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अब हर कॉल ड्रॉप पर फ्री टॉक टाइम

टेलीकॉम कंपनी वोडाफोन ने एक नई पहल की पेशकश की है. इसके तहत ऐसे ग्राहक जिनकी कॉल में किसी भी वजह से रुकावट आती है, उन्हें 10 मिनट का मुफ्त टॉकटाइम दिया जाएगा. वोडाफोन इंडिया ने बयान में कहा, 'वोडाफोन डिलाइट बोनान्जा के तहत उन सभी ग्राहकों को दस मिनट का मुफ्त टॉकटाइम दिया जाएगा जिनकी बातचीत में किसी तरह की रुकावट आई है.'

इस ऑफर का लाभ लेने के लिए कॉल ड्रॉप से बात न कर पाने वाले ग्राहकों को 199 नंबर पर 'BETTER' लिखकर एसएमएस करना होगा जिसके बाद उनके नंबर पर दस मिनट का टॉकटाइम डाल दिया जाएगा. देशभर में कई ऑपरेटरों के नेटवर्क पर उपभोक्ताओं को कॉल ड्रॉप की दिक्कत झेलनी पड़ रही है. सरकार ने ऑपरेटरों के साथ बैठक कर उन्हें इस स्थिति में सुधार करने को कहा है.

वोडाफोन इंडिया के निदेशक (कन्जयूमर) संदीप कटारिया ने कहा, 'हमारे नेटवर्क पर हर एक कॉल महत्वपूर्ण है और इसमें किसी भी तरह की रुकावट नहीं आनी चाहिए. कई बार बातचीत में रुकावट आती है. इस तरह की बातचीत को जारी रखने के लिए हम 10 मिनट का टॉकटाइम ऑफर कर रहे हैं.'

“गीता को किसी मजहब में नहीं बांधा जा सकता”

लगभग 25 साल पहले बलदेव राज चोपड़ा के दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक ‘‘महाभारत’’ में अभिनय कर शोहरत बटोरने के बाद कई कलाकार राजनीति का हिस्सा बनते हुए ‘भारतीय जनता पार्टी’ में शामिल होकर सांसद बन गए थे. उसके बाद इन में से कोई भी कलाकार अभिनय के क्षेत्र में कोई खास उपलब्धि हासिल नही कर पाया.

ऐसे ही कलाकारों से एक हैं- ‘महाभारत’ में भगवान कृष्ण का किरदार निभाने वाले अभिनेता नितीश भारद्वाज. मगर नितीश भारद्वाज यह नहीं मानते कि वह असफल हैं या स्टार नहीं बन पाए. बहरहाल, वह आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘‘मोहनजो दारो’’ में दुर्जन का किरदार निभाकर उत्साहित हैं, जो कि शरमन का चाचा है. और शरमन के किरदार में हृतिक रोशन हैं.

जब हाल ही में नितीश भारद्वाज से हमारी मुलाकात हुई ,तो हमने उनसे सीधा सवाल किया कि क्या वह राजनीति से जुड़ने के अपने निर्णय को सही मानते हैं? इस पर ‘‘सरिता’’ पत्रिका से नितीश भारद्वाज ने कहा- ‘‘कोई भी निर्णय सही या गलत नहीं होता है. निर्णय के सही या गलत होने का फैसला तो समय करता है.

देखिए, इंसान जानबूझकर कोई गलत निर्णय नहीं लेता है. पर इंसान के निर्णय को सही या गलत समय ठहराता है. परिस्थितियां ठहराती हैं. इतना ही नहीं उसे सही या गलत मानना भी उस व्यक्ति पर ही निर्भर करता है. मैं अपनी राजनीतिक पारी को सही मानता हूं. क्योंकि मुझे सही भारत देखने का मौका मिला. मुंबई में जन्मे और परवरिश पाए लोग भारत को सही अर्थो में कहां समझ पाते हैं.

सांसद की हैसियत से मुझे भारत के तमाम राज्यों के गांवों में जाने, वहां के लोगों से मिलने, वहां के लोगों की आस्था, उनकी समस्याओं, उनकी खुशी आदि का हिस्सा बनने का मौका मिला. जिससे मुझे बहुत कुछ समझने का अवसर मिला. इससे मैंने देश के संस्कार और उसकी विविधता को जाना है, जिसका फायदा मुझे आने वाले फिल्मी कैरियर में मुझे मिलेगा.’’

जब हमने उनसे पूछा कि उन्होंने पिछले 25 साल में क्या क्या किया. तो नितीश भारद्वाज ने कहा- ‘‘धारावाहिक ‘महाभारत’ में भगवान कृष्ण का किरदार निभाने के बाद से अब तक मैं बहुत कुछ करता रहा. मैंने भारत के अलावा लंदन में भी थिएटर किया. रेडियो 4 के काम किया. अंग्रेजी थिएटर किया. कई पुरस्कार मिले. मान सम्मान मिला. कैलाश मानसरोवर पर ‘‘ए क्वेस्ट इन द गाड’’ नामक एक शोधपरक किताब लिखी. मैंने महाराष्ट्र की तुलजा भवानी के मंदिर में भी जाकर फोटोग्राफी की और उन दुर्लभ चित्रों को महाराष्ट्र पर्यटन विभाग ने पोस्टर के रूप में छापा है.

