पकड़ कर खींचा तो वह चीख पड़ी. तभी श्रेया यथासंभव अपना स्वर कोमल बनाते हुए बोली, ‘‘अरे, संभाल के भैया’’ वह जानती थी कि उस का जरा भी रूखापन इख्तियार करने का फल उस के मासूम बच्चों को भुगतना पड़ेगा.

‘‘एक तो देर से आते हो, उस पर नसीहतें देते हो. समय से क्यों नहीं आते?’’ खलासी ने बुरा सा मुंह बनाया और बस चल पड़ी. बच्चे अपनीअपनी मम्मियों तथा पहुंचाने वालों को हाथ हिलाते रहे.

‘‘हैलो, श्रेया,’’ मालती चहकी.

मालती की गहरी लिपस्टिक, लहराते कटे बाल व गुलाबी दुपट्टा इंद्रधनुषी छटा बिखेर रहे थे. कीमती पर्स कंधे पर झल रहा था. इतनी सुबह कैसे समय मिल जाता है. वह जब भी श्रेया को बसस्टौप पर मिली, ऐसी ही बनीठनी. न कोई हड़बड़ाहट न जल्दबाजी, जैसे किसी समारोह में जा रही हो.

‘‘हैलो, कैसी हैं?’’ श्रेया बोली, तभी उस का ध्यान अपनी मुड़ीतुड़ी साड़ी पर गया. कई जगहों पर हलदीमसाले के धब्बे, रूखे उलझे बाल, सूखे होंठ, सुबहसवेरे घड़ी के साथ काम निबटाने की विवशता, वह झेंप गई.

बसस्टौप पर आई महिलाओं के कदम धीरेधीरे अपनेअपने बसेरे की ओर बढ़ने लगे. वे एकदूसरे की कुशलक्षेम पूछ रही थीं. सजीधजी, ताजातरीन हमउम्र उन युवतियों को देख श्रेया संकोच से भर उठी कि आखिर उन का भी तो घरसंसार है, पति हैं, बच्चे हैं. फिर वे इस तरह निश्ंिचत कैसे हैं. एक वह है, काम कभी खत्म ही नहीं होता. सासुमां ठीक ही कहती हैं कि आजकल की लड़कियों में दमखम नहीं है. जरा सी देर में ही हांफ जाती हैं. जब अपने शरीर का ही काम नहीं होता तो घरगृहस्थी क्या संभालेंगी.

‘‘मैं आज 2 फिल्मों की कैसेट लाई हूं. वीसीआर पर देखूंगी. तुम भी आ जाना, गपशप करेंगे,’’ आरती अपना मुंह श्रेया के कान के निकट ले जा कर बोली, जैसे कोई राज की बात हो.

‘‘मैं और सिनेमा?’’ श्रेया जैसे सोते से जागी.

‘‘क्यों, बच्चे 3 बजे से पहले आने वाले नहीं हैं. पल्लव दफ्तर चले जाएंगे तो तुम दिनभर क्या करोगी? सोओगी ही न? आज जरा कम सो लेना,’’ आरती बोली, वह भी हार मानने वाली नहीं थी.

‘सोऊंगी और मैं? दोपहर में सोने की आदत तो उसी दिन छूट गई जिस दिन डोली में चढ़ कर मायके से विदा हुई,’ श्रेया ने सोचा, फिर बोली, ‘‘घर में बाकी लोग हैं. घरगृहस्थी के हजारों

काम हैं.’’

‘‘बाकी लोग और हजारों काम? अरे, ये सब करने के लिए तुम हो? पति दफ्तर, बच्चे स्कूल, फिर आजादी, अपना तो यही उसूल है,’’ आरती बेहयायी से श्रेया की आंखों में आंखें डाल कर बोल पड़ी.

फिर तो घरगृहस्थी, सासपुराण, बहुओं को सताए जाने की कल्पित और तथाकथित किस्से जो शुरू हुए तो उन की लपेट में बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने आई सभी माताएं आ गईं.

श्रेया ने कुछ सुना, कुछ नहीं और लगभग दौड़ती सी घर भागी.

ससुरजी सुबह के भ्रमण से आ कर चाय के लिए श्रेया की राह देख रहे थे. उस ने घर में घुसते ही आंचल से सिर ढक कर उन के पैर छू लिए.

‘‘जीती रहो, बेटी. जरा चाय कड़क बनाना, कुछ सुस्ती सी है.’’

‘‘जी, पिताजी,’’ श्रेया ने हां में

सिर हिलाया.

‘‘बहू, जरा गरम पानी के साथ फंकी देना,’’ ददियासास उस के पैरों की आहट पहचान गईं तो वे भी बोल पड़ीं.

‘‘जी, दादीमां.’’

‘‘पूजाघर जल्दी साफ कर देना, मुझे सत्संग जाना है,’’ अंधविश्वासी सासुमां अपनी साडि़यों के ढेर में से सत्संग में पहनने के लिए सुंदर सी कोई साड़ी छांटती हुई बोलीं. धर्म के नाम पर किसी तरह की कोताही उन्हें पसंद न थी.

एकसाथ कई काम, श्रेया दादीमां को गरम पानी के साथ फंकी, ससुरजी को कड़क चाय दे कर शीघ्रता से पूजाघर साफ करने लगी. संगमरमर के बने पूजाघर में शायद ही कोईर् देवीदेवता हो जिस की मूर्ति न होगी. उन का बस चले तो आधा घर मंदिर बना दे और दिनरात घर में भजनकीर्तन चलता रहे.

पौधों में पानी दे कर वह दालचावल साफ करने लगी. सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, जितने सदस्य उतनी ही फरमाइशें.

‘‘श्रेया, श्रेया, एक कप चाय देना, चीनी जरा कम,’’ रसोईघर से लगे कमरे में पल्लव पता नहीं कब से श्रेया के फुरसत में होने का इंतजार कर रहा था.

श्रेया ने सवालिया नजरों से पल्लव की ओर देखा और बोली, ‘‘चाय तो मैं कमरे में दे आई थी.’’

‘‘उस से बात कुछ बनी नहीं, ठंडी हो गई थी न,’’ पल्लव ने चिरौरी की, ‘‘प्लीज, एक कप…’’

‘‘हांहां, जरूर.’’

श्रेया ने चाय का पानी चढ़ा दिया.

ददियासास, ससुर, सासुमां, पति, देवर चंदर, छोटी ननद मंदा और नन्हे बच्चे, परिवार के जितने सदस्य, उतनी ही उन की रुचि का नाश्ता, खाना. श्रेया उन के स्वभाव और खानपान की आदतों से पूरी तरह परिचित हो गई है.

‘‘आज ऐसे ही दफ्तर चला जाता हूं,’’ पल्लव चाय का जूठा प्याला सिंक में रखते हुए बोला.

‘‘कैसे?’’

‘‘ऐसे ही,’’ कहते हुए पल्लव दाहिने हाथ से अपनी दाढ़ी सहला रहा था.

श्रेया को हंसी आ गई. वह पल्लव का इशारा समझ कर शेविंग किट लेने भागी. फिर कप में गरम पानी और शेविंग का सामान पल्लव को थमा कर रसोई की ओर दौड़ी.

उस ने अभी परांठे बनाना शुरू ही किया था कि पल्लव की चीखती आवाज कानों में पड़ी, ‘‘मेरी जुराबें कहां हैं? सूट भी निकाल दो. अरे, जल्दी करो भई.’’ श्रेया तुरंत ही बैडरूम की ओर लपकी, जहां पल्लव सिर्फ तौलिया लपेटे उस की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘आज मेरी विशेष मीटिंग है. मेरे कपड़े कहां हैं, लाओ. तैयार हैं न? मैं ने तुम्हें 3 दिन पहले ही बता दिया था. जल्दी करो, भई.’’

सच, श्रेया तो भूल ही गई थी. उसे जरा सा भी याद नहीं रहा कि आज पल्लव को मीटिंग में जाना है, सो उस की विशेष पोशाक वह तैयार कर के रखे. सहम कर उस ने दांतों से अपनी जीभ दबाई, क्योंकि अपनी याद्दाश्त को कोसने का अर्थ था, पल्लव से तूतू मैंमैं.

‘‘अभी देती हूं,’’ कह कर वह कपड़ों की अलमारी की ओर दौड़ी. किसी तरह उस ने स्थिति को संभाला. पल्लव उस की नादानी समझ पाए या नहीं, यह तो वही जाने पर श्रेया अपनी गलती छिपाने में कामयाब रही.

‘‘भाभी, नाश्ता…’’ चंदर ने कहा.

‘‘देती हूं,’’ श्रेया पल्लव के जूते का फीता बांध कर रसोईघर की ओर लौटी.

‘‘भाभी, कुछ याद है,’’ चंदर नाश्ते की प्लेट ले कर धीरे से बोला.

‘‘क्यों? कुछ और लोगे?’’ श्रेया अनजान बनी रही.

‘‘भाभी, पहले कहा तो था, आज पार्टी…’’ आगे के शब्द चंदर परांठे के साथ चबा गया ताकि कोई सुन न ले. यह उस की खास बात थी, जिसे उसे भाभी के साथ ही शेयर करना था.

‘‘ओह, अच्छा,’’ कहते हुए श्रेया ने मसाले के डब्बे के नीचे से 50 रुपए का नोट निकाल कर चंदर को पकड़ाया.

‘‘ओह, मेरी प्यारी भाभी,’’ चंदर करारा नोट पा कर खुशी से नाचता चला गया.

पल्लव घर खर्च के लिए अपने वेतन का बड़ा हिस्सा मां के हाथों में देता है. किंतु कुछ रुपए वह हर महीने श्रेया का भी उस के निजी खर्च के लिए जरूर देता है. श्रेया का अपना खर्च तो क्या है, किंतु देवर, ननद की इस तरह की जरूरतें वह जरूर पूरा करती थी.

आज भी चंदर के किसी दोस्त का जन्मदिन था. चंदर पिछले 4 दिन से भाभी की खुशामद कर रहा था. वह जानता था कि हर बार की तरह इस बार भी उस की प्यारी भाभी उस का मान अवश्य रख लेंगी और हुआ भी यही.

पल्लव ने नाश्ता कर के, टिफिन ले कर कार्यालय के लिए प्रस्थान किया तब तक साढ़े 9 बज चुके थे.

बाबूजी स्नानध्यान कर के खाने की मेज पर बैठ चुके थे. वे नाश्ते में दूध और दलिया खाते हैं.

‘‘भाभी, मेरा पीला दुपट्टा नहीं मिल रहा है,’’ मंदा का तेज स्वर गूंजा.

‘‘पीला नहीं मिल रहा है तो लाल ओढ़ लो. तुम्हारे पास दुपट्टे और ड्रैसों की कमी है क्या,’ पर चाह कर भी श्रेया प्रतिवाद न कर सकी और बोली, ‘‘वहीं रखा होगा.’’

‘‘वहीं कहां. प्लीज भाभी, ढूंढ़ने में मेरी मदद करो, नहीं तो आज मुझे फिर देर हो जाएगी. पहला पीरियड छूट जाएगा,’’ मंदा का चीखना जारी था.

पहले पीरियड की इतनी चिंता क्यों है, श्रेया सब समझती है, पहला पीरियड इंग्लिश का है और इंग्लिश पढ़ाने वाला हैंडसम प्रोफैसर पढ़ाता कम है, मंदा की आंखों में झंकता ज्यादा है. उसे प्रभावित करने के लिए उस के पीरियड में मंदा का साजसज्जा और वस्त्रों पर विशेष ध्यान रहता है.

प्रोफैसर वाली बात श्रेया को मंदा ने ही बताई थी, ‘सच भाभी, तुम देखोगी तो बस, देखती ही रह जाओगी,’ कहते हुए मंदा की आंखों में एकसाथ हजारों सपने उतर आए थे.

