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मेरी समस्या यह है कि मेरे चेहरे की त्वचा पर ओपन पोर्स हैं, जिससे त्वचा खराब दिखती है.

सवाल

मैं 20 वर्षीय युवती हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरे चेहरे की त्वचा पर ओपन पोर्स हैं, जिन की वजह से त्वचा खराब दिखती है और मेकअप भी अच्छा नहीं दिखता है. मैं ऐसा क्या करूं, जिस से मेरी समस्या का समाधान हो?

जवाब

त्वचा पर ओपन पोर्स की समस्या ज्यादा स्क्रबिंग की वजह से होती है. स्क्रबिंग के बाद अगर त्वचा के ओपन पोर्स को क्लोज करने के लिए पैक न लगाया जाए तो त्वचा पर ओपन पोर्स हो जाते हैं. इस समस्या के समाधान के लिए आप 1 चम्मच टमाटर का रस, 1 चम्मच मैदा और थोड़ा सा गुलाबजल मिला कर चेहरे पर लगाएं. जब पैक सूख जाए तो पानी से मसाज करते हुए चेहरे को धो लें.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

 

शरद मल्होत्रा की नई प्रेमिका युविका चौधरी…!

वक्त बदलते देर नहीं लगता. एक वक्त वह था जब टीवी कलाकार शरद मल्होत्रा और टीवी कलाकार दिव्यंका त्रिपाठी एक दूसरे के प्यार में आकंठ डूबे हुए थे. यहां तक कि दोनों जल्द शादी करेगें, ऐसी खबरे भी आ गयी थी. लेकिन एक साल पहले दोनों के बीच अलगाव हो गया था. दोनो एक दूसरे का चेहरा भी देखना नहीं चाहते थे. पर इस साल की शुरूआत होते ही पता चला कि दिव्यंका त्रिपाठी ने अपने लिए नया प्रेमी ढू़ढ़ लिया है. फिर जब जनवरी माह में जैसे ही दिव्यंका त्रिपाठी ने अपने नए प्रेमी व अभिनेता विवेक दहिया के संग सगाई की, वैसे ही शरद मल्होत्रा ने उनके खुशी जीवन की कामना करने में देर नही लगायी.

पर अब खबर मिली है कि शरद मल्होत्रा ने भी अपनी जिंदगी को संवारने के लिए युविका चौधरी के रूप में नया प्रेम पा लिया है. सूत्रों की माने तो शरद मल्होत्रा, युविका चैधरी के संग प्रेम की रास लीला खेल रहे है, पर वह अब तक इस पर पर्दा डाले हुए थे. सूत्रों की माने तो शरद मल्होत्रा चाहते थे कि पहले दिव्यंका त्रिपाठी की जिंदगी संवर जाए, तब वह अपने नए रिश्ते की भनक लोगों को लगने देंगे.

सूत्रों के अनुसार शरद मल्होत्रा और युविका दोनों एक दूसरे को ‘जी सिने स्टार की खोज’ के वक्त से जानते हैं. दोनों के बीच शुरू से ही अच्छे संबंध रहे हैं और इन दिनों दोनों ‘बीसीएल क्रिकेट’ के लिए ‘बाबू मोशाय टीम’ के साथ खेल रहे हैं. इस खेल के दौरान ही दोनों के करीबी हो जाने की बात कही जा रही है. मगर शरद मल्होत्रा अभी भी इस रिश्ते से इंकार कर रहे हैं. शरद मल्होत्रा कहते है-‘‘हमारे बीच सिर्फ दोस्ती का रिश्ता है. हम दोनों एक ही टीम के लिए क्रिकेट खेल रहे हैं, इसलिए हमारी टीम के कुछ सदस्य व हमारे कुछ दोस्त हमारे रिश्ते की खबर मजाक के तौर पर फैला रहे हैं. इसे सच न माने.’’ पर टीवी इंडस्ट्री में चर्चाएं तो इससे भी आगे की हो रही हैं. कुछ सूत्र दावा कर रहे हैं कि युविका चौधरी की ही वजह से दिव्यंका व शरद के बीच अलगाव हुआ था. अब इस खबर में कितनी सच्चाई है, यह तो दिव्यंका या शरद या वक्त ही बता सकता है.

यह सभ्य समाज की पहचान नहीं

क्या हम सभ्य हैं? सवाल इसलिए पूछा जा रहा है कि देश की राजधानी दिल्ली तक में छेड़खानी के मामलों में सजा पंचायतें मुंह पर कालिख पोत कर व जुर्माना लगा कर दे रही हैं. जातियों  महल्ले की पंचायतों को कंगारू कोर्टों में बदल दिया गया है जिन में औरतें धमकियों से काम कर रही हैं.

यह उस सभ्यता की निशानी है जिस पर हम विश्वगुरु होने का दावा करते हैं. आरोप लगाया गया कि सभ्य टाइप की एक कालोनी में एक बुजुर्ग ने एक 17 वर्षीय लड़की को छेड़ दिया. इस घटना के बाद वहां के एक सबला संघ की सदस्याओं ने बुजुर्ग की पत्नी को धमकाया कि पंचायत के दफ्तर आओ. वहां बुजुर्ग पर क्व50 हजार का जुर्माना ठोंक दिया गया और माफी भी मंगवाई गई. जुर्माना न दे पाने पर उस के मुंह पर कालिख पोत दी गई. बाद में बुजुर्ग और उस की पत्नी ने पुलिस के माध्यम से अदालत में गुहार लगाई. मामला क्या था, यह छोडि़ए. सवाल तो यह है कि क्या विवादों को हल करने के उपाय इस तरह के हथकंडे बचे हैं, जिन में घरेलू औरतें गुट बना कर गुलाब गैंग की तरह विवादों पर फैसले देंगी? क्या देश के कानून, पुलिस और अदालतों से लोगों का विश्वास इस कदर उठ गया है कि हर महल्ले में पंचायत बनेगी और हर फैसला खाप पंचायतों की तरह बिना वकील, बिना दलील और बिना कानून के होगा?