‘मध्यप्रदेश पर्यटन निगम’ के चेयरमैन की हैसियत से मैंने मध्यप्रदेश में पर्यटन का विकास किया. सांसद होते हुए मुझे पूरा भारत घूमने का मौका मिला. भारत की सभ्यता संस्कृति की विविधता को बहुत करीब से जानने व समझने का अवसर मिला. सीरियल‘गीता रहस्य’ के अलावा मराठी फिल्म ‘‘पितृश्रण’’ का निर्देशन किया.

इस फिल्म को कई अवार्ड मिले. फिल्म को सराहा गया. बहुत जल्द मेरी हिंदी फिल्म ‘‘यक्ष’’ भी प्रदर्शित होगी. इसमें शीर्ष भूमिका निभाने के साथ ही इसका लेखन व निर्देशन मैंने ही किया है. फिल्म ‘‘मोहनजो दाड़ो’’ में अभिनय किया है. इस तरह मैं निरंतर अलग अलग विधाओं में काम करता रहा हूं और काम कर रहा हूं.

पांच साल तक जमशेदपुर से सांसद रहा. सांसद की हैसियत से भी मुझे बहुत कुछ रचनात्मक काम करने के अवसर मिले. पर अब सोच लिया है कि बचा हुआ जीवन सिर्फ सिनेमा को समर्पित करना है.’’

जब हमने नितीश भारद्वाज से पूछा कि सांसद रहते हुए जब वह भारत घूम रहे थे, तब देश की राजनीतिक सामाजिक स्थितियों को लेकर उनकी अपनी समझ क्या बनी. इन दिनों जो हालात हैं,उसको लेकर वह क्या सोचते हैं?

इस सवाल पर नितीश भारद्वाज ने कहा- ‘‘पिछले दो वर्षो में पूरे विश्व में भारत की सामाजिक राजनीतिक स्थिति बेहतर हुई है. पूरे विश्व में भारत का मान सम्मान बढ़ा है. लोगों की सोच भारत के प्रति बदली है. अब लोगों ने मान लिया है कि भारत सिर्फ विकास की ओर जाएगा. अब संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के प्रति मत बढे़ हैं. कई दशकों के बाद देश के पूरे सिस्टम को बदलते हुए हम एक नयी राह पर चलना चाहेंगे, तो उसमें समय लगेगा. हमें यह समय सरकार को देना चाहिए.

मैं यह बात एक आम इंसान के तौर पर कह रहा हूं. एक नागरिक की हैसियत से हमें चाहिए कि हम मोदी जी को समय दें. क्योंकि हमें नजर आ रहा है कि यह व्यक्ति और यह सरकार अब लोगों से काम करवाना चाहती है. विश्व को लेकर यह मेरा अनुभव है कि बिना श्रम के कोई इंसान या कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता. फिर चाहे जापान हो, जर्मनी हो या पश्चिमी देश हों. यह सभी श्रम के बल पर ही आगे आए हैं.

जब किसी चीज पर गुणवत्ता का सवाल उठता है,तो हमें जर्मनी का नाम याद आता है. चाहे गाड़ी का मामला हो या कुछ और हो. जर्मनी के लोग मेहनत करते हैं और गुणवत्ता के स्तर पर कहीं समझौता नहीं करते. सरकार का काम अवसर प्रदान करना है, यह काम  सरकार कर रही है. फिल्म इंडस्ट्री में भी हर मेहनती इंसान ही आगे बढ़ा है.’’  

भगवान कृष्ण का किरदार निभाने के बाद नितीश भारद्वाज ने स्वंय ‘गीता रहस्य’’ नामक धारावाहिक बना चुके हैं. इसलिए हमने उनसे पूछा कि क्या वजह है कि वेद, पुराण या ‘रामायण’ की तुलना में गीता आज की तारीख में ज्यादा प्रासंगिक हैं? इस पर नितीश भारद्वाज ने कहा- ‘‘क्योंकि गीता को किसी मजहब में नहीं बांधा जा सकता. वह सिर्फ हिंदुत्व तक सीमित नही है. गीता,हिंदू या सनातन धर्म तक भी सीमित नहीं है. गीता में इंसान को सिर्फ कर्म करने की बात कही गयी है. इंसान चाहे जिस धर्म को मानता हो,सभी के लिए कर्म जरूरी है. गीता का सार कालातीत नहीं, बल्कि मनुष्य से भी परे है. कर्म हर इंसान के साथ रहेगा. मेरा मानना है कि जब हम मनुष्य गीता के माध्यम से कर्म के सिद्धांत को समझ लेंगे,तो सारे झगडे़/ कलह/टकराव अपने आप खत्म हो जाएंगे.

आपने कृष्णा का किरदार निभाने के बाद गीता से क्या सीखा? इस पर उन्होंने कहा- ‘‘बहुत कुछ सीखा. कर्म का सिद्धांत सीखा. मेरे लिए कर्म ही धर्म है. धर्म की जितनी व्याख्याएं हैं, उनमें सबसे बड़ी व्याख्या कर्म की है.’’ 

ये है भारत का सबसे महंगा शहर

भारतीय पर्यटकों के लिए मुंबई देश का सबसे महंगा शहर है लेकिन विश्व में यह दुनिया में उनके लिए दूसरा सबसे कम महंगा शहर है. ट्रिप एडवाइजर के छठे ट्रिपइंडेक्स सिटीज के अनुसार देश की आर्थिक राजधानी मुंबई भारत में सबसे महंगा शहर है. हालांकि, विश्व में यात्रा के लिए हनोई के बाद यह दूसरे सबसे कम खर्चीला शहर है.

