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मैं अपने दोस्त की पत्नी के साथ फिजिकल रिलेशन में हूं और हमारा एक बेटा भी है. मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल

मैं 22 साल का हूं. मेरा 25 साल की दोस्त की बीवी से 9 सालों से पति पत्नी जैसा ही संबंध है. मैं उस से शादी करना चाहता हूं, पर वह अपने परिवार को धोखा नहीं देना चाहती. हमारा एक बेटा भी है. मैं क्या करूं?

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जवाब

दोस्त की पत्नी को पत्नी की तरह इस्तेमाल कर के आप ने खूब दोस्ती निभाई है. वह औरत आप से शादी कर के पति को धोखा नहीं देना चाहती, तो आप के साथ सो कर वह क्या कर रही है? बेटा आप का ही है, यह आप कैसे कह सकते हैं? अब शादी का नाटक करने की क्या जरूरत है? जिस दिन पकड़े गए, तो शामत आ जाएगी.

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फिल्म ‘‘मरजावां’’ का ट्रेलर लौंच

मोहित सूरी की फिल्म ‘‘एक विलेन’’ के पांच साल बाद अब मिलाप झवेरी निर्देशित फिल्म ‘‘मरजावां’’में रितेश देशमुख और सिद्धार्थ मल्होत्रा एक साथ आमने सामने हैं. फिल्म‘‘मरजावां’’ का ट्रेलर गुरुवार, 26 सितंबर को मुंबई के ‘‘पीवीआर ईएक्स’’ मल्टीप्लैक्स में लौंच किया गया. ट्रेलर पूर्ण रूपेण एक्शन ड्रामा और भारी भरकम संवादों वाली फिल्म होने का अहसास दिलाता है.

तीन मिनट 15 सेकंड का ट्रेलर एक्शन दृश्यों और कुछ उत्तेजक संवादों से पूर्ण है. फिल्म में अपने प्यार जोया (तारा सुतारिया) के लिए लड़ने के लिए रघु को हिंसक अवतार लेना पड़ता है. और उसकी लड़ाई अपने पूर्व बौस विष्णु से है. ‘‘मारजावां’ में  सिद्धार्थ मल्होत्रा, रघु के किरदार में सख्त और देहाती लुक में नजर आएंगे. जबकि विष्णु के किरदार में रितेश देशमुख बौने कद के खलनायक का किरदार में नजर आएंगे.

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फिल्म की कहानी की ओर संकेत करते हुए रितेश देशमुख कहते  है, ‘‘एक तीन फीट के कद के बौने विष्णु का एक मुस्लिम महिला जोया (तारा सुतारिया) के प्यार में पड़ने और अपने गिरोह से बाहर निकलने के बाद रघु अपने बौस से दूर चला जाता है. पर विष्णु, रघु को बख्शने के मूड़ में नही है.’’

‘मरजावां’ के साथ पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर सिद्धार्थ मल्होत्रा और तारा सुतारिया की जोड़ी नजर आएगी. ट्रेलर में इनके बीच की केमिस्ट्री लाजवाब है. ट्रेलर में रकुल प्रीत तो क्षणभंगुर हैं. ट्रेलर के अंत में जोया को रघु की बंदूक से गोली मारते हुए देख सकते हैं. ट्रेलर में रावण के पौराणिक संदर्भ हैं. जिससे यह बात उभरती है कि फिल्म की कहानी रघु की अच्छाई  और विष्णु की बुराई के बीच लड़ाई है.

फिल्म ‘मरजावां’ में बौने कद के खतरनाक विेलेन का चुनौती पूर्ण किरदार निभाने वाले अभिनेता  रितेश देखमुख ने इस अवसर पर कहा कि वह हर तरह की भूमिकाओं के साथ प्रयोग करने के लिए तैयार हैं. रितेश देशमुख ने कहा- “फिल्म के लेखक व निर्देशक मिलाप झवेरी के संग मेरा लंबा संबंध है. उनके लेखन के ही चलते मेरे करियर में बदलाव होते रहे हैं. ‘मस्ती’, ‘एक विलेन’ और अब ‘मारजावां’. बहुत कम लोगों को ऐसा मौका मिलता है. इसलिए मैं मिलाप को धन्यवाद देना चाहता हूं.”

जब उनसे एक पत्रकार ने सवाल किया कि,‘क्या वह कमल हासन के ‘अप्पू राजा’से प्रेरित थे. क्या ‘अप्पू राजा’’ से कोई संदर्भ लेकर किरदार को निभाया है? तो रितेश ने कहा- ‘‘कमल हासन साहब का प्रदर्शन, महानता किसी भी तकनीक से परे है. जब हम ‘मरजांवां’ कर रहे थे, तो निश्चित रूप से, मैं अन्य अभिनेताओं को देख कर आश्चर्य चकित था कि उन्होंने यह कैसे किया? ’लेकिन सौभाग्य से, तकनीकी हमारी खामियां (दोश) दूर करने में मदद करती है. मैंने सिर्फ पांच बार एक शौट किया. यह मुश्किल नहीं था.”

‘‘मस्ती’’ फेम अभिनेता से एक पत्रकार ने पूछा था कि जब हिंदी फिल्मों में बौने कलाकार मौजूद हैं, तो वह ऐसे चुनौतीपूर्ण किरदार करने को कैसे तैयार हुए? इस पर रितेश देशमुख ने कहा, “मैं आपके दृष्टिकोण का सम्मान करता हूं. एक अभिनेता के रूप में जब किसी ने मुझसे इस भूमिका के साथ संपर्क किया है, तो मेरा काम केवल यह देखना है कि क्या मैं इसे परदे पर साकार कर पाऊंगा या नहीं. और यदि निर्देशकों और निर्माताओं को यह विश्वास है कि मैं उसे निभा सकता हूं, तो एक अभिनेता के रूप में, मैं कुछ भी खेलने के लिए तैयार हूं, यह एक खड़ी चुनौती वाला व्यक्ति, बूढ़ा व्यक्ति,युवा व्यक्ति या एक महिला भी है. मैंने सब कुछ निभाया है. एक अभिनेता के रूप में, मैं कुछ भी करने के लिए खुला हूं.”

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निर्देशक मिलाप झवेरी ने इस पर आगे कहा- ‘‘मेरी राय में आपका सवाल वाजिब है. अगर श्री अनुपम खेर, जो इतने महान अभिनेता हैं, ने ‘सारांश’’ में खुद की उम्र से  बड़े किरदार को नहीं निभाया होता,  तो शायद आज हम अनुपम खेर से परिचित न होते. इसी तरह बहुत सारे महान अभिनेता विभिन्न भूमिकाएं निभाते हैं. ड्रीम गर्ल में आयुष्मान ने एक ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया, जिसे वह सभी लड़की समझते हैं. मुझे लगता है कि आखिरकार सभी को अभिनय करने और प्रदर्शन करने का अवसर मिलना चाहिए, यह भी उतना ही उचित है कि अभिनेताओं को प्रयोग करने का मौका मिले.’’

34 वर्षीय अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा ने इस अवसर पर कहा- “जब मैंने निर्देशक मिलाप जवेरी से पटकथा सुना, तो उनके संवाद पहली चीज थे, जिसने मुझे उत्साहित किया. मुझे लगा कि मुझे यह फिल्म करना चाहिए. मुझे बड़े एक्शन हीरो को डायलौग बोलते हुए देख हीरो बनने की प्रेरणा मिली. मेरे करियर में यह पहली बार है जब मैं एक नायक की भूमिका निभा रहा हूं और जिस तरह प्रस्तुत किया जा रहा हूं, सभी मिलाप और पूरी टीम को धन्यवाद देता हूं.”