‘देख मंदा, तेरी यह उम्र पढ़नेलिखने की है, आंखें चार करने की नहीं. वह तेरा प्रोफैसर है, शिक्षक है, पूज्य है,’ श्रेया और भी कुछ कहती उस से पर मंदा ने श्रेया के होंठों पर हाथ रख कर उस को बोलने से रोकते हुए कहा, ‘चाहे जो हो, भाभी, वह है बहुत स्मार्ट. तुम नहीं जानतीं, रोज एक से बढ़ कर एक नई ड्रैस पहनता है. इतनी मीठी आवाज है, ऐसा पढ़ाता है जैसे कहीं सितार बज रहा हो. कालेज की सभी लड़कियां उस पर मरती हैं, लेकिन वह सिर्फ मेरी ओर ही देखता है.’

मंदा खुद से बोले जा रही थी, ‘अगर यही हाल रहा तो सितार बजे न बजे, तेरा बाजा जरूर बज जाएगा, फिर मुझे कुछ न कहना,’ यह सुन कर श्रेया हंस पड़ी तो मंदा भाभी के गले लग शरमा गई थी.

इन सभी का यही प्यार, विश्वास, सम्मान श्रेया को हिम्मत देता था. घर के प्रत्येक सदस्य उस पर निर्भर से थे. वह सभी की राजदार थी.

‘‘अरे, यह लो अपना पीला दुपट्टा,’’ कपड़ों के ढेर से पीला दुपट्टा झंक रहा था, उसे देखते ही श्रेया बोली.

‘‘सच भाभी, तुम्हारी आंखें हैं या एक्सरे मशीन, झट से खोज डाला.’’

श्रेया सोचने लगी, ‘कितनी सुंदर है मंदा. इस के भैया से बात करनी होगी कि इस की शादी की चिंता करें, नहीं तो यह हाथ से निकल जाएगी. आज प्रोफैसर के पीछे दीवानी है, कल कोई इस के पीछे परवाना होगा. यह इस उम्र का दोष है,’ मंदा की खूबसूरती और रूपसज्जा देख श्रेया सचेत हो उठी.

वह भी तो कभी पल्लव की इसी तरह दीवानी थी. तभी तो सारी सुखसुविधाएं छोड़ कर वह इस मध्यवर्गीय परिवार में बहू बन कर आई. आज भी इस घर के प्रत्येक सदस्य से तालमेल बिठाना वह अपना कर्तव्य समझती है. यह उस के लिए खुशी की बात है कि उस के विरोध के बावजूद उस के मातापिता को उस के दृढ़निश्चय और निश्च्छल प्रेम के आगे झकना पड़ा था.

‘किंतु, क्या मंदा और प्रोफैसर एक हो पाएंगे,’ इस उधेड़बुन में श्रेया घर के काम निबटाती रही. खातेपीते, घर व्यवस्थित करतेकरते बच्चों का स्कूल से आने का समय भी हो गया.

श्रेया बसस्टौप की ओर चली. बिट्टू, चिंटी के सुर्ख मुखड़े देख उसे बच्चों पर प्यार उमड़ आया, क्योंकि सुबह उन्होंने दूध भी ठीक से नहीं पिया था. टिफिन में भी उन की पसंद का खाना वह नहीं दे पाई थी.

वह भी क्या करे, सुबह 5 बजे उठती है, नल से पानी भरती, चायनाश्ता बनाती है. आज उठने में ही थोड़ी देर हो गई थी. सुबह का आधा घंटा देर होने का अर्थ है कई कामों का उलटपुलट होना. आज भी यही हुआ. श्रेया ने बच्चों का बस्ता ले लिया. बिट्टू, चिंटी आगेआगे चलते हुए घर में घुसे.

‘‘मटरपुलाव,’’ अपना मनपसंद भोजन देख वे चहके.

फिर उन की ड्रैस बदलती, सारे दिन का हाल पूछती श्रेया सारी थकान भूल गई.

‘‘ओह, 4 बज गए,’’ श्रेया ने घड़ी की ओर नजर दौड़ा कर कहा और चाय बनाने चल दी. बच्चों को दूध, बड़ों को चाय ले कर यह सोच वह शाम के नाश्ते और खाने की तैयारी में जुट गईर् कि पल्लव आते ही होंगे.

रात का खाना निबटा और रसोईघर संभाल कर श्रेया जब अपने शयनकक्ष में पहुंची तो बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे. उन के मासूम चेहरे पर भोली मुसकान छाई हुई थी. उस ने दोनों बच्चों को प्यार किया, फिर सिर के नीचे तकिया लगाया. श्रेया की दिनचर्या छुट्टी के घंटों जैसी थी, 5 मिनट भी इधरउधर हुए नहीं कि कोई न कोई गड़बड़ी अवश्यंभावी है.

उस ने हसरतभरी नजरों से पल्लव की ओर देखा कि जनाब सो रहे होंगे, फिर बोली, ‘‘मजे तो इन के हैं. जल्दी सोओ, देर से जागो.’’

‘‘बहुत थक गई हो,’’ पल्लव का प्यारभरा स्वर सुन उस के अंदर कुछ पिघलने सा लगा.

‘‘अरे, जाग रहे हो,’’ श्रेया भौचक थी.

‘‘हां, तुम मां और मंदा को रसोई में क्यों नहीं लगातीं? जब तुम ब्याह कर नहीं आई थीं तो वे घर का सारा काम करती थीं या नहीं?’’ पल्लव कुछ ज्यादा ही चिंतित था.

‘‘यह आज तुम्हें हो क्या गया है?’’ श्रेया बोली, वह कुछ समझ नहीं पा रही थी.

‘‘तुम सुबह से मशीन की तरह खटती रहती हो. मां और मंदा हाथ बंटाएंगी तो तुम पर इतना बोझ नहीं पड़ेगा,’’ पल्लव सचमुच गंभीर था.

‘‘मेरे लिए इतनी चिंता?’’ श्रेया पलकें झपकाना भूल गई.

‘‘हां, तुम्हारे लिए. मैं कई दिनों से देख रहा हूं, तुम्हारी व्यस्तता बढ़ती ही जा रही है.’’

‘‘अब मांजी कितने दिनों तक काम करेंगी और मंदा कल को ससुराल चली जाएगी. वहां तो उसे घरगृहस्थी में जुटना ही होगा. फिर यहां तो संभालना मुझे ही है. हां, चंदर की कहीं नौकरी लग जाए तो देवरानी जरूर हाथ बंटाएगी. मैं इंतजार करूंगी,’’ कहते हुए श्रेया हंस पड़ी.

‘‘मजाक नहीं, श्रेया हम एक नौकर रख लेंगे. मैं ने तुम्हें दिल की रानी बनाया है, नौकरानी नहीं,’’ पल्लव का प्यारभरा स्वर सुन कर तो श्रेया का तनमन सराबोर हो गया.

‘‘नौकर रखेंगे जब रखेंगे, अभी तो सो जाएं.’’

दिनभर की थकीमांदी श्रेया नरम, गुदगुदे बिस्तर पर लेटते ही उबासी

लेने लगी.

भरीपूरी गृहस्थी, इतना प्यार करने वाला पति, सासुमां, ससुरजी का स्नेह, देवर का विश्वास, ननद का सखी सा अपनापन, प्यारेप्यारे बच्चे. इन के लिए भागदौड़ करने में जो आनंद है, संपूर्णता का जो एहसास है, इसे पल्लव क्या समझेंगे.

पल्लव की मजबूत बांहों में वह कब खर्राटें भरने लगी, उसे क्या पता.

‘अब कोई व्यवस्था करनी ही होगी,’ श्रेया के शिथिल तन को निहारते हुए पल्लव बुदबुदा उठा.

गली के मोड़ पर दरवाजा : शिखा ने ऐसा क्या कहा कि घर में गहरा सन्नाटा पसर गया ?

दिल के कहीं किसी कोने में कुछ दरकता सा महसूस हुआ. न जाने क्यों शिखा का मन जारजार रोने को कर रहा था पर उस के शिक्षित और सभ्य मन ने उसे डांट कर सख्ती से रोक लिया.

कितनी आसानी से हिमांशु ने कह दिया था, ‘तुम भी न, क्या ले कर बैठ गई हो, क्या फर्क पड़ता है, तुम्हें कौन सा रहना है उस घर में, ईंट और गारे से बने उस निर्जीव से घर के लिए इतना मोह. अपने पापामम्मी को समझओ कि फालतू में मरम्मत के नाम पर पैसा बरबाद करने की जरूरत नहीं. आज नहीं तो कल उन्हें उस घर को छोड़ कर बेटों के पास जाना ही पड़ेगा.’

घर तो निर्जीव था, हिमांशु को क्या पता वह घर आज भी शिखा के तनमन में सांसें ले रहा था. पिछले साल की ही तो बात है, गरमी की छुट्टियों में शिखा को गांव वाले घर जाने का मौका मिला था. सच पूछो तो इस में नया क्या था, कुछ भी तो नहीं, साधारण सी तो बात थी पर न जाने क्यों जर्जर होती उस घर की दीवारों को देख कर मन कैसाकैसा हो गया था. आखिर उस घर में बचपन बीता था उस का. चिरपरिचित सी दीवारें, घर का एकएक कोना न जाने क्यों शिखा को अपरचितों की तरह देख रहा था.

घर में नाममात्र के पड़े हुए फर्नीचर पर हाथ फेरने के लिए बढ़ाया हुआ शिखा का हाथ न जाने क्या सोच कर रुक गया. यादों के सारे पन्ने एकएक कर खुलने लगे. याद है उसे आज भी वह दिन. शादी के बाद पहली बार वह मम्मीपापा के साथ रस्म अदायगी करने आई थी. लाल महावर से रचे शिखा के पैरों ने जब घर की चौखट पर कदम रखा तो लगा मानो घर का कोनाकोना उस का स्वागत कर रहा था.

शायद इंसानों की तरह घरों की भी उम्र होती है. यह वही घर है जहां कभी रिश्तों की खिलखिलाहट गूंजती थी. बच्चों की किलकारियों से घर मंदमंद मुसकराता था पर आज उस घर की दीवारों पर यहांवहां उखड़ा पेंट नजर आ रहा था. एक बार तो शिखा को ऐसा लगा मानो दीवारों पर उदास चेहरे उभर आए हों. घर के सामने खड़ा आम का विशाल पेड़ और उस की लंबीलंबी डालियों को देख कर आज भी उसे ऐसा लगा मानो वे गलबहियों के लिए तैयार हों. मां से छिप कर उस पेड़ की नर्म छांव में अपने भाइयों के साथ नमकमिर्च के साथ कितनी कैरियां खाई थीं उस ने.

पर पता नहीं क्यों आज उस की तरफ देखने का शिखा साहस नहीं कर सकी. शायद उस की आंखों में तैर आए मूक प्रश्नों को ?ोलने की शिखा में हिम्मत नहीं थी.

एकएक कर के उस घर के सारे परिंदे इस घोंसले को छोड़ कर नए घोंसलों में चले गए और यह घर चुपचाप जर्जर व उदास मन से उन्हें जाता देखता रहा. कल ही तो पापा का फोन आया था. पापा ने कितने उदास स्वर में कहा था. शिखा पीछे वाले अहाते की धरन टूट गई है, तेरी शादी के वक्त ही रंगरोगन करवाया था. तेरे भाइयों से कहा कि कुछ मदद कर दें तो वे अपना ही रोना ले कर बैठ गए. बेटा देखा नहीं जाता, तेरे बाबा और दादी की एक यही निशानी तो बची है.

क्या एक बार वह हिमांशु से बात कर के देखे पर हिमांशु के लिए तो यह सिर्फ निर्जीव और जर्जर मकान भर ही था. तो क्या मांजी? शायद वे जरूर सम?ोंगी, आखिर वे भी तो.