क्या देश की सामाजिक व्यवस्था बड़बोले खाली बैठे लोगों के हाथों में सौंप दी जाएगी जो मनमाने फैसले उसी समाज में रहते हुए करेंगे और तुरंत सजा भी दे देंगे ताकि न अपील का समय हो और न जगह? यह सभ्य समाज की पहचान तो नहीं है. इस से तो महल्लेमहल्ले, कालोनीकालोनी में दबंग औरतों और आदमियों का राज हो जाएगा. जहां 10 लोग मिले वे अपनी अदालत बना लेंगे और बिना किसी प्रक्रिया के, बिना सफाई का मौका दिए, जो मजबूत होगा, जो पंचों को खरीद सकेगा और जो ज्यादा रोना रोएगा उसे अपना मनचाहा फैसला मिल जाएगा.

क्या देश की पुलिस और कानून व्यवस्था इस तरह जंग खा गई है और इस तरह भ्रष्ट हो गई है कि लोगों ने पंचायतों का गठन उन जगहों पर करना शुरू कर दिया है, जहां अदालतें आसपास ही हैं? अगर ऐसा लगातार चलता रहा तो देश को नष्ट होने में समय न लगेगा. यह असल में पूरी सरकार पर एक धब्बा है. हमारी राजनीति पूरी तरह फेल हो गई है. हम अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं या यों कहिए कि अराजकता के युग में पहुंच गए हैं और कबिलाई संस्कृति अपनाने को मजबूर हैं, जहां कबीले के दबंग लोग न्याय दिलाने लगे हैं. इस से बुरी स्थिति केवल पश्चिमी एशिया में है जहां फैसले गोलियों और तोपों से किए जाते हैं. यह तो हमारी सत्ताधारी पार्टी के इशारे पर ऐन अदालत के अंदर होने लगा है, जहां न्याय न्यायाधीश की कलम से नहीं काले कोट वालों द्वारा बिना दलील के बाहर लातोंमुक्कों से दिया जा रहा है, कबिलाई ढंग से.

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय के मामले भी यही दर्शा रहे हैं कि जो दिल्ली की पंचायतों में हो रहा है वह कोई अजूबा नहीं है

गुवाहाटी: पूर्वोत्तर राज्यों का दरवाजा

असम को पूर्वोत्तर का गेटवे कहा जाता है. प्राचीन इतिहास के अनुसार इस का नाम  प्राग्ज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था. थाईलैंड की अहोम जाति द्वारा इस क्षेत्र पर कब्जा जमा कर अपना राज कायम करने के बाद से इसे असम या आसाम के नाम से जाना जाता है, इसलिए यहां थाई संस्कृति का असर देखने को मिलता है. असम का सब से बड़ा आकर्षण हरेभरे जंगल, चाय के बागान और विभिन्न प्रकार के वन्य जीवन हैं.

असम राज्य पूर्वोत्तर के सभी राज्यों से क्षेत्रफल की दृष्टि में ज्यादा बड़ा है. पूर्वोत्तर के सभी प्रमुख राज्यों में यहीं से हो कर गुजरना होता है. इस की जीवनधारा मानी जाने वाली ब्रह्मपुत्र नदी इस के बीचोंबीच से हो कर निकलती है.

गुवाहाटी असम के पूर्वोत्तर राज्यों की वाणिज्यिक राजधानी है. असमिया में गुवा का अर्थ होता है अखरोट और हाटी का अर्थ बाजार. हिमालय पर्वतमाला के पूर्व में स्थित इस शहर को पूर्वोत्तर राज्यों का दरवाजा माना जाता है. गुवाहाटी की जलवायु सबट्रापिकल है. यहां गर्मियों में तापमान 22 से 39 डिगरी सेल्सियस और सर्दियों में 10 से 25 डिगरी सेल्सियस हो जाता है.

यहां कलाक्षेत्र म्यूजियम, उमानंद, गुवाहाटी तारामंडल, गुवाहाटी चिडि़याघर आदि देखने लायक हैं. यहां नगर भ्रमण के लिए सिटी बस एक अच्छा साधन है.

दर्शनीय स्थल

पोबितरा वन्यजीव अभयारण्य : भारत के पूर्वोत्तर राज्य के मारीगांव जिले में स्थित यह अभयारण्य गुवाहाटी से 50 किलोमीटर दूर नौगांव और कामरूप जिले की सीमा पर स्थित है. यहां जाने का सब से अच्छा समय नवंबर से मार्च के बीच है. पोबितरा मुख्य रूप से एक सींग वाले गैंडे के लिए प्रसिद्ध है. गैंडे के अलावा अन्य जानवरों जैसे, एशियाई बफैलो, तेंदुए, जंगली भालू आदि भी यहां के निवासी हैं.  गुवाहाटी से यहां आने के लिए कई निजी होटल बजट के अनुकूल होने के कारण लक्जरी प्रदान करते हैं.