उन्होंने आगे कहा, ‘‘मिलाप का मानना है कि सिनेमा हम सब देखते हुए बड़े हुए हैं.एक नायक एक नायक की तरह प्रवेश करेगा, एक्शन और संवाद-बाजी करेगा. मैं इस सिनेमा की तरफ बढ़ा. कई सालों में पहली बार मुझे इस तरह से नायक की भूमिका निभाने का मौका मिला.’’

ट्रेलर लौन्च में, सिद्धार्थ मल्होत्रा से यह भी पूछा गया कि क्या यह अफवाहें सच हैं कि वह अपने करियर का विश्लेशण करने के लिए एक ब्रेक लेने की योजना बना रहे हैं, क्योंकि उनकी पिछली कुछ फिल्में बौक्स औफिस पर बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई हैं?  इस पर अभिनेता ने कहा,“यह बिल्कुल सच नहीं है. मैंने बिना कुछ भी विश्लेशण किए इस फिल्म में कूद गया. हर अभिनेता फिल्म साइन करने से पहले सोचता है.’’

ट्रेलर लौन्च के अवसर पर रितेश देशमुख ने कहा- ‘‘सबसे कठिन हिस्सा सिद्धार्थ के साथ बातचीत करने का रहा, क्योंकि मेरी दृष्टि उसकी कमर से नीचे थी.‘‘

लेखक व निर्देशक मिलाप झवेरी की फिल्म‘‘मरजावां’’ का निर्माण मोनिशा आडवाणी, मधु भोजवानी और निखिल आडवाणी के साथ भूशण कुमार, दिव्या खोसला कुमार, और कृष्ण कुमार द्वारा किया गया है. यह 8 नवंबर को सिनेमाघरों में रिलीज होगी.

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नृत्य निर्देशक बास्को मार्टिस की बतौर निर्देशक पहली फिल्म में होंगे आदित्य सील

मशहूर नृत्य निर्देशक और टीवी के कई नृत्य प्रधान रियालिटी शो के जज बास्को लेस्ली मार्टिस अब ‘जी स्टूडियो’’ के साथ मिलकर एक हौरर और नृत्य प्रधान कौमेडी फिल्म का निर्माण व निर्देशन करने जा रहे हैं. बतौर फीचर फिल्म निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म होगी. जिसमें मुख्य भूमिका निभाने के लिए उन्होंने आदित्य सील को अनुबंधित किया है. फिल्म का नाम अभी तक तय नही है. फिल्म ‘‘स्टूडेंट औफ द ईयर 2 ’’ अभिनय कर प्रशंसा बटोर चुके आदित्य सील इस फिल्म में एक नए अवतार में नजर आएंगे.

खुद निर्देशक बौस्को लेस्ली मार्टिस कहते हैं- ‘‘मैं एक नृत्य-आधारित हौरर-कौमेडी फिल्म लेकर आने जा रहा हूं. यह कुछ जादुई बनाने के लिए मंच निर्धारित करती है. हमने नायक के चरित्र के लिए आदित्य सील को चुना है. आदित्य सील एक बहुमुखी प्रतिभाशाली कलाकार हैं, जो कुशल नर्तक, अभिनेता और एक्शन में माहिर हैं.उनकी अभिनय क्षमता का अब तक फिल्मों में पूरी तरह से नहीं किया गया है. वह हमारी फिल्म के नायक के चरित्र में पूरी तरह से फिट बैठते हैं. इस चरित्र के साथ उनका व्यक्तित्व अच्छी तरह से मिश्रित होगा. फिलहाल हम पटकथा को अंतिम रूप दे रहे हैं और अक्टूबर तक प्रि-प्रोडक्शन का काम शुरू कर देंगे. हम इसका फिल्मांकन 2020 की शुरूआत में करने की सोच रहे हैं.’’

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जी स्टूडियोज के सीईओ, शारिक पटेल इस गंठजोड़ की चर्चा करते हुए कहते हैं- ‘‘हम बौस्को के साथ साझेदारी करने को लेकर भी खुश हैं, वह इस फिल्म का निर्देशन करेंगे. वैसे वह हमारे जी टीवी के प्रतिष्ठित शो ‘डांस इंडिया डांस’ के जज भी हैं. हम आदित्य जैसे युवा, प्रतिभाशाली कलाकार के साथ काम करने को लेकर खुश हैं. हम दावा करते हैं कि इससे पहले इस शैली की फिल्म नही बनी है, जिसे हम भारतीय दर्शकों के लिए ला रहे हैं. यह फिल्म विशेष रूप से बच्चों, पूर्व-किशोरों और किशोरावस्था से गुजर रहे लोगों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है. फिल्म को बड़े पैमाने पर एक दिलचस्प कलाकारों की टुकड़ी के साथ रखा जाएगा.”

फिल्म के अन्य कलाकारों के नाम की घोषणा बौस्को जल्द करने वाले हैं.वह कहते हैं-‘‘हमें रियालिटी शो में कुछ प्रतिभाएं मिली है,जिनके कौशल ने हमें प्रभावित किया है.’’

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बुलबुल कैन सिंगः चैंकाने वाली त्रासदी का बेहतरीन चित्रण

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माता,लेखक व निर्देशकः रीमा दास

सह निर्माता: जया दास

कलाकारः अर्नाली दास, मनोरंजन दास, बनिता ठाकुरिया, मनबेंद्र दास, दीपज्योति कलिता व अन्य.

अवधिः एक घंटा 34 मिनट

गत वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने के अलावा ‘‘औस्कर’’ में भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में जा चुकी असमिया फिल्म ‘‘विलेज रौकस्टार’’ की लेखक, निर्माता व निर्देशक रीमा दास अब अपनी नई असमी फिल्म ‘‘बुलबुल कैन सिंग’’ लेकर आयी हैं. यह फिल्म भारतीय सिनेमाघरों में 27 सितंबर को पहुंची है, मगर इससे पहले यह फिल्म 40 अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में धूम मचाने के अलावा 17 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार हासिल कर चुकी है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में आसाम के एक गांव में रहने वाली और स्कूल में पढ़ने वाली किशोरवय लड़की बुलबुल (अर्नालीदास) है, उसके पिता अच्छे गायक हैं. बुलबुल को गांव के किनारे पेड़ो के झुंड के बीच जमीन पर गिरे हुए फूल के पास आराम करते हुए आनंद आता है. बुलबुल के पिता अपनी बेटी को भी गायक बनाना चाहते हैं. बुलबुल की आवाज अच्छी है, मगर उसकी आवाज तब विफल हो जाती है, जब उसे लोगों के सामने गाना पड़ता है. असफलता और आत्म-संदेह के डर से भी नाजुक बोनी (बोनिता ठाकुरिया) और सुमन (मनोरंजन दास ) जो पारंपरिक पुरुष छवि को पूरा नहीं करता है, इसलिए उसे लोग ‘औरत’ कहकर बुलाते हैं. वास्तव में सुमन ट्रांसजेंडर/ समलैंगिक है. स्कूल में लड़के सुमन की पैंट उतारना चाहते हैं और जांचना चाहते हैं कि वास्तव में वहां क्या है. लेकिन बुलबुल और बोनी उसे लड़कियों की तरह मानते हैं. जबकि सुमन (मनोरंजन दास) अभी भी समझने का प्रयास कर रहा है कि वह वास्तव में कौन है. स्कूल में ही एक किशोर वय लड़का पराग (मनवेंद्रर दास) है, जो बुलबुल को कविताएं लिखकर देना शुरू करता है. बुलबुल घर पर उस कविता को अपने बिस्तर पर फैलाकर पढ़ती है, सुमन उसके बगल से बाहर निकलती है.

