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टीनऐजर्स लव : भाग 3

हवलदार ने दीपिका की हां में हां मिलाई और भीड़ से जाने के लिए कहा. और फिर दीपिका के पीछेपीछे वह भी सीढि़यां चढ़ने लगा. थोड़ी देर बाद हवलदार फ्लैट से वापस आया और बोला, ‘‘फ्लैट में तो कोई नहीं था. किस ने कहा कि वहां लड़कालड़की बंद हैं. फालतू में इतना शोर मचा दिया.’’ सामने के फ्लैट वाले अंकल चुपचाप वहां से गायब हो गए, लेकिन उन का दिमाग अभी भी चल रहा था…जैसे ही भीड़ छटी, दीपिका ने अस्मिता और समर को चुपचाप बाहर निकाल दिया. दरअसल, सीढि़यां चढ़ते समय ही दीपिका ने हवलदार को कुछ रुपए दे कर उस का मुंह बंद कर दिया था. जैसेतैसे आई हुई बला टल गई, लेकिन अस्मिता और समर को मुंह देख कर साफ पता लग रहा था कि उन्होंने इन 2 घंटों के दौरान कितना अच्छा समय बिताया होगा.

जब दोनों फ्लैट के अंदर थे तब समर ने कहा, ‘‘सौरी, जल्दीजल्दी में तुम्हारे लिए कोई उपहार लाना तो भूल ही गया.’’ ‘‘तुम आ गए हो तो नूर आ गया है,’’ कहते हुए अस्मिता हंस पड़ी. तब दोनों ने हृदय के तार झंकृत हो उठे थे. दिल में एक रागिनी बज उठी थी. रहीसही कसर आंखों से छलकते प्रेम निमंत्रण ने पूरी कर दी थी. सहसा ही समर के हाथ उस के तन से लिपट गए और यह आलिंगन हजारोंलाखों उपहारों से कहीं ज्यादा था.

असल तूफान तो उस के बाद आया जब समर अचानक अस्मिता से दूर होने लगा. फिर 6 महीने में सबकुछ बदल गया था. अब सिर्फ अस्मिता उसे फोन करती थी. और…समर, अस्मिता का फोन भी नहीं उठाता था. वह अब उस से बात नहीं करना चाहता था. जब उस की मरजी होती, मिलने को बुलाता, पर उस दौरान भी बात नहीं करता. ऐसा लगता था जैसे वह जिस्म की भूख मिटा रहा है. अस्मिता उस से प्यार करती थी, लेकिन वह अस्मिता को सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था.

अस्मिता की तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी. वह खुद से नफरत करने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल गया था. वह अकसर अपनेआप से कहती, ‘मैं इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती हूं? मैं अंधों की तरह एक मृगतृष्णा की ओर भागती जा रही हूं.’ वह घंटों रोती. निराशा उस की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी. इस हार को बरदाश्त न कर पाते हुए इसी बीच अस्मिता बारबार समर को वापस लाने की नाकाम कोशिश करने लगी. उसे मेल भेजना, प्रेम गीत भेजना, कभीकभी गाली लिख कर भेजना, अब यही उस का काम था.

इसी बीच, एक दिन- समर : तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता? मुझे दोबारा फोन मत करना.

अस्मिता : देखो, तुम क्यों ऐसा कर रहे हो? मुझे पता है कि तुम भी मुझ से प्यार करते हो, लेकिन क्या है जिस से तुम परेशान हो? समर : ऐसा कुछ नहीं है. हमारा रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता. मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है. मेरे पास इन चीजों के लिए वक्त नहीं है.

अस्मिता : नहीं, देखो समर, प्लीज मेरी बात सुनो. हम दोस्त बन कर भी तो रह सकते हैं? हम इस रिश्ते को वक्त देते हैं. अगर कई साल बाद भी तुम को ऐसा ही लगा. तब सोचेंगे. समर : तुम पागल हो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है. मेरी एक गर्लफ्रैंड है. और मैं तुम से आगे कभी बात नहीं करना चाहता.

टैलीफोन की यह बातचीत अस्मिता को आज भी याद है. यह उन दोनों के बीच आखिरी बातचीत थी. इसे सुन कर कोईर् भी कह सकता है कि अस्मिता बेवकूफ थी, भ्रम में जी रही थी. लेकिन वह भी क्या करती? कुल 16 की थी, और उसे लगता था, सब फिल्मों की तरह ही होता है. ‘जब वी मेट’ फिल्म से वह काफी प्रभावित थी. वैसे भी 16 का प्यार हो या 60 का, जब कोई प्यार में होता है, तो कुछ भी सहीगलत नहीं होता.

पर स्कूल में समर उस से बचता, नजरें छिपाता, अस्मिता उस से बात करने जाती तो वह झिड़क देता या दोस्तों के साथ मिल कर उस की खिल्ली उड़ाता, कहता, ‘‘कितनी बेवकूफ है जो उस की बातों में आ कर सबकुछ लुटा बैठी. उस ने तो यह सब एक शर्त के लिए किया था.’’ ‘ओह, तो यह सिर्फ उस की एक चाल थी. काश, मैं पहले ही समझ जाती,’ वह घंटों रोती रही.

आज प्यार के मामले में भी उस का भरोसा टूट गया था. प्यार पर से विश्वास तो पहले ही उठने लगा था. वार्षिक परीक्षाएं सिर पर मंडरा रही थीं. वह खुद से जूझ रही थी. पर अस्मिता ने पढ़ाई या स्कूल बंद नहीं किया. यह शायद उस की अंदरूनी शक्ति ही थी जिस से वह उबर रही थी या उबरने की कोशिश कर रही थी. हालांकि चिड़चिड़ाहट बढ़ रही थी और उस के बढ़ते चिड़चिड़ेपन से घर पर सब परेशान थे. अगर घर पर कोई कुछ जानना चाहता भी तो उस ने कभी नहीं बताया कि उस के साथ क्या हुआ है.

अस्मिता नई क्लास में आ गई थी. हर बार से नंबर काफी कम थे. समर ने नई कक्षा में पहुंच कर स्कूल ही बदल लिया था. यही नहीं, मोबाइल नंबर भी. अस्मिता के लिए यह सब किसी बहुत बड़े जलजले से कम न था. बात न करे पर रोज वह समर को देख कर ही अपना मन शांत कर लेती थी. पर अब तो… अस्मिता ने खाना बंद कर दिया था. इस कारण उस की तबीयत बिगड़ रही थी.

बहुत मेहनत से उस ने समर का नया नंबर पता किया. समर ने फोन उठाया मगर सिर्फ इतना कहा, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? किस से नंबर मिला तुम्हें? आइंदा फोन किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. मेरे पास तुम्हारे कुछ फोटोज हैं. मैं उन्हें सार्वजनिक कर दूंगा. फिर मत कहना, हा…हा…हा… और समर ने फोन काट दिया.’’ समर के लिए यह सब खेल था, लेकिन अस्मिता के लिए वह पहला प्यार था. ‘कितनी बेवकूफ थी न मैं, जो अपने आत्मसम्मान को पीछे रख कर भी उसे मनाना और पाना चाहती थी,’ अस्मिता ने सोचा. अब उसे अपनेआप से घिन और नफरत सी होने लगी थी. अस्मिता खुद को खत्म करना चाहती थी.

लेकिन, दीपिका जो उस के अच्छे और बुरे दोनों ही पलों की सहेली थी, ने अस्मिता के मनोबल और उसे, एक हद तक टूटने नहीं दिया. उसे समझाया, ‘‘ऐसे एकतरफा रिश्तों से जिंदगी नहीं चलती. अगर आप किसी से प्यार करते हो और वह नहीं करता. तो आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे में आत्मसम्मान सब से अहम होता है.’’ कहीं न कहीं अस्मिता की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद को भी ठहराती थी. उस ने कभी भी अस्मिता को अकेला नहीं छोड़ा. हर समय उसे टूटने से बचाया वरना इतना अपमान और असम्मान सहना किसी लड़की के लिए आसान नहीं था. दीपिका की कोशिश का ही नतीजा था कि इतने अपमान, असम्मान के बाद भी अस्मिता ने ठान लिया, ‘‘अब मैं नहीं रोऊंगी. मैं जिंदगी में आगे बढ़ूंगी, कुछ करूंगी. एक हादसे की वजह से मेरी पूरी जिंदगी खराब नहीं हो सकती.’’

अब वह समर को याद भी नहीं करना चाहती थी. समर उस की जिंदगी में अब कोई माने नहीं रखता. लेकिन उस के धोखे को वह माफ नहीं कर पाई. प्यार करना उस ने यदि समर से मिल कर सीखा तो प्यार का सही मतलब और वादे का सही मतलब, शायद समर को अस्मिता से समझना चाहिए था. समर ने सिर्फ प्यार ही नहीं, धोखा क्या होता है, यह भी समझा दिया था. समर से मिल कर उस के साथ रिश्ते में रह कर, अस्मिता का प्यार पर से यकीन उठ चुका अब. वाकई कितनी छोटी उम्र होती है ऐसे प्यार की. शायद सिर्फ शारीरिक आकर्षण आधार होता है. तभी तो इसे कच्ची उम्र का प्यार कहते हैं ‘टीनऐजर्स लव.

एकाधिकार : भाग 3

नरेंद्र ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी. मोहिनी सोच रही थी कि शायद वे दोनों कहीं बाहर जाएंगे. किंतु नरेंद्र ने उस से बिना कुछ छिपाए अपने मन की बात उस के सामने रख दी, ‘‘मांजी और छोटे भाइयों को अकेला छोड़ कर हमारा घूमने जाना उचित नहीं.’’

मोहिनी खुशीखुशी पति की बात मान गई थी. उसे तो वैसे भी अपने दोनों छोटे देवर बहुत प्यारे लगते थे. मायके में बहनें तो थीं, लेकिन छोटे भाई नहीं. हृदय के किसी कोने में छिपा यह अभाव भी मानो पूरा होने को था. किंतु वे दोनों तो उस से इस कदर शरमाते थे कि दूरदूर से केवल देखते भर रहते थे. कभी मोहिनी से आंखें मिल जातीं तो शरमा कर मुंह छिपा लेते. तब मोहिनी हंस कर रह जाती और सोचती, ‘कभी तो उस से खुलेंगे.’ एक दिन मोहिनी को अवसर मिल ही गया. दोपहर का समय था. नरेंद्र किसी काम से बाहर गए हुए थे और मां पड़ोस में किसी से मिलने गई हुई थीं. अचानक दोनों देवर रमेश और सुरेश किताबें उठाए स्कूल से वापस आ गए.

‘‘मां, जल्दी से खाना दो, स्कूल में छुट्टी हो गई है. अब हम मैच खेलने जा रहे हैं.’’ किताबें पटक कर दोनों रसोई में आ धमके, किंतु वहां मां को न पा दोनों पलटे तो दरवाजे पर भाभी खड़ी थीं, हंसती, मुसकराती.

‘‘मैं खाना दे दूं?’’ मोहिनी ने हंस कर पूछा तो दोनों सकुचा कर बोले, ‘‘नहीं, मां ही दे देंगी, वे कहां गई हैं?’’

‘‘पड़ोस में किसी से मिलने गई हैं. उन्हें तो मालूम नहीं था कि आप दोनों आने वाले हैं. चलिए, मैं गरमगरम परांठे सेंक देती हूं.’’