‘ये देखो महारानीजी को, उलटी गंगा बहाने चली हैं. लोगों के यहां समधियाने से सामान आता है और ये वहां भेजने की बात कर रही हैं.’

‘मांजी, मैं उस घर की बेटी हूं, मेरा भी तो कुछ फर्ज है.’

शिखा का मुंह उतर गया था. घर के लोग उसे अजीब निगाहों से देख रहे थे जैसे उस ने कोई अजूबी बात कह दी हो. हिमांशु ने उसे जलती निगाहों से देखा. शायद उस का पुरुषत्व बुरी तरह आहत हो गया था. कमरे में जब सारी बात हो चुकी थी, फिर घर वालों के सामने यह तमाशा करने की क्या जरूरत है. वह अपनी मां के बारे में अच्छी तरह जानता था. उन्हें तो मौका मिलना चाहिए. आज शिखा की खैर नहीं, मां उसे उधेड़ कर रख देगी. हुआ भी वही.

‘शिखा, लोगों के मायके से न जाने क्याक्या आता है पर हमारा ही समय खराब है कि सास बनने का सुख ही न जान सके. अरे भाई, मायके वाले कुछ दे न सके ठीक पर दहेज में संस्कार भी न दे सके.’

शिखा की आंखें डबडबा गईं. शादी होने को 20 साल हो गए पर दहेज और संस्कार का ताना आज भी उस का पीछा न छोड़ पा रहे थे. उस ने बड़ी उम्मीद से हिमांशु की तरफ देखा. हिमांशु ने वितृष्णा से मुंह फेर लिया.

हिमांशु घर में सब से छोटे थे. बड़े भाइयों की शादियां अच्छे परिवारों में हुई थीं. अच्छे मतलब शादी में गाड़ी भर कर दहेज मिला था. मांजी की नजर में अच्छे परिवार का मतलब यही था. मांजी के पास कभी त्योहार तो कभी शगुन के नाम पर उपहारस्वरूप कुछ न कुछ समधियाने से आता ही रहता था. शिखा एक मध्यवर्गीय परिवार की इकलौती लड़की थी. पिता ने अपनी हैसियत के अनुसार सबकुछ दिया था पर उस की जिंदगी मांजी की कसौटी पर कभी खरी न उतरी.

ऐसा नहीं था कि मांजी चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुई हों. बचपन  से ले कर जवानी तक उन का जीवन संघर्षों में ही बीता था. पापाजी एक साधारण सी नौकरी ही करते थे पर बच्चों के चलते धन की वर्षा होने लगी. मांजी की तो मानो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई. जो रिश्तेदार कब का उन से मुंह फेर चुके थे, एकएक कर जुड़ने लगे थे. मांजी भी उन पर खुलेहाथों से पैसा लुटातीं. शिखा ने कई बार दबे स्वर में हिमांशु से इस बात को कहा भी था कि इस तरह पैसा लुटाना कहां की समझदारी है पर मांजी के फैसले के विरुद्ध जाने की किसी की भी हिम्मत न थी.

‘शिखा, मां का जीवन सिर्फ संघर्ष में ही बीत गया. अगर उन्हें इन सब चीजों से खुशी मिलती है तो तुम्हें क्या दिक्कत है?’

‘दिक्कत, हिमांशु, बात दिक्कत की नहीं पर मांजी जिस तरह से…’

‘तुम फालतू का दिमाग मत लगाओ. अगर भैयाभाभी को दिक्कत नहीं तो तुम क्यों फुदक रही हो.’

शिखा हिमांशु को देखती रह गई. क्या कहती, दिक्कत तो सभी को थी पर मांजी से कहने की हिम्मत किसी की भी न थी. कितनी बार चौके में जेठानियों को कसमसाते देखा है.

पिछले साल मौसीजी के इलाज के लिए मांजी ने एक लाख रुपए दे दिए थे तो अभी पिछले महीने घर में काम करने वाली बाई की बिटिया की शादी के नाम पर 10 हजार रुपए और कपड़े, बरतन व न जाने क्याक्या दे दिया. कभी मंदिर तो कभी जागरण के नाम पर हर महीने कुछ न कुछ जाता ही रहता था. उन की मांगें सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थीं.

एक दिन बड़े भैया ने दबे स्वर में कहा भी था, ‘मां, आप इस तरह से कभी सामान तो कभी पैसे बांटती रहती हो, कल अगर हमें जरूरत पड़ेगी तो क्या हमें कोई देगा?’

‘मैं ने लेने के लिए थोड़ी दिया है. तेरे पापा की कमाई से तो घर ही चल जाता, वही बड़ी बात थी पर अब जब प्रकृति ने दिया है तो फिर क्यों न करूं.’

शिखा को यह बात कभी समझ न आई कि जिन रिश्तेदारों ने कभी बुरे समय में उन का साथ तक न दिया, आज उन पर यों पैसे लुटाना कहां तक सही था. ‘‘शिखा, अपने कमरे में जाओ,’’ हिमांशु की आवाज सुन कर शिखा सोच की दलदल से बाहर निकल आई. पता नहीं क्यों एक अजीब सी जिद उस के मन में घर कर गई थी, आज वह बात कर के ही जाएगी.

‘‘मांजी, गांव वाला मकान जर्जर हो गया है, उस घर से मेरा बहुत जुड़ाव है. बाबादादी की आखिरी निशानी है वह.’’

‘‘तो?’’ मांजी ने बड़े तल्ख स्वर में कहा.

शिखा अपनेआप को मजबूती से बांधे खड़ी हुई थी. हिमांशु हमेशा की तरह उसे अकेला छोड़ अपने परिवार के साथ खड़े थे. इन बीते सालों में शिखा इतना तो समझ ही चुकी थी कि आज वह खुद के लिए खड़ी नहीं हुई तो कोई भी उस के लिए खड़ा न होगा. वैसे भी, अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है. जानती थी वह कि यहां जो होगा, सो होगा. बंद कमरे में चारदीवारी के बीच महीनों तक शिखा और हिमांशु के मध्य एक शीत युद्ध भी चलता रहेगा पर आज नहीं तो शायद वह कभी भी न कह पाएगी.

‘‘मांजी, मैं… मैं उस घर की मरम्मत के लिए कुछ पैसा भेजना चाहती हूं?’’

शिखा का गला सूख गया. पता नहीं अब कौन सा भूचाल आने वाला था. सब उसे ऐसे देख रहे थे जैसे अभी ही निगल जाएंगे.

‘‘देख लो, क्या जमाना आ गया है. बहू बेशर्मों की तरह मायके के लिए पैसे मांग रही है. एक जमाना था लोग बेटी के घरों का पानी तक नहीं पीते थे और यह अपने मायके के लिए ससुराल से पैसे मांग रही है. तेरे भाई भी तो हैं, तेरे पापा उन से क्यों नहीं मांग लेते?’’

‘‘पापा ने उन से भी कहा था पर बड़े भैया के अपने ही बहुत सारे खर्चे हैं और छोटे वाले ने पहले ही अपने मकान के लिए लोन ले रखा है, इसलिए.’’

‘‘इसलिए, मतलब?’’ यहां कोई पेड़ लगा है. कल बाप के मरने के बाद हिस्सा हथियाने तो सब से पहले चले आएंगे. एक बार भी नहीं सोचेंगे कि बहन का भी तो हक बनता है. जब उन्हें कोई चिंता नहीं तो तुम क्या हो, न तीन में न तेरह में. तुम काहे चिंता में गली जा रही हो.’’

शिखा की अंतरात्मा शब्दों के बाणों से बुरी तरह छलनी हो चुकी थी पर बोली, ‘‘मांजी, बेटी का हक सिर्फ जीवनभर पाने का नहीं होता. नौ महीने तो उसे भी पेट में रखा होता है. फिर जिम्मेदारी के नाम पर यह भेदभाव क्यों? एक लड़की को जीवनभर यह समझया जाता है कि उसे पराए घर जाना है पर वह पराया घर भी उसे ताउम्र पराया ही समझता है. जीवन गुजर जाता है एक लड़की को यह समझने में ही कि उस का अपना घर कौन सा है. आप भी तो इस घर की बहू हैं और मैं भी पर हमारे अधिकारों और कर्तव्यों में यह भेद क्यों?

‘‘आप खुलेहाथों से रिश्तेदारों, नौकरचाकर सभी को कुछ भी दे सकती हैं. आप से पूछने वाला कोई भी नहीं पर जब बात बहू के मायके वालों की आती है तब दुनियादारी और संस्कार की बातें क्यों होने लगती हैं. क्या गरीब और जरूरतमंद सिर्फ सास या ससुराल के रिश्तेदार ही हो सकते हैं, बहू के नहीं. अगर गलती से बहू का मायके का कोई रिश्तेदार कमजोर हो तो बहू पूरे परिवार के लिए हंसी का पात्र क्यों हो जाती है?

‘‘भाई की पढ़ाई के लिए पापा ने कैसेकैसे इंतजाम किए थे, हिमांशु से कुछ भी नहीं छिपा है पर किसी ने एक बार भी यह जानने या समझने की कोशिश की कि इस के परिवार को भी कभी जरूरत पड़ सकती है. अब तो मायके की जमीनजायदाद में लड़कियों की भी हिस्सेदारी होती है. तो फिर मायके की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों में हिस्सेदारी क्यों नहीं?’’

शिखा अपनी ही धुन में बोले जा रही थी, वर्षों से जमा कितनाकुछ उस ने सब के सामने उड़ेल कर रख दिया था. जेठानियां आश्चर्य से उसे देख रही थीं. मांजी धप्प की आवाज के साथ सोफे पर बैठ गईं. एक अजीब सी नफरत उस ने उन की आंखों में महसूस की. सच सभी को पसंद होता बशर्ते वह सच खुद का न हो.

घर में एक गहरा सन्नाटा पसर गया, इतना गहरा कि अपनी सांसें भी सुनाई पड़ जाएं. शब्द कहीं खो से गए थे. इतने वर्षों में शब्द तो यदाकदा चुभते ही रहते थे पर आज सब का मौन बुरी तरह चुभ गया था. किसी के पास जवाब न था और शायद इस सवाल का जवाब कभी मिले भी न. हम जीवनभर इस बात के लिए लड़ते हैं कि सही कौन है पर सही क्या है, क्या किसी ने कभी यह सोचा. लोग कहते हैं, औरत है तो घर घर है पर क्या उस घर के फैसले भी? समझना आसान है पर समझना कठिन.

शिखा भरे दिल और भरे कदमों से चुपचाप अपने कमरे में चली गई.

लोकतंत्र में डर कैसा ?

होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र  मोदी विपक्षी सांसदों से संसद की सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए उन्हें बुलाते लेकिन बजाय किसी सार्थक पहल के उन्होंने पौराणिक ऋषिमुनियों सरीखे विपक्ष को यह श्राप दे दिया कि यदि विपक्ष का यही रवैया रहा तो 2024 के चुनाव में वे और भी कम सीटों के साथ विपक्ष में ही बैठे रहेंगे. यह श्राप अधिनायकवाद का एक बेहतर उदाहरण है. यह बात भी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है कि नरेंद्र मोदी और उन की सरकार अपनी आलोचना बरदाश्त नहीं कर पाते हैं.

संसद से लगभग पूरा विपक्ष इसीलिए निलंबित है कि सुरक्षा के मसले पर सरकार घिरने लगी थी. उस की कमजोरियां सामने आ रही थीं. इन्हें ढकने और इस स्थिति से बचने के लिए उम्मीद के मुताबिक किया वही गया जो आमतौर पर धार्मिक किस्म की सरकारें करती हैं. संसद उन के लिए मंदिर, चर्च और मसजिद है जिस के दरवाजे पुरोहित, उलेमा या पोप जब चाहे बंद कर सकते हैं. वही ओ पी धनखड़ ने किया.

