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कीट संसार की सब से बड़ी परेशानी हैं

राजधानी दिल्ली की रहने वाली प्रिया सक्सेना ने शादी के बाद अपनी पढ़ाई पूरी की. समाज और प्रकृति की सुरक्षा का जज्बा उन में बचपन से ही था. वे कैंसर और न्यूरो के मरीजों की सेवा का काम करती थीं. इस दौरान डाक्टरों के साथ होने वाली बातचीत से उन को पता चला कि कीटाणु केवल खेतीकिसानी को ही नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि घर में भी मौजूद रह कर इनसानों को भी बीमार बनाने का काम करते?हैं.

दिल्ली से लखनऊ आने के बाद जब उन्होंने मलीहाबाद में आम के बागबानों को आम के पेड़ों पर दवा का छिड़काव करते देखा, तो उन की परेशानियों को महसूस किया. दवा का छिड़काव करने वालों ने उन्हें बताया कि कीटनाशकों का छिड़काव करने के बाद उन की खाल खराब हो जाती?है, आंख में दर्द होने लगता है और सांस लेने में भी परेशानी होती है.

इस दर्द को महसूस कर के प्रिया ने अमन उजाला नाम से अपनी कंपनी खोली. इस के बाद नौन टोक्सिस, नौन पौइजन और नौन एल्कोहलिक कीटनाशक बनाने का फैसला किया, जो पूरी तरह से हर्बल उत्पादों से तैयार हों और पूरी तरह से कारगर भी हों. तैयार होने वाले फल और सब्जियां भी खतरनाक और जहरीले रसायनों से दूर रह सकें.

अमन उजाला ने तकरीबन सभी क्षेत्रों जैसे घरेलू, औद्योगिक, खेती के कामों और पशुपक्षियों के लिए कीटनाशकों को तैयार किया. ये सभी लोगों के लिए पूरी तरह से उपयोगी हैं. प्रिया सक्सेना अब इन उत्पादों को ले कर उपभोक्ताओं को जागरूक कर रही हैं. प्रिया से बात कर के पता चला कि देश में ही नहीं, पूरे विश्व में कीट और कीटनाशक एक?बड़ी परेशानी बन चुके?हैं. पेश हैं उन से की गई बातचीत के खास अंश:

हर्बल कीटनाशक क्या रासायनिक कीटनाशकों की तरह ही कारगर होते हैं?

हर्बल कीटनाशक जिन चीजों को मिला कर तैयार होते हैं, वे पूरी तरह से प्राकृतिक होती हैं. ये सौ फीसदी कारगर हैं. सब से अच्छी बात यह है कि ये केवल कीटों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन का कोई गलत असर न छिड़कने वाले पर पड़ता?है और न ही फलसब्जी या दूसरे उत्पाद इस से खराब होते?हैं. रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से फलसब्जी खराब हो जाते?हैं.

हमारा एक प्रोडक्ट ‘मिली सैक’ है. यह कम खर्च में ज्यादा फसल का वादा करता है. यह बाग और खेत दोनों में असरदार होता है. यह भी सौ फीसदी प्राकृतिक और सुरक्षित है. इसी तरह घरेलू खतरनाक कीटों से बचाव के लिए ‘पैनाडौर’ है. यह मच्छरों को भी दूर भगाता है.

कीटों की परेशानी कितनी बड़ी होती है?

कीटों की परेशानी एक देश की ही नहीं, पूरी दुनिया की है. कीटों से निबटने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं, उन में आने वाला खर्च अच्छाखासा होता है. कीटों में दीमक, कीटपतंगे व गुबरैले वगैरह स्वास्थ्य सेवाओं को बुरी तरह से तहसनहस कर रहे हैं. यह नुकसान विश्व स्तर पर करीब 77 अरब डालर का है. शोध बताते हैं कि वर्तमान समय में 25 लाख कीट प्रजातियां पूरे विश्व में फैली हुई हैं. कीट प्रजातियों में तेजी से इजाफा होता जा रहा है. ये कीट घर, खेतखलिहान, उद्योग और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं. सब से बड़ी परेशानी किसानों के सामने है. इन कीटों से फसलों को ज्यादा नुकसान हो रहा?है. दीमक के कारण इन्फ्रासट्रक्चर को नुकसान हो रहा?है. डेंगू, चिकनगुनिया और जीका वायरस सेहत को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इन के इलाज पर पूरे विश्व में बहुत ज्यादा पैसा खर्च हो रहा है. ऐसे में इन से बचाव जरूरी है.

 सब से ज्यादा हानिकारक कीट कौनकौन से हैं?

वैज्ञानिकों ने सिर्फ 10 सब से ज्यादा नुकसान करने वाले कीटों पर अध्ययन किया है. जो आंकड़े मिलते हैं, उन में सब से ज्यादा नुकसान दीमक से हो रहा है. इस से करीब 31 अरब डालर का नुकसान होता है. इस के बाद गुबरैले का नंबर आता है. इसे ब्राउन स्प्रूस लौगहार्न बीटल कहा जाता है. यह 4.48 अरब डालर का नुकसान करता है. तीसरे नंबर पर गोभी कीट 4.6 अरब डालर का नुकसान करता है. केवल विकासशील और गरीब देश ही नहीं उत्तरी अमेरिका जैसे देशों में भी कीट अरबों डालर का नुकसान पहुंचाते हैं.