रिपोर्ट के अनुसार भारतीयों की तीन दिन की यात्रा के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे महंगा शहर अमेरिका का न्यू यॉर्क है जहां इसका खर्च करीब 1,24,201 रुपये आएगा. यह मुंबई के मुकाबले तीन गुना अधिक है.

दक्षिण अफ्रीका का केपटाउन वैश्विक स्तर पर तीसरा सबसे कम खर्चीला शहर है. इसके बाद मलयेशिया के क्वालालंपुर, थाइलैंड के बैंकॉक और रूस के मॉस्को का नंबर आता है.

इस अध्ययन में एक चार सितारा होटल में तीन रात रुकने, शहर की तीन महत्वपूर्ण जगह घूमने, हर दिन के दोपहर के खाने, टैक्सी और रात के खाने इत्यादि का खर्च जोड़कर आकलन किया गया है. भारत में घूमने के लिए सबसे सस्ता शहर पुणे है जहां इन सबका खर्च 26,595 रुपये बैठता है.

डैनिश फिल्म के रीमेक पर राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने दी सफाई

‘अक्स’,‘रंग दे बसंती’, ‘दिल्ली 6’ और ‘‘भाग मिल्खा भाग’’ जैसी फिल्मों के सर्जक राकेश ओम प्रकाश मेहरा का दावा है कि उनके पास कई मौलिक कहानियां  हैं, जिन पर वह फिल्में बनाना चाहते हैं. मगर कई कहानियों का नंबर आ ही नहीं पा रहा है.

मसलन वह पिछले 27 वर्षों से शरत चंद्र के उपन्यास ‘‘देवदास’’ पर भी फिल्म बनाना चाहते हैं. राकेश ओमप्रकाश मेहरा का दावा है कि वह एक दिन ‘देवदास’ पर अपनी सोच के अनुसार फिल्म जरुर बनाएंगे.

इतना ही नहीं वह मानते हैं कि हम भारतीय फिल्मकारों को हौलीवुड फिल्मों का मुकाबला करने के लिए भारतीय कथानक पर आधारित मौलिक व बेहतरीन फिल्में बनानी होंगी. तो दूसरी तरफ वह एक डैनिश यानी कि विदेशी फिल्म ‘‘एवरी बडी इज फेमस’’ का हिंदी रीमेक बना रहे हैं. आखिर यह विरोधाभास क्यों?

राकेश ओमप्रकाश मेहरा के इस कृत्य पर पूरा बौलीवुड आश्चर्यचकित है. हाल ही में जब राकेश ओम प्रकाश मेहरा से हमारी मुलाकात हुई, तो हमने उनसे इसी बाबत सवाल किया. तब‘‘सरिता’’ पत्रिका के साथ एक्सक्लूसिब बात करते हुए राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने कहा- ‘‘पहली बात तो मैं स्पष्ट कर दूं कि हम जो फिल्म बना रहे हैं, वह रीमेक नहीं है. वह डैनिश फिल्म ‘एवरीबडी इज फेमश’ का एडॉप्टेशन है. इसका भारतीयकरण है. इसकी वजह यह है कि इस फिल्म की कहानी बड़ी सुंदर है. बाप बेटी की कहानी है. इस फिल्म को देखकर आपको भारतीय कहानी ही नजर आएगी.

हम इस फिल्म को अनिल कपूर के साथ बना रहे हैं. तीन चार दिन की शूटिंग कर ली है. उनका सीरियल ‘24’ का दूसरा सीजन खत्म होने के बाद आगे की शूटिंग करेंगे. हॉलीवुड ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की कहानी है. मसलन,आप प्रेमचंद की किसी कहानी पर फिल्म बनाएं.’’

राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने आगे कहा- ‘‘मैं इस फिल्म का सिर्फ निर्माता हूं. इसकी कहानी अतुल की है, जो कि इसका निर्देशन कर रहे हैं. रोमियो जूलिएट भी विदेशी कहानी है. इसकी कहानी इटली की है. पर इसी पर अमरीका पर फिल्म ‘टाइटैनिक’ बनी. मेरे कहने का अर्थ यह है कि अतुल नकल नहीं कर रहा है. कल को मैं ‘हेलन ऑफ प्राइट’ से प्रभावित होकर फिल्म बनाउं. हॉलीवुड की मशहूर फिल्म या किसी कहानी से इंस्पायर होकर फिल्म बनाना अलग बात है. मगर किसी फिल्म या कहानी की नकल करना अलग बात है.

बड़े बड़े भारतीय लेखकों से प्रभावित होकर दूसरे भारतीय लेखकों ने महाकाव्य लिखे हैं. हमारे ‘महाभारत’ से प्रभावित होकर विदेशों में ‘ओड़ीसी’ लिखा गया. ग्रीक मैथोलॉजी आप पढे़ंगे, तो आपको अहसास होगा कि आप ‘महाभारत’ पढ़ रहे हैं.