मोहिनी ने रसोई में रखी छोटी सी मेज पर प्लेटें लगा दीं. सुबहसुबह जल्दी से सब यहीं इसी मेज पर खापी कर भागते थे. मोहिनी ने फ्रिज से सब्जी निकाल कर गरम की. कटा हुआ प्याज, हरीमिर्च, अचार सबकुछ मेज पर रखा. फ्रिज में दही दिखाई दिया तो उस का रायता भी बना दिया. ये सारी तैयारी देख रमेश व सुरेश कूद कर मेज के पास आ धमके. जल्दीजल्दी गरम परांठे उतार कर देती भाभी से खाना खातेखाते उन की अच्छीखासी दोस्ती भी हो गई. स्कूल के दोस्तों का हाल, मैच में किस की टीम अच्छी है, कौन सा टीचर अच्छा है, कौन नहीं आदि सब खबरें मोहिनी को मिल गईं. उस ने उन्हें अपने मायके के किस्से सुनाए. बिंदु और मीनू के साथ होने वाले छोटेमोटे झगड़े और फिर छत पर बैठ कर उस का कविताएं लिखना, सबकुछ सुरेश, रमेश को पता लग गया. ‘‘अरे वाह भाभी, तुम कविता लिखती हो? तब तो तुम हमें हिंदी भी पढ़ा सकती हो?’’ सुरेश उत्साहित हो कर बोला.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. अपनी किताबें मुझे दिखाना. हिंदी तो मेरा प्रिय विषय है. कालेज में तो…’’ और मोहिनी बोलतेबोलते सहसा रुक गई क्योंकि चेहरे पर अजीब सा भाव लिए मांजी दरवाजे के पास खड़ी थीं. मोहिनी से कुछ न कह वे अपने दोनों बेटों से बोलीं, ‘‘तुम दोनों मेरे आने तक रुक नहीं सकते थे.’’

रमेश और सुरेश को तो मानो सांप ही सूंघ गया. मां के चेहरे का यह कठोर भाव उन के लिए नया था. भाभी से खाना मांग कर उन्होंने क्या गलती कर दी है, समझ न सके. हाथ का कौर हाथ में ही पकड़े खामोश रह गए. पल दो पल तो मोहिनी भी चुप ही रही, फिर हौले से बोली, ‘‘ये दोनों तो आप ही को ढूंढ़ रहे थे. आप थीं नहीं तो मैं ने सोचा, मैं ही खिला दूं.’’

‘‘क्यों? क्या घर में फल, डबलरोटी… कुछ भी नहीं था जो परांठे सेंकने पड़े?’’ मां ने तल्खी से पूछा.

‘‘ऐसा नहीं है मांजी. मैं ने सोचा बच्चे हैं, जोर की भूख लगी होगी, इसलिए बना दिए.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे तो नहीं हैं न? मैं खुद ही निबट लेती आ कर,’’ अत्यंत निर्ममतापूर्वक कही गई सास की यह बात मोहिनी को मानो अंदर तक चीर गई, ‘क्या रमेश, सुरेश उस के कुछ नहीं लगते? नरेंद्र के छोटे भाइयों को प्यार करने का क्या उसे कोई हक नहीं? उन पर केवल मां का ही एकाधिकार है क्या? फिर कल जब ये दोनों भी बड़े हो जाएंगे तो मांजी क्या करेंगी? विवाह तो इन के भी होंगे ही, फिर…?’

रमेश व सुरेश न जाने कब के अपने कमरों में जा दुबके थे और मांजी अपनी तीखी दृष्टि के पैने चुभते बाणों से मोहिनी का हृदय छलनी कर अपने कमरे में जा बैठी थीं. एक अजीब सा तनाव पूरे घर में छा गया था. मोहिनी की आंखें छलछला आईं. उसे याद आया अपना मायका, जहां वह किसी पक्षी की भांति स्वतंत्र थी, जहां उस का अपना आसमान था, जिस के साथ अपने छोटेमोटे सुखदुख बांट कर हलकी हो जाती थी. मोहिनी को लगा, अब भी उस के साथसाथ चल कर आया आसमान का वह नन्हा टुकड़ा उस का साथी है, जो उसे हाथ हिलाहिला कर ऊपर बुला रहा है. वह नरेंद्र की अलमारी में कुछ ढूंढ़ने लगी. एक सादी कौपी और पैन उसे मिल ही गया. जल्दीजल्दी धूलभरी सीढि़यां चढ़ती हुई वह छत पर जा पहुंची. कैसी शांति थी वहां, मानो किसी घुटनभरी कैद से मुक्ति मिली हो. मन किसी पक्षी की भांति बहती हवा के साथ उड़ने लगा. धूप छत से अभीअभी गई थी. पूरा माहौल गुनगुना सा था. वहीं जीने की दीवार से पीठ टिका कर मोहिनी बैठ गई और कौपी खोल कर कोई प्यारी सी कविता लिखने की कोशिश करने लगी.

विचारों में उलझी मोहिनी के सामने सास का एक नया ही रूप उभर कर आया था. उसे लगा, व्यर्थ ही वह मांजी से अपने लिए प्यार की आशा लगाए बैठी थी. इन के प्यार का दायरा तो इतना सीमित, संकुचित है कि उस में उस के लिए जगह बन ही नहीं सकती और जैसेजैसे उन के बेटों के विवाह  होते जाएंगे, यह दायरा और भी सीमित होता जाएगा, इतना सीमित कि उस में अकेली मांजी ही बचेंगी. मोहिनी के मुंह में न जाने कैसी कड़वाहट सी घुल गई. उस का हृदय वितृष्णा से भर उठा. जीवन का एक नया ही पक्ष उस ने देखा था. शायद नरेंद्र भी 23 वर्षों में अपनी मां को इतना न जान पाए होंगे जितना इन कुछ पलों में मोहिनी जान गई. साथ ही, वह यह भी जान गई कि प्यार यदि बांटा न जाए तो कितना स्वार्थी हो सकता है. मोहिनी ने मन ही मन एक निश्चय किया कि वह प्यार को इन संकुचित सीमाओं में कैद नहीं करेगी. मांजी को बदलना ही होगा. प्यार के इस सुंदर कोमल रूप से उन्हें परिचित कराना ही होगा.

आखिरी लोकल : भाग 3

‘‘यहां पर तो मेरी जान जा रही है और तुम्हें मस्ती सूझ रही है. पता नहीं, घर वाले क्याक्या सोच रहे होंगे?’’ ‘‘तुम तो ऐसे डर रही हो, जैसे मैं तुम्हें यहां पर भगा कर लाया हूं.’’  शिवेश ने जोरदार ठहाका लगाते हुए कहा. ‘‘चलो, घर वालों को बता दो.’’ ‘‘बता दिया जी.’’ ‘‘वैरी गुड.’’ ‘‘जी मैडम, अब चलो कुछ खायापीया जाए.’’ दोनों स्टेशन परिसर से बाहर आए. कई होटल खुले हुए थे.  ‘‘चलो फुटपाथ के स्टौल पर खाते हैं,’’ शिवेश ने कहा.

स्टेशन के बाहर सभी तरह के खाने के कई स्टौल थे. वे एक स्टौल के पास रुके.  एक प्लेट चिकन फ्राइड राइस और एक प्लेट चिकन लौलीपौप ले कर एक ही प्लेट में दोनों ने खाया.  ‘‘अब मैरीन ड्राइव चला जाए?’’ शिवेश ने प्रस्ताव रखा. ‘‘इस समय…? रात के 2 बजने वाले हैं. मेरा खयाल है, स्टेशन के आसपास ही घूमा जाए. एकडेढ़ घंटे की ही तो बात है,’’ शिवानी ने उस का प्रस्ताव खारिज करते हुए कहा. ‘‘यह भी सही है,’’ शिवेश ने भी हथियार डाल दिए. वे दोनों एक बस स्टौप के पास आ कर रुके. यहां मेकअप में लिपीपुती कुछ लड़कियां खड़ी थीं.

शिवेश और शिवानी ने एकदूसरे की तरफ गौर से देखा. उन्हें मालूम था कि रात के अंधेरे में खड़ी ये किस तरह की औरतें हैं.  वे दोनों जल्दी से वहां से निकलना  चाहते थे. इतने में जैसे भगदड़ मच गई. बस स्टौप के पास एक पुलिस वैन आ कर रुकी. सारी औरतें पलभर में गायब हो गईं. लेकिन मुसीबत तो शिवानी और शिवेश पर आने वाली थी. ‘‘रुको, तुम दोनों…’’ एक पुलिस वाला उन पर चिल्लाया. शिवानी और शिवेश दोनों ठिठक कर रुक गए.

‘‘इतनी रात में तुम दोनों इधर कहां घूम रहे हो?’’ एक पुलिस वाले ने पूछा. ‘‘अरे देख यार, यह औरत तो धंधे वाली लगती है,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बेशर्मी से कहा.  ‘‘किसी शरीफ औरत से बात करने का यह कौन सा नया तरीका है?’’ शिवेश को गुस्सा आ रहा था.  ‘‘शरीफ…? इतनी रात में शराफत दिखाने निकले हो शरीफजादे,’’ एक सिपाही ने गौर से शिवानी को घूरते हुए कहा. ‘‘वाह, ये धंधे वाली शरीफ औरतें कब से बन गईं?’’ दूसरे सिपाही ने  एक भद्दी हंसी हंसते हुए कहा.

शिवेश का जी चाहा कि एक जोरदार तमाचा जड़ दे.  ‘‘देखिए, हम लोग सरकारी दफ्तर में काम करते हैं. आखिरी लोकल मिस हो गई, इसलिए हम लोग फंस गए,’’ शिवेश ने समाने की कोशिश की. ‘‘वाह, यह तो और भी अजीब बात है. कौन सा सरकारी विभाग है, जहां रात के 12 बजे छुट्टी होती है? बेवकूफ बनाने की कोशिश न करो.’’ ‘‘ये रहे हमारे परिचयपत्र,’’ कहते हुए शिवेश ने अपना और शिवानी का परिचयपत्र दिखाया.  ‘‘ठीक है. अपने किसी भी औफिस वाले से बात कराओ, ताकि पता चल सके कि तुम लोग रात को 12 बजे तक औफिस में काम कर रहे थे,’’ इस बार पुलिस इंस्पैक्टर ने पूछा, जो वैन से बाहर आ गया था. ‘‘इतनी रात में किसे जगाऊं? सर, बात यह है कि हम ने औफिस के बाद नाइट शो का प्लान किया था. ये रहे टिकट,’’ शिवेश ने टिकट दिखाए.

‘‘मैं कुछ नहीं सुनूंगा. अब तो थाने चल कर ही बात होगी. चलो, दोनों को वैन में डालो,’’ इंस्पैक्टर वरदी के रोब में कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था.  शिवानी की आंखों में आंसू आ गए.  बुरी तरह घबराए हुए शिवेश की समा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? किसे फोन करे? अचानक एक सिपाही शिवेश को पकड़ कर वैन की तरफ ले जाने लगा.  शिवानी चीख उठी, ‘‘हैल्प… हैल्प…’’ लोगों की भीड़ तो इकट्ठा हुई, पर पुलिस को देख कर कोई सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाया.

थोड़ी देर में एक अधेड़ औरत भीड़ से निकल कर सामने आई. ‘‘साहब नमस्ते. क्यों इन लोगों को तंग कर रहे हो? ये शरीफ इज्जतदार लोग हैं,’’ वह औरत बोली. ‘‘अब धंधे वाली बताएगी कि कौन शरीफ है? चल निकल यहां से, वरना तुझे भी अंदर कर देंगे,’’ एक सिपाही गुर्राया. ‘‘साहब, आप को भी मालूम है कि इस एरिया में कितनी धंधे वाली हैं. मैं भी जानती हूं कि यह औरत हमारी तरह  नहीं है.’’ ‘‘इस बात का देगी बयान?’’ ‘‘हां साहब, जहां बयान देना होगा, दे दूंगी. बुला लेना मुझे. हफ्ता बाकी है, वह भी दे दूंगी. लेकिन अभी इन को छोड़ दो,’’ इस बार उस औरत की आवाज कठोर थी. ‘हफ्ता’ शब्द सुनते ही पुलिस वालों को मानो सांप सूंघ गया. इस बीच भीड़ के तेवर भी तीखे होने लगे.

पुलिस वालों को समा में आ गया कि उन्होंने गलत जगह हाथ डाला है. ‘‘ठीक है, अभी छोड़ देते हैं, फिर कभी रात में ऐसे मत भटकना.’’ ‘‘वह तो कल हमारे मैनेजर ही एसपी साहब से मिल कर बताएंगे कि रात में उन के मुलाजिम क्यों भटक रहे थे,’’ शिवेश बोला.   ‘‘जाने दे भाई, ये लोग मोटी चमड़ी के हैं. इन पर कोई असर नहीं  होगा,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवेश को समाते हुए कहा. ‘‘अब निकलो साहब,’’ उस औरत ने पुलिस इंस्पैक्टर से कहा. सारे पुलिस वाले उसे, शिवानी, शिवेश और भीड़ को घूरते हुए वैन में सवार हो गए. वैन आगे बढ़ गई. शिवेश और शिवानी ने राहत की सांस ली.