 सेहत और खेती पर इन के प्रभाव को किस तरह से देखा जाए?

ये कीट सेहत और खेती दोनों को बराबर नुकसान पहुंचाते हैं. करीब 100 करोड़ लोगों की भूख मिटाने के लिए विश्व स्तर पर जितने खाद्यान्न की जरूरत होती है, उतना ही कीट चट कर जाते हैं. 6.85 अरब डालर कीटों से होने वाली बीमारियों पर खर्च हो जाते?हैं. सब से खास बात यह है कि इस मद पर सब से ज्यादा खर्च एशियाई देशों में होता है. इस का कारण यह है कि यहां कीटों से बचाव के मामले में समय पर ध्यान नहीं दिया जाता और अच्छी योजना नहीं बनती है. बीमारियों की रोकथाम के लिए एशियाई देशों में सब से ज्यादा खर्च होता है. यहां पर 2.86 अरब डालर खर्च होते हैं. यहां के मुकाबले उत्तरी अमेरिका में 2.7 और मध्य और दक्षिण अमेरिका में 1.86 अरब डालर खर्च होते हैं. हाल के कुछ सालों में डेंगू सब से खतरनाक रोग बनता जा रहा है. सब से ज्यादा खर्च इस के बचाव पर होने वाला है.

 क्या हर्बल कीटनाशकों का प्रयोग कारगर होगा?

रासायनिक कीटनाशक 2 तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. एक तो वे फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, दूसरे इनसान को बीमार बनाते हैं, जिस से निबटने के लिए सालोंसाल दवाओं का सहारा लेना पड़ता है. हर्बल कीटनाशक सेहत को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. ऐसे में ये हर तरह से कारगर होते हैं. ज्यादा जानकारी के लिए किसान अमन उजाला के नंबरों 8090011250 और 8090011248 पर संपर्क कर सकते हैं.

-प्रिया सक्सेना, सीईओ, अमन उजाला

टमाटर की फसल का रोगों से बचाव

आज के दौर में भारत में तकरीबन 100 तरह की सब्जियों की खेती मैदानी भागों से ले कर पहाड़ी इलाकों तक में सफलतापूर्वक की जा रही है. इन में 60 ऐसी सब्जियां हैं, जिन की खेती कारोबारी तौर पर तकरीबन 64 लाख हेक्टेयर रकबे में कर के तकरीबन 940 लाख टन सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है. इन में से टमाटर की फसल साल भर ली जा सकती है. किसानों के लिए टमाटर की फसल रोजगार का भी अच्छा जरीया है. टमाटर की फसल पर कीटों के साथसाथ कई तरह की बीमारियों का भी हमला होता है, जिन के लिए किसानों को सजग रह कर उन की देखभाल करनी पड़ती है.

टमाटर की खास बीमारियां

पौध सड़न : सब से पहले इस बीमारी का हमला बीजों के अंकुरण के समय होता है. जैसे ही अंकुर बीजों से बाहर आते हैं, इस रोग के हमले के कारण सड़ जाते हैं. यदि इन से बच कर अंकुर जमीन के ऊपर आ जाते हैं, तो तने के मिट्टी वाले हिस्से पर पानी से भरे फफोले दिखाई पड़ते हैं, जिन में सड़न होने लगती है और अंकुर गिर जाते हैं. शुरुआत में बीमारी के लक्षण कुछ जगहों में दिखाई पड़ते हैं. फिर 2 से 3 दिनों में पूरी नर्सरी में बीमारी फैल जाती है. नर्सरी भूरे व सूखे धब्बों के साथ पीलीहरी दिखाई पड़ती है.

रोकथाम

* बीजों को एग्रोसान जीएन या केप्टान दवा की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

* नर्सरी की मिट्टी को भी ऊपर बताई गई दवा के 0.2 फीसदी घोल से उपचारित करना चाहिए.

* अंकुरण के 5 से 7 दिनों बाद कापर आक्सीक्लोराइड या मैंकोजेब या मेटालेक्जिल की 2 ग्राम मात्रा का पानी में घोल बना कर जड़ों में डालें.

अगेती झुलसा : यह रोग अल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंद से फैलता है. इस के हमले के बाद पुरानी पत्तियों पर चकत्ते पड़ जाते हैं. तने पर गहरे रंग की गोलगोल छल्लेनुमा धारियां दिखाई देती हैं और फूल व फल सड़ जाते हैं.

रोकथाम

* रोग के असर को कम करने  लिए फसलचक्र में सोलेनसी कुल की फसलें न उगाएं.

* हमेशा स्वस्थ फलों से पाए गए बीजों का इस्तेमाल करें.

* गरमी की जुताई करें, जिस से बीमारी फैलाने वाली फफूंद नष्ट हो जाए.

* जैसे ही पत्तियों पर रोग के लक्षण दिखाई दें, फौरन क्लोरोथालोनिक के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव 8 दिनों के अंतर पर करें.

* बचाव के लिए ब्लाइटाक्स 50 नामक दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. प्रतिरोधी किस्म कल्याणपुर सलेक्शन 1 का इस्तेमाल करना चाहिए.