तेजपुर : गुवाहाटी से 180 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तेजपुर सोनितपुर जिले में स्थित है. तेजपुर का असम के इतिहास में प्रमुख स्थान है. यह असम के खूबसूरत शहरों में से एक गिना जाता है. तेजपुर असम का वह छोर है जिस के आगे से अरुणाचल प्रदेश आरंभ हो जाता है. यहां का अग्निगढ़ किला सब से सुंदर पर्यटन स्थल है. भोमोरागुरी मे एक विशाल पत्थर पर उकेरा हुआ शिलालेख देखा जा सकता है. यहां से 65 किलोमीटर दूर ओरंग राष्ट्रीय उद्यान स्थित है जो 72 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जहां पूर्वोत्तर के मानसूनी मौसम का पर्यटक पूरा फायदा उठा सकते हैं.

काजीरंगा राष्ट्रीय पार्क : 1940 में वन्यजीव अभयारण्य के तौर पर घोषित काजीरंगा पार्क एक सींग वाले गैंडे के लिए प्रसिद्ध है. तीनों एशियाई गैंडों में यहां पाया जाने वाला सब से बड़ा गैंडा देखने के लिए पर्यटकों की अच्छी- खासी भीड़ जुटती है. गुवाहाटी से 217 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह पार्क जोरहाट हवाई अड्डे से 96 किलोमीटर की दूरी पर है. इस का नजदीकी रेलवे स्टेशन फुरकटिंग है. यहां पर्यटन के लिए सब से उपयुक्त समय नवंबर से अप्रैल का माना जाता है. पर्यटकों के लिए यहां रहने के लिए वन विश्राम गृह, लाज, होटल उपलब्ध हैं. इस अभयारण्य को हाथी पर सवार हो कर देखा जाता है साथ ही जीप सफारी भी उपलब्ध हैं जिन्हें विभिन्न लाजों द्वारा बुक करवाया जाता है. 

हाफलांग : 680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हाफलांग एक पहाड़ी पर्यटन स्थल है. हाफलांग गुवाहाटी से 345 किलोमीटर दूर है. यहां बेहद खूबसूरत हाफलांग झील है. इस झील की खूबसूरती के कारण हाफलांग को असम का स्काटलैंड कहा जाता है. झील में नौकाविहार करना पर्यटकों को लुभाता है. इस झील के पास ही एक गरम पानी का सोता है जिस का अपना एक अलग आकर्षण है. हाफलांग में पैराग्लाइडिंग, ग्लाइडिंग और ट्रैंकिग की प्रमुख गतिविधियां भी चलाई जाती हैं.

ए4 साइज़ पेपर में समाती कमर

एक समय वह था जब करीना के जीरो साइज़ फिगर का क्रेज लड़कियों के सर चढ़ कर बोल रहा था … और आज बदलते फैशन के दौर में फिगर को लेकर कोई भी समझौता  न करने वाली लड़कियां  जिम, योगा और फिटनेस क्लास लेकर अपनी बॉडी को शेप में देने की होड़ में लगी हैं. परफेक्ट फिगर को लेकर इन दिनों चीन की लड़कियों ने  एक नया फार्मूला इजाद किया है, जो इन दिनों सोशल मीडिया पर 'A4 Waist Challenge' नाम से धूम मचा रहा है.

वैसे यह चौंकाने वाली बात है कि उन्होंने कागज़ के जिस आकार को मानक बनाया है, उसकी वास्तविक चौड़ाई 21 सेंटीमीटर है. कुछ लोग इस क्रेज को स्वास्थ्य के लिए खतरा व ग़ैरज़िम्मेदाराना और बीमार होने का कारण भी बता रहे हैं. लेकिन इस ट्रेंड दीवानी लड़कियां बेझिझक अपनी ए4 साइज पेपर के साथ तस्वीरों को इंस्टाग्राम और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शेयर कर रही हैं,जिन्हें अन्य  लड़कियां भी काफी पसंद कर रही हैं.

अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप अपनी हेल्थ को महत्व देंगी या ए4 साइज़ के पेपर की चौड़ाई में समा कर परफेक्ट फिगर की केटेगरी में शामिल होना चाहेंगी.

पति को मोटा हाथी कहने वाली पत्नियां संभल जाएं

पत्नी पर पति के शारीरिक और मानसिक अत्याचार के मामले तो सुनने में आम आते हैं लेकिन पत्नी  के अत्याचार से आहत एक पति ने हाल में ही एक ऐसा मामला दर्ज कराया जहाँ दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने महत्‍वपूर्ण फैसले में कहा कि एक महिला द्वारा पति के शारीरिक स्‍थिति का मजाक उड़ाना, उसे मोटा हाथी एलीफैंट, गैंडा या अन्‍य किसी नाम से संबोधित कर उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करना और विरोध करने पर उसे दहेज के झूठे केस में फंसाने की धमकी देना इत्‍यादि तलाक का ठोस आधार हो सकते हैं. पति से मारपीट और संपत्‍ति जबरन अपने नाम पर कराने के लिए झूठे केस की धमकी देना और शारीरिक संबंधों से इंकार करना भी पति के प्रति क्रूरता है.

दरअसल ,मामला कुछ ऐसा था पूर्वी दिल्‍ली निवासी सुजीत (काल्‍पनिक नाम) की शादी 3 फरवरी 2005 को सीमा (काल्‍पनिक नाम) से हुई थी. 30 दिसंबर 2005 को उन्‍हें एक बेटा पैदा हुआ. पति ने अदालत में सीमा से तलाक के लिए अर्जी दायर की थी.पति का कहना था कि शादी के बाद पत्‍नी का व्‍यवहार बदल गया और वह उसे मोटा हाथी, एलीफेंट कहकर चिढाने लगी. वह अक्‍सर झगड़ा होने पर कहती कि मोटा हाथी किसी काम का नहीं है. वह परिवार को तंग करती और उसे पीटती भी थी. विरोध करने पर आत्‍महत्‍या व दहेज के झूठे केस में फंसाने की धमकी देती. कभी उन पर उनकी संपत्‍ति को उसके नाम करने का दबाव भी डालती.