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया. आप नहीं आतीं तो उन पुलिस वालों को समाना मुश्किल हो जाता,’’ शिवानी ने उस औरत का हाथ पकड़ कर कहा.  ‘‘पुलिस वालों को समाना शरीफों के बस की बात नहीं. अब जाओ और स्टेशन के आसपास ही रहो,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवानी से कहा. ‘‘फिर भी, आप का एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूल पाएंगे. कभी कोई काम पड़े तो हमें जरूर याद कीजिएगा,’’ शिवेश ने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे देते हुए कहा. ‘‘यह कार्डवार्ड ले कर हम क्या करेंगे? रहने दे भाई,’’ उस औरत ने कार्ड लेने से साफ इनकार कर दिया.

शिवानी ने शिवेश की तरफ देखा, फिर अपने पर्स से 500 रुपए का एक नोट निकाल कर उसे देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. ‘‘कर दी न छोटी बात. तुम शरीफों की यही तकलीफ है. हर बात के लिए पैसा तैयार रखते हो. हर काम पैसे के लिए नहीं करती मैं…’’ उस औरत ने हंस कर कहा. ‘‘अब जाओ यहां से. वे दोबारा भी आ सकते हैं.’’ शिवेश और शिवानी की भावनाओं पर मानो घड़ों पानी फिर गया. वे दोनों वहां से स्टेशन की तरफ चल पड़े, पहली लोकल पकड़ने के लिए.  पहली लोकल मिली. फर्स्ट क्लास का पास होते हुए भी वे दोनों सैकंड क्लास के डब्बे में बैठ गए. ‘‘क्यों जी, आज सैकंड क्लास की जिद क्यों?’’ शिवानी ने पूछा.  ‘‘ऐसे ही मन किया. पता है, एक जमाने में ट्रेन में थर्ड क्लास भी हुआ करती थी,’’ शिवेश ने गंभीरता से कहा.

‘‘उसे हटाया क्यों?’’ शिवानी ने बड़ी मासूमियत से पूछा.  ‘‘सरकार को लगा होगा कि इस देश में 2 ही क्लास होनी चाहिए. फर्स्ट और सैकंड,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘क्योंकि, सरकार को यह अंदाजा हो गया कि जिन का कोई क्लास नहीं होगा, वे लोग ही फर्स्ट और सैकंड क्लास वालों को बचाएंगे और वह थर्ड, फोर्थ वगैरहवगैरह कुछ भी हो सकता है,’’ शिवेश ने हंसते हुए कहा.  ‘‘बड़ी अजीब बात है. अच्छा, उस औरत को किस क्लास में रखोगे?’’ शिवानी ने मुसकरा कर पूछा. ‘‘हर क्लास से ऊपर,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘सच है, आज के जमाने में खुद आगे बढ़ कर कौन इतनी मदद करता है.

हम जिस्म बेचने वालियों के बारे में न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं. कम से कम अच्छा तो नहीं सोचते. वह नहीं आती तो पुलिस वाले हमें परेशान करने की ठान चुके थे. हमेशा सुखी रहे वह. अरे, हम ने उन का नाम ही नहीं पूछा.’’ ‘‘क्या पता, वह अपना असली नाम बताती भी या नहीं. वैसे, एक बात तो तय है,’’ शिवेश ने कहा. ‘‘क्या…?’’ ‘‘अब हम कभी आखिरी लोकल पकड़ने का खतरा नहीं उठाएंगे. चाहे तुम्हारे हीरो की कितनी भी अच्छी फिल्म क्यों न हो?’’ शिवेश ने उसे चिढ़ाने की कोशिश की.

‘‘अब इस में उस बेचारे का क्या कुसूर है? चलो, अब ज्यादा खिंचाई  न करो. मो सोने दो,’’ शिवानी ने अपना सिर उस के कंधे पर टिकाते  हुए कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है,’’ शिवेश ने बड़े प्यार से शिवानी की तरफ देखा. कई स्टेशनों पर रुकते हुए लोकल ट्रेन यानी मुंबई के ‘जीवन की धड़कन’ चल रही थी.

शिवेश सोच रहा था, ‘सचमुच जिंदगी के कई पहलू दिखाती है यह लोकल. आखिरी लोकल ट्रेन छूट जाए तब भी और पकड़ने के बाद तो खैर कहना ही क्या…’ शिवेश ने शिवानी की तरफ देखा, उस के चेहरे पर बेफिक्री के भाव थे. बहुत प्यारी लग रही थी वह.

प्रेम का दायरा : भाग 3

उस ने कहा, “जी, अब कोई नहीं करीबी हैं, मगर नाम के.”

निशा ने उस की ओर देखा. उस ने कहा,” चलिए, मैं आप को अपना किचन दिखता हूं,” फिर उस ने निशा को दूध, चीनी और चायपत्ती दी.

निशा ने उस से कहा, “आप के पास अदरक नहीं है क्या?”

उस ने कहा,”नहीं.”

“अदरक से स्वाद बढ़ जाता है,” निशा ने कहा.

चाय पीने के बाद सरफराज ने कहा,”अद्भुत, ऐसी चाय मैं ने अपने जीवन में आज तक नहीं पी है.”

निशा ने सरफराज से कहा, “कोरोना महामारी के पहले वर्ष हम दिल्ली में थे. बहुत बुरा दौर था. सब्जी वाले, फल वाले गलीगली भटकते थे. पीर मोहम्मद बगैर राशनकार्ड धारक जोकि राशन कूपन प्राप्त करने की प्रतीक्षा में रहते, उन्हें राशन दिलाने में लगे रहते थे. बहुत चिंतित रहते थे कि उन्हें कैसे राशन मिले?”

सरफराज ने कहा,”जी, यहां भी यही हाल था. पुलिस वाले सब्जी बाजार और थोक मंडी में लोगों को पीटते. उस दौरान मैं ने बहुत सी फोटो ली हैं. लोगों की कुछ सहायता की. लेकिन सरकार नाकाम दिखी. इस सैक्टर-बी कालोनी को जब आप पार करेंगी तो एक लेबर चौक है, वहां के दिहाड़ी मजदूर बदहाल एवं परेशान थे. सस्ती दरों में सब्जी भी बिक रही थी. कुछ राशन दुकानदार फायदा भी उठा रहे थे. इस महामारी में गरीब ज्यादा परेशान और बदहाल था, दूसरी तरफ भक्त कह रहे थे सरकार सभी जमातियों के पिछवाड़े को लाल कर देगी. खैर, सब मुद्दों को छोङ कर, जनता थाली उत्सव के बाद, कोरोना दीपोत्सव…”

निशा ने कहा, “क्या मूर्खता चरम पर नहीं पहुंच गई है? लेकिन सरकार संविदा में कार्यरत लोग, बेरोजगार दिव्यांग और दृष्टिबाधितों के लिए कुछ नहीं करती दिखी. बहुत से लोगों के हिसाब से कोरोना वायरस, मुसलिम आतंकवादियों ने भारत के खिलाफ एक साजिश रची थी, जो हिंदुओं को खत्म कर देना चाहते थे और भारत में तबाही फैलाना चाहते थे. इसलिए उन का मानना था कि उन्हें मुसलमानों से संपर्क नहीं रखना चाहिए. ऐसी बातें गांवों, कसबों में सांप्रदायिक तत्त्वों द्वारा फैलाई जा रही थीं, जिस सें मीडिया ने अहम भूमिका अदा की थी.”

एक दिन लोकल मार्केट में पीर मोहम्मद और निशा की मुलाकात सरफराज से हुई. निशा ने पीर मोहम्मद को बताया कि यही हैं सरफराज, जो उस दिन बबलू को खोजने में मदद की थी.”

तभी पीर मोहम्मद ने कहा,”कल रविवार है. शाम को आइए न खाना साथ खाएं.”

रविवार को सरफराज निशा के घर पर आया. पीर मोहम्मद ने उस का खुले दिल से स्वागत किया. उस ने पीर मोहम्मद को बताया कि यह शहर उस के लिए पुराना है, लेकिन मैं अब बिलकुल अकेला रह गया हूं. हमारा घर इसी शहर में था और दशकों पहले मम्मीपापा का इंतकाल हो चुका है. कुछ रिलेटिव हैं, लेकिन वे दूरदूर रहते हैं. कुछ दूसरे शहर में हैं. पहले मैं कनाडा में रहता था, अब यही हूं. वहां से आने के बाद ही मैं ने यहां फ्लैट लिया था. जब से यहां हूं नहीं तो कुछ दिनों में ही बहुत दूर चला जाऊंगा.”

पीर मोहम्मद ने पूछा,”मतलब कहां?”

“कनाडा, और कहां…”

उस रोज सरफराज निशा की पैंटिंग भी ले कर आया था, जिसे देख कर पीर मोहम्मद भी बहुत खुश हुआ,”अरे जनाब, आप तो मकबूल फिदा हुसैन जैसे कलाकार हैं. क्या पैंटिंग बनाई है. इस में जीवंतता है. ऐसा लगता है कि कब बोल पड़ेगी पैंटिंग.”

इस के बाद सरफराज जब भी उधर से गुजरता वह उस से मिल लेता था.
निशा बबलू को जब स्कूल छोड़ने जाती तो सरफराज फोन कर देता. निशा उस के घर चली जाती. जब निशा सरफराज के घर जाती तो उस की डिमांड रहती की चाय बना कर पिला दे. अब तो सरफराज ने अदरक भी खरीद कर रख ली थी.

निशा सोचती कि आखिर वह उस की बात मना क्यों नहीं कर पाती है. निशा के न मना करने का कारण यह भी था कि सरफराज छोटी उम्र में ही अनाथ हो चुका था. दूसरी बात यह भी थी कि निशा को उस से कुछ लगाव सा हो गया था. कोई था ही नहीं उस का इस दुनिया में जिस से वह अपने दिल की बात कह सके.

निशा जब उस के घर जाती तो वह कुछ नई पैंटिंग्स दिखाता. कुछ फोटो दिखाता. उस रोज निशा को जब उस ने फोन किया और घर आने की बात कही तो निशा ने मना कर दिया था. निशा ने उस से कहा था कि दूसरे दिन देखेगी. मगर फिर दूसरे दिन निशा उस के घर गई.

सरफराज ने अपनी आदतानुसार चाय पीने की ख्वाहिश जाहिर की. निशा जब चाय बना कर लाई तो उस रोज सरफराज ने उस को उपहारस्वरूप झुमके देने की ख्वाहिश जाहिर की. निशा ने कहा कि यह क्या है? इस का मतलब यह नहीं है कि मैं आप को चाय बना कर दे रही हूं या आप से बात कर ले रही हूं, तो आप मुझे यह सब देंगे. लेकिन वह बहुत रिक्वैस्ट करने लगा कि उसे पहन ले. यह उस की आखिरी इच्छा है.

निशा ने कहा,”मैं इसे नहीं लूंगी लेकिन पहन लेती हूं, आप की खुशी के लिए. वैसे, आप की आखिरी इच्छा क्या है?”

सरफराज बोला,”यही कि कलपरसों मैं कनाडा जा सकता हूं.”

निशा को उस के इस व्यवहार से बहुत आश्चर्य हो रहा था और अपनेआप पर गुस्सा भी. पर सरफराज का अनुरोध वह टाल न पाई थी.

जब निशा वे झुमके पहन कर आई तो सरफराज बहुत खुश दिख रहा था, जैसे उस की अंतिम इच्छा पूरी हो गई हो. वे झुमके निशा पर बहुत खिल रहे थे.

निशा ने सरफराज से कहा, “खुश…”

वह चाहता था कि वह निशा की फोटो इस झुमके के साथ बनाए. इस के लिए उस ने निशा की फोटो ली. निशा का रंग सावंला जरूर था, लेकिन चेहरे पर बहुत चमक और तेज था. लगता ही नहीं था कि निशा एक बच्चे की मां है.