पछेती झुलसा : यह रोग फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेंस नामक फफूंद से फैलता है. पत्तियों पर कालापन लिए हरे रंग के पानी वाले धब्बे पड़ जाते हैं. ये धब्बे नम व ठंडे मौसम में तेजी से बढ़ते हैं और कभीकभी इन की निचली सतह सफेद हो जाती है. तने पर भी इसी प्रकार के धब्बे पड़ जाते हैं. इस रोग से फल बदरंग हो जाते हैं.

रोकथाम

* स्वस्थ फलों से प्राप्त बीजों का इस्तेमाल करें.

* सभी बीमार फलों व पौधों के हिस्सों को इकट्ठा कर के खेत से बाहर ले जा कर जला दें.

* जैसे ही बदली वाले मौसम के आसार हों, तो फौरन मैंकोजेब दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करें. इस दवा के घोल का छिड़काव 5 से 7 दिनों बाद दोहराएं.

* यदि ज्यादा प्रकोप हो तो मेटालेक्सिल मैंकोजेब के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

पत्ती सिकुड़न व मोजैक : टमाटर का टोमैटो स्पोटेड उक्टा वायरस से फैलता है. यह विषाणु से होने वाला खास रोग है. इस रोग से पौधे बौने रह जाते हैं व पत्तियां ऐंठ कर आकार में छोटी रह जाती हैं. पौधों में बहुत ज्यादा शाखाएं निकल आती हैं और उन में फल बिलकुल ही नहीं लगते हैं. तंबाकू में लगने वाला गिडार एक पौधे से दूसरे पौधे में रोग फैलाता है.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए बोआई से पहले कार्बोफ्यूरान 3 जी 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से जमीन में मिलाना चाहिए.

* रोपाई के 15 से 20 दिनों बाद डाईमिथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 36 एसएल का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. यह छिड़काव 15 से 20 दिनों के अंतराल दोहराना चाहिए.

टमाटर गलना या मुरझाना : यह रोग स्युडोमोनास सोलेनेसीएरम नामक जीवाणु द्वारा फैलता है. पहली अवस्था में पौधों का मुरझाना शुरू होता है और बाद में पत्तियां भी मुड़ जाती हैं. पहले नीचे की पत्तियां पीली पड़ कर मर जाती हैं, बाद में ऊपर की पत्तियां मरती हैं. रोगी पौधे के तने को काटने पर वह गहरे भूरे रंग का दिखाई पड़ता है.

रोकथाम

* रोगी पौधे को उखाड़ कर जला देना चाहिए. यह समस्या दोबारा न पनपे इस के लिए फसलचक्र अपनाना चाहिए.

फल सड़न : इस रोग का असर खासतौर से खरीफ के मौसम में ज्यादा होता है. कई रोगकारक जैसे पिथियम फाइटोफ्थोरा, कोलेटोट्राइकाम वगैरह कई तरह से फलों को सड़ा देते हैं. हर साल इन रोगकारकों द्वारा तकरीबन 40 फीसदी फल सड़ा दिए जाते हैं.

राइजोक्टोनिया फल सड़न खरीफ के मौसम वाली टमाटर की सब से खतरनाक बीमारी है. इस बीमारी का लक्षण फल की निचली सतह पर गोलाकार सड़ता हुआ आगे बढ़ता है. बाद में इस सड़े हुए भाग पर दरारें पड़ जाती हैं. माइरोथिसियस फल सड़न की तरह गोलाकार छल्ले के रूप में होता है. सफेद व काले रंग के तमाम स्पोरोडोकिया इन छल्लों पर दिखाई पड़ते हैं, जो गीले होते हैं. फोमोप्सिस फल सड़न बीमारी ज्यादातर लाल फल पर सड़न पैदा करती है. स्केलेराकसियम फल सड़न में सफेद फफूंद और स्केलोरोसिया दिखाई देते हैं.

रोकथाम

* खयाल रखें कि फल मिट्टी को न छूने पाएं, इस के लिए पौधों के साथ लकड़ी के डंडे बांध दें.

* खेत में सिंचाई का पानी अधिक समय तक न रुकने दें.

* फसल की बोआई से पहले खेत में हरी खाद की फसल को बो कर खेत में उलट दें. खेत की तैयारी के समय 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* सभी सड़े फलों को इकट्ठा कर के नष्ट करें ताकि रोग न फैले.

जीवाण्ु धब्बा रोग : इस रोग का प्रकोप पूरे देश में होता है. इस रोग के छोटे धब्बे रोपाई से पहले पौधों की पत्तियों पर दिखाई देते हैं. बाद में धब्बे इकट्ठे हो कर पौधों की पत्तियों को जला देते हैं. इस रोग का असर खरीफ मौसम में ज्यादा होता है, जिस से औसतन 35 से 40 फीसदी पौधे प्रभावित हो जाते हैं व 40 फीसदी तक उत्पादन

कम हो सकता है. इस रोग का असर कच्चे फलों पर सब से ज्यादा होता है. नतीजतन हरे फलों के ऊपर धब्बे बन जाते हैं.

रोकथाम

* बोआई से पहले बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 100 पीपीएम घोल में डुबोएं.

* खेत की गरमी में जुताई करें.

* स्वस्थ्य बीजों का इस्तेमाल करें.