लैरी डायमंड अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र के प्रोफैसर हैं जो पिछले 10 सालों से कहते रहे हैं कि जिस तरह के बदलाव दुनियाभर की राजनीति में हो रहे हैं उन से लोग परेशान हैं क्योंकि लोकतंत्र को एक रेडीमेड चश्मे से देखा जाता था. किसी भी देश में लोकतंत्र को एक खास पैमाने पर तोला जाता था, इसलिए नए बदलावों को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जा रहा है.

इस की वजह और उदाहरण भी हैं. अमेरिकी संस्था प्यू की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1958 में जहां  73 फीसदी लोग यह मानते थे कि उन की सरकार सही फैसले लेगी, उन की संख्या इन दिनों सिमट कर 19 फीसदी रह गई है. भारत में अकसर नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जाता है. यह ठीक है कि यह आरोप लगाने वाले वही विपक्षी होते हैं जो संसद के बाहर खड़े हायहाय कर रहे हैं. लेकिन सच यह भी है कि आम लोगों से यह उम्मीद करना बेकार है कि वे भाजपा के इशारे पर चल रही संसद पर कुछ बोलेंगे.

ऐसा क्यों, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि अधिकतर देशों की तरह भारत के लोग भी अपनी ही चुनी गई सरकार से डरे हुए हैं. यह डर धर्म का है और सांसदों के निलंबन का मामला भी कुछ ऐसा ही है जैसे पुजारी ने भक्तों को मंदिर से बाहर कर मुख्यद्वार बंद कर लिया हो.

मंदिरों में प्रवेश के नियम बहुत कड़े होते हैं, मसलन जनेऊ की अनिवार्यता. भक्तों से अपेक्षा की जाती है कि वे पूजापाठ के विधिविधान के दौरान खामोश रहेंगे और मंत्रोच्चार के वक्त तो पुतले बने खड़े रहेंगे. ऐसा न करने पर पुजारी को पूरा हक रहता है कि वह भक्तों को नास्तिक और विधर्मी करार देते बाहर खदेड़ दे.

यही ओ पी धनखड़ ने किया लेकिन इस से भी परे असल बात लोगों का वह डर है जो उन्हें चुप रहने को मजबूर करता है. यह डर सिर्फ भगवान और दैवीय प्रकोप का होता है. अव्वल तो लोकतंत्र अगर है तो किसी को डरने की जरूरत नहीं लेकिन जब धार्मिक लोकतंत्र हो तो डरना जरूरी हो जाता है. डराने में प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी माहिर हैं. काशी में अपने भाषण के दौरान उन्होंने महादेव के आशीर्वाद का जिक्र यों ही नहीं किया था.

अकेले वाराणसी में ही नहीं बल्कि हर जगह उन की वेशभूषा धार्मिक होती है. वे पुरोहितों जैसी पोशाक पहनते हैं, माथे पर त्रिपुंड लगाते हैं और हर भाषण में राम, शंकर, हनुमान और कृष्ण के नाम जरूर मौके और जगह के हिसाब से लेते हैं. उन की धार्मिक छवि ही उन्हें तथाकथित रूप से लोकप्रिय बनाती है और लोग ताली बजा कर उन का प्रवचननुमा भाषण आत्मसात कर लेते हैं.

पुराने दौर के राजामहाराजा भी इसी तरह भगवान के नाम पर ही जनता को नियंत्रित रखते थे. वह उन्हें भरोसा दिलाया करता था कि वह जनहित में जरूरी काम कर रहा है लेकिन कैसे, इस बाबत कोई आवाज नहीं उठनी चाहिए. इधर देश में जो जनहित के काम हो रहे हैं वे दरअसल किस तरह बहुसंख्यकों को संतुष्ट करते हुए हैं, इस बारे में देसी मीडिया से कोई उम्मीद करना बेकार है लेकिन विदेशी मीडिया खामोश नहीं रहती.

अमेरिकी विदेश नीतियों पर आधारित सब से पुरानी और लोकप्रिय मैगजीन ‘फौरेन अफेयर्स’ भारत में लोकतंत्र की हालत पर कहती है कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी प्रैस की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक अधिकारों और न्याययिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात कर रहे हैं. मोदीजी की यही अदा बहुसंख्यकों को भाती और लुभाती है. इस के लिए वे अपने व्यक्तित्व और पोशाक सहित भाषणों में धर्म का तड़का लगाते रहते हैं.

लेकिन 85 फीसदी लोग इस से मन ही मन असहमत होते हुए भी मजबूरी में इसे स्वीकार लेते हैं क्योंकि वे मुख्यधारा में नहीं हैं. मुमकिन है इन में से मुट्ठीभर उन से सहमत होने लगे हों लेकिन वे अभी इतने नहीं हैं कि चुनावी बिसात पलट या उलट पाए.

विपक्ष की मजबूरी

संसद की मौजूदा हालत पर कोई खास सुगबुगाहट देश में नहीं है क्योंकि इसे भी पूजापाठ में व्यवधान डालने जैसा प्रचारित कर दिया गया है. विपक्ष की मजबूरी यह है कि वह सरकार के धार्मिक चेहरे से नकाब नहीं उठा पा रहा है. धर्म को लोकतांत्रिक राजनीति से दूर क्यों रहना चाहिए, इस के लिए उस के पास वे टोटके नहीं हैं जो भाजपा के पास इस बाबत हैं कि धार्मिक राजनीति लोकतंत्र में क्यों जरूरी है और विपक्ष अगर सत्ता में आया तो वह कैसे धर्म और हिंदुत्व को तहसनहस कर देगा.

ऐसी हालत में हालत बदलने की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि विपक्ष भी खुद को धार्मिक दिखाने लगता है जबकि उसे सिर्फ स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर जोर देना चाहिए, वह भी इस तरह कि लोग उस से इस बात को ले कर भयभीत और शंकित न रहें कि ये हमारी धार्मिक पहचान छीन लेंगे. इन लोगों को भाजपा से धर्मरक्षा की गारंटी मिली हुई है और इस का रोजरोज ‘रिनुअल’ कराया जाता रहता है.

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, ऐसे में यह रोग अभी और बढ़ेगा. पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का हल्ला है और इस के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं. यह डर 80 फीसदी काल्पनिक है लेकिन अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप खुलेआम कहने लगे हैं कि वे एक दिन का तानाशाह बन कर श्वेतों को देश का मालिक बना देना चाहते हैं. इस बात पर उन्हें अमेरिका के बहुसंख्यकों जो कम होते जा रहे हैं, का समर्थन भी मिल रहा है क्योंकि ये लोग भी डर गए हैं कि उन का देश, जमीनजायदाद, धार्मिक पहचान, कारोबार वगैरह सब छीन लिए जाएंगे.

अगर यह सब तानाशाही से बचता है तो सौदा घाटे का नहीं. दूसरी तरफ अश्वेत भी घबराए हुए हैं कि एक दफा ट्रंप के रहते तो श्वेत उन्हें शायद बख्श भी दें लेकिन जो बाइडेन शायद ही सरेआम होने वाली संभावित हिंसा से बचा पाएं.

रैस्टोरेंट या ढाबा, जहां जितनी कीमत उतनी सुविधाएं

अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में दिखाया गया कि मुंबई एयरपोर्ट पर एक डोसा खाने के लिए 600 रुपए देने होंगे. बटर डोसा की कीमत 620 रुपए है. इस वीडियो को कैप्शन दिया गया- मुंबई एयरपोर्ट पर सोना, डोसे से भी सस्ता है. शेयर किए जाने के बाद वीडियो को लाखों बार देखा गया और 2 लाख से ज्यादा लाइक्स मिले. जाहिर है पैसे वाले लोग फ्लाइट पकड़ने से पहले महंगा होने के बावजूद लोग वहां जा कर खाने की बात जरूर सोचेंगे क्योंकि कई दफा कीमत से ज्यादा उस जगह की अहमियत होती है.

बात करें दुनिया के सब से महंगे रैस्टोरेंट की तो यह है स्पेन का सब्लीमोशन रैस्टोरेंट. यहां सामान्य खाना खाने पर भी आप को करीब 2,000 डौलर का बिल चुकाना पड़ता है जो भारतीय रुपए में करीब 1,63,000 रुपए बनता है. सब्लीमोशन रैस्तरां स्पेन के इबिजा द्वीप पर बनाया गया है. इस पर बैठने के बाद आप को अपने मन के मुताबिक नजारा दिखेगा.

इसी तरह हमारे यहां के कितने ही फाइवस्टार होटल्स और लग्जीरियस रैस्टोरेंट्स हैं जहां आ कर भोजन करने का अलग ही एहसास होता है. दरअसल ऐसी जगहों पर सिर्फ खाना ही लजीज नहीं होता बल्कि पूरा माहौल सुकूनभरा, म्यूजिकल, हाइजीनयुक्त, कंफर्टेबल और आंखों को भाने वाला होता है. कहीं गंदगी या मिसमैनेजमैंट नजर नहीं आता.

हल्दीराम, सागर रत्ना, आंध्र भवन, बुखारा, कौफी हाउस, सर्वना भवन, स्पाइस रूट, काके दा होटल, नैवैद्यम, सात्विक जैसे बहुत से बेहतरीन रैस्टोरेंट्स हैं जहां आप मनचाहा खाना खा सकते हैं. ये महंगे हैं मगर सर्विसेज देखते हुए पैसा देना अखरता नहीं.

कंफर्ट और हाइजीन का मूल्य

होटलों या रैस्टोरेंट्स में खाना महंगा होने के कई कारण हैं जैसे खाने में इस्तेमाल पदार्थों जैसे तेल, घी, मसाले, सब्जियां, मेवे इत्यादि की क्वालिटी बेहतर होती है. दूसरे, जिस वातावरण में बैठ कर आप खा रहे हैं उस जगह की कीमत, साफसफाई, क्रौकरी, खाना पकाने वाले कुक का स्तर, ट्रैंड सर्व करने वाले लोग आदि पर भी काफी खर्च आता है. हमें एसी कमरे में आराम से खाने का मौका दिया जाता है.

तीसरे, टैक्स यानी हर स्तर के होटल या रैस्टोरेंट पर टैक्स की दरें भिन्न होती हैं. जबकि सड़कों पर स्ट्रीट फूड बेच रहे लोगों या ढाबे वालों को ऐसे खर्चे नहीं करने होते. हो सकता है एक ढाबे वाले का खाना किसी बड़े होटल के मुकाबले कहीं अधिक स्वाददार हो और खाना पकाने में बराबर ही खर्च होता हो परंतु होटलों में हम मिलने वाली सुविधाओं और हाइजीन का मूल्य चुकाते हैं.

बड़ेबड़े होटल्स या रैस्टोरेंट्स में खाने के ऊपर इतना टैक्स लगता है कि उस की सामान्य कीमत से वह लगभग 4 गुना महंगा हो जाता है. यह भी एक वजह है कि वहां पर खाना महंगा मिलता है. समोसे छोटे ढाबों या ठेलों पर 10-15 रुपए में मिल जाते हैं. वहीं समोसे अच्छे रैस्टोरेंट्स में 50-60 रुपए में मिलते हैं.

महंगे होटल में जहां पर एक चाय या कौफी की कीमत 100-200 रुपए वसूली जाती है तो उस चाय को देने का तरीका, वहां की व्यवस्था और साफसफाई इस लायक होती है कि इंसान इतने रुपए खुशी से खर्च करे, जबकि सड़कों और ढाबों पर वही चाय 5-10 रुपए में मिलती है. वहां पर सफाई व्यवस्था नहीं होती है. गंदे हाथों से काम किया जाता है. गंदा पानी यूज होता है.