निशा ने पूछा,”आप मेरी फोटो क्यों बनाना चाहते हैं? अरे आप अभी तो जवान हैं, शादी क्यों नहीं कर लेते? मैं आप के लिए कोई अच्छी सी लड़की देखती हूं.”

सरफराज ने कहा,”नहीं, अब बहुत देर हो चुकी है. मतलब कि अब कौन शादी करेगा?”

झुमके के संदर्भ में निशा झेंप जरूर गई थी. उसे कुछ समझ नहीं आया था कि आखिर यह है क्या? दोस्ती का अर्थ यह तो नहीं होता. लेकिन दोस्ती का अर्थ बहुत कुछ भी होता है.
निशा ने कहा,”अब मुझे चलना चाहिए,” वह झुमके निकालने के लिए हाथ ऊपर उठाई तो सरफराज ने कहा,”नहीं, यह आप के लिए ही हैं.”

“क्यों?”

“आप अच्छी लगती हैं मुझे,” सरफराज ने कहा.

सरफराज ने कहा,”एक बात कहूं, आप बुरा तो नहीं मानोगी?”

“क्या?”

“मुझे आप से प्यार हो गया है, पता ही नहीं चला आप कब दिल के करीब आ गईं? कहते हैं न कि प्यार तो प्यार है, जो किसी बंधन में नहीं बंधा होता. मुझे पता है आप शादीशुदा हैं फिर भी आप से प्यार हो गया है.”

निशा का गुस्सा फूट पड़ा,”आखिर यह क्या है? मैं जिसे केवल दोस्त समझती हूं, जिस का दुनिया में कोई नहीं है. कुछ साथ एक सहानुभूति का दे रही थी. उसे अपना समझ कर चाय बना दे रही हूं, तो इस का आशय यह नहीं होना चाहिए. आइंदा आप मुझ से न मिलें और न ही मैं आप से मिलूंगी. हद है…अजीब आदमी हैं.”

निशा उस के दरवाजे से बाहर निकल चुकी थी. वह अपने घर आ चुकी थी लेकिन उसे सरफराज से कुछ लगाव तो जरूर हो गया था. निशा ने यह बात पीर मोहम्मद को नहीं बताई. वह जानती है कि पीर मोहम्मद भले ही खुले विचारों का है फिर भी वह जानती थी कि किसी भी पुरुष को यह बुरा लगेगा क्योंकि मेल ईगो भी तो कुछ चीज होता है. लेकिन 2 रोज बाद सरफराज ने निशा को फोन किया. उस ने मिलने की इच्छा जाहिर की. उस ने कहा कि वह अब यहां से जा रहा है फिर कभी वापस नहीं आएगा.

निशा मिलने से पहले हिचकी लेकिन उस रोज गुस्से से वहां निकल आई थी, जो झुमके उस ने पहनी थी उसे वापस करना था इसलिए वह सरफराज से मिलने उस के घर जा पहुंची.

जब निशा सरफराज से मिली तो उस ने उस दिन के लिए माफी मांगी.
उस ने कहा, “क्या करे वह, उस के वश में नहीं रहा. क्या आप मुझे अपने हाथ की चाय नहीं पिलाएंगी?”

निशा ने संकोच करते हुए कहा,”आखिरी बार.”

उस ने कहा,”बिलकुल, आखिरी बार.”

निशा ने चाय बना कर सरफराज को दी. निशा ने झुमके निकाल कर उस के टेबल पर रख दिए.

उस ने कहा,”प्लीज, इसे तो ले लीजिए. एक यादगार रहेगा, जरूरी नहीं है कि अब मैं कभी मिलूंगा. निशानी के तौर पर रख लीजिए.”

निशा उस की तरफ देख रही थी. उस ने निशा के हाथ में झुमके रखे और निशा के माथे पर किस कर दिया. तभी निशा ने उसे झटका दिया. सरफराज ने फिर निशा के माथे को किस किया.

निशा को उस का किस और उस के पकड़ने में एक ऐसा आकर्षण लगा कि वह उस के कंट्रोल में कब चली गई उसे पता ही नहीं चला और वे एकदूसरे में समाहित हो गए. ऐसा लग रहा था कि वे एकदूसरे के लिए ही बने हों. जैसे निशा को एक सच्चे प्रेमी और सरफराज को एक प्रेमिका की तलाश थी. दोनों अब एकदूसरे के प्रति समर्पित दिख रहे थे.

सुबह के 12 बजने वाले थे. 1 बजे बबलू को स्कूल से भी लाना था. वह जल्द से जल्द वहां से निकली. उसे दरवाजे तक छोड़ने भी आया था सरफराज.

निशा उसे भूल नहीं पा रही थी. वह अंदर से बहुत परेशान थी, सोच रही थी कि आखिर ऐसा कैसे हो गया? निशा इस बात पर हैरान थी कि सरफराज कैसे उस की दिल की बात को समझ लेता था, जो पीर मोहम्मद आज तक न समझ सका. क्या यह आसान है एक स्त्री के लिए? वह पूरी रात सोचती रही.

3-4 दिन गुजर गए न सरफराज का फोन आया और न ही निशा ने उस को फोन किया था. चौथे दिन निशा स्वयं सरफराज के घर गई तो देखा दरवाजा बंद था. कुछ देर वह वहीं खड़ी रही. वह घंटी बजा रही थी कि तभी बगल से एक औरत आई. उस ने कहा,”सरफराजजी ने इस फ्लैट की चाबी दी थी, उन्होंने कहा था कि निशा नाम की कोई आएगी तो उन्हें यह चाबी दे देना. क्या आप का नाम निशा है?”

निशा ने कहा, “जी.”

“सरफराज कब गए कनाडा?”

उस ने कहा, “पता नहीं.”

निशा फ्लैट खोल कर सरफराज के घर में घुसी. घर में कुछ अधूरी पैंटिंग थी, उसे वहां एक खत भी मिला. लिखा था :

“अजीज निशा,

“जब खत आप को मिलेगा, शायद मैं इस दुनिया में न रहूं. आप से मिल कर जीने की चाह बढ़ गई थी, जिस से मैं कुछ महीने और जीवित रहा. मैं ने तो आप को पार्क में देखा था, आप को देख कर ही प्रेम हो गया था. आप की बड़ीबड़ी आंखें. उन आखों में सचाई, बात करने का तरीका. आप के अपनत्व ने मुझे आप की ओर आकर्षित कर दिया था. मेरा इलाज सिटी अस्पताल में चल रहा था. मैं ने आप को बताया नहीं, उस के लिए माफी. मुझे कैंसर है, अब मेरे पास समय नहीं बचा है. डाक्टर हर बार कुछ महीने का समय बताते थे. लगता है, वह समय पूरा हो गया है.”

घर आने पर निशा ने पीर मोहम्मद को अपने साथ घटित और सरफराज के साथ शारीरिक संबंध वाली बात सचाई के साथ बता दी थी. उस ने सोचा था कि पीर मोहम्मद उसे छोड़ देगा. सब सुन कर पीर मोहम्मद सिटी अस्पताल पहुंचा फिर उस के कुछ रिश्तेदारों का पता किया. फोन कर के बताया की सरफराज अब नहीं रहे. लेकिन उन्होंने अपनी असमर्थता बताई. बाद में पीर मोहम्मद ने लोकल लोगों के साथ मिल कर उस का सुपुर्देखाक करवाया. फिर वह घर आया और पहले दिन तो उस ने निशा से बात न की, दूसरे दिन कुछ देर सोचता रहा पीर मोहम्मद, फिर उस ने निशा से कहा,”चलो, कोई नहीं, इसे एक सपना समझ कर भूल जाओ. मैं तुम से बैगर बात किए रह ही नहीं सकता.”

पीर मोहम्मद ने निशा से कहा, “दूसरी तरफ जब एक पुरुष किसी औरत के साथ शारीरिक संबंध बना लेता है, किसी दूसरी महिला को प्राप्त करने के बारे में सोच सकता है या किसी के प्रति आकर्षित हो सकता है तो महिला क्यों नहीं हो सकती? मैं इसे कोई अपराध नहीं है मानता कि तुम ने कुछ गलत किया. यह तुम्हारे वश में था ही नहीं.

“एक मरते हुए व्यक्ति में प्यार की एक तड़प थी. एक बात मैं कहूं, सच में वह तुम से मुझ से कहीं अधिक प्यार करता था वह. किसी व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध बन जाना एक स्वाभाविक घटना है. यह जरूरी नहीं है कि औरत इस बंधन में बंधे. पर यह जरूर है कि तुम सरफराज को भूल जाओ, लेकिन तुम्हारा शरीर उसे कभी नहीं भूल पाएगा, ऐसा मुझे लगता है.”

प्यार का तीन पहिया : भाग 3

‘‘देख प्रीति, यह संभव नहीं. मेरे घर वाले ऐसे बेमेल रिश्ते के लिए कभी तैयार नहीं होंगे और मेरा दिल भी इस की गवाही नहीं देता. क्या कहूंगी उन्हें कि एक आटो वाले से प्यार करती हूं? नहीं यार, कभी नहीं. इतना नहीं गिर सकती मैं. वह चाहे कितना भी काबिल हो, है तो एक आटो वाला ही न?’’

वसुधा का जवाब मुझे पता था, पर वह यह सब इतनी बेरुखी से कहेगी, यह मैं ने नहीं सोचा था. मैं समझ गई, वसुधा कभी उसे स्वीकार नहीं करेगी. मुझे भी वसुधा का फैसला सही लगा.

एक दिन सुबहसुबह ही वसुधा ने मुझे फोन किया, ‘‘प्रीति प्लीज, अभी जल्दी से मेरे घर आ जा. एक बहुत जरूरी बात करनी है.’’

उस की बेसब्री देख कर मैं जिन कपड़ों में थी, उन्हीं में उस के घर पहुंच गई. फिर पूछा, ‘‘क्या बात है? सब ठीक तो है? बूआजी कहां हैं?’’

वह मुझ से लिपटती हुई बोली, ‘‘बूआजी 4 दिनों के लिए मामाजी के यहां गई हैं.’’

मैं ने देखा, उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं ने पूछा, ‘‘वसुधा, बता क्या हुआ? रो क्यों रही है?’’

‘‘ये खुशी के आंसू हैं. मुझे मेरा हमसफर मिल गया प्रीति,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा… पर है कौन वह?’’

‘‘वह और कोई नहीं, अभिषेक ही है.’’

‘‘क्या? इतना बड़ा फैसला तू ने अचानक कैसे ले लिया? कल तक तो तू उस के नाम पर भड़क जाती थी?’’ मैं ने चकित हो कर पूछा.

वह मुसकराई, ‘‘प्यार तो पल भर में ही हो जाता है प्रीति. कल शाम तू नहीं थी तो मैं अकेली ही अभिषेक के आटो में बैठ गई. मुझे एक बैग खरीदना था. उस ने कहा कि मैं जनपथ ले चलता हूं. वहां से खरीद लेना.

‘‘बैग खरीद कर मैं लौटने लगी, तो अंधेरा हो चुका था. ओडियन के पास वह बोला कि क्या फिल्म देखना पसंद करेंगी मेरे साथ? घर में तो मैं अकेली ही थी. अब हां करने में क्या हरज था. हमें 6 बजे के टिकट मिले. 9 बजे तक फिल्म खत्म हुई तो गहरा अंधेरा था. उस ने एक पल भी मेरा हाथ न छोड़ा. प्यार और दुलार का ऐसा एहसास मैं ने जीवन में कभी नहीं महसूस किया था.

‘‘रास्ते में याद आया कि बूआजी की दवा लेनी है. एक मैडिकल शौप नजर आई तो मैं ने हड़बड़ा कर आटो रुकवाया और तेजी से उतरने लगी तभी लड़खड़ा कर गिर पड़ी. सिर पर चोट लगी थी. अत: मैं बेहोश हो गई. फिर मुझे कुछ याद नहीं. जब होश आया तो देखा, कि मैं अपने कमरे में एक शाल ओढ़े लेटी थी और मेरे कपड़े उतरे हुए थे. घुटने पर पट्टी बंधी थी. एक पल को तो लगा जैसे मेरा सब कुछ लुट चुका है. मैं घबरा गई पर फिर तुरंत एहसास हुआ कि ऐसा कुछ नहीं है. किसी तरह उठ कर बाथरूम तक गई तो देखा कि अभिषेक कीचड़ लगे मेरे कपड़े धो रहा था.