* शाम के समय स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का छिड़काव 150 से 200 पीपीएम के घोल द्वारा करें व इस के बाद कापर आक्सीक्लोराइड के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

“संगीत खुद को तनावमुक्त रखने का औजार है”

एक तरफ गजल गायकी व गजल सुनने वाले श्रोता गायब होते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ मुंबई की जानी मानी रेडियोलॉजिस्ट डॉक्टर काकोली बोरठाकुर अपना पहला छह गजलों का सोलो गजल एलबम ‘दिल के पास’ लेकर आ रही हैं. इसमें शकील बदायुनी की डुएट गजल ‘कैसे कह दूं कि मुलाकात नहीं होती..’ को डॉ. काकोली बोरठाकुर ने भजन सम्राट अनूप जलोटा के साथ गाया है.

आसाम में जन्मी काकोली की परवरिश डॉक्टर परिवार में हुई है. उनके माता पिता के साथ साथ भाई बहन,चाचा सभी डॉक्टर हैं. लेकिन काकोली को संगीत भी विरासत में अपनी मां से मिला. उनकी मां आरती डॉक्टर होने के साथ साथ फोक गायिका थीं.

घर के माहौल ने आपको संगीत से जोड़ा या?

सच कहूं तो शुरूआत में मेरी मां डॉक्टर आरती ने ही मुझे संगीत सीखने के लिए भेजा. यह वह दौर था, जब बच्चे अपने बड़ों की बात आंख मूंद कर मानते थे. स्कूल में संगीत सीखते और घर में रियाज करते करते मेरे अंदर भी संगीत के प्रति ललक बढ़ गयी.

बचपन में संगीत की समझ न होने पर भी हम सीखते रहे. पर बाद में संगीत की समझ हुई. मुंबई आने के बाद जब मेरा संपर्क भजन सम्राट व गजल गायक अनूप जलोटा जी से हुआ, तब मैंने उनसे संगीत की कुछ बारीकियां सीखी. अब मैं संगीत को गहराइयों में जाकर समझती हूं. संगीत में रूह बहुत जरूरी है. यह रूह आप सीख नहीं सकते, वह तो दिल से आती है.

संगीत के अलावा डॉक्टरी पेशा?

मेरे परिवार में सभी डॉक्टर हैं. मैं भी पढ़ाई में गोल्ड मेडलस्टि थी. मेरे घर में मेरे मम्मी पापा, बुआ भाई सभी डॉक्टर हैं. मतलब मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है, जो डॉक्टर ना हो. हां! मेरे पति संगीत जगत में नहीं है. वह रिलायंस में हैं.

मुंबई आने से पहले आपने सिर्फ अपनी मां से ही संगीत सीखा था?

जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि मुझे संगीत की प्रेरणा मेरी मां से मिली. पर बाद में मैंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली. मैंने 1996 में लखनउ के ‘भातखंडे संगीत विद्यापीठ’ से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में विशारद की डिग्री हासिल की. तो वहीं मैंने मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल से रेडियोलॉजी में पोस्ट गे्रजुएशन किया. पिछले 15 वर्षों से नवी मुंबई में रेडियोलॉजिस्ट के रूप में अपना खुद का अस्पताल चला रही हूं.

अस्पताल में महिलाओं के स्वास्थ्य की फिक्र, तो घर पर मां और पत्नी की जिम्मेदारियों को निभाना कभी आसान नहीं रहा. पर हर जिम्मेदारी को निभाते हुए मैं संगीत से भी जुड़ी रही. सुबह शाम संगीत का रियाज करने से मेरी सारी थकावट दूर हो जाती हैं. मेरे संगीत के पैशन ने मुझे हमेशा प्रसन्न रखा. मेरी दो टीनएजर बेटियां भी खुश हैं.

मुंबई पहुंचने के बाद मेरी मुलाकात भजन सम्राट अनूप जलोटा, पंडित अजय पोहनकर, उस्ताद मकबूल खान और राकेश पंडित से हुई. मैंने मुंबई में अपने संगीत के कार्यक्रम देने शुरू किए, तब मेरी मुलाकात अनूप जलोटा से हुई. मैंने अनूप जलोटा के साथ भी कई बार स्टेज पर गाया. अनूप जलोटा के साथ मैं गजल, भजन और सेमी क्लासिकल गीत गाए हैं. अब मैं अपना पहला गजल एलबम ‘दिल के पास’ लेकर आ रही हूं. जिसे ‘टाइम्स म्यूजिक’ 18 जनवरी 2017 को बाजार में लेकर आएगा.

आपने अपना पहला गजल एलबम दिल के पास बनाने की बात कब सोची?

मुंबई के स्टेज कार्यक्रमों में मैं गजल तो गा ही रही थी. इत्तफाक से मेरे दिमाग में एक दिन आया कि मुझे भी अपना संगीत एलबम बनाना चाहिए. यदि में यह कहूं कि संगीत के प्रति पैशन और गजल को बढ़ावा देने के मकसद से मैं अपना पहला गजल एलबम ‘दिल के पास’ लेकर आ रही हूं तो भी गलत नही होगा. पर मैंने डॉक्टरी पेशे से समय निकाल कर संगीत की साधना करते हुए इस एलबम को तैयार किया है. इसे तैयार करने में भजन सम्राट व गजल गायक अनूप जलोटा से काफी मदद मिली.