अब स्कूल में बुलबुल, बोनी, बोनी का दोस्त, सुमन, परागयह पांच दोस्त एक साथ नजर आने लगते हैं. पहले प्यार का अनुभव तीनों किशोरों को उच्च उम्मीदों और सख्त नैतिकआदर्श के दबाव में रखता है. यह पांचों एक साथ तस्वीरें भी खिंचवाते हैं. एक दिन यह पांचो जंगल में घूमने जाते हैं. बोनी और बोनी का दोस्त अलग पेड़ के नीचे खड़े होकर बातें करते हैं. बुलुबुल, सुमन से कहती है कि आने जाने वालों पर नजर रखे. पर सुमन प्रकृति में खो जाता है और जैसे ही एक झाड़ियों कें झुंड में बुलबुल और पराग के चुंबन लेते ही कुछ आदमियों का झुंड उन्हे घर लेता है. फिर यह नैतिक पुलिसिंग करते हुए बुलबुल और बोनी की पिटायी करते है. मामला इनके घर व स्कूल तक पहुंचता है. बुलबुल और बोनी से स्कूल के शिक्षक अपना अपराध लिखवाते है और फिर इनकी संगीत की प्रतिभा को नजरंदाज कर स्कूल से निकाल दिया जाता है. बुलबुल को लगता है कि उसका सब कुछ तबाह हो गया. वह सुमन सहित हर किसी से संबंध खत्म कर लेती है. बुलबुल, सुमन को काफी कुछ बुरा भला कहकर उसे दोस्त मानने से इंकार कर देती है. जबकि बुलबुल को थोड़ा एहसास होता है कि सुमन उन मर्दाना पुरुषों के सामने उतनी ही शक्तिहीन रही होगी जितनी वह और पराग. इस घटना के बाद बोनी अपनी विधवा मां की परवाह न करते हुए आत्महत्या कर लेती है. प्यार और दुख के बीच संबंध बहुत ताकत की मांग करता है. इसी वजह से बुलबुल अकेले में गाना शुरू कर देती है.

फिर गांव में एक समारोह के दौरान एक शख्स कहता है- ‘‘प्यार स्प्रिच्युअल होता है.प्यार फिजिकल भी होता है. प्यार खुद की अनुभूमित, प्यार खुद की खुशी व संतुष्टि होता है. मगर आधुनिक सोच ने प्यार को बदनाम कर दिया.’’दूसरे दिन गांव की कुछ औरते आपस में चर्चा करते हुए कहती है- ‘‘प्यार स्प्रिच्युल होता है, प्यार फिजिकल होता है, पर हमारी समझ में तो कुछ नही आया.’’

दोस्त बोनी की मृत्यु के बाद बुलबुल एक टिड्डी के साथ खेलते हुए नजर आती है. उसने खुद को अस्थायी रूप पराग व सुमन सहित हर किसी से दूर कर लिया है, लेकिन जीवन से नहीं….कुछ दिन बाद नदी किनारे बोनी की मां (पाकीजा बेगम) और बुलबुल गुमसुम बैठे होते हैं. तभी आकाश में इंद्रधनुष नजर आता है. बोनी की मां बुलबुल से इंद्रधनुष देखने के लिए कहती है. उसके बाद वह बुलुबल से कहती है- ‘‘यदि आप लोगों को बहुत सुनते हैं, तो आपका जीवन बर्बाद हो जाएगा. वही करें जो आपका दिल चाहता है.‘‘

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लेखन व निर्देशनः

रीमा दास को अपने शिल्प में महारत हासिल है. रीमा दास ने फिल्म में प्रकृति को भी एक किरदार की तरह पेश किया है. फिल्मकार ने एक लड़की को किस तरह परिवार, समाज,पितृसत्तात्मक सोच जैसे दबावों का सामना करना पड़ता है, उसका सटीक चित्रण किया है. फिल्म में बुलबुल की मां अक्सर उससे कहती है ‘‘लड़कियों को विनम्र और शांत होना चाहिए‘‘ और ‘‘अपनी फ्रौक को नीचे खींचो.‘‘

फिल्मकार ने फिल्म में असम के ग्रामीण जीवन और परिवेश, दिनचर्या को बहुत ही बेहतरीन तरके से उकेरा है. तो वहीं तीन दोस्तों के जीवन को बड़े खूबसूरत तरीके से चित्रित किया है. किशोरवय के प्यार को खूबसूरती से चित्रित किया गया है. तो वही फिल्म्कार ने सामाजिक और नैतिकता के ठेकेदारों पर कुठाराघाट करते हुए सवाल उठाया है कि किन्ही चार लोगों को समाज व संस्कृति के ठेकेदार बन किसी की भी जिंदगी को तहस नहस करने का अधिकार किसने दिया? इसी के साथ फिल्मकार ने शिक्षकों की बदलती सोच पर कटाक्ष किया है.एक शिक्षक का काम होता है छात्र की कमियों को दुरुस्त कर उसे एक बेहतर इंसान बनाना न कि उसे ऐसी सजा देना जिससे वह अपना जीवन ही खत्म कर ले.

पूरी फिल्म देखने के बाद यह बात उभकर आती है कि फिल्म में रीमा दास ने बुलबुल को प्रतीकात्मक रूप में फिल्म में उपयोग किया है. बुलबुल और सुमन दोनों मनुष्य द्वारा उत्पीड़ित हैं, लेकिन उनका सार प्रकिृत से प्राप्त उनके नामों में निहित है. बुलबुल एक पक्षी है और सुमन एक फूल है. दोनों को स्वतंत्र होने की आवश्यकता है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो बुलबुल के किरदार में अर्नाली दास और सुमन के किरदार में मनोरंजन दास ने शानदार जीवंत अभिनय किया है.

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‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’: 2 साल बाद वापस लौटेंगी दयाबेन, इस दिन होगी धमाकेदार एंट्री

मशहूर टीवी शो  ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की दयाबेन काफी समय से इस शो में नजर नहीं आ रही है. और उनके लैटने का इंतजार फैंस काफी बेसब्री से कर रहे हैं. तो आपके लिए खुशखबरी भी आ गई है. जल्द ही दयाबेन यानी दिशा वकानी वापस आ सकती हैं. जी हां, आपकी दयाबेन जल्द ही इस शो में धमाकेदार एंट्री करने वाली हैं.

वैसे कई बार खबरें आ चुकी हैं कि  दिशा वकानी ने ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’  शो छोड़ दिया है लेकिन अब खबर ये आ रही है कि दिशा वकानी जल्द ही इस शो में वापस आने वाली हैं. उनके फैंस के लिए ये खबर ट्रीट की तरह साबित होगा.

पिछले कुछ महीनों से ये शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’  अपनी स्टारकास्ट की वजह से सुर्खियों में बना हुआ था. दयाबेन के फैंस उनके लौटने का इंतजार कर रहे थे तो वहीं मेकर्स इस उलझन में नजर आए कि किस तरह से दिशा को शो में वापस लाना है. काफी समय से ये भी खबरें आ रही थीं कि, दिशा वकानी अब इस शो में नजर नहीं आएंगी. इतना ही नहीं कहा तो ये भी जा रहा था कि, मेकर्स ने दिशा के बाद अब नई दयाबेन की खोजबीन शुरू कर दी है.

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खबरों की माने तो दिशा वकानी और सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा के प्रड्यूसर असित मोदी एक साथ काम करने के लिए राजी हो गए हैं. बताया जा रहा है कि, मां बनने के बाद दिशा वकानी को कैमरा फेस करने में कुछ परेशानी हो रही थी. इसी वजह से  वे पिछले 2 साल से सीरियल से दूरी बनाईं हुई थीं.

आपको बता दें, दिशा वकानी की एंट्री इस शो के नवरात्री जश्न पर हो सकती है. दयाबेन गरबा करती नजर आ सकती है. जी हां इस मौके पर दयाबेन की एंट्री हो सकती है.