आखिर कब मिलेगी महिलाओं को घुटन से आजादी

महिलाएं लाख पढ़ लिख जाएं, कामयाबी की बुलंदियां छू लें, अपने पति के कंधे से कंधा मिला कर चलें, मगर पुरुष वर्चस्व वाले इस समाज में अभी भी स्त्रीपुरुष समानता और आजादी महज भुलावे के कुछ और नहीं. इस हकीकत की पुष्टि आए दिन हम अपने आसपास घट रही वारदातों से कर सकते हैं.

ईस्ट दिल्ली के कपिल शर्मा ने गत 24 मार्च को अपनी पत्नी, पार्वती की मुंह दबा कर हत्या कर दी. वजह थी कि वह मां नहीं बन पा रही थी. प्रेग्नेंसी टर्मिनेट हो जाने पर गुस्से में पति ने पत्नी का खून ही कर दिया, जबकि कपिल इस से पहले अपनी पूर्व पत्नी की दहेज हत्या करने के आरोप में 7 साल की सजा काट चुका था.

हाल ही में मौडल प्रियंका की मौत का मामला भी काफी सनसनीखेज रहा है. पुलिस तहकीकात में यह बात सामने आ रही है कि यह आत्महत्या के बजाए हत्या का मामला है. प्रियंका के सुसाइड नोट में साफ लिखा है कि शादी के एक माह बाद ही उस के पति नितिन ने उसे राक्षस की तरह मारा. उस की जिंदगी पर दहशत और खौफ का पहरा बिठा दिया. जाहिर है, प्रियंका की मौत का जिम्मेदार उस का पति ही है, जिस से प्रियंका ने प्रेमविवाह किया था.

अप्रैल 2015 में उन की मुलाकात हुई थी. प्रियंका 25 की और नितिन 38 साल का था. उम्र के इस फासले और परिवार के एतराज के बावजूद प्रियंका ने बस एक भरोसे पर जनवरी 2016 को उस से शादी की. इस के बाद ही नितिन का शक्की मिजाज उभर कर सामने आने लगा. उस ने प्रियंका पर बंदिशें लगानी शुरू कर दीं. दोस्तों से मिलनाजुलना बंद करा दिया. फेसबुक और ट्विटर पर भी रोक लगा दी. वह प्रियंका को टौर्चर करने लगा.

स्त्रियों के साथ हिंसा, मारपीट, सेक्सुअल व मेंटल हैरसमेंट, रेप, किडनैपिंग जैसी घटनाएं देश के हर हिस्से में कायम है. खुद देश की राजधानी दिल्ली में ही हालात बहुत खराब हैं, निर्भया रेप और मर्डर केस के बाद कड़े कानूनों के बावजूद दिल्ली में दूसरे अपराधों के साथसाथ सैक्सुअल हैरेसमेंट भी एक बड़ी समस्या है. हाल ही में अमेरिका की मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के महेश नल्ला और स्टौकटन यूनिवर्सिटी के मनीष मदान द्वारा एक सर्वे किया गया, जिस में दिल्ली के 1400 लोगों से बातचीत की गई. इस सर्वे में पाया गया कि 40% महिलाओं को पिछले साल किसी न किसी रूप से सेक्सुअल हैरसमेंट का शिकार बनना पउ़ा, तो वहीं 58% महिलाएं अपनी जिंदगी में कम से कम एक बार सेक्सुअल हैरसमेंट का शिकार हो चुकी हैं. उत्पीड़न के डर से 33% महिलाओं ने पब्लिक प्लेस पर जाना छोड़ दिया जबकि 17% तो ऐसी रहीं, जिन्होंने सार्वजनिक जगहों पर होने वाले हैरसमेंट का सामना करने के बजाए अपनी नौकरी छोड़ना बेहतर समझा.

सवाल यह उठता है कि आखिर कब तक महिलाएं ऐसी ही घुटन भरी जिंदगी जीती रहेंगी? सिर्फ कानून बनाने या सजा देने से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता. इस के लिए जरूरी है, लोगों की सोच और मानसिक प्रवृत्ति में बदलाव लाना. बचपन से घर में लड़के लड़की के बीच किए जा रहे भेदभाव को मिटाना.

सावधान पुरुषों: आ रही है पावर ऐंजल

यह सच है कि आज के समय में औरत आदमी से कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं पर इस सफर में उन के सामने कई चुनौतियां आती रहती हैं. राह चलते कार्यस्थलों आदि मिंमहिलाएं शोषण कह शिकार न हों. दहेज प्रथा, बाल विवाह, घरेलू हिंसा जैसे अपराध महिलाओं  खिलाफ न हों, इसके लिए उत्तर प्रदेश पुलिस विभाग की महिला पावर लाइन 1090 के कर्मियों द्वारा ‘पावर ऐंजल’ प्रेजेंटेशन ने महिलाओं की जिंदगी की दिशा बदलने का बीड़ा उठाया है

प्रदेश में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों पर लगाम कसने के लिए 10 अप्रैल को महत्त्वाकांक्षी ‘पावर ऐंजल’ योजना की भी शुरुआत की जा रही है. इस के तहत 2 लाख युवतियों को विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बनाने का लक्ष्य तय किया गया है.