इस एलबम के संगीतकार दीपक पंडित है. इसमें 6 गजलें हैं. जिसमें से एक गजल ‘कैसे कह दूं’ डुएट है, जिसे मैंने व अनूप जलोटा जी ने गाया है. इस एलबम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके सभी गाने परंपरागत हिंदुस्तानी राग पर आधारित हैं, पर इन्हें संगीतकार दीपक पंडित ने बड़ी खूबसूरती से अलग रंग दिया गया है. हमने इस एलबम को विशाल श्रोता वर्ग तक पहुंचाने के लिए भारतीय व पश्चिमी वाद्य यंत्रों से सजाया है.

इस एलबम किस तरह की गजलें हैं?

इस एलबम की सभी गजलें रोमांस से जुड़ी हुई हैं. पर रोमांस का हर पहलू इन गजलों में नजर आएगा. इस एलबम की गजलें शकील बदायुनी, शकील आजमी और इरशाद दलाल ने लिखी हैं. एलबम में सारंगी उस्ताद दिलशाद खान, वायलिंग दीपक पंडित, फ्लूट अश्विनी श्रीनिवासन, तबला हीरा पंडित, सितार पंडित सुनील दास और गिटार संजय जयपुर वाले ने बजाया है. इसमें नए गजलकार इरशाद दलाल की एक गजल है ‘उनसे नजरें मिलाने को जी चाहता है, जमाना भूल जाने को जी चाहता है..’ जबकि गजल ‘आए नहीं साजन’ में लोगों को ठुमरी का रसास्वादन मिलेगा.

आपके लिए संगीत क्या है?

संगीत रूह है. मेरे लिए संगीत खुद को तनावमुक्त रखने का औजार है. संगीत खुद को समझाने के साथ साथ दूसरों को भी समझा देता है. संगीत दोस्त व हमराही है. संगीत हमारी तन्हाई को दूर करता हैं. मेरे जैसे दूसरे पेशे में व्यस्त रहने वाले लोगों के लिए भी संगीत सबसे बड़ा सकून देने वाला साथी है. गजल ज्यादा सकून देती है. इसलिए मैं गजल ज्यादा गाती हूं. मेरा पेशा, मेरा काम मुझे बहुत ज्यादा तनाव देता है. पर गजल गाकर मन शांत हो जाता है. तनाव दूर हो जाता है.

आप किन गायकों की प्रशंसक हैं?

मैं फरीदा खानुम, मेहंदी हसन, गुलाम अली, चित्रा सिंह, जगजीत सिंह, नयारा नूर, अनूप जलोटा, पंकज उदास और तलत अजीज की बहुत बड़ी प्रशंसक हूं. मैं बचपन से इन्हें सुनती आयी हूं.

आप मशहूर रेडियोलॉजिस्ट डॉक्टर तथा संगीत से भी जुड़ी हुई हैं. ऐसे में आपकी दिनचर्या क्या रहती है?

सुबह 6 बजे उठकर घर का काम करती हूं. फिर दो घंटे संगीत का रियाज करती हूं. फिर तैयार होकर साढ़े दस बजे तक अस्पताल पहुंच जाती हूं. शाम को 6 बजे घर पहुंचती हूं. चाय वगैरह पीने के बाद दो घंटे संगीत का रियाज करती हूं. फिर घर का काम करती हूं.

‘द रिंग’ को लेकर क्या बोले इम्तियाज अली

इन दिनों इम्तियाज अली काफी उत्साहित हैं. इस उत्साह की वजह यह है कि उन्होंने शाहरुख खान के साथ अपनी पहली फिल्म ‘द रिंग’ की शूटिंग लगभग पूरी कर ली है. पर इम्तियाज अली ने उस तरह की फिल्म नहीं बनाई है, जिस तरह की फिल्में आम तौर पर शाहरुख खान करते रहे हैं.

खुद इम्तियाज अली कहते हैं कि ‘‘हम यह फिल्म बिना किसी दबाव के बना रहे हैं. हम दोनों कुछ ऐसा काम करना चाहते थे, जिसे अब तक हम दोनों ने न किया हो. इसीलिए हम इस फिल्म को कर रहे हैं. मैं शाहरुख खान जिस तरह की फिल्मों में अभिनय करते आए हैं, उस तरह की फिल्म नहीं बनाना चाहता था. और शाहरुख खान अपनी इमेज से इतर किरदार निभाना चाहते थें.’’

सूत्रों के अनुसार फिल्म ‘द रिंग’ में शाहरुख खान एक टूरिस्ट गाइड के किरदार में हैं.

गैस लीक से बचायेंगे ये गैजेट्स

कुकिंग गैस की सुविधा और इसके लीक होने के खतरे से तो सब वाकिफ हैं, लेकिन गैस लीक का पता लगाने का काम केवल नाक के भरोसे छोड़ना खतरनाक साबित हो सकता है.

एलपीजी सिलेंडरों से गैस का रिसाव बेहद खतरनाक होता है. आपको पता भी नहीं चलता और गैस पूरे घर में फैलकर जानलेवा साबित हो सकती है. कभी रेग्युलेटर, कभी पाइप, कभी हवा से लौ का बुझ जाना, ये कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे खतरनाक गैस घर में फैल सकती है और आपके लिए खतरनाक साबित हो सकती है. यही नहीं, कई दूसरे गैस और स्मोक भी जानलेवा होते हैं. ऐसे में बेहतर रहता है कि गैस लीकेज पर नजर रखी जाए और यह काम गैजट को सौंप दिया जाए.