हमारे ‘महाभारत’ में द्रौपदी है, वहां हेलन टॉय हैं. अब आपने कोरियन फिल्म उठायी और उसको ज्यों का त्यों बना दिया. यह नकल होती हैं. जो कि गलत है. पर किसी फिल्म के कथानक का मूल अंश लेकर नए सिरे से कहानी गढ़कर अपने वीजन के आधार पर फिल्म बनायी, तो वह नकल नहीं, गलत नहीं है.’’

राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने ‘‘सरिता’’ पत्रिका से बात करते हुए दावा किया कि उन्होने तो डैनिश फिल्म के कथानक की आत्मा को लेकर नए सिरे से कहानी लिखवायी है. खुद राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने ‘‘सरिता’’ पत्रिका से कहा- ‘‘फिल्म ‘एवरी बडी इज फेमस’ की कहानी का जो मूल है, वह बाप बेटी की कहानी है, उसे ही उठाया है. बेटी 17-18 साल की है. उसका पिता संगीतकार बनना चाहता था, जो बन नहीं पाया. अब वह अपना सपना अपनी बेटी के द्वारा पूरा करना चाहता है. पर बेटी की रूचि उस तरह के संगीत में नहीं है. बेटी आज के जमाने की है. उसकी रूचि किसी अन्य तरह के संगीत में है. यही बाप बेटी के बीच टकराव है.

आप अपने आस पास देखें, तो पाएंगे कि आज की तारीख में युवा पीढ़ी पश्चिमी संगीत से बहुत प्रभावित है. तो सवाल है कि यह युवा लड़की उस संगीत से जुड़ेगी या नहीं जुड़ेगी.पिता का अलग तरह के संगीत से जुड़ाव है. तो मुझे बहुत प्यारी कहानी लगी. इसलिए हमने हरी झंडी दी. हम लोग रोमियो जूलिएट पर भी फिल्म बना सकते हैं.’’

भोजपुरी में पहली 3D व 2D फिल्म ‘गंगा घाट’

हौलीवुड फिल्मों को भारतीय बाजार में मिल रही बढ़त से अब भारतीय फिल्मकार कुछ नया सोचने पर मजबूर हो रहे हैं. इसी के चलते अब चर्चित भोजपुरी फिल्मकार के.सुजीत भी इतिहास रचने जा रहे हैं. जी  हां! के.सुजीत भोजपुरी की पहली 3D व 2D फारमेंट की फिल्म ‘गंगाघाट’ को 2017 में पूरे भारत में प्रदर्शित करने की योजना बनाकर फिल्म की शुरूआत कर चुके हैं. फिल्म गंगाघाट का मुहुर्त हो गया है, पर कलाकारों का चयन बाकी है.

के. सुजीत का दावा है कि वह सितंबर माह में फिल्म की शूटिंग शुरू कर देंगे. ‘सरिता’ पत्रिका से बात करते हुए 3D फिल्म गंगा घाट के निर्देशक के.सुजीत ने कहा, ‘हमें पता है कि भारत की पहली 3D हिंदी फिल्म ‘शिवा का इंसाफ’ को खास सफलता नहीं मिली थी. मगर उसके बाद हौलीवुड की तमाम 3D फिल्में भारत में खासकर भोजपुरी दर्शकों की वजह से सफलता बटोर चुकी हैं. मैंने भोजपुरी फिल्मों और दर्शकों पर काफी शोध किया, उसके बाद हमने भोजपुरी में 3D फिल्म गंगाघाट शुरू करने की योजना बनायी, जिसका निर्माण अशोकन.पी.के करेंगे.’

फिल्म के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया, ‘हमारी फिल्म आम भोजपुरी फिल्मों की तरह कोई मसाला फिल्म नहीं है. हम सिनेमा की तकनीक के साथ-साथ कथानक के स्तर पर भी काफी प्रयोग करने जा रहे हैं. हमारी यह फिल्म पूरी तरह से हॉरर फिल्म होगी, जिसे हम वाराणसी में गंगा किनारे फिल्माने वाले हैं. सभी को पता है कि वाराणसी में गंगा के घाटों पर मृतकों का अंतिम संस्कार किया जाता है और हमारी फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होगी. इससे अधिक अभी हम फिल्म के कथानक पर रोशनी डालकर दर्षकों की उत्सुकता पर विराम नहीं लगाना चाहते. हम इसे 3D के साथ 2D में भी बनाएंगे.’

ओबामा का ये हिन्दी वीडियो आपके होश उड़ा देगा

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कार्यकाल अंतिम दौर में हैं. ओबामा को अब तक आपने तेज़ तर्रार, सुलझे हुए और गंभीर नेता के तौर पर देखा होगा. लेकिन क्या कभी आपने उन्हें ऐसे मज़ाकिया अंदाज़ में देखा है जो आपको हंसा-हंसा कर लोट-पोट कर दे.

दरअसल, ओबामा का राष्ट्रपति कार्यकाल ख़त्म होने के ठीक पहले व्हाइट हाउस ने 'काउच कमांडर' नाम से एक कॉमेडी वीडियो जारी किया है. इस वीडियो में ओबामा सभी को गुदगुदाते दिखाई दे रहे हैं. इस वीडियो में ओबामा के अलावा अमेरिका के उप राष्ट्रपति जो बिडेन और अन्य परिचित चहरे नज़र आ रहे हैं.