चायकौफी या खाना सर्व करने का कोई सही तरीका नहीं होता. बरतनों की भी ठीक से सफाई नहीं की जाती. चाय बनाने में पुरानी ही चाय पत्ती कई बार यूज होती है. इसी तरह समोसे, पकौड़े या कचौरियां आदि तलने में वही तेल बारबार इस्तेमाल होता है जिस का बुरा असर खाने वाले की सेहत पर हो सकता है. दोनों में यही मुख्य अंतर होता है.

महंगे होटल में साफसफाई की व्यवस्था का ध्यान रखा जाता है और सस्ते में इन सुविधाओं का लाभ नहीं मिलता है. यह आप को तय करना है कि आप कहां खाना पसंद करेंगे?

मेरा देवर दिनभर क्राइम शो देखता रहता है, मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 35 वर्षीया गृहिणी हूं. सासससुर की हाल ही मैं डैथ हुई है. मेरा 17 साल का देवर हमारे साथ ही रहने लगा है. मैं उस से अपने बच्चे जैसा ही प्यार करती हूं. मैं कई दिनों से नोटिस कर रही हूं कि वह टीवी में क्राइम शो देखता रहता है. यहां तक कि बातें भी उसी को ले कर करता है. इस कारण थोड़ा अग्रेसिव भी हो गया है.

अभी थोड़े दिनों पहले सोसाइटी के कुछ लड़कों के साथ उस का   झगड़ा भी हो गया था. मैं ने इस बात को ले कर उसे डांटा तो वह मुझे कुछ बोला तो नहीं लेकिन उस दिन के बाद से मुझ से कम ही बात करता है. मैं ने उसे क्राइम शो देखने से मना किया लेकिन मेरा कहा न मान कर वह अभी भी क्राइम शो देखता है. मुझे डर है कि कहीं उस की यह लत उसे गलत दिशा में न ले जाए. मैं क्या करूं ताकि वह गलत राह पर न जाए ?

जवाब

टीवी पर आने वाले क्राइम शो काल्पनिक होते हैं. जो समाज में जागरूकता तो नहीं फैलाते अलबत्ता लोगों को गुमराह जरूर करते हैं. अकसर रिश्ते में धोखाधड़ी, एक दोस्त द्वारा दूसरे दोस्त का कत्ल, पैसे के लिए हत्या, शादी में धोखा, अवैध संबंध, पतिपत्नी के रिश्तों में विश्वास का अभाव दिखाना कहीं न कहीं लोगों के मन में अपनों के प्रति अविश्वास का भाव ही पैदा करता है. यकीनन, टीवी पर दिखाए जाने वाले अधिकतर क्राइम शो न सिर्फ रिश्तों को प्रभावित करते हैं, अपराधियों के लिए मार्गदर्शक की भूमिका भी निभाते हैं.

बच्चों को तो इन धारावाहिकों से दूर ही रखने में भलाई है और फिर आप के देवर की उम्र तो अभी कम है. अगर वह अपराध कथाओं को पसंद करता है तो मनोहर कहानियां जैसी अपराध कथा वाली पत्रिका को उसे सौंप सकते हैं. इस पत्रिका में रोमांचित ढंग से अपराध से जागरूक किया जाता है. आप उसे प्यार से सम  झाने की कोशिश करें. उसे अच्छी पत्रिकाएं या अच्छा साहित्य पढ़ने को दें या प्रेरित करें. आप चाहें तो अपने पति से भी बात करें ताकि समय रहते उसे सही दिशा की ओर मोड़ा जा सके.

मूत्राशय को इंटरस्टिम तकनीक से करें कंट्रोल, जानें कैसे

2 बच्चों की 40 वर्षीय मां सुनंदा को उस समय कुछ राहत मिली जब उस ने ‘इंटरस्टिम टैक्नोलौजी’ से मूत्र असंयमता पर काबू पाया. इस से पहले सुनंदा ने कई इलाज करवाए पर फायदा बहुत कम था. जरा सी छींक, हंसी या खांसने से उस का यूरिन अनायास ही निकल आता था. उस ने अपनेआप को कहीं जानेआने से भी रोक रखा था. आम स्थान पर इस तरह की समस्या उस के लिए शर्मनाक थी.

मूत्र असंयम, दरअसल मूत्राशय पर नियंत्रण का न होना है. यह एक आम समस्या है जो अकसर खांसी, छींक आने पर आप को होती है. उस वक्त अगर आसपास शौचालय न मिले तो मूत्र को रोक पाना असंभव हो जाता है. यह दैनिक गतिविधियों को प्रभावित करता है. लोग डाक्टर के पास जाने से संकोच करते हैं. यह बीमारी लाइलाज नहीं. समय रहते अगर इस का इलाज किया जाए तो व्यक्ति नौर्मल जिंदगी बिता सकता है. अधिकतर महिलाएं इस की शिकार होती हैं. प्रसव के बाद यूरिनरी ट्रैक लूज हो जाने से यह समस्या आती है पर कई बार पुरुषों और कम उम्र की महिलाओं को भी यह समस्या हो जाती है. इस के रिस्क फैक्टर निम्न हैं-

  • तनाव से यह बीमारी बढ़ती है. इस बीमारी के चलते पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक तनावग्रस्त हो जाती हैं. इस के अलावा प्रसव के बाद, मेनोपोज वाली महिलाओं या प्रोस्टेट ग्लैंड की समस्या वालों को यह बीमारी हो सकती है.
  • मोटापा या वजन अधिक होने पर जब आप खांसते या छींकते हैं, आसपास की मांसपेशियों पर दबाव पड़ने से मूत्राशय पर पकड़ कम हो जाती है और अनैच्छिक रूप से यूरिन निकलने लगता है.
  • कोई न्यूरोलौजिकल बीमारी या मधुमेह होने से इस बीमारी का रिस्क बढ़ता है.

इस बीमारी के लक्षण निम्न हैं-

  • जब आप को बारबार पेशाब के बाद भी असहजता लगे.
  • पेशाब के बाद भी आप के कपड़े गीले हो जाएं.
  • कुछ भारी उठाने, छींकने या हंसने पर अनायास यूरिन निकल जाए.

ये सभी लक्षण इस बीमारी की ओर इशारा करते हैं. यह बीमारी किसी उम्र में किसी भी व्यक्ति को हो सकती है. इंटरस्टिम तकनीक के द्वारा ब्रेन और नर्व दोनों को कंट्रोल किया जाता है. इस बारे में डा. रैना बताते हैं कि जब यूरिन का ब्लैडर भरा होता है तो व्यक्ति अपने ब्रेन द्वारा उसे कंट्रोल कर उपयुक्त स्थान पर यूरिन करता है और जब यह वायरिंग ‘क्रिस क्रौस’ हो जाती है तो मरीज नर्वस हो जाता है. न्यूरो मौड्यूलेशन द्वारा इसे ठीक किया जा सकता है. यह तकनीक काफी उन्नत है. यह इलाज दिल्ली, मुंबई, चैन्नई और हैदराबाद में किया जाता है.

इस तरह के इलाज के लिए अधिकतर वही व्यक्ति आता है जिस ने हर तरह की चिकित्सा करवा ली है और असर नहीं हो रहा. इसलिए इस इलाज के पहले प्रारंभिक प्रक्रिया की जाती है, जिस के तहत यूरो मौड्यूलेट किया जाता है. इस में एस थ्री फोरम में निडिल डाल कर लीड डाली जाती है.

‘नर्व को स्टिमुवेट’ कर बैटरी द्वारा उसे सैटिंग पर रखा जाता है. यह अधिकतर पोविक फलों के पास किया जाता है. 2 से 3 हफ्ते इस विधि द्वारा व्यक्ति की सहजता को आंका जाता है. अगर मरीज अपने यूरिन पर कंट्रोल पा लेता है तो उसे मरीज के अंदर प्रत्यारोपित किया जाता है. यह एक प्रकार की चिप होती है जो बैटरी द्वारा कंट्रोल होती है. एक बैटरी की लाइफ 5 साल तक होती है.

इस प्रक्रिया के लिए मरीज को पूरा बेहोश करने की आवश्यकता नहीं होती, लोकल एनेस्थेसिया के जरिए चिप को नस के ऊपर बैठा कर सैट कर दिया जाता है. रोगी उसी वक्त यूरिन पर कंट्रोल करना सीख जाता है. केवल एक सप्ताह एंटीबायोटिक देने के बाद व्यक्ति नौर्मल जिंदगी जी सकता है. इस का सक्सैस रेट काफी अच्छा है. यह उपाय महंगा है पर आवश्यक है.

इस का इलाज कराने वालों को बारबार बाथरूम की ओर नहीं भागना पड़ता और वे सैर पर, लंबी यात्रा पर भी जा सकते हैं.

एक्सोनिक्स नाम का एक और उपचार भी अब उपलब्ध है. मरीजों को दोनों के बारे में अपने डाक्टर से पूछताछ करनी चाहिए. एक्सोनिक्स के बनाने वालों का दावा है इस डिवाइस में कम बैटरी इस्तेमाल होती है.

मधुमेह के रोगी भी मधुमेह को कंट्रोल कर इसे लगवा सकते हैं. यह सिक्रेल नर्वस ब्लैडर को कंट्रोल करती है जिस से यूरिनरी मसल्स कंट्रोल में आ जाते हैं. अगर मस्तिष्क और सिक्रेल नर्वस दोनों सही दिशा में काम करते हैं तो यह समस्या खत्म हो जाती है.

Valentine’s Day 2024 : एक बार फिर – शिखा और शैलेश का रिश्ता क्या जुड़ पाया ?

शिखा ने कमरे में घुसते ही दरवाजा बंद कर लिया और धम्म से पलंग पर बैठ गई. नयानया घर, नईनई दुलहन… सबकुछ उसे बहुत अजीब सा लग रहा था. 25 वर्ष की उम्र में इतना सबकुछ देखा था कि बस, ऐसा लगता था कि जीवन खत्म हो जाए. अब बहुत हो चुका. हर क्षण उसे यही एहसास होता कि असंख्य निगाहें उस के शरीर को भेदती हुई पार निकल जातीं और आत्मा टुकड़ेटुकड़े हो कर जमीन पर बिखर जाती.

पलंग पर लेटते ही उस की निगाहें छत पर टिक गईं. पंखा पूरी तेजी से घूम रहा था. कमरे की ट्यूबलाइट बंद थी. एक पीला बल्ब बीमार सी पीली रोशनी फेंक रहा था. अचानक उस की निगाहें कमरे के कोने में फैले एक जाले पर पड़ीं, जिस में एक बड़ी सी मकड़ी झूल रही थी. कम रोशनी के कारण जाला पूरी तरह दिख नहीं रहा था, लेकिन मकड़ी के झूलने की वजह से उस का आभास जरूर हो रहा था.

वह एकटक उसे देखती रही. पता नहीं क्यों जाला उसे सम्मोहित कर देता है. उसे लगता है कि इस जाल में फंसी मकड़ी की तरह ही उस का जीवन भी है. आज एक महीना हो गया उस की शादी को, पर हर पल बेचैनी और घबराहट उसे घेरे रहती है. रोज मां का फोन आता है. हमेशा एक ही बात पूछती हैं, ‘कैसे लोग हैं शिखा, शेखर कैसा है, उस के मातापिता का व्यवहार ठीक है. चल बढि़या, वैसे भी पढ़ेलिखे लोग हैं.’

मां बारबार उसे कुरेदती पर उस का जवाब हमेशा एक जैसा ही होता, ‘‘हां, मम्मी, सब अच्छे हैं.’’