गैस सेंसर डिवाइस

रसोई गैस के रिसाव की चेतावनी देने वाले कई ऐसे गैजट बाजार में मिलते हैं, जिन्हें गैस सिलेंडर या बर्नर से जोड़ने की कोई जरुरत भी नहीं पड़ती. ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट्स पर घरेलू बिजली से चलने वाला गैस अलार्म मिल जाती है. इसे इंस्टॉल करने में कोई खास मशक्कत भी नहीं करनी पड़ती है. इसके बाद डिवाइस के प्लग को इलेक्ट्रिसिटी से कनेक्ट कर दिया जाता है.

ऑक्सीजन की कमी का सिग्नल

सर्दी का मौसम है. ऐसे मौसम में अक्सर कमरे में अंगीठी और हीटर से होने वाले ऐक्सिडेंट्स की खबरें सुनने को मिलती हैं. असल में जब हम किसी बंद जगह पर हीटर या अंगीठी जलाते हैं, तो वहां घातक कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस का लेवल काफी बढ़ जाता है. बंद कमरे में कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस के लेवल के बढ़ते ही लोगों को बेहोशी छाने लगती है और मौत तक हो जाने का खतरा बना रहता है.

डिजिटल गैस डिटेक्टर

किसी भी गैस की मौजूदगी को PPM यानी 'पार्ट्स पर मिलियन' की यूनिट में नापा जाता है. इसके सही लेवल पर लगातार नजर रखने के लिए 3 सेल से चलने वाला डिजिटल डिटेक्टर बाजार में मिलता है. यह लगातार डिस्प्ले पर दिखाता रहता है कि कार्बन मोनोऑक्साइड का लेवल कितने PPM पर है.

धुंए और आग से सेफ्टी

अगर आप घर पर नहीं हैं और आग लग गई, तो जब तक धुंआ घर के बाहर न निकलने लगे आसपास के लोग भी खतरे को नहीं भांप पाते. ऐसे में बेहतर है कि शुरुआती धुंआ निकलते ही अलर्ट करने के लिए डिवाइस इंस्टॉल कराया जाए. घर पर लगवाने के लिए भी बाजार में स्मोक/ फायर डिटेक्टर आते हैं. ये धुएं की उपस्थिति और आग के लगते ही तेज आवाज के जरिए सिग्नल देते हैं.

 

सफर अनजाना

मैं अपने परिवार के साथ ऊटी घूमने गई थी. एक तो वह शहर हमारे लिए अनजाना था, ऊपर से वहां की भाषा हमें समझ में नहीं आती थी. ऊटी घूमने के लिए कार का इंतजाम हो गया था.  अब हम लोग यह चाहते थे कि किसी तरह एक ऐसे ड्राइवर का इंतजाम हो जाए जिसे हिंदी बोलनी आती हो. पर ऐसा हो नहीं पाया.  बड़ी मुश्किल से एक दक्षिण भारतीय ड्राइवर का इंतजाम ही हो पाया. उस का नाम नल्लूस्वामी था. वह सिर्फ तमिल भाषा ही समझता था. हालांकि वह थोड़ीबहुत टूटीफूटी अंगरेजी भी बोल लेता था. हम सभी यह सोच कर परेशान थे कि पता नहीं इस ड्राइवर के साथ हमारा सफर कैसा बीतेगा परंतु उस के साथ जो सफर हम ने किया वह हमें आज तक याद है. नल्लूस्वामी स्वभाव से बहुत ही बातूनी था. रास्तेभर वह हमें बड़े उत्साह से सारे पर्यटन स्थल दिखाता रहा और उन स्थलों से संबंधित खास व रोचक बातें भी बताता रहा.  हमें उस की भाषा अब थोड़ीथोड़ी समझ में आने लगी थी. वैसे तो हम ने उसे सिर्फ ऊटी दिखाने के लिए कहा था पर उस की जिद के चलते हमें ऊटी के पास की एक खूबसूरत जगह कुन्नूर घूमने के बाद ऐसा लगा कि कुन्नूर के बगैर ऊटी का सफर अधूरा ही है. रास्ते में बारिश भी होने लगी. नल्लूस्वामी ने झट से अपनी कमीज उतारी और मेरे छोटे भाई के सिर को ढक दिया ताकि वह बारिश में भीग न जाए. जब हम सभी खाना खाने के लिए होटल गए तो नल्लूस्वामी ने स्वयं आगे बढ़ कर वेटर को हमारे लिए वहां का प्रसिद्ध भोजन ‘रसमसादम’ लाने को कहा. हम सभी को ‘रसमसादम’ का स्वाद बहुत पसंद आया. पूरे रास्ते नल्लूस्वामी हमें आसपास के इलाकों के बारे में दिलचस्प बातें बताता रहा. उस ने हमें स्थानीय चीजें भी दिखाईं और हमें काफी सस्ते में खरीदवा भी दीं. अब हमारे वापस जाने का समय आ गया था. हम सभी रेलवेस्टेशन पहुंच चुके थे. ट्रेन छूटने से थोड़ी देर पहले तक नल्लूस्वामी हमारी ट्रेन की खिड़की के पास खड़ा रहा.  वह ज्यादा देर तक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और ट्रेन की खिड़की पर अपना सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगा. उसे रोता देख कर हम सभी की आंखों में भी आंसू आ गए. उस के अपनेपन और नेकनीयत ने हमारा दिल छू लिया था. आज इस बात को 14 साल बीत चुके हैं पर आज भी जब हम कहीं घूमने जाते हैं तो नल्लूस्वामी को बहुत याद करते हैं.