‘‘मैं खुद को रोक न सकी और पीछे से जा कर उस से लिपट गई. उस के बदन के स्पर्श से मेरे भीतर लावा सा फूट पड़ा. अभिषेक भी खुद पर काबू नहीं रख सका और फिर वह सब हो गया, जो शायद शादी से पहले होना सही नहीं था. पर मैं एक बात जरूर कह सकती हूं कि अभिषेक ने मुझे वह खुशी दे दी, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपाहिज होने के बावजूद मुझे ऐसा सुख मिलेगा, यह मेरी सोच से बाहर था.

‘‘उस का प्यार, उस की सादगी, उस की इंसानियत, उस के सारे व्यक्तित्व ने मुझ पर जैसे जादू कर दिया है. जरा सोच मैं जिस हालत में उस के पास थी, बिलकुल अकेली… किसी का भी दिल डोल जाता. पर उस ने अपनी तरफ से कोई गलत पहल नहीं की. क्या यह साबित नहीं करता कि वह नेकदिल और विश्वस्त साथी है? मैं अब एक पल भी उस से दूर रहना नहीं चाहती. प्लीज, कुछ करो कि हम एक हो जाएं. प्लीज प्रीति…’’

‘‘मैं थोड़ी देर अचंभित बैठी रही. वैसे मुझे वसुधा को खुश देख कर बहुत खुशी हो रही थी. फिर मैं ने वसुधा को समझाया, ‘‘सब से पहले तुम दोनों कोर्ट मैरिज के लिए कोर्ट में अर्जी दो. फिर मैं तुम्हारी बूआ व परिवार वालों को इस शादी के लिए तैयार करती हूं. थोड़े प्रतिरोध के बाद वसुधा के घर वाले मान गए.’’

हंसीखुशी के माहौल में अभिषेक और वसुधा का विवाह संपन्न हो गया. ‘मन’ फिल्म के आमिर खान की तरह अभिषेक ने वसुधा को गोद में उठाया कर फेरे निबटाए. बात यहीं खत्म नहीं हुई, शादी के बाद जब हनीमून से दोनों लौटे और मैं औफिस जाने के लिए अभिषेक की टैक्सी (अभिषेक ने नई टैक्सी ले ली थी) में बैठी तो अभिषेक ने चुटकी ली, ‘‘साली साहिबा, अब तो आप से मनचाहा किराया वसूल कर सकता हूं. हक बनता है मेरा.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘बिलकुल. पर साली होने के नाते मैं आधी घरवाली हूं. इसलिए तुम्हारी आधी कमाई पर मेरा हक होगा, यह मत भूलना.’’

मेरी बात सुन कर वह ठठा कर हंस पड़ा और फिर मैं ने भी हंसते हुए उस की पीठ पर धौल जमा दी.

हीरो : भाग 3

‘‘उन सब से पहले रास्ते में आप मुझे समझाना सारा चक्कर,’’ ऐसा कह उलझन का शिकार बनी कविता घर में ताला लगाने के काम में लग गई. आनंद की घर की तरफ बढ़ते हुए आशी बुआ ने कविता का हाथ पकड़ा और संजीदा लहजे में बोलीं, ‘‘बेटी, तू ने देख लिया था कि आज हर व्यक्ति को अपने जीवनसाथी की, अपनी संतान अपने मातापिता या रिश्तेदार की तुलना में फिक्र ज्यादा थी. सिर्फ तेरी मां इस का अपवाद रहीं और उन के अनोखे व्यवहार के बारे में मैं अपने विचार तुझे बाद में बताऊंगी.’’

‘‘बुआ, मेरी समझ से हर किसी को अपने जीवनसाथी की ज्यादा जुङाव होना स्वाभाविक है. पतिपत्नी किस उम्र के हैं, इस का ज्यादा प्रभाव इस बात पर नहीं पड़ता है,’’ कविता ने अपना मत प्रकट किया.

‘‘तुम ठीक कह रही हो। एकलौता बेटा प्यारा है, पर उस से पहले तेरी सास उर्मिला अपने पति दीगरवालजी को देखने गईं. मनोज की तुम से बहुत अच्छी पटती है, पर वह सुनंदा को देखने भागा चला गया. राजेश से तुम आजकल नाराज चल रही हो, पर अगर मौका पड़ता तो तुम उसे पहले देखने जाती या अपने जीजा को? या अपने पिता को?’’

‘‘अभी फैसला बताना कठिन है, पर बदहवासी की हालत में शायद राजेश को ही देखने भागती. औरों से भिन्न नहीं हूं मैं, बुआ,’’ कविता ने सोचपूर्ण लहजे में जवाब दिया.

‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुनो, कविता. शादीशुदा जिंदगी की फिल्म में हीरोहीरोइन की भूमिका पतिपत्नी ही निभाते हैं. उन के आपसी संबंधों में कितने भी उतारचढ़ाव आएं, पर जरूरत के समय वे दोनों ही एकदूसरे के सच्चे साथी, शुभचिंतक और मददगार साबित होता है. मेरे नाटक के क्या आज इस बात को सिद्ध नहीं किया है?’’

‘‘बिलकुल सिद्ध किया है, बुआ,’’ कविता ने फौरन हामी भरी.

‘‘तुम ऐसी फिल्म को किस खाने में रखोगी जिस की हीरोइन या हीरो अपनी किसी इच्छा, मांग जिद या कैसी भी परिवर्तन की चाह को कारण एकदूसरे से दूर होते चले जाएं?’’

‘‘ऐसी फिल्म तो रोने वाली फिल्म बनेगी, बुआ.’’

‘‘बेटी, राजेश और तुम्हें एकदूसरे से शिकायतें होंगी. तुम दोनों में ही कमियां हैं, पर बड़ी बात यह है कि आज की तारीख में एकदूसरे से नाराज हो कर तुम अलगअलग रह रहे हो. क्या तुम अपनी शादीशुदा जिंदगी की फिल्म को एक दुखांत फिल्म बनाना चाहती हो?’’ बड़ी सङक पर पहुंच बुआ रुक गईं और कविता के चेहरे पर नजरें गड़ा कर उन्होंने अपना सवाल पूछा.

‘‘कोई भी पत्नी ऐसा नहीं चाहेगी,’’ कविता ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘क्या यह जवाब तुम सोचसमझ कर दे रही हो?’’

‘‘हां, बुआ.’’

‘‘तब क्या तुम बता सकती हो कि मैं ने आज की पार्टी किस खुशी में दी है?’’ बुआ ने अर्थपूर्ण लहजे में सवाल पूछा.

‘‘मैं 1 नहीं बल्कि 2 कारण बताऊंगी,’’ कविता शरारती अंदाज में मुसकराई, ‘‘पहला कारण तो यह है कि मैं अपने हीरो राजेश के साथ आज अपने घर लौट जाऊंगी और यह आप के लिए बहुत खुशी की बात है.’’

‘‘और वह दूसरा कारण क्या हो सकता है जिस का मुझे भी नहीं पता?’’

‘‘बुआ, अपने नाटक में कुशल अभिनय व उस का सफल निर्देशन करने की खुशी को आप पार्टी देने का दूसरा कारण मान सकती हैं. आप अपनी इस हौबी को गंभीरता से लें, तो एक दिन पूरे देश में आप का नाम गूंज उठेगा.’’

‘‘क्या तुम मेरी टांग खींचने की कोशिश कर रही हो?’’ बुआ ने बनावटी अंदाज में आंखें तरेरी.

‘‘नहीं, मेरी प्यारी बुआ,’’ कविता उन के गले लग कर भावुक लहजे में बोली, ‘‘आप के नाटक ने मुझे तेज झटका लगा कर मेरी आंखें खोल दी हैं. अपने हीरो राजेश की मैं मनोज जीजाजी से तुलना बंद कर दूंगी. हर कदम पर अपने हीरो के साथ रह कर मैं अपनी जिंदगी के सारे कड़वेमीठे अनुभवों से नहीं गुजरी, तो अंत में मूर्ख बन कर नुकसान उठाऊंगी, यह सीख मैं ने अपने दिल में उतार ली है,’’ आशी बुआ ने प्यार से कविता का माथा चूम लिया.

“इस जगह से मैं पहले ही 6 व्यक्तियों को होटल पहुंचाने का काम कर के थक चुका हूं. मुझे नहीं मालूम था कि आप दोनों को लेने भी मुझे आना पड़ेगा। मां, यहां खड़े हो कर गपशप करने की क्या जरूरत है?’’ नाराज नजर आ रहे राहुल की आवाज सुन कर बुआभतीजी अलग हुए और अपनीअपनी आंखों से निकले आंसू पोंछते हुए आनंद के घर की तरफ बढ़ चले.

आशी बुआ ने कविता को आखिर में कहा, ‘‘बेटी, हम लोगों के पास रहनेखाने का ठीकठाक पैसा अब पहली बार मिल रहा है. अब तक तो हम लोग ऊंची जातियों के लोगों के इशारों पर चलते थे, उन के हुक्म मानते थे. उन के तौरतरीके दूसरे हैं. उन की नकल कर के एक अपनी जिंदगी खराब न करो। राजेश की कमाई इतनी नहीं है कि हीरो बना फिरता रहे और तुम्हें नया मकान दिला सके और न मनोज की कमाई परमानैंट रहने वाली है, जिस पर तू इतरा रही है. जो मिला है उसे सहेज कर रख मेरी बच्ची.”

आनंद के पास पहुंच कर जिस प्यार भरे अंदाज में कविता अपने हीरो राजेश की तरफ देख कर मुसकराई उसे नोट कर के आशी बुआ का दिल गदगद हो उठा. मन ही मन उन दोनों को सुखी रहने का आशीर्वाद दे कर वे वहां उपस्थित लोगों के नाटक से जुड़े सवालों का जवाब देने को तैयार हो गईं.

पहलापहला प्यार : भाग 3

तलाक को टेबू माने जाने वाले इस समाज में सुमी का यह फैसला किसी के गले नहीं उतर रहा था पर सुमी ने सब से कहा, “4 साल से घुटन और तनाव को झेल कर मैं मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गई हूं और अब मैं अपनी इस खूबसूरत जिंदगी को ढोना नहीं बल्कि जीभर के जीना चाहती हूं और उस के लिए मुझे इस बंधन से आजाद होना होगा.”

चूंकि वह आत्मनिर्भर थी, अच्छा कमाती भी थी इसलीए उस के इस निर्णय से किसी पर कोई विशेष फर्क भी नहीं पड़ा. विचारों का प्रवाह इतना तीव्र था कि सोचतेसोचते वह कब बालकनी से आ कर बैड पर लेट कर गहरी नींद में चली गई उसे कुछ पता नहीं चला.

अचानक सुमित की आवाज उस के कानों में पड़ी, “सुमी, तुम अभी भी सोई हो क्या?”

“नहीं, मैं अभी चाय मंगवाती हूं,” वह हड़बड़ा कर उठी और फोन पर चाय के लिए रैस्टोरेंट का नंबर डायल करने लगी. वह फिर बालकनी में आ कर बादलों की ओट में से अपनी छठा बिखेरते सूर्य को देखने लगी. बस यों ही उस के जीवन के अंधियारे की ओट में से निकल कर सुमित उस की जिंदगी में सूरज बन कर आए थे.

प्रशांत से डाइवोर्स लिए अब उसे 6 साल हो गए थे. पिताजी के रिटायर होने के बाद मांपापा भी अब उस के साथ ही रहने लगे थे. यों तो जिंदगी अपने ढर्रे पर चल रही थी पर अकसर मांपापा फिर से शादी की बात करने लगते तो वह चिढ़ जाती और कहती,”मां, अभी हम तीनों कितने सुख से रह रहे हैं. मैं अब कोई बंधन नहीं चाहती.”