इस कॉमेडी वीडियो की पटकथा ओबामा के राष्ट्रपति पद से रिटायरमेंट के बाद उनके खाली समय में बिताए जाने वाले पलों को दिखाने पर केंद्रित है.

हालांकि यह वीडियो अंग्रेजी में बनाया गया है, लेकिन इसे आप हिन्दी में भी देख सकते हैं. तो लिंक पर क्लिक कर देखिए ये मजेदार वीडियो…

http://www.sarita.in/web-exclusive/barack-obama-prepares-to-become-couch-commander-in-hilarious-spoof-retirement-video

रक्षाबंधन पर शौचालय गिफ्ट

इस बार राखी के मौके पर बिहार के नालंदा जिला के राजगीर प्रखंड के भाई एक नई मिसाल कायम करने की जुगत में लगे हुए हैं. वह अपनी बहनों को अनोखा तोहफा देने की तैयारी कर रहे हैं. राखी के धागों के बंधन में बंध कर हर भाई सदियों से अपनी बहन की हिफाजत की कसमें खाते रहे हैं, पर राजगीर के भाई अपनी बहन की इज्जत को बचाने के लिए अपने-अपने घरों में शौचालय बना कर बहनों को गिफ्ट करेंगे.

नालंदा जिला प्रशासन भाईयों की इस सोच को जमीन पर उतारने की कवायद में पूरी गंभीरता से लग गया है. लोहिया स्वच्छता अभियान के तहत राजगीर के गांवों में कम से कम 10 हजार शौचालय बनाने का लक्ष्य तय किया गया है. जिला प्रशासन ने शौचालय योजना से लोगों की भावनाओं को जोड़ दिया है. डीडीसी कुंदन कुमार कहते हैं कि इससे शौचालय मुहिम को खासी कामयाबी मिल सकेगी. राखी के त्योहार के मौके पर पहली बार इस तरह की पहल की जा रही है. इसकी कामयाबी के बाद बाकी प्रखंडों में भी पर्व-त्यौहारों से शौचालय योजना को जोड़ा जाएगा.

फिलहाल नालंदा में 9 फीसदी घरों में ही शौचालय हैं. शौचालय मुहिम में तेजी लाने के लिए इस बार पहली बार राखी के त्योहार से जोड़ा गया है. समूचे प्रखंड में यह प्रचार किया जा रहा है कि इस साल राखी के त्यौहार के अवसर पर हर भाई अपनी बहनों को उपहार में शौचालय दें. बहनें घर की इज्जत होती हैं और उसे शौच करने के लिए बाहर क्यों जाना पड़ता है? क्या कोई भाई चाहेगा कि उनकी बहनों की इज्जत के साथ खिलवाड़ हो? इसलिए हर भाई अपने घरों में शौचालय बनवा कर अपनी बहनों को अनोखा तोहफा दें. प्रशासन की इस मुहिम को भाईयों का पूरा साथ भी मिला है. राजगीर के रहने वाले किसान उमेश प्रसाद कहते हैं कि बहनों के लिए इससे बड़ा तोहफा क्या होगा कि उन्हें अब शौच के लि घर से बाहर नहीं जाना पड़ेगा. जब सारी दुनिया गहरी नींद में डूबी रहती है, उस समय मां-बहनें जाग जाती हैं और शौच के लिए घरों से निकल जाती हैं. इसका फायदा उठा कर लफंगे और बदमाश छेड़खानी और बलात्कार की वारदातों को आसानी से अंजाम देते रहे हैं.

जिला प्रशासन अपनी इस योजना को कामयाब बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है. पहले प्रखंड के सारे लड़कों को जागरूक किया गया कि वह अपनी बहनों को गिफ्ट के तौर पर अपने-अपने घरों में शौचालय बनावाएं, जिससे उनकी बहनों को शौच के लिए खुले में नहीं जाना पड़े. अब वह बहनों की लिस्ट तैयार कर रहा है. 10 अगस्त तक बहनों की सूची तैयार करने की आखिरी तारीख रखी गई है. उसके बाद 11 अगस्त से उनके घरों में शौचालय बनाने में काम आने वाले सारे सामान पहुंचा दिए जाएंगे. उसके बाद 16-17 अगस्त तक सभी घरों में शौचालय बनाने का काम पूरा कर लिया जाएगा. शौचालय बन कर तैयार होने के बाद 18 अगस्त को रक्षाबंधन के मौके पर बहनें अपने भाईयों को रेशम की डोर बांधेंगी और भाई उन्हें उपहार के रूप में शौचालय देंगे.

राजगीर के भाईयों की इस अनोखी और यादगार पहल के बाद दूसरे जिलों में भी इस योजना को जमीन पर उतारने की कवायद शुरू की जाएगी. होली, दशहरा, दीपावली जैसे त्योहारों समेत फ्रेंडशिप डे, मदर्स डे, वैलेंनटाइन डे आदि के मौके पर जिला प्रशासन लोगों को जागरुक करेगा कि वह अपने मां-बहनों को शौचालय का तोहफा देकर मिसाल कायम करें.