– सोनी दुबे

ऐसा भी होता है

मेरी चचेरी बहन की शादी थी. चाची की एक बहुत पक्की सहेली थीं, जिन्हें सब ‘चंद्रा की मम्मी’ के नाम से संबोधित करते थे. वे हमेशा चाची के साथ रहती थीं. शादी के समय जयमाला होने के बाद चंद्रा की मम्मी ने चाची से कहा कि वे चंद्रा को लेने घर जा रही हैं, आधे घंटे में वापस आ जाएंगी. चाची ने हां कहा और लोगों से बातचीत में लग गईं. चंद्रा की मम्मी दरवाजे के किनारे रखी हुई चप्पलों में से अपनी चप्पलें देखने लगीं. जब कुछ देर चप्पल नहीं मिली तो मैं ने कहा कि चंद्रा की मम्मी आप मेरी चप्पल पहन कर चली जाइए. चप्पल न मिलने से चंद्रा की मम्मी की आंखें भर आई थीं. वे कहने लगीं, ‘‘बेटी, अभी परसों ही मैं ने अमीनाबाद से 500 रुपए में चप्पलें खरीदी थीं. एकदम नई थीं.’’ इतने में चाची वहां आईं और कहने लगीं, ‘‘अरे चंद्रा की मम्मी, तुम अभी यहीं हो, गई नहीं?’’  ‘‘अरे उर्मिला (चाची), हमारी चप्पलें नहीं मिल रहीं.’’ ‘‘ऐसा अभी ही होना था. लो हमारी चप्पलें पहन लो,’’ चाची बोलीं. ‘‘अरे, यही तो हमारी चप्पलें हैं,’’ चंद्रा की मम्मी बोलीं. दरअसल, चाची ने बरात आते समय जल्दबाजी में दरवाजे पर सामने रखी हुई चंद्रा की मम्मी की चप्पलें पहन ली थीं.

– अपर्णा किशोर फड़के, नागपुर (महा.) 

मेरे गांव में पिछले साल सूखा पड़ गया. गांव के सभी किसान सूखे की चपेट में आ गए. कुछ लोग गांव छोड़ कर शहर की ओर जाने लगे. सूखू भी गांव छोड़ कर शहर जाना चाहता था परंतु पैसा न होने के कारण रुका हुआ था. महाजन से पहले ही बहुत उधार ले चुका था, सो उधार मिलने की आशा नहीं थी. सरकार ने किसानों की गिरती हालत को देख कर मुफ्त राशन देने की घोषणा की. सूचना मिलते ही ग्रामप्रधान ने सूखू को अपने घर बुलाया और कहने लगे, ‘‘क्या तुम शहर नहीं जाना चाहोगे?’’ सूखू बोला, ‘‘मेरे पास गिरवी रखने को कुछ भी नहीं है. पैसे का इंतजाम कैसे होगा?’’ ग्रामप्रधान बोले, ‘‘अपना राशनकार्ड गिरवी रख दो. तुम शहर चले जाओगे तो वह यहां बेकार पड़ा रहेगा. लौट कर आओगे तो उसे ले लेना.’’ सूखू ग्रामप्रधान की मेहरबानी से बड़ा ही खुश हुआ और ग्रामप्रधान खुश था कि उस के हिस्से के राशन को बेच कर वह अपना हिसाब पूरा करेगा. 

– उपमा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

पाकिस्तानी फिल्म उद्योग ने टेके घुटने

उड़ी पर हुए आतंकवादी हमले के बाद जब भारतीय फिल्म उद्योग ने पाकिस्तानी कलाकारों पर बैन लगाया, तो बदले की कारवाही करते हुए ‘पाकिस्तानी सिनेमा ओनर एंड एक्जबीटर एसोसिएशन’ ने पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों के प्रदर्षन पर रोक लगा दी थी.

करण जोहर ने बहुत कोशिश की थी कि उनकी फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ पाकिस्तान में प्रदर्शित हो जाए, जिसमें पाकिस्तानी कलाकार फवाद खान ने भी अभिनय किया है, मगर उन्हें सफलता नहीं मिल पायी थी. ‘पाकिस्तानी सिनेमा ओनर एंड एक्जबीटर एसोसिएशन’ की संस्था के कुछ लोग अड़ियल रूख अख्तियार कर बैठे रहे. जबकि इससे पाकिस्तान को हर दिन करोड़ों रूपए का नुकसान हो रहा था.

भारतीय फिल्मों पर बंदिश लगाने के कारण पाकिस्तान के सभी मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर खली पड़े रहे. सूत्रों की मानें तो पिछले तीन माह से भी अधिक समय से पाकिस्तान के सभी मल्टीप्लैक्स खाली पड़े हुए हैं. इन सिनेमाघरों में दर्शक ही नहीं पहुंचे क्योंकि पाकिस्तान में हर वर्ष दो या तीन फिल्में ही बनती हैं. ऐसे में किस फिल्म को देखने दर्शक सिनेमाघर जाता?