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जय हो भगवान! अब तो आप दलितों की हत्या का हुक्म देने लगे

ज्यादा नहीं महज चार दिन पहले ही आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपनी जिंदगी में दूसरी बार कोलकाता में माना था कि समाज में छुआछूत और भेदभाव अभी भी हैं. देश के कोने कोने की जमीनी जानकारी रखने वाले भागवत जाने क्यों शिवपुरी के दलित हादसे पर खामोश हैं कि यह क्रूरता बर्बरता और अमानवीयता की हद है. भागवत ही क्यों सारा देश खामोश है. मानो दो दलित मासूमों की सरेआम हत्या नहीं हुई हो बल्कि कुछ दबंग सवर्णों ने कान पर भिनभिनाते मच्छर मार डाले हों.

बात देखा जाये तो गलत कहीं से नहीं है कि दलित वाकई मक्खी, मच्छर और कीड़ा मकोड़ा है जिसे जब मन करे मार डालो कोई कुछ नहीं बोलेगा. सोशल मीडिया पर सुबह दोपहर और शाम  राम हनुमान और घनश्याम भजते रहने वाले शेरों ने जम्हाई भी नहीं ली और फिर यह बताने के लिए अपने पुनीत कर्म में लग गए कि आज प्रधानमंत्री ने अमेरिका में क्या गुल खिलाकर देश का परचम कुछ यूं लहराया कि सारी दुनिया नमो नमो करते उन्हें फादर औफ नेशन कह रही है.

12 साल की रोशनी और 10 साल के अविनाश का गुनाह शायद इतना भर था कि वे उस समुदाय में पैदा हुये थे जो पैदाइशी अछूत पापी और जानवर है, ऐसा कई धर्मग्रंथों में साफ साफ लिखा भी है कि दलित को मारना कतई गुनाह नहीं है बल्कि पुण्य सरीखा काम है. जिन नव और प्राचीन हिंदुओं को शक हो या जानकारी न हो कि यह धर्म ग्रंथ ही कहते हैं कि दलित को मारो, उसे बराबरी से बैठने मत दो और बैठे तो उसके नितंब काट दो, अपने कुए का पानी मत पीने दो और वह यह सब करें तो बेखौफ होकर उसे मारो तुम्हें यानि सवर्णों को इससे कोई पाप नहीं लगेगा उल्टे तुम्हारी सीट स्वर्ग में आरक्षित हो जाएगी वे हिन्दू इस रिपोर्ट को पढ़कर जिज्ञासा अगर हो तो जानकारी इस लेखक से ले सकते हैं.

वाकई रोशनी और अविनाश को हाकिम और रामेश्वर यादव ने नहीं मारा बल्कि इसी ईश्वरीय वाणी और व्यवस्था ने मारा है, बेचारे ये दोनों तो निमित्त मात्र बन गए थे लिहाजा इन्हें तो तुरंत रिहा कर देना चाहिए जिससे ये धरती को दलित विहीन करने की अपनी मुहिम पूरी कर पाएं.  हो सके तो इन्हें पूरी कानूनी सुरक्षा और मुक्कमल हथियार मुहैया कराये जाना चाहिए जिससे ये भगवान का आदेश पूरी तरह पूरा कर पाएं.

हुआ इतना भर था कि मध्यप्रदेश के चंबल और मध्यभारत इलाके के एक पिछड़े जिले शिवपुरी के गांव भावखेड़ी में रोशनी और अविनाश की हत्या सरेआम लाठियों से पीट पीट कर कर दी गई. मारने वाले थे रामेश्वर और हाकिम यादव जिन्हें आईपीसी की धाराओं के तहत पुलिस ने पकड़ा तो हाकिम बड़ी दिलेरी से बोला – मुझे तो भगवान का आदेश हुआ है कि इस धरती पर राक्षसों का सर्वनाश कर दो. इसलिए मैं सर्वनाश करने निकला हूं.

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सच में यह कोई हाहाकारी या पहाड़ टूटने वाली बात नहीं थी कि दो दलित बच्चों को लाठियों से पीट पीट कर मार डाला गया क्योंकि ऐसा तो इस सभ्य समाज में आए दिन होता रहता है. मीडिया के लिए यह खबर गरमागरम लगी सो उसने यथासंभव कंजूसी बरतते मजबूरी में इसे परोस दिया. पाताल तक की खबर खोद लाने वाले मीडिया को एक दिन बाद पता चला कि ये दोनों आपस मेन भाई बहन नहीं बल्कि बुआ भतीजे थे. बहरहाल किसी ने इसे मौब लिंचिंग का एक और मामला कहा तो कुछ ने शर्मनाक बताते अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली. मरने वाले बच्चे चूंकि वाल्मीकि यानी भंगी, मेहतर समाज के थे इसलिए उतना हल्ला नहीं मचा जितना कि लोकतन्त्र और संविधान के लिहाज से मचना चाहिए था.

अविनाश का पिता मनोज वाल्मीकि सकते में है. उसे या किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि इन दोनों को क्यों मारा गया खुद एसपी शिवपुरी राजेश सिंह चंदेल ने माना कि दोनों आरोपियों (भगवानवादी अगर इन्हें आरोपी कहने की इजाजत दें तो) से पूछताछ में कोई ठोस कारण सामने नहीं आया है.

जबकि ठोस से भी ठोस वजह हाकिम सीना ठोक कर बता चुका था कि भगवान का आदेश हुआ है.

भगवान को दोषी ठहराए जाने से बचाने कुछ कहानियां भी गढ़ ली गईं. मसलन बच्चे खुले में शौच कर रहे थे इसलिए उनका ऊपर का टिकिट कटा दिया क्योंकि वहां शौचालय की किल्लत नहीं है. अब वे ऊपर (जाहिर है नर्क में क्योंकि स्वर्ग तो दलितों को मिलता नहीं वह तो ऊंची जाति वाले पुण्यात्माओं से ठसाठस भरा पड़ा है) जाकर खुलेआम शौच कर सकते हैं. एक बात जमीनी विवाद और झोपड़ी के झगड़े की भी सामने आई. लेकिन भगवान के आदेश के आगे सब बोनी हैं और होना भी चाहिए कि दलित राक्षस होता है. इसलिए उसे मारा जाना कोई जुर्म नहीं.

मामला दलित बच्चों की हत्या का हो और राजनेता उनकी लाशों पर रोटिया न सेकें, ऐसा होना शोभा नहीं देता. इसलिए बसपा प्रमुख मायावती ने बहन होने का फर्ज निभाते हादसे को दुखद और निंदनीय बता डाला. इधर राज्य के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी अपना राजधर्म यह कहते निभा डाला कि घटना हृदय विदारक है. आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई होगी और परिवार की हर संभव मदद की जाएगी.

यकीन माने दिल से दलित हितैषी होतीं और अगर देश में भाजपा का राज न होता तो मायावती तुरंत हेलीकाप्टर या हवाईजहाज से शिवपुरी पहुंचती और कमलनाथ भी भागते लेकिन राजनीति का भी ट्रेंड बदल गया है मरने बाले की हैसियत, जाति और औकात देखकर ही नेता घटनास्थल पर पहुंचते हैं.

किसी मंत्री विधायक तो दूर की बात है किसी रसूखदार पार्षद की बूढ़ी सास भी मरी होती तो तमाम छोटे बड़े नेता गमछा कंधे पर डालकर पहुंच जाते. जानवरों सी जिंदगी जीने वाले दलितों के यहां हमदर्दी जताने जाना वक्त और पैसे की बर्बादी ही है. जिससे सवर्ण समुदाय नाराज भी हो सकता है .