व्यक्तिगत घरेलू शौचालय का एक यूनिट बनाने में 6 हजार 600 रुपये की लागत आती है. इसमें से 3200 रुपये केंद्र सरकार और 2500 रुपया राज्य सरकार मुहैया कराती है. शौचालय बनाने के इच्छुक लोग को 900 रुपये अपनी जेब से लगाने पड़ते हैं. साल 2016-17 बिहार में 20 लाख 93 हजार शौचालय बनाने का लक्ष्य रखा गया है. इस लक्ष्य के पूरा होने के बाद राज्य के कुल 1068 पंचायतों के हरेक घर में शौचालय बन जाएगा.

बुधिया सिंहः बॉर्न टू रन – अदभुत और बेहतरीन फिल्म

सत्य कथा या सत्य घटनाक्रम पर फिल्म बनाना हमेशा ही लेखक व निर्देशक के लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा होता है. क्योंकि उसे वास्तविकता को बरकरार रखते हुए फिल्म को मनोरंजक भी बनाना होता है. दूसरी बात खेल पर फिल्में बनाना आसान नहीं रहा है. अब तक खेल पर जितनी भी फिल्में बनी हैं, उनमे से ज्यादातर फिल्में बाक्स आफिस पर असफल ही रही हैं. पर मशहूर धावक मिल्खा सिंह की बायोपिक फिल्म ‘‘भाग मिल्खा भाग’’ ने सफलता के रिकार्ड बनाए थे. अब पहली बार निर्देशन में  उतरे लेखक व निर्देशक सौमेंद्र पाधी ने अपनी फिल्म ‘‘बुधिया सिंहः बॉर्न टू रन’’ में 2006 में उड़ीसा के चर्चित बाल धावक बुधिया सिंह की जिंदगी से जुड़े सत्य घटनाक्रम को पेश किया है. इसके लिए सौमेंद्र पाधी साधुवाद के पात्र हैं. फिल्म ‘‘बुधिया सिंहः बॉर्न टू रन’’ देखते समय अहसास ही नहीं होता कि यह लेखक व निर्देशक की पहली फिल्म है. सौमेंद्र पाधी ने बालक बुधिया की कहानी को जितनी सरलता से परदे पर साकार किया है, वह काबिले तारीफ है.

फिल्म ‘‘बुधिया सिंहः बॉर्न टू रन’’ वास्तव में एक कठिन फिल्म है. क्योंकि यह ऐसे बालक की कथा है जो कि मुश्किल से एक साल तक सुर्खियों में रहा और फिर ऐसी राजनीति गहराई थी कि उसका दौड़ना बंद होने के साथ ही वह एकदम गायब हो गया. आज दस साल बाद तो लोग भूल चुके हैं कि बुधिया सिंह कौन था. ऐसे में उसकी याद लोगों के दिलों में ताजा करने के साथ साथ बहुत कम कथा के आधार पर ऐसी मनोरंजक फिल्म को गढ़ना जिसे देखकर लोग प्रेरित भी हों, आसान तो नहीं था.

फिल्म ‘‘बुधिया सिंह: बॉर्न टू रन’’ की कहानी शुरू होती है उड़ीसा की अपराधियों से युक्त एक झोपड़पट्टी इलाके से. जहां लोग बेवजह धरना प्रदर्शन करने व चोरी वगैरह करते रहते हैं. इसी झोपड़पट्टी की एक टूटी फूटी झोपड़ी में चार साल का बालक बुधिया (मयूर पटोले) रहता है. जिसका पिता शराबी है. उसकी मां सुकांति (तिलोतमा शोम) एक चूड़ी बेचने वाले को उसे महज साढ़े आठ सौ रूपए में बेच देती है. जब यह बात उस इलाके में अनाथ बच्चों केा आश्रय देने के अलावा उन्हे जूड़ो की शिक्षा दे रहे जूड़ो कोच बिरंची दास (मनोज बाजपेयी) को पता चलती है, तो वह चूड़ी बेचने वाले को उसके पैसे लौटाकर बुधिया को अपने पास ले जाता है तथा बुधिया की मां को भी नौकरी दिला देता है. एक दिन बुधिया के दूसरे बच्चे को गाली देने पर उसे घर के अंदर ही दौड़ते रहने की सजा देता है. बिरंची खुद घर से बाहर पत्नी गीता (श्रुति मराठे) के साथ काम से चला जाता है. शाम को वापस आने पर उसे पता चलता है कि सुबह से बुधिया दौड़ ही रहा है. तब बिरंची को अहसास होता है कि बुधिया तो मैराथन दौड़ सकता है.

अब बिरंची हर दिन बुधिया को दौड़ने की ट्रेनिंग देने लगता है. फिर एक दिन वह घोषणा करता है कि बुधिया सिंह 2016 में ओलंपिक में मैराथन दौडे़गा. बिरंची खुद सुबह चार बजे उठकर बुधिया को दौड़ाना शुरू करता है. बिंरची सायकल पर होता है और बुधिया पैदल दौड़ता रहता है. बिरंची, बुधिया से मेहनत करवाता है पर उसे अपने बेटे की ही तरह मानता है. वह बुधिया की बाल सुलभ जरुरतें भी पूरी करता रहता है. बुधिया मैराथन दौड़ में कई रिकार्ड बनाने लगता है. बिरंची दास के साथ विपक्ष के नेता जे डी पटनायक के अलावा एक डाक्टर भी है. जो कि बुधिया की मदद करते हैं.

