क्या हम सभ्य हैं? सवाल इसलिए पूछा जा रहा है कि देश की राजधानी दिल्ली तक में छेड़खानी के मामलों में सजा पंचायतें मुंह पर कालिख पोत कर व जुर्माना लगा कर दे रही हैं. जातियों  महल्ले की पंचायतों को कंगारू कोर्टों में बदल दिया गया है जिन में औरतें धमकियों से काम कर रही हैं.

यह उस सभ्यता की निशानी है जिस पर हम विश्वगुरु होने का दावा करते हैं. आरोप लगाया गया कि सभ्य टाइप की एक कालोनी में एक बुजुर्ग ने एक 17 वर्षीय लड़की को छेड़ दिया. इस घटना के बाद वहां के एक सबला संघ की सदस्याओं ने बुजुर्ग की पत्नी को धमकाया कि पंचायत के दफ्तर आओ. वहां बुजुर्ग पर क्व50 हजार का जुर्माना ठोंक दिया गया और माफी भी मंगवाई गई. जुर्माना न दे पाने पर उस के मुंह पर कालिख पोत दी गई. बाद में बुजुर्ग और उस की पत्नी ने पुलिस के माध्यम से अदालत में गुहार लगाई. मामला क्या था, यह छोडि़ए. सवाल तो यह है कि क्या विवादों को हल करने के उपाय इस तरह के हथकंडे बचे हैं, जिन में घरेलू औरतें गुट बना कर गुलाब गैंग की तरह विवादों पर फैसले देंगी? क्या देश के कानून, पुलिस और अदालतों से लोगों का विश्वास इस कदर उठ गया है कि हर महल्ले में पंचायत बनेगी और हर फैसला खाप पंचायतों की तरह बिना वकील, बिना दलील और बिना कानून के होगा?

क्या देश की सामाजिक व्यवस्था बड़बोले खाली बैठे लोगों के हाथों में सौंप दी जाएगी जो मनमाने फैसले उसी समाज में रहते हुए करेंगे और तुरंत सजा भी दे देंगे ताकि न अपील का समय हो और न जगह? यह सभ्य समाज की पहचान तो नहीं है. इस से तो महल्लेमहल्ले, कालोनीकालोनी में दबंग औरतों और आदमियों का राज हो जाएगा. जहां 10 लोग मिले वे अपनी अदालत बना लेंगे और बिना किसी प्रक्रिया के, बिना सफाई का मौका दिए, जो मजबूत होगा, जो पंचों को खरीद सकेगा और जो ज्यादा रोना रोएगा उसे अपना मनचाहा फैसला मिल जाएगा.

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