कुछ सरकारी विभागों ने तो परिजनो को पैसे देने की घोषणा कर दी है. लेकिन मुमकिन है दो चार लाख देकर कमलनाथ भी मनोज के परिवार की भरपाई हुई मान वर्ण व्यवस्था पर पैसों की चादर डाल लें. मगर 11 लाख तो बिल्कुल नहीं देंगे. जैसे भोपाल के गणेश विसर्जन के दौरान मरे युवकों के परिजनों को तुरंत देकर अपने अफसरों का निठल्लापन ढक लिया था. वैसे भी वह धार्मिक मामला था और उसमें मारे गए आधे बच्चे सवर्ण थे. जेब कटी सरीखे मामलों पर कानून व्यस्था को कोसते रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को भी हादसा कानून व्यवस्था से जुड़ा नहीं लगा तो वे अपनी जगह ठीक हैं क्योंकि मामला धार्मिक निर्देशों का ही था.

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मुद्दे की बात भगवान का आदेश है, जिस पर सब चुप हैं क्योंकि भगवान के मामले में 6 साल से कोई टांग नहीं फसा रहा शिवपुरी हादसे पर भी कोई केंद्रीय मंत्री कुछ नहीं बोला. कोई कुछ न बोले यह हर्ज या हैरानी की बात बिल्कुल नहीं लेकिन यह मुनासिब वक्त है और उसकी मांग भी है कि नरेंद्र मोदी से प्रार्थना की जाये कि वे इसी वाल्मीकि समुदाय के सफाई कर्मियों के चरण धोने का ड्रामा कर राजनीति न करें बल्कि अपनी 56 इंच की छाती का इस्तेमाल इन्हें दबंगों से बचाने के लिए करें. मोहन भागवत जी से तो याचना ही की जा सकती है कि अगर भेदभाव और छुआछूत हैं तो उन्हें दूर करने अभियान चलाएं. राम मंदिर निर्माण से इन मरते और कहर झेलते शूद्रों को कुछ हासिल नहीं होने वाला वजह राम ने ही एक शूद्र के कानों में पिघला शीशा डलवा दिया था क्योंकि उसने धार्मिक बातें सुन ली थीं.

और ऐसा नहीं कर सकते तो संविधान की जगह मनु स्मृति घोषित तौर पर लागू कर दें इससे सारा फसाद ही खत्म हो जाएगा .

ये है भुतहा शहर

यह फोटो इटली के मटेरा प्रांत में स्थित शहर क्रास्को का है, जिसे 540 ईस्वी में  यूनानियों ने बसाया था. दुश्मनों पर निगाह रखने के लिए क्रास्को को 400 मीटर ऊंची पहाड़ी पर बसाया गया था. भूकंप जोन में होने के कारण यहां रहने वाले लोग धीरेधीरे इस जगह को छोड़ कर अन्य जगहों पर चले गए.

1980 में यहां इतना भीषण भूकंप आया कि शहर लोगों से खाली हो गया. कुछ मर गए तो कुछ दूसरी जगहों पर चले गए. इसीलिए इस शहर को घोस्ट सिटी (भुतहा शहर) कहा जाने लगा. यह शहर भले ही लोगों से खाली हो गया, लेकिन फिल्मकारों के लिए यह जगह शूटिंग के लिए पसंदीदा बन गई. यहां पर हौलीवुड की एक दरजन से ज्यादा फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है.

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इटली के मटेरा प्रांत में स्थित क्रास्को को भले ही घोस्ट सिटी कहा जाता हो, हकीकत में यहां भूत जैसी कोई चीज नहीं है. अलबता यहां रोमांचक और डरावनी फिल्मों की शूटिंग जरूर होती है.

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मासिक धर्म बेडि़यों के साए में क्यों ?

मैंने बचपन में देखा है कि दादी मेरी मम्मी को मासिकधर्म के दौरान घर के कार्य से बेदखल रखती थी. मम्मी को रसोईघर में घुसने की अनुमति नहीं होती थी, साथ ही वह किसी भी वस्तु को छू भी नहीं सकती थीं. यही नहीं उन्हें उन दिनों कांच के बरतनों में भोजन दिया जाता था और उसे भी वे अलग कमरे में बैठ कर खाती थीं. बरतन भी अलग धोती थीं. बात सिर्फ धोने पर ही नहीं खत्म होती थी. वे बरतन उन्हें आग जला कर तपाने होते थे. हम छोटेछोटे बच्चे जब भी ये सब देखते और सवाल करते थे तो जवाब मिलता था कि छिपकली छू गई थी.

वैदिक धर्म के अनुसार मासिकधर्म के दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित माने गए हैं और यह दकियानूसी नियम सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, लगभग सभी धर्मों में है. लेकिन इस सोच के पीछे छिपे तथ्य को समझ पाना बहुत मुश्किल लगता है. सब लोगों से अलग रहो, अचार को हाथ मत लगाओ, बाल न संवारों, काजल मत लगाओ आदिआदि. न जाने कितने दकियानूसी नियम आज भी गांवों और कसबों में औरतों को झेलने पड़ रहे हैं. क्या कोई लौजिक है? किस ने बनाए हैं ये रूल्स और आखिर क्यों? जवाब कोई नहीं, क्योंकि होता आ रहा है, इसलिए सही है. आज भी बहुत सी महिलाओं के दिमाग पर ताले पड़े हैं.

लौजिक

आज 21वी सदी में जब इंसान चांद पर जीवन की या मंगल पर पानी की खोज कर रहा है तब यह सोच कितनी अवैज्ञानिक है. कैसी मूर्खतापूर्ण सोच है जिस के कारण रजस्वला नारी को अपवित्र मान लिया जाता है और पलभर में ही स्वयं के घर में वह अछूत बन जाती है. उस से अछूत की तरह बरताव किया जाता है. जबकि इस का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. बस परंपरा के नाम पर आज भी आंखों पर काला चश्मा चढ़ा हुआ है.

एक सहज और सामान्य शारीरिक क्रिया जो किशोरावस्था से शुरू हो कर सामान्य तौर पर अधेड़ावस्था तक चलती रहती है न जाने आज भी कितनी पाबंदियां झेलती है. यह एक सामाजिक पाबंदी बन गई है. उन के साथ अछूतों जैसा व्यवहार और हर महीने 4-5 दिनों का यह समय किसी सजा से कम नहीं होता है. माहवारी के दौरान महिलाएं न तो खाना बना सकती हैं और न ही दूसरे का खाना या पानी छू सकती हैं. उन्हें मंदिर और पूजापाठ से भी दूर रखा जाता है. कई मामलों में तो उन्हें जमीन पर सोने के लिए मजबूर किया जाता है.

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उदाहरण

एक स्वामी किस तरह अज्ञानता फैला रहा है-

‘‘इस का कारण यह कि रजस्वला के स्पर्श के कारण विविध वस्तुओं पर प्रभाव पड़ता है. इस के अलावा रजोदर्शन काल में अग्नि साहचर्य के कारण (रसोई बनाते समय) उसे शारीरिक हानि होती है.’’

इन अज्ञानताभरी बातों का असर आज भी बहुत से घरों में इन रूढि़वादी परंपराओं को तोड़ने नहीं देता. इन घरों में आम धारणा यह है कि इस दौरान महिलाएं अशुद्ध होती हैं और उन के छूते ही कोई चीज अशुद्ध या खराब हो सकती है.

एक स्कूल अध्यापिका मीरा का कहना है कि उस ने सारा जीवन इन पाबंदियों को माना, क्योंकि घर के बड़ों ने उसे ऐसा करने को कहा था. उसे हर बार इस का विरोध करने पर कहा गया कि ऐसा नहीं करने पर नतीजा बुरा होगा. जैसे दरिद्रता आएगी, बीमारियां फैलेंगी, घर के बड़े या बच्चे बीमार पड़ जाएंगे या पति की मौत हो जाएगी. ऐसी और न जाने कितनी बातें.

