सहारा और सेबी के बीच हुआ शह और मात का खेल आखिर सहारा प्रमुख सुब्रत राय की तिहाड़ यात्रा के साथ अंजाम पर पहुंच ही गया. निवेशकों का 20 हजार करोड़ रुपया गटक चुके सुब्रत का अदालत के आदेशों की बारबार अनदेखी करना और खुलेआम ठेंगा दिखाना भारी पड़ गया. सलाखों के पीछे बेसहारा हो चुके सहारा का साम्राज्य किस तरह के शिकंजे और संकट से गुजर रहा है, पड़ताल कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.
 
28 फरवरी, 2014 का दिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के लिए किसी ऐतिहासिक दिन की तरह ही याद रखा जाएगा. इस दिन 68 हजार करोड़ के कारोबारी सुब्रत राय सहारा पहली बार पुलिस के शिकंजे में आए थे. 
लखनऊ पुलिस ने सहारा प्रमुख सुब्रत राय सहारा को 28 फरवरी की देर शाम रात 8 बजे सैशन कोर्ट के सामने पेश किया. जहां से उन को पुलिस हिरासत में वन विभाग के गैस्ट हाउस में भेज दिया गया. इस गैस्ट हाउस में सुब्रत राय के पहुंचते ही पूरा सरकारी अमला किनारे हो गया, वहां की व्यवस्था अघोषित रूप से सहारा के लोगों के हाथों में आ गई. पुलिस और वन विभाग के लोग केवल तमाशाई बने रहे. उक्त पिकनिक स्पौट को आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया. पुलिस सुब्रत राय के रसूख के आगे नतमस्तक नजर आई. लखनऊ से दिल्ली ले जाने के दौरान भी उन की पसंद की वीवीआईपी व्यवस्था की गई.
4 मार्च को सुब्रत राय सहारा को वहां से ले जा कर दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने उन को 11 मार्च तक के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया. सेबी ने अदालत के सामने अपनी बात रखते हुए कहा कि सहारा समूह अपनी देनदारी को ले कर गलत बयानी कर रहा है. सहारा का यह कहना गलत है कि उस की देनदारी 17,400 करोड़ की है. सेबी ने कहा कि सहारा की 2 कंपनियों ने 24 हजार करोड़ रुपए एकत्र किए थे जिस पर 15 फीसदी ब्याज लगा कर कुल रकम 34 हजार करोड़ रुपए बैठती है. सहारा ने अदालत में तर्क दिया कि उस के खिलाफ किसी निवेशक ने शिकायत नहीं की है. इस से पता चलता है कि निवेशकों का कंपनी पर विश्वास बना हुआ है. 2 करोड़ से ज्यादा निवेशक अभी भी हमारे साथ हैं. इस दलील पर कोर्ट ने सवाल किया कि क्या वास्तव में निवेशक हैं भी?
13 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रत राय को जमानत देने से मना कर दिया और अगली सुनवाई के लिए 25 मार्च तक की तारीख मुकर्रर कर दी. लेख लिखे जाने तक वे जेल में हैं..
काम न आई जोड़तोड़ 
सुब्रत राय को उन के किलेनुमा आवास सहारा शहर से सैशन कोर्ट में पेश किया गया. सुब्रत राय सहारा की गिरफ्तारी का नाटक लखनऊ पुलिस ने 28 फरवरी की सुबह 10 बजे शुरू किया और रात 8 बजे खत्म किया. सहाराश्री की गिरफ्तारी की पूरी कहानी फिल्मी नजर आई. इस में अदालत के फैसले की मजबूरी दिखी. 
लखनऊ पुलिस ने जिस तरह से गिरफ्तारी को अंजाम दिया. उस में उस की बेबसी साफ झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस सुब्रत राय सहारा को गिरफ्तार कर के कोर्ट के सामने पेश करने नहीं जा रही बल्कि उन की हिफाजत में लगी है. काश, पुलिस ऐसा ही हर गैरजमानती वारंट में गिरफ्तारी के समय करती.  
जिस तरह से पुलिस उन के सामने नतमस्तक दिखी और उन को सरकारी मेहमान की तरह कुक रैल पिकनिक स्पौट के गैस्ट हाउस में रखा गया उस पर सवाल उठने लगे हैं. इस को समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के साथ उन के नजदीकी रिश्तों को जोड़ कर देखा जा रहा है. 
राजनीतिक विश्लेषक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘सुब्रत राय सहारा के संबंध सभी दलों के नेताओं से हैं. मुलायम सिंह यादव उन के करीबी लोगों में हैं. जिस तरह से सुब्रत राय की गिरफ्तारी के समय लखनऊ पुलिस उन के सामने पेश आई उस से यह बात और भी पुख्ता हो गई है. यह चुनाव का साल है, जनता इन बातों को किस अंदाज में लेगी, यह चुनाव के बाद ही पता चल सकेगा.’’ मैग्सेसे अवार्ड पाने वाले समाजसेवी डाक्टर संदीप पांडेय और दूसरे लोगों ने सहारा को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दी गई सुविधा पर सवाल उठाए हैं.
सहारा शहर की रौनक
लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में सुब्रत राय का विशाल सहारा शहर बना है. जो सुब्रत राय सहारा का निवास स्थान है. यह किसी बड़े राजामहाराजा के किले से कम नहीं है. मजे की बात यह है कि सुब्रत राय सहारा को किलेनुमा यह ‘सहारा शहर’ बनाने के लिए जमीन सरकार ने लीज पर दे रखी है. यह जमीन 30-30 साल की लीज पर लखनऊ नगरनिगम द्वारा वर्ष 1993 में दी गई थी. इस में 2 बार लीज बढ़ाने की शर्त भी शामिल है. इस से जुड़ी कुछ जमीन आवासीय और कुछ ग्रीनबैल्ट के रूप में दी गई थी. कुछ समय के बाद 100 एकड़ जमीन लखनऊ विकास प्राधिकरण ने भी सहारा को दी थी. यह जमीन 100 रुपए के स्टांपपेपर पर 1 हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से दी गई थी. 