वैसे भी यह उत्तर उस के जीवन की नियति बन गया था. चाहे कोई कुछ भी पूछता, उस की जबान से तो सिर्फ इस के अलावा कुछ निकल ही नहीं सकता था. चाहे कोई उसे मार ही क्यों न डाले. पहले ही उस ने मांबाप को कितने दुख दिए हैं. पुराने खयालों से जुड़े मांबाप के लिए यह कितना दुखद अनुभव था कि मात्र 25 साल की उम्र में उन्हें उस की दूसरी शादी करनी पड़ी.

उस की आंखें डबडबा आईं. पीली रोशनी उसे चुभती हुई महसूस हुई. उस ने उठ कर लाइट बंद की और दोबारा लेट गई. आंसू बरबस ही निकल कर गालों पर ढुलकने लगे.

3 साल पहले उस का जीवन कितना खूबसूरत था. पंछी की तरह स्वच्छंद, खिलीखिली, पढ़ाईलिखाई करती, खेलतीकूदती एक अबोध युवती. मांबाप भले ही बहुत ज्यादा अमीर नहीं थे, अधिक सुखसुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन घर का माहौल कुल मिला कर बहुत अच्छा था. वैसे घर में था भी कौन. अम्मांबाबूजी, वह खुद और छोटा भाई नवीन जो अभी हाल ही में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के निबटा था.

दोनों भाईबहनों के बीच गहरी समझ थी. घर पर मां की तबीयत ठीक नहीं रहती थी. एक बार बातोंबातों में बहू की बात चलने लगी, पर फिर सभी को लगा कि पहले लड़की के हाथ पीले हो जाएं, फिर नवीन के बारे में सोच सकते हैं. स्वयं नवीन भी यही सोचता था.

शिखा परिवार के इस आकस्मिक निर्णय से हैरान रह गई. ‘अभी से शादी, अभी तो उस की उम्र ही क्या है. पूरी 22 साल की भी नहीं हुई.’ उस ने बहुत विरोध किया.

लाड़प्यार में पली शिखा का विरोध सफल भी हो जाता, पर तभी एक घटना घट गई. पड़ोस के त्रिभुवनजी के लड़के की शादी में शैलेश व उस के परिवार वाले आए. दोचार दिन साथ रहे. त्रिभुवनजी से इन के संबंध बहुत अच्छे थे. उन की लड़की विभा, शिखा की अच्छी सहेली थी. घर पर आनाजाना था. शिखा के परिवार वालों ने भी कामकाज में हाथ बंटाया. इस दौरान सभी लोग न केवल एकदूसरे के संपर्क में आए, वरन प्रभावित भी हुए.

शैलेश का परिवार जल्दी ही विदा तो हुआ, पर थोड़े ही दिन बाद उन का प्रस्ताव भी आ गया. प्रस्ताव था, शैलेश व शिखा की शादी का. शिखा के पिताजी शादी की सोच तो रहे थे, पर यह बात अभी तक केवल विचारों में ही थी. जीवन में कई बार इस तरह की घटनाएं घटती रहती हैं.

आदमी किसी बात के लिए अपनी मानसिकता तैयार करता है, लेकिन एकदम से ही स्थिति सामने आ कर खड़ी हो जाए, तो वह हड़बड़ा जाता है. शिखा के घर वाले इस अप्रत्याशित स्थिति से असमंजस में पड़ गए, क्या करें, क्या न करें.

पहले तो यही सोचा कि अभी से शादी कर के क्या करेंगे. अभी उम्र ही क्या है, पर अंतत: रिश्तेदारों से बातचीत की तो उन की सोच बदल गई.

सभी ने एक ही बात कही, ‘भई, शादी तो करनी ही है. ऐसी कम उम्र तो है नहीं, 22 की होने वाली है. लड़की की शादी समय से हो जाए, वही अच्छा है. फिर 2-3 साल बाद परेशानी शुरू हो जाएगी. तब फिर दुनिया भर में भागते फिरो और दोचार साल और निकल गए तो लड़की को कुंठाएं घेर लेंगी और मांबाप की नींद हराम हो, सो अलग. फिर इस से अच्छा परिवार उन्हें भला कहां मिलेगा.

‘लड़का सुंदर है. अच्छा कमाता है. पिताजी अच्छेखासे पद पर थे. अभी काफी नौकरी बाकी थी. कोई लड़की नहीं, बस, एक छोटा भाई जरूर था. सीमित परिवार. इस से अच्छा विकल्प मिलना बहुत मुश्किल था.’

और फिर शिखा का भी इतना सशक्त विरोध नहीं रहा. वह बिलकुल ही घरेलू लड़की थी. पढ़ने में औसत थी ही और जीवन के बारे में कोई बड़ी भारी योजनाएं थीं भी नहीं. कुल मिला कर चट मंगनी और पट ब्याह. सबकुछ ठीकठाक संपन्न हो गया.

हंसतीखिलखिलाती शिखा विदा हुई और शैलेश के घर पहुंच गई. शुरूशुरू में सब अच्छा रहा, पर धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. घर वालों की असलियत धीरेधीरे सामने आ गई. अपने पढ़ेलिखे व कमाऊ लड़के के लिए साधारण सा दहेज पा कर वे जरा भी संतुष्ट नहीं हुए.

रिश्तेदारों की व्याख्या ने आग में घी का काम किया और धीरेधीरे छोटे से अंसतुष्टि के बीज ने दावानल का रूप ले लिया. फिर क्या था, हर बात में कमी, हर बात पर शिकवाशिकायत. सारी बातें इतना गंभीर रूप नहीं लेतीं, लेकिन शैलेश भी अपने मातापिता के सुर में सुर मिला कर बोलने लगा.

शिखा सुदंर थी, पढ़ीलिखी थी, पर उस की मानसिकता घरेलू लड़की की थी. जब शैलेश अपने साथ काम कर रही लड़कियों से शिखा की तुलना करता तो उसे कुंठा घेर लेती. उसे लगता कि उस के लिए तो एक प्रोफैशनल लड़की ही ज्यादा अच्छी रहती.

बस फिर क्या था. शिखा का जीवन बिलकुल ही नरक हो गया. जहां तक उस के बस में रहा उस ने सहा भी, पर जब पानी सिर से गुजरने लगा, तो उसे मजबूरन घर वालों को बताना पड़ा. घर वाले उस की बातें सुन कर सन्न रह गए. उन के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई. उन्होंने बहुत हाथपांव जोड़े, मनुहारमन्नतें कीं, पर कोई परिणाम नहीं निकला.

और फिर धीरेधीरे यह भी नौबत आ गई कि छोटीमोटी बातों पर शैलेश उस के साथ मारपीट करने लगा. सारे घर वाले मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते रहते. शिखा को लगा कि अब कोई विकल्प नहीं बचा इसलिए वह घर छोड़ कर वापस मायके आ गई.

मांबाप ने उसे इस हालत में देखा तो उन्हें बहुत धक्का लगा. नवीन तो गुस्से के मारे पागल हो गया. पिताजी ने ताऊजी को बुलवाया. सलाहमशविरा चल ही रहा था कि एक दिन शिखा के नाम तलाक का नोटिस आ पहुंचा.

घर के आंगन में तो सन्नाटा पसर गया. अम्मांबाबूजी दोनों ने जीवन देखा था. वे मतभेद की घटनाओं से दुखी हुए पर उन्हें इस परिणाम का जरा भी एहसास नहीं था. उन्होंने लड़ाईझगड़े तो जीवन में बहुत देखे थे, सभी लोग बातें तो न जाने कहांकहां तक पहुंचने की करते थे, पर अंतत: परिणति सब मंगलमय ही देखी थी. पर अब खुद के साथ यह घटित होते देख वे बिलकुल टूट ही गए. वे ताऊजी को ले कर शैलेश के घर गए भी पर कोई परिणाम नहीं निकला.

इसी तरह दिन गुजरने लगे. मांबाप की हालत देख कर शिखा का कलेजा मुंह को आ जाता था. उसे लगता था कि वह ही इस हालत के लिए जिम्मेदार है. एक गहरा अपराधबोध उसे अंदर तक हिला देता था. वह मन ही मन घुटने लगी. उधर अम्मांबाबूजी व नवीन भी उस की यह हालत देख कर दुखी थे, पर उन्हें भी कुछ नहीं सूझता था. उन्होंने उस से भी आगे पढ़ने के लिए जबरदस्ती फार्म भरवा दिया.

उधर मुकदमा चलने लगा और फिर एक दिन तलाक भी हो गया. शिखा ने इसे नियति मान कर स्वीकार कर लिया. इंसान के जीवन में जब तकलीफें आती हैं, तो उसे लगता है कि वह उन्हें कैसे बरदाश्त कर पाएगा.

पर वह स्वयं नहीं जानता कि उस के मन में सहने की कितनी असीम शक्ति मौजूद है. वह धीरेधीरे अपनी पढ़ाई करने लगी.

इसी तरह काफी समय निकल गया. नवीन की शादी की बात चलने लगी. लोग बातचीत करने आते, पर शिखा का सवाल प्रश्नचिह्न की तरह सब के सामने खड़ा हो जाता था. शिखा को बस, लगता कि धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

नवीन को भी उस की बहुत चिंता थी. उस ने अम्मांबाबूजी पर जोर डाला कि वे दीदी को पुनर्विवाह के लिए राजी करें.

शिखा इस बात को सुन कर बहुत भड़की, चिल्लाई. उस ने 2 दिन तक खाना नहीं खाया, पर फिर जब अम्मां उस के कमरे में आ कर रोने लगीं, तो उसे लगा, बस, अब वह उन की इच्छाएं पूरी कर के ही उन्हें तार सकती है. उस ने खुद को नदी में बहती हुई लकड़ी की तरह छोड़ दिया, जिसे धारा बहाती ले जा रही है.

बस, जल्दी ही शादी हो गई. न कोई उमंगउल्लास, न कोई धूमधड़ाका. बहुत ही सीधेसादे ढंग से. उस ने वरमाला के समय ही तो दूल्हे को पहली बार देखा, पर कोई एहसास उस के मन में नहीं जगा.

बहुत ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं थे, फिर भी उसे ऐसा लग रहा था कि वह उन्हें बरदाश्त नहीं कर पा रही है. पलपल वह रस्में दोहराई जा रही थीं. हवनकुंड में अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई थी. छोटी व सूखी लकडि़यां चटकचटक कर जल रही थीं.

कैसी किस्मत है उस की, यही सब दोबारा दोहराना पड़ रहा है. 7 फेरे, पहले और किसी के साथ वचन… अब किसी और के साथ. पहले भी तो पवित्र अग्नि के सामने मंत्र उच्चारित किए गए थे, किसी ने मना नहीं किया था. क्यों नहीं निभा पाए इस वचन को? ऐसा क्यों हो जाता है?

पंडितजी ने सिक्के में सिंदूर भर कर नीलेश को पकड़ा दी. उस ने मुसकराते हुए शिखा की मांग में सिंदूर भर दिया. उस की सूनी मांग एक बार फिर सिंदूर से चमकने लगी. सिक्के का सिर पर स्पर्श होते ही उसे अजीब सा लगा. क्यों दोहराया जा रहा है उस के साथ ये सब. क्यों कोई मंत्र इतना ताकतवर नहीं रहा कि वह उस के सिंदूर को बचा पाता. छोटीछोटी बातें उस की मांग का सिंदूर उजाड़ गईं… तो फिर… उस की आंखें गीली हो गईं.

और फिर वह विदा हो कर पति के घर आ गई. ठीक वैसे ही जैसे कभी अम्मांबाबूजी का साथ छोड़ कर शैलेश के साथ चल दी थी. तब भी यही दोहराया गया था कि यही पति परमेश्वर है. यह घर ही सबकुछ है. अब ये ही तुम्हारे मातापिता हैं. तुम्हें मोक्ष तभी मिल पाएगा, जब तुम्हारी अंतिम यात्रा पति के कंधों पर जाएगी, पर शैलेश ने तो जीतेजी मोक्ष दिला दिया. जीतेजी उस की अंतिम यात्रा संपन्न करा दी. और अब यहां नए घर में… अब वह फिर पति के कंधों पर चढ़ कर मोक्ष की कामना करेगी.