पहली कोशिश

देश में इस तरह की यह पहली कोशिश है जब शैक्षणिक संस्थानों, पुलिस थानों और ग्राम प्रधानों के माध्यम से लगभग 4 लाख आवेदन फार्म को प्रदेश भर में बांटा गया है. अब तक 86,000 युवतियों ने आवेदन किया है. इस के लिए नियुक्ति प्रक्रिया जारी है.

महिला पावर लाइन की प्रभारी और आई जी नवनीत सेकेरा ने बताया, ‘‘10 अप्रैल को हम इन युवतियों को प्रशिक्षण खत्म होने के बाद एसपीओ कार्ड देंगे और उन्हें पावर ऐंजल के तौर पर तैनात किया जाएगा.’’

मालूम हो कि परेशान महिलाओं की मदद के लिए साल 2012 में महिला पावर लाइन की शुरुआत की गई थी. डब्ल्यू पी एल की डिप्युटी एसपी बबीता सिंह ने बताया हमें पावर ऐजेंलों की जरूरत महसूस हुई. दरअसल युवतियां मुख्य रूप से अपने मुद्दों के लिए आवाज उठाने से झिझकती हैं और साथ ही उन में संबंधित कानूनों को ले कर जागरूकता भी नहीं होती हैः

पावल ऐंजल के कार्य करने का अलग अंदाज

पावर ऐंजलो को अपने इलाके और शैक्षिणित संस्थानों में हो रही घटनाओं पर नजर रखनी होगी और वहीं उन्हें महिलाओं से शोषण या फिर घरेलू हिंसा की जानकारी मिलती है तो वे पुलिस को इस बारे में जानकारी देगी. इस के बाद पुलिस अपना काम करेगी. ये पावर ऐंजल अपने साथ की महिलाओं को महिलाओं से जुड़े अधिकारों और कानूनों की जानकारी देगीं. पुलिस इन की पहचान को गुप्त रखेगी.

पावर ऐंजल की योग्यता

पावर ऐंजल बनने के लिए न्यूनतम 9वीं तक की शैक्षिक योग्यता रखी गई है मगर इसके लिए उनके स्कूल, कालेजों और अभिभावकों की रजामंदी भी जरूरी है.

कार्यकाल

एक एसपीओ का कार्यकाल 3 से ले कर 5 साल तक का होगा. सभी एसपीओ को पहचान पत्र दिया जाएगा. इस में युवतियां मुखबिरों के तौर पर काम करेंगी. इन का प्रशासकीय कामों में लेनादेना नहीं होगा वे अपनी पहचान का इस्तेमाल 1090 पर या फिर पुलिस अधिकारियों को किसी घटना की जानकारी देते वक्त करेंगी.

पावर ऐंजल डेटा बैंक

आईजी नवनीत सेकेरा ने बताया, ‘‘हमारे पास सभी पावर ऐंजल का एक कंप्यूटरीकृत डेटा बैंक भी होगा. दूसरे चरण में ये पावर ऐंजल कम से कम 10 और युवतियों को शामिल करेगी. इस से प्रदेश की 20 लाख युवतियां सशक्त बनेंगी.’’

ददुआ का मंदिर जातीयता की राजनीति

उत्तर प्रदेश का फतेहपुर जिला 4 हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा इलाके में फैला हुआ है. चित्रकूट और बांदा बौर्डर से लगे होने की वजह से यहां अपराध का हमेशा से बोलबाला रहा है. 3 तहसील और 13 ब्लौक वाले इस जिले में तकरीबन 30 लाख की आबादी रहती है. तकरीबन 70 फीसदी साक्षरता वाले इस जिले में एक लोकसभा और 6 विधानसभा क्षेत्र हैं. राज्य हैडक्वार्टर से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर चित्रकूट और कौशांबी बौर्डर पर नरसिंहपुर कबरहा गांव है. इस गांव तक धाता से रोडवेज की बसों से सफर कर के पहुंचा जा सकता है. धाता से नरसिंहपुर कबरहा गांव तक का सफर तय करने के लिए साढे़ 3 किलोमीटर दूर का रास्ता टैंपो या दूसरी सवारी गाडि़यों के जरीए भी तय किया जा सकता है. नरसिंहपुर कबरहा गांव में ही 2 सौ हत्याओं के आरोपी दस्यु सरगना ददुआ का मंदिर बनाया गया है. नरसिंहपुर कबरहा गांव के शिवहरे रामजानकी मंदिर को बनाने का काम खुद ददुआ ने किया था. साल 1992 में पुलिस ने ददुआ को फतेहपुर जिले के हरसिंहपुर कबरहा गांव के पास मार गिराया था. एक पुलिस मुठभेड़ में ददुआ बुरी तरह से फंस गया था. उस के बचने की उम्मीद नहीं थी. उस समय ददुआ ने मन्नत मांगी थी कि अगर वह इस मुठभेड़ से जिंदा बच गया, तो कबरहा में हनुमान मंदिर को विशाल बनाएगा.

ददुआ पुलिस मुठभेड़ में बच गया. इस के बाद उस ने यहां मंदिर बनवाया था. साल 2007 में मारे गए ददुआ की मूर्ति इसी मंदिर में उस के भाई बालकुमार ने फरवरी, 2016 में लगवाई. इस मंदिर में ददुआ को देखने वालों की भीड़ जुटने लगी है. गांव के लोग मंदिर में ददुआ की मूर्ति पर अपने जेवर और पैसे चढ़ा रहे हैं. इस में ज्यादातर लोग उस की ही जाति के हैं. उत्तर प्रदेश में पहली बार किसी डकैत का मंदिर बना कर उस का महिमामंडन शुरू किया जा रहा है. अब एक दूसरे डकैत निर्भय गुर्जर का मंदिर बनाने की मांग भी उठ रही है. ददुआ के भाई बालकुमार कहते हैं कि मंदिर उन की निजी संपत्ति है. ऐसे में किसी तरह का विवाद ठीक नहीं है. वे अपने पुरखों की मूर्तियां लगा रहे हैं. इस में किसी को एतराज नहीं करना चाहिए.