कुछ समय के बाद एलडीए और नगरनिगम ने कुछ जमीन का भू उपयोग बदल कर इस को कानूनी जामा पहनाने का प्रयास किया था. भू परिवर्तन करने के एवज में ली जाने वाली रकम नहीं ली गई थी. 1999 में इस की जानकारी उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को हुई तो उन्होंने सहारा शहर को ध्वस्त करने का आदेश दिया. धीरेधीरे सहारा ने यहां पर निर्माण करा लिया. इस निर्माण का नक्शा भी लखनऊ विकास प्राधिकरण से पास नहीं कराया. सहारा शहर का नक्शा लखनऊ नगरनिगम ने पास किया था जबकि नक्शा पास करने का अधिकार लखनऊ विकास प्राधिकरण को है. नगरनिगम ने सहारा का तलपट मानचित्र पास किया. 2007 में सहारा ने इस का नक्शा पास करने के लिए एलडीए में आवेदन किया. 23 फरवरी, 2007 में एलडीए बोर्ड की बैठक में नक्शा पास करने से मना कर दिया गया था. एलडीए ने इसे वापस नगरनिगम के पास भेज दिया था. उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार बनने के बाद सहारा ने नए सिरे से इस मामले की पैरवी शुरू कर दी. 
बुरे फंसे सुब्रत राय
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी के निवेशकों के 20 हजार करोड़ रुपए वापस न करने के मामले में सेबी और सहारा के बीच शह और मात का खेल सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. इस मामले में सहारा कह रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वह 5,120 करोड़ रुपए सेबी को दे चुका है. 
सहारा का दावा है कि 2 हजार करोड़ रुपए के अतिरिक्त बाकी की धनराशि वह खुद निवेशकोें को वापस कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट इस बात को सही नहीं मान रहा है. ऐसे में वह सहारा प्रमुख सहित दूसरे निदेशकों रविशंकर दुबे, वंदना भार्गव और अशोक राय को अदालत के सामने पेश होने का आदेश दे चुका था. 26 फरवरी को सुब्रत राय सहारा अदालत में सुनवाई के दौरान हाजिर नहीं हुए. रविशंकर दुबे, वंदना भार्गव और अशोक राय अदालत के सामने पेश हुए. सुब्रत राय सहारा के वकील राम जेठमलानी ने अदालत में कहा कि सुब्रत राय की मां बहुत बीमार हैं, किसी भी वक्त उन की सांस थम सकती है. इसलिए वे बिस्तर पर उन का हाथ थामे बैठे हैं. अदालत ने उन की कोई भी दलील सुनने से इनकार कर दिया. अदालत ने सुब्रत राय सहारा के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया.  
अदालत के इस फैसले के खिलाफ सहारा ने जनमत संग्रह जैसा एक अभियान चलाया. इस के तहत 27 फरवरी को जब सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला समाचारपत्रों में छपा तो उसी दिन सहारा ने पूरे मसले को अपनी तरह से पेश करने के लिए सभी बडे़ अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन प्रकाशित कराया. ‘हमारा निवेदन’नाम से प्रकाशित इस विज्ञापन में पाठकों से अनुरोध किया गया था कि कृपया अपने 5-7 मिनट दे कर इस पृष्ठ को पूरा अवश्य पढ़ें. हम आप के अत्यधिक आभारी रहेंगे. इस विज्ञापन में 25 फरवरी की अदालत में हुई बहस को मुद्दा बनाया गया था. एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सवालों के घेरे में ठहराने की कोशिश की गई थी. सहारा ने पहली बार ऐसा नहीं किया था. इस के पहले 17 मार्च, 2013 को भी ऐसा ही  विज्ञापन ‘बस बहुत हो गया’ प्रकाशित कराया था.  
इस विज्ञापन में सहारा ने सेबी को अप्रत्यक्ष रूप से धमकाने का काम किया है जो एक तरह से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना सा दिखता था. इस विज्ञापन में सहारा के प्रबंध कार्यकर्ता सुब्रत राय सहारा ने कहा था कि हमारा किसी भी तरह का दोष न होते हुए भी सेबी जानबूझ कर गलत आदेश पारित कर के हमें बदनाम करता आ रहा है जिस से पिछले 34 साल में मेहनत से अर्जित की गई छवि को नुकसान हो रहा है. यही नहीं, सहारा ने सेबी को टीवी चैनल पर खुली बहस करने के लिए चुनौती भी दी थी. उन्होंने कहा है कि सेबी को इस तरह का कोई अधिकार ही नहीं है, न ही उस के पास कोई आधार है. इस विज्ञापन में यह आरोप भी लगाया गया था कि सेबी बदले की भावना से काम कर रहा है. सेबी को जवाब देने के लिए सहारा ने जिस विज्ञापन ‘बस बहुत हो गया’ का सहारा लिया था वह किसी धमकी से कम नहीं लगता है. जब अदालत में इतने गंभीर लैवल पर मामला चल रहा हो तो ऐसे काम फैसले को प्रभावित करने की श्रेणी में आते हैं. बेहतर होता कि सहारा ये बातें अदालत में कहता जहां उस की बात को पूरी गंभीरता के साथ सुना जाता. 

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