एक दिन जैसे ही वह औफिस से आई तो उसी शहर में रहने वाली उस की कालेज की एक टीचर शमा का फोन आया और उन्होंने उसे आने वाले रविवार को अपने घर पर आने का न्योता दे डाला. कुछ हिचकिचाहट के बाद जब रविवार को वह पहुंची तो वहां अपने मातापिता के साथ सुमित भी वहां मौजूद थे.

औपचारिक चायनाश्ते के बाद शमाजी बोलीं, “सुमी, यह हैं मेरी फ्रैंड रश्मि का बेटा सुमित और सुमित यह हैं मेरी भांजी सुमी. आप दोनों एक बार मिल लीजिए फिर आगे की बात करते हैं.”

“पर मामीजी, आप ने अचानक…मुझे बिना बताए…शमाजी मैं अभी…” उस ने हैरत से भरे स्वर में कहा तो शमाजी बोलीं,” हां, जैसे बताते तू आ जाती. तुम्हारे पेरैंट्स को सब पता था. हम ने तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं छिपाया है. बस, अब तुम लोग आपस में बात कर लो फिर आगे की बात करेंगे,” कहते हुए शमा ने उसे छत पर भेज दिया.

जैसे ही वे दोनों छत पर पहुंचे और वह कुछ बोल पाती उस से पहले ही बिना किसी लागलपेट के सुमित ने बोलना शुरू कर दिया,”मैं नहीं जानता कि किस ने आप को क्या और कितना बताया पर मैं आप को बताना चाहता हूं कि मुझे रेटिना पिग्मेंटोसा नाम की बीमारी है जिस का कोई इलाज नहीं है और आज जो आप मुझे देख रही हैं वैसा हमेशा नहीं रहने वाला है. इस लाइलाज बीमारी के कारण मेरा विजन कम होतेहोते एक दिन पूरी तरह खत्म हो जाएगा, आगे चल कर दृष्टिहीन हो जाने वाले इस इंसान से विवाह कर के आप को क्या मिलेगा? मैं तो आप से मिलना ही नहीं चाहता था पर शमाजी और घर वालों के दबाब के कारण आना पड़ा.”

पर सुमी को कहां सुमित की बातें सुनाई पड़ी थीं वह तो बस अपने सामने बैठे गोरे, चिट्टे, लंबे कदकाठी, बैंक में मैनेजर सुमित के व्यक्तित्व में ही इतना खो गई थी कि सुमित की बातें उसे सुनाई ही नहीं दीं. काफी देर तक उसे चुप देख कर जब एक बार फिर सुमित ने अपनी बात दोहराई तब कहीं उसे समझ आया कि सुमित को कोई बीमारी है जिस से एक दिन वह पूरी तरह दृष्टिहीन हो जाएगा.

एकबारगी तो सुमित की बातें सुन कर वह सन्न रह गई फिर कुछ ही देर में खुद को संयत कर के बोली,”हम जीवनसाथी बनेंगे या नहीं यह तो मैं अभी नहीं कह सकती पर हां, मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप को कोई बीमारी है. वैसे भी यदि शादी के बाद मुझे कोई बीमारी हो गई तो क्या आप मुझे छोड़ देंगे या फिर हमारी शादी के बाद आप की यह बीमारी डायग्नोस होती तो… मुझे बस इतना पता है कि आप ईमानदार हैं क्योंकि आप चाहते तो अपने घर वालों की ही भांति अपनी बीमारी के बारे में मुझ से छिपा सकते थे और आप के इसी गुण ने मेरा दिल जीत लिया है.

“हां, मैं डायवोर्स ले चुकी हूं यह आप को पता है न?” उस ने सुमित से कहा तो सुमित बहुत ही मासूमियत से बोले,”हां, मुझे आंटी ने बताया था और मुझे उस से कोई फर्क नहीं पड़ता और न मैं यह जानना चाहता हूं कि आप ने क्यों और किस से तलाक लिया. मैं एक बार फिर आप से विनती करता हूं कि आप जो भी निर्णय लें बहुत सोच समझ कर क्योंकि यह कोई 30 मिनट का सीरियल या 3 घंटे की मूवी नहीं है जो कुछ समय बाद खत्म हो जाएगी. यह जिंदगीभर का साथ है. मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए आप अपनी जिंदगी से कोई समझौता करें, मैं जैसा हूं अच्छा हूं, आप खूबसूरत हैं, पूर्ण शिक्षित हैं, अच्छाखासा कमातीं हैं, तो कोई भी आप को अपना जीवनसाथी बना कर धन्य हो जाएगा पर प्लीज, मैं इस रिश्ते के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हूं.

“मेरी कोई तब तक नहीं सुनेगा जब तक कि आप मना नहीं करेंगी. इसलिए प्लीज, मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे ऊपर दया कर के अपना जीवन दांव पर लगाए. प्लीज, आप मना कर दीजिए. हां, एक और बात मैं उस परिवार से हूं जिसे आप लोग ओबीसी कहते हैं,” इस के बाद वे दोनों ही अपनेअपने घर चले गए.

कुछ दिनों के चिंतनमनन के बाद जब उस ने सुमित की पूरी सचाई बता कर मातापिता को अपना निर्णय सुनाया तो वे मानों बौखला गए, “पागल हो गई है तू जो अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है? मैं ने तो समझा था कि शमाजी तेरी सीनियर हैं, अमीर घराने से हैं, तेरी जाति देख कर कुछ कर रही होंगी. सोच कर देख कि उस की आंखे जाने के बाद कैसे काटेगी अकेले पूरी जिंदगी. मैं इस विवाह की अनुमति नहीं दे सकता. पहले ही तू इतना झेल चुकी है और अब फिर से एक अंधे से शादी करना चाहती है. अपनी नाजों से पली बेटी को मैं जानतेबूझते फिर से इस नर्क में जाने को कैसे सपोर्ट कर दूं? हमें तेरी शमा ने पहले ही यह सब बताया होता तो हम तुझे मिलाने के लिए ही तैयार नहीं होते.”

पर वह तो पहली मुलाकात में ही सुमित को अपना दिल दे बैठी थी, सुमित की साफगोई की वह कायल हो गई थी. प्यार में आंखों का क्या रोल वह तो दिल से दिल का होता है, न जाने क्यों लोग कहते हैं कि अरे, प्यार करने से पहले जरा देखसोच तो लिया होता जब कि प्यार जाति, धर्म, रंगरूप और उम्र इन सब से परे होता है और फिर वह तो मेरी पहली नजर का प्यार है, पहला पहला प्यार जिसे किसी भी कमी के कारण ठुकराया नहीं जा सकता और क्या शरीर के किसी विकार के आगे इंसान के व्यक्तित्व, गुण, जाति और शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं होता? मैं विवाह करूंगी तो बस सुमित से ही.

मन ही मन अपने निर्णय पर एक बार फिर दृढ़ होते हुए वह बोली,”पापा, इंसान कभी आंखों से नहीं बल्कि अपनी, अपने व्यवहार और अपने कार्यों से अंधा होता है. देख तो चुके हैं न आप प्रशांत को जो आंखें होते हुए भी पूरी तरह अंधा था जिसे शराब और शक करने के अलावा कुछ भी दिखाई ही नहीं देता था. हां, मैं सुमित के अलावा और किसी से विवाह नहीं करूंगी,” उस के इस अडिग निर्णय के आगे परिवार भी नतमस्तक हो गया और एक सादे से समारोह में वह सुमित की दुलहन बन कर सुमित के साथ भोपाल आ गई.

विवाह के बाद सुमित के परिवार वालों की खुशी का ठिकाना नहीं था. अपने जाने के बाद बेटे के भविष्य को ले कर चिंतित रहने वाले मातापिता को सुमी ने मानो सुमित की जिम्मेदारी ले कर चिंतामुक्त कर दिया था. दोनों की जोड़ी ऐसे लगती मानों कुदरत ने उन्हें एकदूसरे के लिए ही बनाया हो.

प्रशांत के उलट सुमित बेहद सुलझे, बहुत केयरिंग और बहुत प्यार करने वाले पति थे. उन की पूरी दुनिया ही सुमी में सिमटी हुई थी. कुछ समय बाद ही उन के घरआंगन में बेटी अनु का जन्म हुआ था. बला की खूबसूरती को समेटे अपने पापा की प्रतिकृति बेटी अनु अपने पापा की बेहद लाङली थी. सुमित का विजन धीरेधीरे कम होता जा रहा था.

कभीकभी सुमित बेचैन हो कर अपने अंतरंग क्षणों में आंखों में आंसू भर कर कहते, “जब तक आंखों की रौशनी है मैं तुम दोनों को अपनी आंखों और दिल में बसा लेना चाहता हूं ताकि बाद में कोई गिला न रहे.”

“ऐसे न कहो सुमित, मैं और अनु हैं न तुम्हारी आंखें… तुम्हारे पास 4 आंखें हैं. तुम चिंता क्यों करते हो, हम तुम्हारी आंखें बन कर जिंदगीभर तुम्हारी सारी इच्छाओं को पूरा करेंगे.”

विवाह के 8 साल बाद ही सुमित की आंखों की रौशनी पूरी तरह समाप्त हो गई थी. रौशनी समाप्त होने के बाद यों तो सुमी ने अपने प्रत्येक कार्य को स्वयं करने के लिए सुमित को ट्रैंड कर दिया था पर जहां जरूरत होती वहां अनु और सुमी की चार आंखें हरदम सुमित के पास मौजूद रहतीं. बेटी अनु अपने पापा की ही तरह बहुत ही मेधावी थी और अपने पहले प्रयास में ही उस ने यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली थी.

बेटी ने अपनी पसंद के ही एक अधिकारी से विवाह की बात की तो दोनों ने खुशी से उस के हाथ पीले कर दिए थे. बेटी अनु की जिद थी कि मैं हनीमून पर तब ही जाऊंगी जब आप लोग भी अपना सैकंड हनीमून मनाने मुंबई जाओगे. उस ने ही टिकट करवा कर उन्हें जबरदस्ती मुंबई भेजा था.”

बेटी के जाने के 1 सप्ताह बाद ही वे दोनों भी निकल पड़े थे और आज मुंबई घूम रहे थे.

सपनों की बगिया : भाग 3

सुजाता यह सब देखतीसुनती तो दंग रह जाती. एक मध्यवर्गीय परिवार कैसे इतनी रकम इस तरह स्वाहा कर सकता है, आवश्यकताओं की बलि दे कर बेकार के शौक पूरे कर सकता है? कोई उन्हें यथार्थ से अवगत क्यों नहीं कराता? क्या मिलता है इन नएनए फैशनों से? क्या वह उस से कुछ सीख कर लाभ उठा सकती है? यदि वह स्वयं ही कपड़े डिजाइन कर सकती तो कम से कम एक कला तो आती.

सुजाता को लगा कि उसे समस्या का समाधान मिल गया है. वह रतना को अपने कपड़े स्वयं डिजाइन करने का सु झाव देगी, जितना वह स्वयं जानती है, उस से उसे सीखने में मदद देगी. उसे विश्वास था कि कपड़ों की शौकीन रतना इस क्षेत्र में अवश्य रुचि लेगी.

उस का अनुमान ठीक ही था. इंटर की परीक्षा देने के बाद उस ने घोषणा कर दी थी कि वह बीए में न बैठ कर डिजाइन स्कूल में भरती होगी. मातापिता उस के इस निश्चय पर बहुत नाराज थे. बीए, एमए की डिगरी के सामने सिलाई में निपुणता का मतलब फिर पुराने जातिगत काम करना जो वे अब छोड़ना चाहते थे, क्योंकि उन में पैसा नहीं था, की दृष्टि में मूल्य ही क्या था? परंतु एक बार निश्चय कर लेने की रतना की जिद कोई सरलता से तोड़ नहीं सकता था.

इस बात को रतना के दिमाग में बैठाने के लिए सुजाता को भी भर्त्सना का कुछ न कुछ हिस्सा जरूर मिला था, परंतु वह प्रसन्न थी कि वह एक बेकार शौक और थोथी पढ़ाई की जगह, जो केवल डिगरी के लिए की जा रही थी, ठोस कार्य के लिए सु झाव दे सकी थी.