मीरा दुखी होते हुए कहती हैं, ‘‘ये 4-5 दिन घर की महिलाओं के लिए किसी सजा से कम नहीं होते थे. पर घर की बड़ी महिलाएं आंख बंद कर के ये सब मानती थीं. उन्हें इस बात में कुछ भी बुरा नजर नहीं आता था. किसी भी पुजारी या महंत के द्वारा बताई गईर् सभी बातें घर के सब सदस्यों को जायज लगती थीं. रजस्वला को कुछ भी छूने की मनाही होती थी. मैं सोचती थी कि पुरुषों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों नहीं होता. ये सब हम लड़कियों को ही क्यों भुगतना पड़ता है. आज मैं ने अपनेआप को इन बातों से आजाद ही नहीं करा, बल्कि मेरी कोशिश है कि हर घर में परंपराओं की ये बेडि़यां टूटें.’’

आशाजी कहती हैं कि उन के गांव में आज भी रजस्वला महिला के साथ ऐसा होता है. जैसे यह गुनाह वह जानबूझ कर रही है. इस से भी बड़ी हैरानी तो तब होती है, जब हमारे पोथीपुराणों का हवाला देते हुए पंडेपुजारी भी मासिकधर्म को अशुद्ध घोषित करते हैं. रजस्वला महिला को उन की अपनी ही चीजें छूने की मनाही होती है. यही नहीं उन के लिए अलग बिस्तर या चटाई बिछती है.

मासिकधर्म के विषय में यह मान्यता है कि इस दौरान स्त्री अचार को छू ले तो अचार सड़ जाता है. पौधों में पानी दे तो पौधे सूख जाते हैं. यही नहीं अगर घर के लोग इस स्थिति में किसी महिला को घर की किसी चीज को छूते हुए देख लें, तो बहुत अनर्थ होता है.

आज के हालात

मैं अपनी ननद के घर गई, जोकि उत्तराखंड में रहती है. वहां पहुंचने पर मैं ने देखा कि ननद एक प्लास्टिक की कुरसी पर बैठी है, जबकि बाकी सब सोफे पर बैठे थे. खानेपीने के समय भी उन्हें साथ नहीं बैठाया गया. जिस कुरसी पर बैठी थीं उसे भी बाद में सर्फ से धोया गया. लेकिन परिवार के हर सदस्य चाहे बच्चा हो या बुजुर्ग या नौकर या घर के पुरुष सब के लिए यह स्थिति बहुत सामान्य सी बात थी.

मैं ने जब ननद या ननदोई को समझाने की कोशिश की तो जवाब मिला, ‘‘इस में बुराई भी क्या है? हम सब वही कर रहे हैं जो हमारे स्वामीजी कहते हैं, पुरखे मानते आए हैं. तुम दिल्ली वाले ज्यादा पढ़लिख कर परंपराएं निभाना भूल जाते हैं.’’

मुझे यह देख दुख हुआ कि आज भी भारत के अधिकांश क्षेत्रों में यह छुआछूत का भयंकर रिवाज हमारे समाज में चालू है. इस लज्जा और अपमानजनक स्थिति के लिए क्या महिलाएं खुद दोषी नहीं हैं?

अब वक्त बदला है. अब शहर के पढ़ेलिखे लोग, रजस्वला नारी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते हैं. इस तरह की किसी परंपरा को नहीं मानते. लेकिन पूजा करना या मंदिर जाना आज भी वर्जित है. इस विषय पर आज भी महिलाएं खुल कर बात नहीं कर पातीं. बड़े शहरों की कुछ शिक्षित महिलाओं को छोड़ छोटे शहरों व कसबों में यह आज भी वर्जित विषय है.

अब जरा सोचिए, यदि एकल परिवारों के चलते, परिस्थिति से समझौता करते हुए, रजस्वला महिला को रसोईघर में जाने की इजाजत मिली है, तब क्या उस महिला का या उस के परिवार वालों का कुछ अनिष्ट हुआ?

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दरअसल, मासिकचक्र या रजस्वला होना एक नैसर्गिक क्रिया है, जो पूरी तरह से शरीर के गर्भावस्था के लिए तैयार होने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है. यह कहना कि इस से दूषित रक्त बाहर निकलता है सर्वथा गलत है. चिकित्सीय दृष्टिकोण से नारी का ठीक समय पर रजस्वला होना बेहद जरूरी है. इस नैसर्गिक क्रिया से हर महिला को गुजरना पड़ता है. सभी लोगों को खासकर महिलाओं को भी समझना होगा कि इस का पवित्रता से कोई लेनादेना नहीं है. यहां तो खुद औरत ही औरत के ऊपर इस तरह की बेबुनियाद परंपराएं थोपते हुए नजर आती है.

एक चर्चित केस

नेहा को अचानक स्कूल में पीरियड शुरू हो गया और उसे पता नहीं चला. राह चलते समय मर्द उसे घूर रहे थे और महिलाएं उसे अपनी टीशर्ट नीचे कर खून के धब्बे छिपाने की सलाह दे रही थीं. लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी. तभी एक महिला ने उसे सैनिटरी नैपकिन दिया. तब जा कर उसे लोगों के घूरने का माजरा समझ आया.

फिर क्या था? घर आ कर नेहा ने अपनी वही स्कर्ट बिना किसी शर्म और झिझक के सोशल साइट पर शेयर करते हुए लिखा कि क्या औरत होना गुनाह है? यह पोस्ट उन सभी महिलाओं के लिए है जिन्होंने औरत होते हुए भी मेरे वूमनहुड को छिपाने के लिए मुझे मदद का औफर दिया. मैं शर्मिदा नहीं हूं. मुझे हर 28 से 35 दिनों में पीरियड होता है जोकि एक नैसर्गिक क्रिया है. मुझे दर्र्द भी होता है. तब मैं मूडी हो जाती हूं. लेकिन मैं किचन में जाती हूं और कुछ चौकलेट, बिस्कुट खाती हूं.

अब आप ही बताएं यदि पीरिएड्स स्त्री का गुनाह है, तो इन के हुए बिना वह मां कैसे बनेगी? संसार में रजस्वला होना प्रकृति का नारी को दिया हुआ एक वरदान है. इस वरदान से ही पूरी सृष्टि की रचना हुई है. क्या इस बात को झुठलाया जा सकता है?

परंपरा के पीछे का सच

इस प्रक्रिया के दौरान 3 से 5 दिनों में करीब 35 मिलीलीटर खून बहता है, तो महिला का शरीर थोड़ा कमजोर हो जाता है. बहुत सी महिलाओं को तो असहनीय दर्द भी होता है. ऐसे में महिला को आराम की जरूरत होती है. शायद इसी वजह से हमारे पूर्वजों ने यह परंपरा शुरू की कि इसी बहाने से रजस्वला को थोड़ा आराम मिल जाएगा. लेकिन अच्छी पहल का भी परिणाम उलटा ही हुआ. रजस्वला नारी को अपवित्र माना जाने लगा और उसे रसोई से छुट्टी देने की जगह उस का पारिवारिक बहिष्कार किया जाने लगा. हैरानी की बात तो यह है कि इन नसीहतों में कहीं भी सेहत से जुड़ी बातें शामिल नहीं होतीं.

आज भी कई गांवों में मासिकधर्म के दौरान महिलाओं का किचन में जाना और बिस्तर पर सोना वर्जित है. आज भी महिलाओं की बड़ी संख्या सैनिटरी नैपकिन के बजाय गंदे, पुराने कपड़ों का इस्तेमाल करती हैं, जिस कारण महिलाओं में बीमारी का खतरा बढ़ जाता है.

आज भी हमारे देश में जहां हम पौर्न और सैक्स कौमेडी के बारे में तो खुलेआम बाते करते हैं, मगर जब बात महिला की सेहत की आती है, तो उसे टैबू बना कर रखना चाहते हैं.