ददुआ डकैत भले ही था, पर वह इस इलके में गरीबों की मदद भी करता था. कई लड़कियों की शादियां भी उस ने कराई थीं. डकैतों के मंदिर केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी बनते रहे हैं. कई गांवों में इन के स्वागत द्वार तक बने हैं. डकैत मान सिंह और उस की साथी रूपा की मूर्तियां आगरा से 60 किलोमीटर दूर खेड़ा राठौर गांव में आज भी बनी हुई हैं. चंबल के दूसरे डकैतों मोहर सिंह, माधो सिंह, तहसीलदार सिंह और मलखान के गांव में भी उन के स्मारक बने हैं. जिस भव्य तरीके से ददुआ की मूर्ति मंदिर में लगा कर उस का महिमामंडन किया जा रहा है, वह इन सब की आगे की कड़ी मात्र है. ददुआ के मंदिर के बाद इस मुद्दे पर नई बहस शुरू हुई है, जिस से पता चलता है कि जातीय राजनीति में मंदिरों का प्रयोग किसी हथियार से कम नहीं है. जिस तरह से ददुआ के मंदिर को गरीब तबके का समर्थन मिल रहा है, उस से साफ पता चलता है कि वह इस इलाके लिए किसी रौबिनहुड से कम नहीं था. मरने के 8 साल बाद भी लोग उस को उतना ही प्यार करते हैं.

ऊंची जातियों से हिफाजत की उम्मीद करने वाली कमजोर जातियों के लिए ऐसे लोग ही सहारा बनते रहे हैं, जो जातीय नाइंसाफी के खिलाफ उन का साथ देते थे. इसी वजह से डकैत भी मंदिर में पूजे जाने लगे हैं.

भैंस की चोरी से…

देश में जातीय भेदभाव की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इस का दबदबा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. जातीय गोलबंदी के जरीए वोट हासिल करने की सोच को समझते हुए चंबल के डकैत शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ ने अपने जीतेजी राजनीतिक सरपरस्ती हासिल कर ली थी. साल 1978 में कौशांबी जिले के पश्चिम सरीरा इलाके में पहली बार ददुआ पर डकैती डालने का मुकदमा दर्ज हुआ था. इस के पहले उस के जेल जाने की शुरुआत साल 1975 में हुई थी, जब उस पर भैंस चोरी जैसा छोटा आरोप लगा कर जेल भेजा गया था. साल 1985 के करीब ददुआ का नाम चंबल के बडे़ डकैतों में शामिल होने लगा था. अपनी ताकत को राजनीतिक शक्ल देने के लिए ददुआ ने अब तक नेताओं को संरक्षण देना शुरू कर दिया था. उस के नाम पर वोट डाले जाने लगे थे. ददुआ का चित्रकूट और फतेहपुर की राजनीति में अच्छा दबदबा बन गया था. साल 1985 में कांग्रेस के उम्मीदवार ने बाकायदा चुनाव आयोग को इस बारे में शिकायत भी की थी.

ददुआ दलित और कमजोर जातियों की मदद करता था. ऐसे में उस ने इन्हीं तबकों के नेताओं को मदद देनी शुरू की. ददुआ खुद कुर्मी बिरादरी का था. उत्तर प्रदेश में कुर्मी बिरादरी पिछड़े तबके में शुमार की जाती है. ददुआ फतेहपुर का रहने वाला था. जहां खेती की जमीन थी, पर वहां बहुत अच्छी खेती नहीं होती थी. ऐसे में पिछड़ी जातियों में शुमार की जाने वाली कुर्मी जाति के लोग भी दलितों सरीखी जिंदगी जीते थे. ददुआ ने सब से ज्यादा बहुजन समाज पार्टी के सांसदों और विधायकों को चुनाव जितवाने में मदद की या बसपा के पक्ष में ददुआ का खुला नारा होता था, ‘वोट पड़ेगा हाथी पर, वरना गोली खाओ छाती पर’.

नेताओं को वोट दिलाने वाले ददुआ को जल्दी ही पता चल गया था कि वोट ले कर नेता बदल जाते हैं. ऐसे में उस ने अपनी ताकत का फायदा अपने भाई और बेटों को देने की योजना बनाई. यही वह दौर था, जब पंचायती राज कानून लागू हुआ था और ग्राम प्रधानों को गांव की तरक्की के लिए बड़ा बजट दिया जाने लगा था. मौके का फायदा उठाने के लिए ददुआ ने अपने करीबियों को कई गांवों में प्रधानी का चुनाव लड़ाया और उन में से तमाम लोगों को चुनाव जितवा भी दिया था. बडे़ नेता ददुआ का फायदा चोरीछिपे लेते थे. ददुआ इस बात को समझ हा था. वह चाहता था कि नेता उस के पक्ष में खडे़ नजर आएं. ऐसे में नेताओं पर उस ने दबाव डालना शुरू किया था. साल 2000 में ददुआ ने अपने बेटे वीर सिंह की शादी कराई और उस में कई दलों के बडे़ नेताओं को बुलाया था.