सुजाता सुबह से शाम तक सास को खाना बनाते, सब को खिलाते देखती. वह कंघी तक करने की फुरसत न जुटा पाती थी. सुजाता उसे रसोईघर से खींच लाती, उस के सिर में शैंपू करती. वह हंसती, ‘‘अरे सुजाता, तुम्हारे संजनेसंवरने के दिन हैं. भला मैं सिंगारपिटार करती अच्छी लगती हूं?’’ पर सुजाता एक न सुनती. उसे नई साड़ी पहनवाती, फेसपैक लगा कर स्किन साफ करती. हलका सा मेकअप कर बिंदी लगा कर छोड़ती. सास मुंह से मना करती पर उसे कुछ देर रसोईघर से छुट्टी पा कर, सजसंवर कर अच्छा ही लगता. थका शरीर और मन ताजा हो उठता.

सुजाता सब से शिकायत करती, ‘‘तुम लोग जब चाहे आतेजाते हो, जब चाहे खाना खाते हो. मांजी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है. दिनभर उन्हें रसोईघर से छुट्टी नहीं मिलती. क्या तुम लोगों का फर्ज नहीं कि उन का काम कुछ हलका करो? सब एक ही साथ बैठ कर खाना खा लें तो काम कितनी जल्दी खत्म हो जाए.’’

कभी हंस कर, कभी बनावटी क्रोध दिखा कर वह सब को एकसाथ खाना खाने पर विवश करने लगी. नई बहू का मन रखने के लिए ससुर भी ताश छोड़ कर उठ जाते और खाने की मेज पर पहुंच जाते. इस नियम में सब ढिलाई करने की कोशिश करते, परंतु सुजाता अपनी पकड़ ढीली न होने देती.

सुजाता के सु झाव पर महेश ने नाटकों में बहुत झि झकते हुए भाग लिया था, परंतु अभिनय के क्षेत्र में कदम रखते ही उसे लगा कि उस ने ऐसी नई दिशा में कदम रखा है, जहां उसे अपने सपनों को साकार करने का अवसर मिलेगा. फिल्मों का शौकीन महेश इस नए शौक में गले तक इस तरह डूब गया कि उस के मन में मचलती उमंगें निकास पाने को उमड़ती चली जा रही थीं. बेटे को नाटकों में भाग लेते देख पिता ने काफी डांटफटकार की. वे सब से शिकायत करते, ‘‘लड़का हाथों से निकल गया है. वह नचनिया होता जा रहा है. पढ़नालिखना तो गया भाड़ में.’’

उन की दृष्टि में पिक्चर देखना एक बात थी, परंतु नाटकों में भाग लेना दूसरी. उन्होंने जहां दिनरात फिल्में देखने पर महेश को कभी नहीं रोका था, वहां अब वे उस पर बातबात पर बिगड़ने लगे थे, परंतु कालेज के एक नाटक में उस का अभिनय देख कर उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी.

दिनेश की मौसी आई हुई थी. वह बहन को रसोईघर से निकाल कर, मुंहहाथ धो कर कंघीचोटी करते देख रही थी. वह हंस कर बोली, ‘‘वाह दीदी, घर में नई बहू क्या आई, लगता है कि तुम पर ही जवानी आ गई. इस उम्र में सजनेसंवरने का शौक लग गया है. तुम्हीं क्या, देख रही हूं, तुम्हारे सारे घर की रंगत बदल गई है. मु झे लगता ही नहीं कि यह पहले वाला घर है.’’

माथे पर बिंदी लगाती बड़ी बहन भी हंसी, ‘‘हमारी तो जैसेतैसे गुजर गई पर जब घर में पढ़ीलिखी, होशियार बहू आ जाए तो अपने को बदलना ही पड़ता है.’’

सुजाता बाहर खड़ी सब सुन रही थी. वह मुसकराई. उस ने सुरुचिपूर्ण सजे घर को देखा और उस की निगाह हरेभरे पौधों पर अटक गई. नन्हेनन्हे पौधे युवा हो कर पत्तों से लदे थे. उन में नन्हीनन्ही कलियां सिर निकाले  झांक रही थीं. उसे लगा, अब देर नहीं, शीघ्र ही उस की बगिया में रंगबिरंगे फूल खिल उठेंगे और उस का घर महकती हवाओं से भर उठेगा. वह प्रसन्न थी कि उस ने परिवार के बाग से पौधा उखाड़ कर अपनी दुनिया अलग नहीं बसाई, वरन उस बाग को ही संवार दिया. उस ने अपना सपना टूटने नहीं दिया था. वह साकार हो उठा. सुख जाति के बड़प्पन में नहीं है, गुणों के सही इस्तेमाल से मिलता है.

अब जब भी सुजाता के मातापिता उस से मिलने आते, न दिनेश को संकोच होता, न दिनेश के मातापिता को और न ही सुजाता के मातापिता को एहसास होता कि उन के परिवारों में कभी कोई खाई भी थी.

अपनी अपनी नजर : भाग 3

समीर और मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. अस्पताल से फ्री होते ही समीर मुझे फोन करता और हम दोनों बाहर घूमते, शौपिंग करते और नए जीवन के सपने देखते. शादी से एक दिन पहले मैं उदास हो गई और चुपचाप लान में बैठी मम्मी से कही अपनी बातें सोच रही थी, उन को इतनी कड़वी बातें कहने का दुख भी था लेकिन अब तो भड़ास निकल ही चुकी थी. अब सब ठीक था. मम्मी शांत रहतीं, पापा शादी की तैयारियों में काफी समय निकाल रहे थे.

अचानक मम्मी मुझे ढूंढ़ती लान में आ गईं और मेरे पास ही बैठ गईं. थोड़ी देर मुझे देखती रहीं फिर बोलीं, ‘सुनंदा, तुम्हारी नानी कहा करती थीं कि हर इनसान जीवन को अपनी नजर से देखता है. मैं मानती हूं कि मैं ने तुम से हमेशा एक दूरी बनाए रखी. कभी मेरी बेटी, मेरी बेटी कह कर तुम्हें प्यार नहीं दिखाया लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि मुझे तुम से प्यार नहीं. मैं ने जिस नजर से दुनिया को देखा था और जिन हालात से गुजरी थी उन्हें देखने के बाद मुझे लगता था कि लड़कियों को हमेशा रौब में रखना चाहिए, क्योंकि मेरी मां ने मुझ पर कभी सख्ती नहीं की थी जिस वजह से जीवन में मुझ से बहुत गलतियां हुई हैं. ‘हर मां यही चाहती है कि जो परेशानी उस ने सही है उस की बेटी उस से दूर रहे. रही तुम्हारे पापा और मेरी बात तो इस उम्र में खुद को बदलना आसान तो नहीं है लेकिन मैं कोशिश करूंगी. तुम्हारे लिए मुझे दुख है कि मैं अपनी सख्ती में हद से बढ़ गई जैसे मेरी मां अपनी नरमी में हद से बढ़ गई थीं. हां, यह मेरी गलती है कि मुझे बैलेंस रखना नहीं आया.’

मम्मी के चुप होने पर मुझे ऐसा लगा जैसे पूरी कायनात खामोश हो गई हो. मम्मी की बातों पर मैं पथरा कर रह गई मगर मेरे अंदर एक तूफान मचा था. मम्मी ने मेरे सिर पर हाथ रख कर इतना ही कहा, ‘हमेशा खुश रहो. मैं शर्मिंदा हूं तुम से, मेरी बच्ची.’

पता नहीं इस वाक्य में ऐसा क्या था कि मैं खुद पर नियंत्रण खो बैठी और उन के गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ी. फिर मैं ने समीर के साथ नए सफर के लिए नए रास्ते में बड़ी मजबूती से पहला कदम रखा. मैं ने अपनेआप से वादा किया था कि मैं कभी समीर से लड़ूंगी नहीं, अपना धैर्य नहीं खोऊंगी. मम्मी से बात करने के बाद मैं अपनी जबान पर और भी नियंत्रण रखना सीख गई थी, क्योंकि उस अनुभव ने मुझे सिखा दिया था कि गुस्से में इनसान कई गलत शब्द बोल जाता है जिस से बाद में शर्मिंदगी होती है जबकि जीवन में ऐसे कई पल आए जहां मुझे समीर की अतिव्यस्तता पर बहुत गुस्सा आया था और हजार कोशिशों के बावजूद मुझे लगता था मैं फट पड़ूंगी.

ऐसे समय में मेरी कोशिश होती कि समीर से मेरा सामना न हो. वैसे भी मैं ने सारा जीवन भरी ससुराल में बिताया था जहां वैसे भी हर बात बोलने से पहले तोलनी पड़ती है वरना हर बात का उलटा मतलब आसानी से निकाला जा सकता है. मैं ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी. मांबाबूजी की देखभाल, सुमित और जया की फरमाइशें, दोनों भाभीभाभी करते नहीं थकते थे. समीर घर की तरफ से बिलकुल बेफिक्र हो कर अपने काम में दिन पर दिन और व्यस्त होता गया. अब उस की गिनती शहर के जानेमाने डाक्टर के रूप में होती थी. नया अस्पताल बन रहा था, जिसे बनाना हम दोनों का एक सपना था.

दोनों बच्चों यश और सुरभि के बाद तो मैं घनचक्कर बनी रहती और फिर समय बीतने के साथ, समीर के पास इतनी फुर्सत भी नहीं रही कि मेरे साथ बैठ कर कभी मेरी बात सुने या अपनी कहे. शादी से पहले मैं मम्मी को देख कर सोचा करती थी कि अगर पापा बिजी रहते हैं तो मम्मी की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि उन्हें मां और बाप दोनों का रोल प्ले करना चाहिए और मैं अपने बच्चों के साथ इसी सोच पर चली थी. मैं उन के साथ न तो इतनी सख्त थी कि वे अपने ही घर में परायापन महसूस करते और न इतनी नरम कि वे बदतमीज और गुस्ताख बन जाएं. यश सुरभि से 2 साल बड़ा था, उस के सैटल होने में अभी समय था, सुरभि का एक बहुत अच्छा रिश्ता आया तो हम सब ने हां कर दी. अब कुछ ही हफ्तों में उस की शादी होने वाली थी.

मैं ने एक रात को देर तक सुरभि के कमरे की लाइट जलती देखी तो मैं उठ कर गई. देखा, सुरभि बहुत उदास सी खिड़की पर खड़ी थी. कुछ ही दिनों बाद विदा होने वाली अपनी बेटी की उदासी ने मुझे भी उदास कर दिया था. मैं उस के पास जा कर खड़ी हो गई और पूछा, ‘क्या हुआ बेटा, क्या बात है?’ सुरभि बोली, ‘मम्मी, पापा एक जरूरी ट्रिप से बाहर जा रहे हैं. कहा तो उन्होंने यही है कि शादी से पहले आ जाऊंगा, लेकिन मुझे पता है वह इस बार भी हमेशा की तरह समय पर नहीं आएंगे. बस, यही सोच रही थी कि काश, जितने दिन मेरी शादी के रह गए हैं, पापा कम से कम वे दिन मेरे साथ बिता लें.’

मैं उसी समय समीर के पास पहुंची जो सोने के लिए बिस्तर पर लेटा हुआ था. पहली बार उस के थके होने का खयाल किए बिना मैं ने पूछा, ‘अगर शादी तक तुम नहीं आ पाए तो?’ समीर ने हैरानी से कहा, ‘क्यों नहीं आऊंगा? मेरी बेटी की शादी है.’

और इस समय मैं अपनेआप से किया हर वादा भूल गई. मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई थी. वे सारी शिकायतें जो काफी समय से मैं ने अपने अंदर दबा कर रखी थीं, सब मुंह पर आ गईं. पुरानी से पुरानी और छोटी से छोटी बात. ‘दोनों बार डिलीवरी के समय भी तुम ने यही कहा था. बहुत बड़ा सेमिनार है. बस, 2 दिन में आ जाऊंगा लेकिन तुम नहीं आ पाए थे. बस, आ कर सौरी बोल दिया था. हमेशा सबकुछ मैं ने अकेले संभाला है. तुम ने कभी सोचा, मुझे कौन संभालेगा. तुम अब भी नहीं आ पाओगे. वहां कई काम निकल आएंगे. तुम ने मुझे अपने ही घर में खो दिया है और तुम्हें पता तक नहीं है.’