तभी दरवाजे की आहट से वह चौंक गई. आंखों से आंसू पोंछते हुए उस ने दरवाजा खोला. सामने नीलेश मुसकराते हुए बोला, ‘क्या बात है, क्यों अंधेरा कर रखा है.’ वह क्या कहती, बस चुप ही रही.

नीलेश ने शिखा को सोफे पर बिठाया और खुद भी सामने सोफे पर बैठ गया.

‘तुम परेशान हो.’

वह फिर कुछ नहीं बोली. बस, आंखों से अश्रुधारा बहने लगी.

‘शिखा, पता नहीं, तुम क्यों अपराधबोध से ग्रसित हो. इतनी बड़ी दुनिया है. तरहतरह के लोग हैं. सब की मानसिकता अलगअलग है. यदि अम्मांबाबूजी ने तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ दिया, जिस के मापदंडों पर तुम खरी नहीं उतर सकीं तो क्या तुम अपनेआप को खत्म कर लोगी. एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिस ने केवल भौतिकवादी मापदंडों के आगे तुम्हें नकार दिया. तुम्हारी भावनाओं को बिलकुल नहीं समझा. एक ऐसे व्यक्ति के दिए गए कटु अनुभव को तुम क्यों जिंदगी भर संजो कर रखना चाहती हो.’

वह एक क्षण रुका और शिखा के आंसू पोंछते हुए बोला, ‘जीवन में हम दिनरात देखते हैं, इतनी विसंगतियों से भरा है जीवन. हर पल कहीं न कहीं किसी व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ घटता ही रहता है, ऐसे में व्यक्ति क्या करे. क्या वह किसी दूसरे के द्वारा की गई गलत हरकत से अपने अस्तित्व को मिटा डाले. कोई दूसरा अगर बुरा निकल जाए तो क्या तुम अपने सारे जीवन को अभिशप्त कर लोगी?’

वह रोने लगी, ‘नहीं, पर मुझे लगता है कि आप के साथ कहीं नाइंसाफी तो नहीं हुई है. मैं आप के लायक…’

‘तुम भी बस,’ नीलेश बीच में ही बोला, ‘अगर तुम्हारे साथ पहले कुछ घट गया हो, जिस के लिए तुम जिम्मेदार नहीं हो तो, क्या तुम्हारे व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया. शिखा, तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत अच्छा है. तुम्हारी सहजता, सौम्यता सभी कुछ अच्छा है. व्यक्तित्व का मूल निर्माण आदमी के आंतरिक गुणों से निर्मित होता है. अगर हमारे बाहरी जीवन में कुछ गलत हो गया तो इस का मतलब यह नहीं कि हम गलत हो गए.’

और सही बात तो मैं ने तुम से शादी कोई सहानुभूति की वजह से नहीं की. मैं ने तुम्हें देखा, तुम अच्छी लगी. बस, यही पर्याप्त है, पर अब आज से नया जीवन जीने का संकल्प लो. बीते हुए कल की छाया कहीं से अपने जीवन पर मत पड़ने दो. अब तुम्हें मेरे साथ जीना है. मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है.’

शिखा क्या कहती. उसे लग रहा था कि उस के जीवन पर छाई कुहासे की परत धीरेधीरे हटती जा रही थी. वह नीलेश से लिपट गई और उस के सीने में मुंह छिपा लिया. उस के आंसू निकल कर नीलेश के सीने पर गिर रहे थे. उसे लगा कि उस की पुरानी जिंदगी की कड़वाहट आंसुओं से धुलती जा रही थी. अब शिखा खुश थी, बहुत खुश.

विवाहित महिलाओं में भी क्या मौत का कारण बनता है असुरक्षित गर्भपात ?

बहुत सारी जागरूकता के बाद भी गर्भपात शादीशुदा महिलाओं मौत का कारण बनता है. आंकड़े बताते है कि कुल  मौतों में 8 से 10 फीसदी मौतें असुरक्षित गर्भपात से होती है. परिवार नियोजन का सही प्रयोग न होने से शादीशुदा महिलाओं को गर्भपात के लिये जाना होता है. केवल उत्तर प्रदेश में हर साल 31 लाख गर्भपात होते है. 72 फीसदी महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात की जानकारी नहीं होती है. केवल 23 प्रतिशत महिलाओं को ही सुरक्षित गर्भपात की जानकारी होती है. राष्ट्रीय स्तर पर देखे तो भारत में 56 प्रतिशत गर्भपात असुरक्षित स्थित में होते है. इस असुरक्षित गर्भपात के कारण 8 प्रतिशत मातृ मृत्यु होती है. असुरक्षित गर्भपात के कारण तमाम दूसरी बीमारियां भी महिलाओं को हो जाती है.

उत्तर प्रदेश में मां बनने की उम्र की करीब 4.8 करोड़ महिलायें है. यह कुल आबादी का करीब 50 प्रतिशत है. मां बनने लायक उम्र की महिलाओं में 1.9 करोड महिलायें 15 से 24 आयु वर्ग की है. यह मां बनने वाली उम्र की महिलाओं का 40 प्रतिशत है. ऐसे में साफ पता चलता है कि 15 से 24 साल उम्र की महिलाओं पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. असुरक्षित गर्भपात ऐसी महिलाओं के लिये खतरनाक होता है. इससे समाज की बड़ी आबादी समाज के विकास में अपना सही योगदान नहीं दे पा रहे है.

गर्भपात पर खुलकर बोलने में बचती हैं महिलायें

संकोच, शर्म और बदनामी के डर के कारण महिलायें अप्रशिक्षित लोगों के चक्कर में फंसकर गर्भपात करा लेती हैं जो उनकी मौत का कारण बनता है. महिलायें अभी भी ऐसी हालत में खुलकर बोलने और सलाह लेने से बचती है. उत्तर प्रदेश में प्रति एक लाख में 216 माताओं की मौत हो जाती हैं. इनमें से 20 की मौत असुरक्षित गर्भपात के कारण होती है. यह संख्या देश भर में होने वाली मौतों की संख्या का 20 प्रतिशत है. गर्भपात से बचाव के लिए विवाहित जोड़ो को परिवार नियोजन से जोड़ना चाहिए.

उत्तर प्रदेश के परिवार कल्याण महानिदेशक डा. बद्री विशाल ने उप्र वालण्टरी हेल्थ एसोसिएशन द्वारा आईपास डेवलपमेंट फाउण्डेशन एवं साझा प्रयास के सहयोग से आयोजित की गयी ‘सुरक्षित गर्भपात समापन’ विषय पर एक दिवसीय राज्य स्तरीय कार्यशाला में कहा कि एमटीपी कानून के तहत यह प्रावधान है कि गर्भपात कराने वाले की जानकारी पूरी तरह से गोपनीय रखी जाती है, यहां तक कि इस जानकारी को सूचना के अधिकार के तहत भी नहीं मांगा जा सकता है. ऐसे में लोगों को इस बात के लिए जागरूक करने की आवश्यकता है कि संकोच और शर्म छोड़कर सरकारी अस्पताल के डॉक्टर से सम्पर्क करें, जिससे कि सुरक्षित गर्भपात हो सके.

अनचाहे गर्भ से बचाव और उसका प्रबन्धन

महाप्रबन्धक, परिवार नियोजन (एन.एच.एम.) डा0 अल्पना शर्मा ने इस विषय पर महिलाओं को जागरूक करने पर बल दिया. संयुक्त निदेशक, परिवार कल्याण डा0 विरेन्द्र सिंह ने एम.टी.पी. एक्ट को लेकर अपने विचार व्यक्त किये. यूपीवीएचए की कार्यक्रम प्रबन्धक श्वेता सिंह ने बताया कि आईपास डेवलपमेंट फाउण्डेशन के सहयोग से उ0प्र0 वालण्टरी हेल्थ एसोसिएशन द्वारा ‘साझा प्रयास’ जो उत्तर प्रदेश के 10 जिलों में कार्यरत स्वैच्छिक संस्थाओं का एक नेटवर्क है, जिसके माध्यम से विगत् दो वर्षों से महिलाओं के सुरक्षित गर्भ समापन पर कार्य किया जा रहा है.

आईपास डेवलपमेंट फाउण्डेशन के हरमेन्द्र सिंह द्वारा आशा बुकलेट पर प्रकाश डालते हुए उसकी उपयोगिता के बारे में बताया गया. आशा पुस्तिका ‘अनचाहे गर्भ से बचाव और उसका प्रबन्धन’ का विमोचन भी किया. कार्यशाला के अन्त में यूपीवीएचए के अधिशासी निदेशक विवेक अवस्थी ने कहा कि समाज के विभिन्न वर्गो के सहयोग और जागरूकता से सुरक्षित गर्भपात को बढ़ावा दिया जा सकता है.

जब छूट जाए जीवनसाथी का साथ, तो इस तरह बढ़े जिंदगी में आगे

शीना 22 साल की उम्र में विधवा हो गई है. उस की सहेली सरोज ने उस का बहुत साथ दिया है. इधर कुछ दिनों से सरोज को यह विश्वासघात जैसा लगता है जब शीना की पड़ोसिन ने उसे बताया कि उस के पति अकसर शाम को शीना के पास आते हैं. सरोज के तनबदन में आग लग गई पर उस ने धैर्य रखा क्योंकि शीना से मिलते रहने के कारण वह यह जान रही थी कि अभी तक वह दुख से उबरी नहीं है. उस ने पति से पूछा तो वह बोला, ‘‘हां, जाता हूं. उस बेचारी का और कौन है.’’

इस पर दोनों में खूब झगड़ा हुआ. उस ने शीना से कहा तो वह अचंभित थी. दुख के मारे ज्यादा सोच नहीं पाई फिर भी उस ने भविष्य में ध्यान रखने की बात कही. अब तक की गलतियों के लिए यही कह कर माफी मांगी कि वह सोचती थी कि शायद सरोज ही उन्हें भेजती है. खैर, अब सरोज व उस के पति शीना के घर साथसाथ आते हैं.

कई बेचारे भी तो हैं

ज्योतिका ने पति को अकसर देरसवेर किसी महिला से बात करते देख कर पूछा तो वह बोला कि उन के कार्यालय की महिला है जो हाल ही में अपना पति खो बैठी है. अब उस बेचारी का कौन है? ज्योतिका ने गुस्से में कहा, ‘‘आप जैसे कई बेचारे भी हैं.’’

उस की बात का आशय था कि दफ्तर की बातें दफ्तर तक सीमित रहें. एक सीमा तक ही किसी की सहायता की जाए. इसी से अपना व दूसरों का भला हो सकता है. सिर्फ मिलनेजुलने, मन बहलाने तथा छोटीमोटी चीजों की सहायता समस्या का हल नहीं है. अच्छा हो कोई ऐसी मदद की जाए जिस से उसे जीवन का आधार मिले, स्वावलंबी बनने का अवसर मिले.

हम भी तो हैं

अकसर हम अपने आसपास युवा विधवाविधुर को देखते हैं या असमय जीवनसाथी खो चुके लोगों को देखते हैं. ऐसे लोगों की आसपास के लोग भी मदद कर सकते हैं. महानगरों में पड़ोसियों में एकदूसरे की चिंता न करने की भावना के चलते भी अवैध रिश्ते पनपने लगते हैं. जब कोई बड़ी दुर्घटना या कांड हो जाता है तब पछतावा होता है.