पांच साल की उम्र में ही बुधिया सिंह 48 मैराथन दौड़कर पूरे उड़ीसा मे चर्चा का विषय बन जाता है. इससे सरकार में बैठे कुछ लोग बिरंची दास के दुश्मन बन जाते हैं. यह लोग बालक बुधिया सिंह की भलाई की बात करते हुए बिरंची के खिलाफ साजिश भी रचते हैं. कहा गया कि बुधिया सिंह का कोच बिरंची दास अपनी स्वार्थ लोलुपता व महत्वाकांक्षाओं के चलते पांच वर्ष के बच्चे के साथ अन्याय कर रहा है. बिरंची दस को नीचा दिखाने के लिए चाइल्ड वेलफेअर कमेटी के सदस्य पांच वर्ष के बुधिया सिंह का ‘डोप’ टेस्ट कराते हैं. राजनीति तेज हो जाती है. अंततः चाइल्ड वेलफेअर विभाग बिरंची दास के खिलाफ टिप्पणी करने के साथ ही बुधिया सिंह के दौड़ने पर प्रतिबंध लगा देता है और फिर बुधिया को उड़ीसा के ‘स्पोर्टस हॉस्टल’ में भेज दिया जाता है. कुछ माह के अंदर ही एक इंसान बिरंची दास के घर पहुंचकर उसकी हत्या कर देता है. अब बिरंची दास का हत्यारा जेल में है और बुधिया सिंह ‘स्पोर्टस हॉस्टल’ में रहकर पढ़ाई  कर रहा है.

पटकथा लेखक के तौर पर सौमेंद्र पाधी ने बेहतरीन काम किया है. उन्होंने पूरी पटकथा बहुत ही सरल भाषा में लिखते हुए इस बात का ख्याल रखा है कि यथार्थ गायब न होने पाए. फिर भी फिल्म की गति धीमी नहीं होती है. निर्देशक के तौर पर सेल्यूलाइड के परदे पर कहानी कहने में सौमेंद्र पाधी महारथी नजर आते हैं, जबकि यह उनकी पहली फिल्म है. तमाम निर्देशक बच्चों के साथ काम करते हुए असफल हो जाते हैं. मगर सौमेंद्र पाधी ने तो पांच साल के बालक मयूर पटोले से भी बेहतरीन परफार्मेंस निकलवा ली. फिल्म के पहले भाग में फिल्म अपनी गति से बढ़ते हुए दर्शक के मन में उत्सुकता पैदा करती है, तो फिल्म का दूसरा भाग दर्शकों को नया अनुभव कराती है. फिल्म में बुधिया के डोप टेस्ट और स्पोर्टस हॉस्टल में बिरंची व बुधिया सिंह के बीच की संक्षिप्त मुलाकात लोगों के जेहन से जल्दी नही मिट सकेगी, यह निर्देशकीय प्रतिभा का ही कमाल है. सौमेंद्र पाधी ने उड़ीसा में फिल्म को फिल्माकर वहां की कुछ लोकेशनों को परदे पर उतारने के साथ ही उड़ीसा की सामाजिक व राजीनीतिक चेतना की तरफ भी इशारा किया है.

बाल कलाकार मयूर पटोले ने जो अभिनय किया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है. पूरी फिल्म मयूर पटोले व मनोज बाजपेयी के ही कंधों पर है. मयूर पटोले की यह पहली फिल्म है. पर फिल्म में लगता है जैसे कि कोई अति अनुभवी कलाकार अभिनय कर रहा है. बिरंची दास के किरदार में एक बार फिर मनोज बाजपेयी ने साबित कर दिखाया कि उनके अंदर ऐसी अभिनय क्षमता है कि वह किसी भी किरदार को परदे पर जीवंत कर सकते हैं. यह मनोज बाजपेयी की एक और यादगार परफार्मेंस है.

फिल्म का नकारात्मक पक्ष इसका संगीत है, मगर इससे फिल्म की गति या फिल्म की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ता. फिल्म के कैमरामैन मनोज कुमार खटोई ने भी बेहतरीन काम किया है.

‘‘कोड रेड फिल्मस’ के बैनर तले गजराज राव द्वारा निर्मित फिल्म ‘बुधिया सिंह बॉर्न टू रन’’ के लेखक व निर्देशक सौंमेंद्र पाधी तथा कलाकार हैं-मनोज बाजपेयी, मनोज पटोले, तिलोतमा शोम, श्रृति मराठे, छाया कदम, गोपाल सिंह, प्रसाद पंडित, गजराज राव, राजन भिंसे, पुसकर चिरपुतकर व सयाली पाठक.

द लीजेंड ऑफ माइकल मिश्राः भूल जाना ही बेहतर

हास्य प्रधान रोमांटिक फिल्म ‘‘द लीजेंड ऑफ माइकल मिश्रा’’ देखकर कहीं से भी अहसास नहीं होता कि इस फिल्म के निर्देशक वही मनीष झा हैं, जिन्होंने ‘‘मातृभूमि’’ जैसी फिल्म निर्देशित कर शोहरत बटोरी थी. ‘‘द लीजेंड ऑफ माइकल मिश्रा’’ में लेखक व निर्देशक दोनो ही स्तर पर असफल नजर आते हैं. फिल्म की कहानी का केंद्र यह है कि प्यार किस तरह एक अपराधी को भी सुधरने पर मजबूर कर देता है. पर फिल्म देखते समय दर्शक सोचने लगता है कि यह फिल्म कब खत्म होगी. हास्यप्रद प्रेम कहानी वाली फिल्म में लेखक व निर्देशक स्वयं दुविधा में नजर आते हैं. उनकी समझ में नही आया कि वह इंसान के आडंबर को चित्रित करें या इंसानी की विचित्रता को.