सुरभि का कमरा बराबर में ही था. शोर सुन कर वह दौड़ी चली आई. उसे देख कर भी मैं अपने पता नहीं कबकब के गिलेशिकवे दोहराती रही और फिर खुद ही रोने लगी. इतने में यश की आवाज आई, ‘पापा, अमेरिका से डा. जौन का फोन है.’

यश के आवाज लगाने पर समीर तो हक्काबक्का सा कमरे से निकल गया, लेकिन मेरे लिए पानी का गिलास लिए खड़ी सुरभि मुझे कहने लगी, ‘सारी गलती आप की है, मम्मी. इन सब बातों की जिम्मेदार आप ही हैं. आज जो हुआ वह तो एक दिन होना ही था. आप ने पापा को आज कितना सुनाया, वह शहर के प्रसिद्ध डाक्टर हैं, आप को उन की मजबूरियां भी तो समझनी चाहिए. नहीं, मम्मी, आप को पापा से ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए थीं आज,’ और वह गिलास रख कर रोती हुई चली गई.

कितनी देर तक मैं कमरे में सुन्न मस्तिष्क ले कर बैठी रही. 24 साल पहले अपने मांबाप के लिए मैं ने यही सोचा था कि वे लाइफ में बैलेंस नहीं रख सके. मेरी नानी ठीक कहती थीं कि हर इनसान दुनिया को अपनी नजर से देखता है. सारा जीवन मैं ने खुद से लड़ते हुए बिताया था कि मुझे अपनी मम्मी जैसा नहीं बनना है, मगर आज मेरी बेटी ने मुझे वहीं खड़ा कर दिया जहां 24 साल पहले मैं अपनी मम्मी को खड़ा देखती थी लेकिन मेरे पास अभी भी समय था. मैं सब ठीक करने की फिर कोशिश करूंगी. यह सोच कर मैं कमरे से बाहर आ गई जहां समीर फोन पर बात कर रहा था, ‘मैं नहीं आ सकता, जौन. मेरी बेटी की शादी है. हां, मेरी पत्नी सब संभाल लेगी लेकिन उसे संभालने के लिए भी तो कोई होना चाहिए.’

समीर मुझ पर नजर पड़ते ही मुसकरा दिया और फोन रखते ही उस ने अपनी बांहें फैला दीं और मैं एक पल की देरी किए बिना उन बांहों में समा गई. समीर की बांहों में सिमटी मैं यही सोच रही थी कि मांबाप भी इनसान होते हैं. वे अपने अनुभवों के अनुसार ही जीवन जीने की कोशिश करते हैं. सारी बात अपनीअपनी नजर की है. सुरभि की उदासी देख कर मैं समीर से उलझ गई थी और सुरभि के अनुसार मुझे समीर की परेशानियां समझनी चाहिए थीं, हमेशा की तरह कुछ कहना नहीं चाहिए था. सचमुच मेरी नानी ठीक कहती थीं कि हर इनसान जीवन को अपनी नजर से देखता है.

कठघरे में प्यार : भाग 3

“एक बात कहना चाहता हूं. आई होप, तुम मुझे गलत नहीं समझोगी,” एक दिन पिज्जा हट में बैठे हुए पिज्जा कुतरते हुए रोमेश ने इतना कहा तो रीतिका चौंकी. बेबाकी से हर बात कहने वाला इंसान आज अनुमति ले रहा था. यह सच था कि रोमेश का साथ उसे भाने लगा था और औपचारिकताएं की सीमा भी उन के बीच टूट चुकी थीं, इसलिए आप से तुम पर आ गए थे.

“बोलो ना, तुम कब से हिचकिचाने लगे?” रीतिका हंसी.

“तुम्हें ले कर एक लाइकिंग मन में हो गई है. आई नो यू आर मैरिड. एंड आई बिलीव हैप्पिली मैरिड. आई डोंट वांट एनी कमिटमैंट फ्रौम यू एंड प्लीज मुझ से दोस्ती मत तोड़ देना.”

रीतिका चुप रही. मिंट मौकटेल का सिप लेती रही.

“कुछ कहोगी नहीं?”

“क्या कहूं? कि आई ऑल्सो लाइक यू? बहुत बचकाना नहीं लगेगा क्या?” रोमेश उस की इस बात का जवाब देते, उस से पहले ही वह आगे बोल उठी, “अच्छा चलो, बचकाना लगने दो, मुझे भी तुम अच्छे लगते हो, इसीलिए मैं इस समय यहां बैठी हुई हूं, वरना केवल दोस्ती की डोर इतनी दूर तक नहीं खिंच पाती है.” और रीतिका ने रोमेश के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. “पर प्लीज, इसे प्यार का नाम मत देना. बड़ी खतरनाक चीज है वह.” अपनी आगे झूल आई लट को पीछे धकलते हुए वह बोली.

“कोई नाम देना जरूरी तो नहीं हर रिश्ते को. एहसासों का समुद्र, बस, बहते रहना चाहिए बीच में. किसी बंधन की जरूरत नहीं,” रोमेश थोड़े पोएटिक हो गए थे.

समुद्र में कभीकभी उफान आ ही जाता है, फिर उन दोनों के बीच भी उफान आना स्वाभाविक ही था, क्योंकि दोनों एकदूसरे का साथ पाने को बेचैन रहते थे. दो दिन के लिए प्रो. विवेक शास्त्री दूसरे शहर में अपना नाटक मंचन करने गए थे. रीतिका एक रात रोमेश के घर ही रुक गई. रोमेश के स्पर्श से भीग जब वह लौटी तो मन में कोई ग्लानि नहीं थी उस के, पर एक डर था कि विवेक को पता लगा तो उन की जिंदगी में तूफान आ सकता है. जो सुख, जो पल विवेक उसे नहीं दे पाए थे, वे रोमेश के सान्निध्य ने दे दिए थे. वह हजारों बार खुद को समझा चुकी थी कि जिस्म की जरूरत क्या माने नहीं रखती…वह विवेक के प्रति पूरी तरह समर्पित है…फिर इस में गलत क्या है…

नहीं, वह इस तरह के संबंधों को न तो जस्टीफाई करना चाहती है और न ही एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन की पक्षधर है. बस, खालीपन के साथ जीतेजीते वह थक गई है. विवेक बहुत अच्छे इंसान हैं, बेहतरीन पति हैं, पर उन के आदर्शों का चोला उठातेउठाते उसे लगने लगा है कि जैसे वह भीतर ही भीतर खोखली हो रही है. जैसे वह बूढ़ी हो रही है, जैसे उस के जीने की इच्छा खत्म हो रही है. वह, बस, एक बार सिर्फ पुरुष के सान्निध्य को पूरी तरह से महसूस करना चाहती थी, जानना चाहती थी कि चरम सुख कैसा होता है, पाना चाहती थी अपने जिस्म के हर रेशे पर होंठों की तपिश, एक मजबूत आलिंगन का एहसास जो उसे तृप्त कर दे. प्यार को जताना कितना सुखद होता है…

रीतिका जब घर लौटी तो सच में तृप्त महसूस कर रही थी, सुखद अनुभूतियों के घेरों में कैद, पर उस बंधन में भी बहुत खुश.

“क्यों तुम अब नौकरी छोड़ रही हो? सब ठीक ही तो चल रहा है,” हैरान विवेक की बात का जवाब देने के बजाय रीतिका रसोई का काम करती रही.

“बोलो न, कुछ हुआ है क्या?”

“नहीं, यों ही,” रीतिका ने इतना ही कहा.

शाम को जब स्टूडैंट्स एकत्र हुए नाटक की रिहर्सल करने के लिए तो रीतिका बिस्तर पर लेटी हुई थी. ऐसा शायद पहली बार ही हुआ था. प्रो. शास्त्री इस बात से जितना हैरान थे, उतने ही बाकी सब भी थे. इला उन के कमरे में गई. अंधेरा इतना था कि उसे कुछ पल लगे यह समझने में कि रीतिका जाग रही है या सो रही है. “दीदी, क्या तबीयत ठीक नहीं है?”

“नहीं, तबीयत ठीक है, इला. बस, कुछ देर अकेले रहने का मन था. मन को भी तो विराम देना जरूरी होता है. आज कुछ बनाने का भी मन नहीं है. तुम्हें ही बनाना पड़ेगा.”

“कोई नहीं दीदी, आखिर आप से इतने दिनों से डिशेज बनाने की ट्रेनिंग ले रही हूं, उस को आज आजमा लेती हूं कि कितनी दक्ष हुई हूं,” इला ने वातावरण को हलका करने के ख़याल से मजाक किया.

इला केवल प्रो. शास्त्री की स्टूडैंट ही नहीं थी, बल्कि लगातार घर आते रहने की वजह से उस में और रीतिका के बीच एक रिश्ता सा जुड़ गया था. शेयर करने का रिश्ता…अच्छीबुरी सारी बातें. एकदूसरे की वे कब राजदार बन गई थीं, उन्हें भी पता न चला था.

“दीदी, मन को विराम देने के लिए उसे हलका करना भी जरूरी है. कह दीजिए न, जो भी है भीतर.”

रीतिका को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने भीतर चल रही कशमकश को इला को बताए या नहीं. पता नहीं वह कैसे रिऐक्ट करेगी. इस उम्र में उसे यह सब समझ आएगा भी कि नहीं. वह तो चाहती थी कि विवेक को ही जा कर सब बता दे क्योंकि उसे पता था वे उस की बात समझेंगे और उस की गलती, हां, दूसरों को तो यह गलती ही लगेगी, माफ कर देंगे.

इला ने रीतिका के हाथ को छुआ, मानो उसे आश्वस्त कर रही हो कि वह उसे बता सकती है. बह निकला रीतिका के भीतर से सब. यह भी कि वह कितनी तृप्त महसूस कर रही है.

इला ने लाइट औन कर दी. दरवाजे के पास कोई खड़ा था सफेद कुरतेपाजामे में. कोल्हापुरी चप्पलों से उस ने पहचान लिया.

प्रो. शास्त्री लड़खड़ाते कदमों से बाहर आए. यह क्या हो गया, कैसे माफ कर सकते हैं वे रीतिका को इस बात के लिए. नहीं, कभी नहीं. किसी और पुरुष से संबंध बनाए और वह इस एहसास में डोल रही है खुशी से…

इला उन के पीछेपीछे उन के कमरे तक आ गई. एक सन्नाटा सा हर ओर पसर गया था.

“अब मैं इस के साथ नहीं रह पाऊंगा. इतना प्यार करने पर भी मेरे साथ ऐसा किया. अब तो अच्छा है कि मैं जहर खाकर मर जाऊं. कितनी जिल्लत की बात है. अच्छा होगा कि वही यह घर छोड़ कर चली जाए…” प्रो. शास्त्री बारबार यही कह रहे थे.

“इस का मतलब आप रीतिका दीदी से प्यार नहीं करते? आप ने ही तो प्यार की नई परिभाषा दी है. आप ही तो कहते हैं कि प्यार का मतलब होता है अपने जीवन की सारी समस्याओं, सारी परेशानियों और दुख में एकदूसरे का साथ देना, एकदूसरे की गलतियों को माफ करना, उसे सपोर्ट करना और सहयोग देना. बताइए आप रीतिका दीदी से प्यार करते हैं कि नहीं?”

इला का सवाल सुन प्रो. शास्त्री सकते में आ गए. उन्हें लगा कि जैसे उन के आइडियलिज्म के परखच्चे उड़ गए हैं. कहीं गहरे जमीं सोच की जड़ें उन के भीतर भी कब्जा जमाए हुए हैं और शायद बरसों से इसी सच को गहराती रही हैं कि रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं का प्यार सच्चा था. उन्हें लगा कि रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं के प्यार ने आज उन्हें कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है. या शायद, प्यार को ही उन्होंने कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है.

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