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वैसे इस टैबू को तोड़ने की जिम्मेदारी खुद महिलाओं के कंधे पर है. जब तक महिलाएं शर्म और झिझक छोड़ कर अपनी बेटियों को इस बारे में नहीं बताएंगी, कोई कैंपेन, कोई संस्था कुछ नहीं कर सकती. बड़े पैमाने पर बदलाव के लिए पहल महिलाओं को ही करनी होगी.

बच्चे के बदलते व्यवहार और बिगड़ते स्वभाव को ऐसे पहचानें

प्ले स्कूल की प्रिंसिपल स्वाति गुप्ता का कहना है, ‘‘आजकल एकल परिवारों और महिलाओं के कामकाजी होने से स्थितियां बदल गई हैं. दोढाई साल के बच्चे सुबहसुबह सजधज कर बैग और बोतल के बोझ के साथ स्कूल आ जाते हैं. कई बच्चे ट्यूशन भी पढ़ते हैं. कई बार महिलाओं को बात करते सुनती हूं कि क्या करें घर पर बहुत परेशान करता है. स्कूल भेज कर 4-5 घंटों के लिए चैन मिल जाता है.’’

गुरुग्राम के रेयान स्कूल का प्रद्युम्न हत्याकांड हो या इसी तरह की अन्य घटनाएं, जनमानस को क्षणभर के लिए आंदोलित करती हैं. लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साइकोलौजी विभाग की हैड दीपा पुनेठा का कहना है, ‘‘पेरैंट्स अपने बच्चे के भविष्य के लिए जरूरत से ज्यादा सचेत रहने लगे हैं. बच्चे के पैदा होते ही वे यह तय कर लेते हैं कि उन का बच्चा डाक्टर बनेगा या फिर इंजीनियर. वे अपने बच्चे के खिलाफ एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करते हैं.’’

चेन्नई में एक छात्रा ने शिक्षक की पिटाई से नाराज हो कर आत्महत्या कर ली. दिल्ली में एक शिक्षक द्वारा छात्र पर डस्टर फेंकने के कारण छात्र ने अपनी आंखें खो दीं.

इस तरह की घटनाएं आएदिन अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं.

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जितनी सुविधाएं उतनी फीस

आजकल शिक्षण संस्थाएं पैसा कमाने का स्रोत बन गई हैं. एक तरह से बिजनैस सैंटर हैं. जितनी ज्यादा सुविधाएं उतनी ज्यादा फीस. सभी पेरैंट्स चाहते हैं कि वे अपने बच्चों को बेहतरीन परवरिश दें. इस के लिए वे हर मुमकिन प्रयास भी करते हैं. फिर भी ज्यादातर पेरैंट्स न बच्चों की परफौर्मैंस से संतुष्ट होते हैं और न ही उन के बिहेवियर से. इस के लिए काफी हद तक वे स्वयं जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि वे स्वयं ही नहीं समझ पाते कि उन्हें बच्चे के साथ किस समय कैसा व्यवहार करना है.

बच्चा पढ़ने से जी चुराता है तो मां कभी थप्पड़ लगा देती है, कभी डांटती है तो कभी डरातीधमकाती है. लेकिन कभी यह पता लगाने की कोशिश नहीं करती कि बच्चा आखिर क्यों नहीं पढ़ना चाह रहा है. हो सकता है उसे टीचर पसंद नहीं आ रहा हो, उस का आई क्यू लैवल कम हो अथवा उस समय पढ़ना नहीं चाह रहा हो.

मुंबई के एक इंटरनैशनल स्कूल की अध्यापिका ने अपना दर्द साझा करते हुए बताया कि अब शिक्षिका पर मैनेजमैंट का प्रैशर, बच्चों का प्रैशर और अभिभावकों का प्रैशर बहुत ज्यादा रहता है. यदि किसी बच्चे से उस का होमवर्क पूरा न करने पर 2-3 बार कह दिया या सही ढंग से बोलने को कह दिया तो बच्चे घर पर छोटी सी बात को बढ़ाचढ़ा कहते हैं. इसीलिए अब हम लोग ज्यादातर पढ़ा कर अपना काम पूरा करते हैं.

पेरैंट्स का दबाव

अब स्कूल हों या पेरैंट्स सब को बच्चों की पर्सैंटेज से मतलब रह गया है. स्कूल को अपने रिजल्ट की चिंता है तो पेरैंट्स को अपने बच्चे को सब से आगे रखने की फिक्र है. बच्चों पर आवश्यकता से अधिक दबाव बनाया जा रहा है. पेरैंट्स और स्कूल दोनों ही बच्चों से उन की क्षमता से कहीं अधिक प्रदर्शन की चाह रखते हैं. बच्चों पर इतना अधिक दबाव और बोझ बढ़ जाता है कि या तो वे चुपचाप उस के नीचे दब कर सब की अपेक्षाएं पूरी करने की कोशिश करते हैं या फिर विद्रोही बन कर अपने मन की करने लगते हैं.

इलाहाबाद के एक मशहूर स्कूल की रुचि गुप्ता ने बताया कि पेरैंट्स के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण आजकल बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल हो गया है. बच्चे पढ़ना नहीं चाहते और यदि उन पर जरा भी सख्ती करो तो बात का बतंगड़ बना देते हैं. सारा दोष टीचर पर आ जाता है. जब मैनेजमैंट नाराज हो, तो इस समय टीचर तो बलि का बकरा बन जाता है.

आजकल स्कूलों में वैल्यू ऐजुकेशन एक दिखावा है. सब को केवल बच्चों के नंबरों से मतलब है, क्योंकि आज का नारा है, कामयाब इंसान ही तारा है.

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पैसे का रोब

आजकल बच्चे पेरैंट्स की शह पर ही जिद्दी बन कर स्कूल में टीचर को कुछ नहीं समझते हैं. क्लास में टीचर का मजाक बनाना और ऊटपटांग प्रश्न पूछना आम बात हो गई है.

आजकल पेरैंट्स बच्चों के सामने ही स्कूल और टीचर की कमियां निकालते रहते हैं. कई बार पेरैंट्स बच्चों के सामने ही कहने लगते हैं कि इस टीचर की शिकायत मैनेजमैंट से कर देंगे. तुरंत स्कूल से निकलवा देंगे. भला इन बातों को सुनने के बाद टीचर के प्रति बच्चों के मन में आदरसम्मान कहां से आ सकता है?

सुविधासंपन्न परिवारों के बच्चे ज्यादातर किसी की कदर नहीं करते. न स्कूल में अपने टीचर्स की न ही घर में अपने पेरैंट्स की. वे मेहनत करने का माद्दा नहीं रखते. मांबाप की शाहखर्ची देख कर स्कूल में भी अपने पैसे का रोब दिखाते हैं.

टीचर का फर्ज

अभिभावक मंजू जायसवाल अपना दर्द साझा करती हुई कहती हैं कि कोई भी टीचर अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होती. यदि बात बढ़ कर ऊपर तक पहुंच जाती है तो बच्चे को बारबार अपमानित करती हैं, इसलिए बच्चे घर में कुछ बताना ही नहीं चाहते. इस तरह की शिकायत कई अभिभावकों ने की कि पेरैंट्स मीटिंग में टीचर केवल अपनी बात कहना चाहती हैं और वह भी बच्चों की शिकायतें.

अपनी व्यस्त जिंदगी के कारण मातापिता बच्चों को समय नहीं दे पाते. वे पैसे के बल पर नौकर या क्रेच में पलते हैं, इसलिए संस्कार की जगह आक्रोश से भरे रहते हैं.

अभिभावक यह कहने में शान समझते हैं कि उन की तो सुनता ही नहीं है. मोबाइल और टीवी में लगा रहता है जबकि वे स्कूल की टीचर से यह अपेक्षा करते हैं कि वे उन की यह आदत छुड़ा दें. जब बच्चा अधिक समय आप के पास रहता है, तो आप की जिम्मेदारी बनती है कि बच्चे को संस्कार दें, उस के साथ समय गुजारें, उस की जरूरतों को समझें.