साल 2005 में ददुआ के प्रभाव से ही उस का बेटा वीर सिंह निर्विरोध जिला पंचायत अध्यक्ष चुना गया था. साल 2007 में ददुआ के भाई बालकुमार ने प्रतापगढ़ की पट्टी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था. वे 4 सौ वोटों से चुनाव हार गए थे. बाद में बालकुमार मिर्जापुर से सांसद चुने गए थे. ददुआ जब तक नेताओं के संरक्षण में काम कर रहा था, तब तक उस पर कोई खतरा नहीं था. बाद में उस ने राजनीतिक दलबदल भी शुरू कर दिया था. बसपा के बाद उस ने सपा यानी समाजवादी पार्टी से हाथ मिला लिया था. यही खेल ददुआ पर भारी पड़ा था. साल 2007 में उत्तर प्रदेश में पूरे बहुमत से बसपा की सरकार बनी थी. उस समय की मायावती सरकार ने ददुआ को मारगिराने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स यानी एसटीएफ को लगा दिया था. सरकार बनने के 3 महीने के अंदर ही एसटीएफ ने एसपी अमिताभ यश की अगुआई में ददुआ को चित्रकूट जिले के कुशमही गांव में मुठभेड़ में मार गिराया.

वोट की राजनीति

ददुआ का चित्रकूट और फतेहपुर में दबदबा तो था ही, चंबल इलाके से लगे इलाकों में भी उस का पूरा असर था. इस की वजह से वहां वही नेता चुनाव जीतता था, जिसे ददुआ चाहता था. जब तक ददुआ नेताओं की मदद करता रहा, तब तक नेता उस की हिफाजत का काम करते रहे थे. जैसे ही ददुआ ने अपने परिवार के लोगों को नेता बनाना शुरू किया, वह नेताओं के निशाने पर आ गया. फतेहपुर और चित्रकूट जिले में कुर्मी वोटर तकरीबन 3 लाख के आसपास हैं. सपाबसपा सहित बाकी दलों की निगाह इन के वोटों पर लगी रहती हैं. समाजवादी पार्टी आने वाले चुनावों में कुर्मी वोटों को हासिल करने के लिए ददुआ के नाम का सहारा लेना चाहती है. फतेहपुर जिले के खागा तहसील के गांव नरसिंहपुर करबहा में रामजानकी मंदिर की स्थापना ददुआ ने साल 1995 में की थी. ददुआ के मारे जाने के बाद साल 2016 में तकरीबन 8 साल के बाद ददुआ के भाई बालकुमार ने रामजानकी मंदिर में ही ददुआ और उस की पत्नी केतकी की मूर्ति लगवाई है.

ददुआ की मूर्ति स्थापना कार्यक्रम में समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल यादव के जाने की संभावना थी, पर राजनीतिक दबाव में वे वहां नहीं गए, पर रामजानकी मंदिर में ददुआ और उस की पत्नी केतकी की मूर्ति लग गई. इस मंदिर में ददुआ की पत्नी केतकी के अलावा ददुआ के मातापिता की मूर्तियां भी लगाई गई हैं. राजस्थान के जयपुर में रहने वाले मूर्तिकार ने इन मूर्तियों को बनाया है. मूर्तियों को बनाने में तकरीबन 80 लाख रुपए का खर्च बताया जाता है. पुलिस या समाज के दूसरे लोगों के पास ददुआ का कोई नया फोटो नहीं था. एक बहुत पुराने फोटो के आधार पर ही लोग उस की शक्ल का अंदाजा लगाते थे.

ददुआ के भाई बालकुमार अब बांदा, फतेहपुर, चित्रकूट और आसपास के इलाकों में अपना राजनीतिक जनाधार बढ़ाना चाहते हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में फतेहपुर से भाजपा की साध्वी निरंजन ज्योति सांसद चुनी गई थीं. केंद्र सरकार में वे राज्यमंत्री हैं. उन्होंने सपा के पूर्व उम्मीदवार राकेश सचान को यहां से हराया था. राकेश सचान की कुर्मी वोटों पर पकड़ कमजोर पड़ते देख ददुआ के भाई बालकुमार यहां अपना इलाका तैयार करना चाहते हैं. दलित और कमजोर तबके में ददुआ का अपना असर है और बड़ी जातियों में ददु का डर है. ददुआ की इसी पहचान का फायदा उस के भाई बालकुमार पटेल उठाना चाह रहे हैं.

आंग सान सू की: जीतने तक हार नहीं मानी

आंग सान सू की का जन्म 19 जून, 1945 में हुआ था. उन के पिता आंग सान बर्मा की स्वाधीनता सेना में कमांडर थे. मां रिवन की रंगून जनरल अस्पताल में नर्स थीं. आंग सान इन की तीसरी संतान थीं. आंग सान के पिता बर्मा को स्वतंत्रता दिलाने वाले खास व्यक्ति थे. बर्मा की जनता के लिए वे सदैव राष्ट्रपिता रहेंगे. 1947 में जब आंग सान सू की मात्र 2 वर्ष की थीं तब राजनीतिक षड्यंत्र की वजह से उन के पिता की हत्या कर दी गई थी. 1960 में आंग सान दिल्ली आईं और लेडी श्रीराम कालेज से बी.ए. की डिगरी ली. फिर औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से फिलौस्फी और राजनीतिशास्त्र व अर्थशास्त्र में डिगरी ली.1972 में उन का विवाह माइकल एरिस से हुआ.