काफी नुकसान कराने के बाद अब ‘पाकिस्तानी सिनेमा ओनर एंड एक्जबीटर एसोसिएशन’ ने पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर 19 दिसंबर से रोक हटाने का निर्णय किया है, जिसका फायदा आमीर खान की फिल्म ‘दंगल’ को मिल सकता है. ‘पाकिस्तानी सिनेमा ओनर एंड एक्जबीटर एसोसिएशन’ के चेअरमैन जोराश लाशरी ने बाकायदा पत्रकारों को बताया कि ‘‘सभी पक्षों से विस्तृत चर्चा करने के बाद इस निर्णय पर पहुंचा गया कि 19 दिसंबर से पाकिस्तानी सिनेमाघरों में भारतीय फिल्में पहले की ही तरह प्रदर्शित हो सकती हैं.’’

लाशारी ने आगे कहा, ‘‘भारतीय फिल्मों पर अस्थायी रोक लगाने के बाद फिल्मों से जुड़े सभी पक्षें को काफी नुकसान उठाना पड़ा है. पाकिस्तान में मल्टीप्लैक्स को आधुनिक सुविधाओं से युक्त करने में काफी रकम खर्च की गयी. और इनका व्यापार नई प्रदर्शित होने वाली भारतीय फिल्मों पर ही निर्भर है. दूसरी बात सिनेमाघर मालिकों व एक्जबीटरों ने खुद ही भारतीय फिल्में प्रदर्शित न करने का निर्णय लिया था. भारतीय फिल्मों के पाकिस्तान में प्रदर्शन बैन नहीं था.

सूत्रो की मानें तो पाकिस्तानी सिनेमाघर मालिकों को लग रहा है कि आमीर खान की फिल्म ‘दंगल’ का हर पाकिस्तानी बेसब्री से इंतजार कर रहा है, इसलिए यही सही समय है कि गलती को सुधारते हुए पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन की राह आसान की जाए.

यूं तो पिछले दो माह से कई पाकिस्तानी अखबार लिखते आ रहे हैं कि भारतीय फिल्मों के पाकिस्तान में प्रदर्शन पर बैन के निर्णय से सिनेमाघर मालिकों की हालत काफी खस्ता हो रही है. भारतीय फिल्मों पर बैन से पाकिस्तानी सिनेमा को ही नुकसान पहुंचाया जा रहा है. पर अब जाकर ‘पाकिस्तानी सिनेमा ओनर एंड एक्जबीटर एसोसिएशन’ को अपनी गलती समझ में आयी है.

किडनी पर साफगोई

‘अपना रोग, आर्थिक स्थिति और मंशा छिपा कर रखने चाहिए,’ इस सूक्ति वाक्य को धता बताते विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सीधेसीधे मान लिया कि उन की किडनी फेल हो चुकी है और अब कृष्ण उन्हें ठीक करेंगे. कृष्णजी के तो कहीं अतेपते नहीं चले लेकिन कइयों ने सुषमा को अपनी किडनी देने की इच्छा जताई तो इस से उन की लोकप्रियता ही उजागर हुई.

जयललिता, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और अरविंद केजरीवाल की तरह सुषमा स्वराज ने अपनी बीमारी न छिपा कर मिसाल ही कायम की है. कहा भी जाता है कि कितना ही छिपा लो, बीमारी छिपती नहीं. यह  अच्छी बात है कि नेताओं की रहस्यमय बीमारियां कई अफवाहों को जन्म देती हैं जिस से गफलत पैदा होती है. दूसरी अहम बात यह भी समझ आई कि किडनी का खराब होना या फेल होना तेजी से, खासतौर से महिलाओं में, बढ़ रहा है. इसलिए वक्त रहते ब्लडप्रैशर और डायबिटीज वगैरा का इलाज करा लेना चाहिए वरना इन का सीधा असर किडनी पर पड़ता है.       

चेंज वेंडा

नोटबंदी के चलते जब देशभर के लोग बड़ी किफायत से पैसे खर्च कर रहे थे तब मामूली ऐक्ट्रैस से केंद्रीय मंत्री बन गईं स्मृति ईरानी एक मोची को 90 रुपए बख्शीश दे रही थीं. इस से यह साफ हुआ कि पैसों की मार जरूरतमंद लोगों पर ही पड़ी है, नेताओं, उद्योगपतियों और फिल्मस्टार्स को लाइन में नहीं लगना पड़ा. उन के पास जैसे जादू के जोर से नए और छुट्टे नोट आ गए थे.

स्मृति ईरानी कोयंबटूर में थीं जहां उन की चप्पल टूट गई थी. चप्पल का टूटना खासतौर से किसी भी महिला के लिए दुखदायी घटना है जिस से लगता है कि सारी दुनिया उस के घिसटते पैरों की तरफ ही देख रही है. टूटी चप्पल सुधरवाने के लिए वे रास्ते में मोची के पास रुकीं और चप्पल सुधरवाई. मेहनताने में मोची ने ईमानदारी से 10 रुपए मांगे तो स्मृति ने उसे सौ रुपए का कड़क नोट देते हुए कहा, ‘चेंज वेंडा’ जिस का प्रचलित मतलब होता है कीप द चेंज. तय है इस दरियादिली पर फिदा मोची यही सोच रहा होगा कि रोजरोज ऐसी हस्तियों की चप्पल उस की गुमटी के आसपास ही टूटें तो वाकई अच्छे दिन आ जाएंगे.

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