फिल्म की कहानी बिहार में हाईवे पर बने एक ढाबे ‘‘माइकल मिश्रा का ढाबा’’ से शुरू होती है. जहां पर एक बस आकर रूकती है, जिसमें से एक प्रोफेसर के अलावा कुछ कालेज विद्यार्थी उतरते हैं. यह सभी इस ढाबे पर जाते हैं, जहां फुलपैंट (बोमन ईरानी) उनका स्वागत करता है. एक विद्यार्थी के सवाल पर फुलपैंट माइकल मिश्रा की कहानी शुरू करता है. माइकल मिश्रा (मोहित मलचंदानी) जब टीनएजर की उम्र में था, तब वह एक बेहतरीन दर्जी होता है. जो कि आंख पर पट्टी बांधकर सही सिलाई कर लेता है. पर एक घटनाक्रम उसे अपराधी बना देता है.

इसी उम्र में उसकी मुलाकात एक दस साल की लड़की वर्षा शुक्ला (ग्रासवीरा कौर) से होती है, पर पुलिस माइकल को पकड़ती है, तो माइकल उसे अपना एक लॉकेट देकर चला जाता है. उसके बाद माइकल पुलिस के चंगुल से भागकर एक दिन बहुत बड़ा अपराधी माइकल मिश्रा भाई (अरशद वारसी) बन जाता है. अब उसका अपना गिरोह है. पटना के लोग उसके नाम से कांपते हैं. वह अपहरण, फिरौती, चोरी सारे संगीन अपराधों से जुड़ा हुआ है. अपराधी के रूप में स्थापित होने के बाद वह अपने प्यार की तलाश शुरू करता है. जब वह एक डाक्टर का अपहरण करने के लिए उस हाल में पहुंचता है, जहां बिहार टैंलेट प्रतियोगिता हो रही होती है, तो वहां उसे गायक के तौर पर वर्षा शुक्ला (अदिति राव हैदरी) नजर आ जाती है.

अब माइकल डाक्टर के अपहरण की बात भूलकर वर्षा के पीछे लग जाता है, पर उस दिन वह वर्षा के घर तक नहीं पहुंच पाता. मगर एक दिन उसे वर्षा के घर का पता चल जाता है. तब वह उसी इलाके में रहना शुरू करता है, जहां वर्षा अपने चाचा व चाची के साथ रहती है. एक दिन वर्षा के हाथ का लिखा पत्र माइकल मिश्रा को मिलता है, जिसमें उसे सुधरने के लिए लिखा होता है. तब माइकल मिश्रा सारे अपराध बंदकर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देता है. इधर चाचा चाची की ही वजह से वर्षा घर से भागकर मुंबई पहुंचती है, धीरे धीरे वह चर्चित अभिनेत्री बन जाती है.

इस बीच माइकल का दाहिना हाथ रहा हाफ पैंट (कायोज ईरानी) रूप बदल कर वर्षा के पीछे लगा रहता है. इधर कालापानी की सजा काट रहा माइकल जेलर की जान बचाता है, जिसके एवज में जेलर उसकी जेल से भागने में मदद करता है. पटना पहुंचकर माइकल फिर से वर्षा की तलाश करता है. वर्षा एक समारोह का हिस्सा बनने पटना पहुंचती है, मगर वह माइकल को पहचानने से इंकार कर देती है. तब हाफ पैंट, वर्षा को सारी कथा बताता है. वर्षा कहती है कि उसने तो वह पत्र माइकल के उपर वाले मकान में रह रहे संगीतज्ञ मिथिलेष माथुर को लिखा था. बहरहाल, वर्षा, माइकल के प्यार को स्वीकार कर लेती है.

मूलतः बिहार निवासी मनीष झा ने अपनी फिल्म में कलाकारों का मूड़ व भाषा में बिहार का पुट जरुर पिरोया है, मगर पटकथा के स्तर पर वह बुरी तरह से मात खा गए हैं. पूरी पटकथा दिशाहीन है. वैसे पटकथा लेखकों की सूची में मनीष झा के साथ चार अन्य नाम भी हैं. कहानी भी कमजोर हैं. कितनी अजीब बात है कि ‘मातृभूमि’ जैसी फिल्म का निर्देशक भी सोचने लगा है कि दर्शक अपने दिमाग को घर रखकर फिल्म देखने आता है.

अरशद वारसी के अभिनय में नयापन नजर नहीं आता. पूरी फिल्म में वह अपनी पिछली फिल्मों में जो अभिनय कर चुके हैं, उसे ही दोहराते हुए नजर आते हैं. बोमन ईरानी के हिस्से करने को कुछ था ही नहीं. बोमन ईरानी के बेटे व अभिनेता कायोज ईरानी ने ठीकठाक अभिनय किया है. अदिति राव हैदरी भी निराश करती हैं. फिल्म का संगीत भी प्रभावित नहीं करता. परिणामतः 125 मिनट की अवधि वाली फिल्म देखते देखते हुए दर्शक का मनोरंजन नहीं होता, मगर थकावट आ जाती है.

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