अपर्णा पड़ोस में रहने आए परिवार के पास गई और सीधा औफर दिया. उस का एक 26 वर्षीय विधुर कजिन है. यदि वे चाहें तो शादी के 6 दिन बाद ही विधवा हुई अपनी बेटी के लिए उसे देख सकते हैं. लड़के से वे पूछ चुकी हैं, उसे किसी विधवा से शादी करने में कोई दिक्कत नहीं है. खैर, 3 महीने बाद यह शादी हुई. आज 9 साल बाद भी यह दंपती खुशहाल जिंदगी गुजार रहा है. अपर्णा कहती है कि यह शादी कराने से उसे किसी अच्छे कार्य को करने जैसा सुख मिला.

रवि कहता है, मैं ने अपनी पूर्व कलीग के मात्र 30 साल की उम्र में विधवा हो जाने पर उसे मन से समझाया. वह अपने किसी दोस्त के सहारे जिंदगी पूरी करना चाहती थी. चूंकि उस का यह दोस्त कुंआरा था, फिर भी उस से शादी न करने की बात कहता था, आजीवन कुंआरा रहने की बात भी करता था. चोरीछिपे मैं उस से मिला, उसे समझाया. यथासंभव साथ भी दिया. इसी बीच पता चला कि वह ब्राह्मण है और लड़की दलित. उस के अपने मातापिता नहीं मानेंगे. खैर, आज सब कुछ बढि़या चल रहा है.

अकसर व्यक्तिवादिता और ‘हमें क्या लेनादेना’, कोई आगे बढ़ कर हम से कहे या एहसान माने तो हम किसी के लिए पहल करें, जैसी सोच रखना आज आम है. फिर भी, पूछ कर किसी की मदद करने में कोई दिक्कत नहीं है.

रहिमन निजमन की व्यथा…

अकसर व्यथित लोग हर किसी से मन की बात शेयर नहीं करते. उन्हें लगता है इस का परिणाम ठीक नहीं होगा. संभव है लोग गंभीरता से न लें अथवा हंसी में ही उड़ा दें. इस से तो अच्छा है अपना दुख अपने पास ही हो, जो होगा देखा जाएगा. मनोचिकित्सक सिद्धार्थ चेलानी कहते हैं कि प्रियपात्र के बिछुड़ने का गम भूलना आसान नहीं है. उस से उबरने में समय लगता है. फिर भी युवाओं को चाहिए, जितना जल्दी हो, जीवन में क्षतिपूर्ति कर लें. व्यावहारिकता को अपनाएं. नए व पुराने की तुलना न करें. भविष्य की सोच कर वर्तमान का निर्णय लिया जाए पर अतीत से चिपके रहना बुद्धिमानी नहीं है. इस से बच्चे पर भी गलत असर पड़ता है.

एक मनोरोग से पीडि़त एक महिला कहती है, ‘‘मुझे पिछले पति सपने में बहुत परेशान करते थे. रोज रात में पास आ कर मानो सो जाते. अब आप ही बताएं, मैं किसी नए आदमी से कैसे जुड़ती?’’ खैर, उस की एक सखी उसे जबरन डाक्टर के पास ले गई. वे समझ गए कि उसे शारीरिक, भावनात्मक एवं मानसिक हर स्तर पर साथी की आवश्यकता है. लड़की स्वप्न वाली स्थिति से छुटकारा पाने के बाद ही शादी चाहती थी. बड़ी मुश्किल से उसे तैयार किया गया. शादी के डेढ़ महीने के बाद ही वह बिलकुल सामान्य हो गई. यह लड़की कहती है कि अब मैं इस बात से मुक्त हो गई हूं कि जो हर कोई कहता था, ‘इस बेचारी का कौन है?’ अब मेरे सब हैं- सास, ननद, देवर, जेठ. और मुझे अभी भी पुरानी ससुराल वालों का स्नेह मिलता है. शादी से पहले उन से मिली, माफी भी मांगी. पर उन्होंने उलटे मुझे ही समझाया कि ऐसा हमारी बेटी के साथ होता तो हम उसे उम्रभर थोड़ी बिठाते.

हमारे यहां रिवाज नहीं

ब्राह्मणों या सवर्णों में यह बात आम है कि हमारी बिरादरी में विधवा विवाह का चलन नहीं है. ऐसी बिरादरी में पुरुषों के विधुर होने पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है, बल्कि कई बार तो तेरहवीं के दिन ही मृतक के सालभर के श्राद्धादि कर्म कर के शीघ्रातिशीघ्र विवाह में विधुर को बांध दिया जाता है ताकि वह सबकुछ भूल कर हंसीखुशी सामान्य जीवन जिए. जब ये रीतिरिवाज बने होंगे तब संभवतया जाति व्यवस्था की कठोरता, विधवा के कई बच्चे होने एवं पुरुष वर्ग द्वारा नारी कौमार्य एवं शुद्धता का अतिआग्रह रहा होगा. आज तो कुंआरे व्यक्ति तक विधवा से विवाह करने को तैयार हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में जातिसमाज के रिवाजों के कारण अपना जीवन तबाह करना बुद्धिमानी नहीं है.

सब से कठिन जाति अपनाना

दिवाकर बैंक मैनेजर हैं. वे कट्टर ब्राह्मण हैं. उन की अति युवा पुत्री के विधवा होने पर कई बीमारियों ने उन्हें घेर लिया. दिनरात उन्हें बेटी पर हुए तुषारापात और उस का दोबारा विवाह करने की चिंता रहती थी. खैर, दूसरी बेटी के ब्याह में बराती के रूप में आए मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र के एक कामकाजी युवक ने शादी की पेशकश की तो उन्होंने जातिपांति के सारे नियम भुला दिए. उन्होंने शादी की स्वीकृति दे दी. वे कहते हैं, ‘‘आज मैं खुश हूं, मेरी बेटी भी खुश है. मेरी एक बेटी और बेटे की शादी में जाति वालों ने रुचि नहीं ली. तो मैं ने अपनी मानसिकता बदल ली. जब मुझे जाति से निकाला गया तो मुझे बेटी की सुखद जिंदगी के आगे अपने अपमान व प्रताड़ना का अनुभव तक नहीं हुआ. खैर, अपने दोनों बच्चों को मैं ने किसी भी जाति में विवाह करने की छूट दे दी है. मैं युवा विधवा बेटियों के मातापिताओं से कहना चाहूंगा कि आप दकियानूसी मान्यताओं को छोड़ कर अपने बच्चों के हितैषी बनें. मातापिता होने का सही फर्ज निभाएं.’’

छाया आदिवासी बहुल क्षेत्र बांसवाड़ा में प्राध्यापिका हैं. उन्होंने ब्राह्मण होने के बावजूद पति की मृत्यु के कई वर्ष बाद 2 बेटियों द्वारा अच्छे कैरियर के चयन के बाद अकेलापन अनुभव किया. इस बात को उन्होंने घर वालों से शेयर किया तथा वहीं के एक प्रशासनिक अधिकारी से विवाह किया जो स्वयं भी विधुर थे. लोग चार दिन बातें कर के चुप हो गए.

चित्रेश युवा विधवा है. वह कैजुअल नौकरी पर है. पति के घर (फ्लैट) को वह बहुत बड़ा सहारा मानती है. वह कहती है, ‘‘मेरी बेटी टीनएजर है. वह जब से अपने में मस्त रहने लगी है तब से मुझे साथी की जरूरत अनुभव होती है. मैं पुनर्विवाह की सोच रही हूं. पहले मुझे ऐसा सोचना गलत लगता था कि पर अब मुझे लगता है कि जब बेटी ससुराल चली जाएगी तब मेरा क्या होगा. मैं एकदो बच्चे वाले विधुर से शादी करने को तैयार हूं, उस के बच्चों को मां का प्यार दे दूं तो वह मेरी बच्ची को पिता का प्यार दे सकता है.’’

शिकारियों की कमी नहीं

शादीब्याह, सामाजिक जलसों के आयोजन में लोग ऐसी सौफ्ट टारगेट स्त्रियां ढूंढ़ते रहते हैं जो बेचारगी का शिकार हों और उन के नित नए सैक्स प्रयोगों तथा हवस की आजमाइश में आसानी से साथ निभा सकें. शादीशुदा मर्दों को ऐसी स्थिति के लिए विधवाएं सर्वाधिक उपयुक्त लगती हैं क्योंकि वे उपेक्षा तथा प्रताड़ना की शिकार होने के कारण दैहिक प्यार, सहानुभूति तथा मीठीमीठी बातों को सच्चा प्यार व समर्पण समझ लेती हैं. स्त्रियां, जो ऐसे रिश्तों में अनचाहे ही लिप्त हों, उन्हें भी मर्दों की निकटता अच्छी लगने लगती है.

शालिनी ने 60 साल की उम्र में दोबारा ब्याह किया. बेटियां ससुराल चली गईं, अकेलापन काटने को दौड़ता था. वे बताती हैं, ‘‘आजकल किस के पास इतना समय है जो पूरी जिंदगी का दुख बांटे. मुझे पड़ोस में ही अविवाहित व्यक्ति मिल गया. वे मेरी बेटियों के प्रति फर्ज निभाते हैं. मुझ से 5-6 साल छोटे हैं.’’

शालिनी काफी सुंदर और अपनेआप को मेंटैन किए हुए हैं. पति थोड़ी सी विकलांगता के शिकार हैं. जब मैं ने उन से शारीरिक संबंधों के बारे में बात की तो उन का कहना था कि एक उम्र के बाद रूप पर गुण हावी हो जाते हैं. फिर प्रकृति ने स्त्री शरीर को हर उम्र व हाल में पुरुषों की आवश्यकता के अनुकूल बनाया है बशर्ते वह स्वयं वैसा करना चाहे. आजकल मेरा जीवन अच्छा चल रहा है. मैं बेचारी होने तथा किसी पर बोझ होने से बच गई.

मेरी बेटी का बर्ताव अब बदल गया है, मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी उम्र 41 वर्ष है. मेरी 19 वर्षीया एक बेटी है. वह अकसर अपनी बातें मुझ से शेयर करती है. लेकिन, पिछले 2 महीने से मैं उस के व्यवहार में कुछ नोटिस कर रही हूं. वह अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से बारबार तसवीरें आर्काइव करती है तो कभी अनआर्काइव. ऐसा उस ने एकदो बार नहीं, कम से कम 10-12 बार कर लिया है. मैं ने उस से कारण पूछने की कोशिश की तो कहती है कि कुछ गंभीर नहीं है, बस उस का मन तसवीरों को ले कर बनताबिगड़ता रहता है. सुनने में तो यह छोटी बात लगती है मगर मैं जानती हूं कुछ तो गलत है इस में. क्या मेरा अंदेशा सही है?

जवाब

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो आप का अंदेशा लगभग सही है. जब व्यक्ति लगातार अपनी तसवीरों से या इंस्टाग्राम अकाउंट से या किसी भी और चीज से छेड़छाड़ करता रहे तो उस से साफ है कि कुछ गड़बड़ है. आप की बेटी बारबार अपनी तसवीरें आर्काइव और फिर अनआर्काइव करती है, इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में कुछ न कुछ जरूर चल रहा है.

हो सकता है कि कुछ है जो वह आप से छिपा रही हो. उस से तसल्ली से बैठ कर बात कीजिए और उस की मनोस्थिति जानने की कोशिश कीजिए. सोशल मीडिया के इस युग में बच्चे अपनी ऐक्टिविटीज और पोस्ट्स के जरिए अपने मन का हाल बताने की कोशिश तो करते हैं लेकिन कोई उसे सम झने में समर्थ नहीं हो पाता.

हो सकता है बिना कहे आप की बेटी कुछ कहने की कोशिश कर रही हो. आप उस से बात कीजिए, हो सकता है वह एंग्जाइटी से गुजर रही हो या किसी और समस्या से.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

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