संघर्ष की शुरुआत

घर के कामों से बचे वक्त को आंग सान लेखन में लगाती थीं. हिमालय स्टडीज पर वे पति की मदद भी करती थीं. 1988 में उन की मां काफी बीमार हो गईं. उन के जीवन का यह निर्णायक मोड़ था. अपने पति व बच्चों को छोड़ कर वे एक ऐसी राह चल पड़ीं जो ऊबड़खाबड़ व पथरीली थी. उन्होंने तानाशाही के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. सैनिक प्रशासन उन्हें दबाने की कोशिश कर रहा था. उन्हें तरहतरह से डरा रहा था. मगर बिना किसी खौफ के वे तानाशाही के खिलाफ लड़ती रहीं. सैनिक सरकार ने बिना वजह बताए उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया. एक बार एक राजनीतिक रैली के वक्त एक सैनिक ने उन की तरफ राइफल तान दी तो वे तन कर खड़ी हो गईं. बोलीं, ‘‘कर लो जो भी जुल्म करना चाहते हो, मगर मुझे मेरे मकसद से नहीं हटा पाओगे.’’

इस घटना के 3 माह के बाद आंग सान सू की अपने घर में छात्रों के एक समूह को संबोधित कर रही थीं. तभी सैनिकों ने उन के घर में घुस कर छात्रों को पकड़ कर जेल में बंद कर दिया तथा आंग सान सू की को उन्हीं के घर में नजरबंद कर दिया. इस अत्याचार के खिलाफ आंग सान सू की ने भूख हड़ताल कर दी. भूख हड़ताल के वक्त उन के दोनों बेटे उन्हीं के पास रहने आ गए. बाद में उन के पति भी भूख हड़ताल के तीसरे दिन रंगून पहुंच गए. भूख हड़ताल से कोई बड़ा हादसा न हो जाए, इस डर के चलते सरकार ने छात्रों को जल्द ही रिहा कर दिया.

सरकार के सामने समस्या थी कि चुनाव सिर पर थे. आंग सान सू की नजरबंद थीं. सरकार को यह गलतफहमी थी कि उन की गैरमौजूदगी में विपक्ष के लोग टूट जाएंगे. मगर आंग सान की नजरबंदी के बावजूद उन की पार्टी संसद में 82% सीटें जीत गई. तब भी सेना ने कहा कि वह आंग सान को सत्ता नहीं देंगे. इस ज्यादती से कई देशों के विरोधी स्वर उभरे. आंग सान के इस महान काम को देख कर अक्तूबर, 1990 को उन्हें ‘राफ्तों ह्यूमन राइट्स पुरस्कार’ से नवाजा गया. इस के अगले साल उन्हें यूरोपीय पार्लियामैंट ने ‘सखारोव ह्यूमन राइट्स पुरस्कार’ से नवाजा.10 जुलाई, 1991 को नोबेल समिति ने उन्हें शांति पुरस्कार देने की घोषणा की. बाद में म्यांमार की सैनिक सरकार ने आंग सान के सामने यह शर्त रखी कि यदि वे राजनीति और बर्मा छोड़ कर चली जाएं तो वह उन्हें आजाद कर देगी. मगर आंग सान अपने देशवासियों की उन उम्मीदों को तोड़ कर नहीं जा सकती थीं जो उन्हें उन से थीं. आंग सान ने नोबेल पुरस्कार की रकम बर्मी लोगों के स्वास्थ्य व शिक्षा के लिए बनाई गई एक ट्रस्ट को दे दी.

हिम्मत नहीं हारी

जब उन के बच्चे छोटे थे और मां को लकवा मार गया था तब वे घरबार छोड़ मां के पास चली गई थीं. उन की खूब सेवा की. इस के बाद जब वे बर्मा लौटीं तो उस समय क्रूर शासन के खिलाफ लोगों में विद्रोह फूट रहा था. इसी दौरान आंग सान ने आम चुनाव की मांग रखी. अपनी जीत निश्चित समझ शासन ने उन की यह मांग स्वीकार कर ली. अब सरकार का दमनचक्र शुरू हो गया. सरकार ने 4 से ज्यादा लोगों के एक स्थान पर एकत्र होने पर पाबंदी लगा दी व बिना कारण बताए वह किसी को भी जेल में डाल सकती है, इस बात का भी ऐलान कर दिया. तब आंग सान सू की ने ‘नैशनल लीग फौर डैमोक्रेसी’ दल का गठन किया. वे खुद इस की महासचिव बनीं. उन का कहना था कि वे अहिंसा की पुजारी हैं और हिंसा के खिलाफ उन की लड़ाई जारी रहेगी. चुनाव में उन्होंने भारी मतों से विजय हासिल की. उन्होंने दर्द भरे दिनों में ‘फ्रीडम फ्रौम फीयर’ किताब भी लिखी.

आंग सान सू की को कई बार बंदी बनाया गया और कई बार रिहा किया गया. देश में कहीं भी वे आ जा नहीं सकती थीं. एक बार सरकार ने इन की सभा पर हमला किया और इन पर हिंसा भड़काने का इलजाम लगा दिया गया. इन्हें जेल में बंद कर दिया गया. इन्हें पति व बेटों से मिलने की इजाजत भी न थी. पति कैंसर से पीडि़त थे. 1999 में पति की मृत्यु हो गई पर उन्हें पत्नी से नहीं मिलने दिया. 2012 में चुनाव में भाग ले 45 में से 43 सीटें जीत कर इन्होंने साबित कर दिया कि जनता का इन पर कितना भरोसा है. 24 सालों के बाद वे विदेश गईं. अमेरिकी सरकार ने उन्हें अपनी संसद के स्वर्ण पदक से नवाजा. यह वहां का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है.

लंबे संघर्ष के बाद अपने देशवासियों को उन का मूलभूत अधिकार दिला कर आंग सान सू की ने यह साबित कर दिया कि सच की सदैव जीत होती है.

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