प्राय: जो छात्र कमजोर होते हैं, उन की इस कदर उपेक्षा की जाती है कि वे कुंठित हो जाते हैं और पढ़ाई से जी चुराने लगते हैं. ऐसे में अच्छे टीचर का फर्ज है कि वह सभी बच्चों पर ध्यान दे, उन की प्रतिभा को निखारे, उन की जरूरतों को पहचान कर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दे.

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सातवें आसमान की जमीन : भाग 1

ड्राइंगरूम में हो रहे शोर से परेशान हो कर किचन में काम कर रही बड़ी दी वहीं से चिल्लाईं, ‘‘अरे तुम लोगों को यह क्या हो गया है. थोड़ी देर शांति से नहीं रह सकते? और यह नंदा, यह तो पागल हो गई है.’’

‘‘अरे दीदी मौका ही ऐसा है. इस मौके पर हम भला कैसे शांत रह सकते हैं. सुप्रिया दीदी टीवी पर आने वाली हैं, वह भी अपने मनपसंद हीरो के साथ, मात्र उन्हीं की पसंद के क्यों. अरे सभी के मनपसंद हीरो के साथ. अब भी आप शांत रहने के लिए कहेंगी.’’ नंदा ने कहा.

सब के सब नंदा को ताकने लगे. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुप्रिया को ऐसा क्या मिल गया और कौन सा हीरो इस के लिए निमंत्रण कार्ड ले कर आया है, यह सब पता लगाना घर वालों के लिए आसान नहीं था. और नंदा तो इस तरह उत्साह में थी कि घर वालों को कुछ बताने के बजाए इस जीबोगरीब खबर को फोन से दोस्तों को बताने में लगी थी.

नंदा की इस शरारत पर बड़ी दी ने खीझ कर उसे पकड़ते हुए कहा, ‘‘तेरा यह कौन सा नया नाटक है, कुछ बता तो सही.’’

‘‘बड़ी दी, सुप्रिया दीदी एक कांटेस्ट जीत गई हैं. ईनाम में उसे अपने फेवरिट हीरो के साथ टीवी पर आना है. अब तो समझ में आ गया कि नहीं?’’ नंदा ने स्पष्ट किया.

‘‘तुम्हारा मतलब सुप्रिया टीवी पर अपने ड्रीम बौय के साथ, फैंटास्टिक.’’ संदीप ने किताब बंद करते हुए नंदा की बात का समर्थन किया. नंदा ने आगे कहा, ‘‘भैया इतना ही नहीं, वह हीरो, सुप्रिया दीदी के लिए परफोर्म करेगा, गाना गाएगा. डांस करेगा. अब और क्या चाहिए? पर है कहां अपनी गोल्डन गर्ल?’’

‘‘नहा रही है लकी गर्ल, लेकिन उस ने तो मुझ से कुछ बताया ही नहीं, पर बाकी लोग तो हैं. सुप्रिया दीदी को लग रहा होगा, पता नहीं किसे बुरा लग जाए. इसीलिए किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है. और जीतना तो एक सपना था. उसे कहां पता था कि सच हो जाएगा.’’

तभी परदे के पीछे से सुप्रिया आती दिखाई दी. अपार आनंद में डूबी सुप्रिया के चेहरे पर अजीब तरह की चमक थी. नंदा ने दौड़ कर सुप्रिया को बांहों में भर लिया, ‘‘सुप्रिया दी…लकी…लकी गर्ल.’’

दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर नाचने लगीं. थक गईं तो निढाल हो कर सोफे पर गिर पड़ीं. इस बीच किसी को भी एक भी शब्द बोलने का मौका नहीं मिला. दोनों के सोफे पर बैठते ही बड़ी दी बोलीं, ‘‘यह क्या पागलपन है, सुप्रिया, घर में किसी को कुछ बताए बगैर तुम कांटेस्ट के फाइनल तक पहुंच गईं. चलो जो किया, ठीक किया. अमित को इस बारे में बताया है?’’

सुप्रिया आंखों से मधुर मुसकान मुसकराईं, उस के बजाए नंदा बोली, ‘‘बड़ी दी, इस तरह के काम कोई पूछ कर करता है? मान लीजिए आप से पूछने आती तो आप कांटेस्ट में हिस्सा लेने देतीं? दीदी अब छोड़ो इसे टीवी पर देखने के लिए तैयार हो जाइए. कमर कस कर तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

‘‘तैयारी किस बात की. कोई ब्याह थोड़े ही करने जा रही हैं,’’ वह थोड़ा नाराज हो कर बोलीं, ‘‘आजकल के बच्चे भी न पागल… नादान…’’

‘‘दीदी, ब्याह क्या, यह तो उस से भी जबरदस्त है. लाखों दिलों की धड़कन, चार्मिंग, अमेजिंग लवर बौय अपनी सुप्रिया के साथ…’’

नंदा की बात पूरी होती, उस के पहले ही शैल, सुकुमार और नेहा का झुंड आ पहुंचा. इस के बाद तो जो हंगामा मचा. कान तक पहुंचने वाला शब्द भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था. बड़ी दी, भैयाभाभी और घर के अन्य लोग परेशान थे. हवा रंगबिरंगी और सुगंधित हो गई थी. कौन सी डे्रस, कैसी हेयरस्टाइल, स्किनकेयर, फुटवेयर, परफ्यूम, डायमंड या पर्ल, गोल्ड या सिलवर… बातों की पतंगें उड़ती रहीं और सुप्रिया उन पर सवार विचारों में डूबी थी कि जीवन इतना भी सुंदर और अद्भुत हो सकता है.

वह असाधारण और अविस्मरणीय घटना घटी और विलीन हो गई. वह दृश्य देखते समय सुप्रिया के मित्रों में जो उत्तेजना थी, उस का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. फिर भी इस पागल उत्साह में बड़ी दीदी ने थोड़ा अवरोध जरूर पैदा किया था. इस के बावजूद उन्होंने सभी को आइस्क्रीम खिलाई थी. सुप्रिया की ठसक देख कर सभी ने अनुभव किया कि अमित कितना भाग्यशाली है. उस की अनुपस्थिति थोड़ा खल जरूर रही थी. पता नहीं, चेन्नै में उस ने यह प्रोग्राम देखा या नहीं. सुप्रिया ने उसे कांटेस्ट की बात बताई भी थी या नहीं?

सुप्रिया के राजकुमार ने अपनी अत्यंत लोकप्रिय फिल्म का प्रसिद्ध गाना पेश किया था. उस ने उस का हाथ पकड़ कर डांस भी किया. एक प्रेमी की तरह चाहत भरी नजरों से उसे निहारा भी और घुटनों के बल बैठ कर उसे गुलाब भी दिया.

‘‘इस समय आप को कैसा लग रहा है?’’ कार्यक्रम खत्म होने पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले ने पूछा था. खुशी में पागल हो कर उछल रही सुप्रिया कुछ पल तो बोल ही नहीं सकी. उस आनंद में उस की आंखों की पलकें तक नहीं झपक रही थीं. खुशी में आंसू आ जाते हैं. इस के बारे में उस ने पढ़ा और सुना था. पर सचमुच वह क्या होता है. उस दिन उसे पता चला. सातवां आसमान मतलब यही था, आउट आफ दिस वर्ल्ड. दिल से अनुभव किया था उस ने. उसे ऐसा भाग्य मिला. इस के लिए उस ने उस अदृश्य शक्ति को हाथ जोड़े और इसी के साथ तालियों की गड़गड़ाहट…

मेघधनुष लुप्त हो गया. सुप्रिया ने यह सप्तरंगी सपना समेट कर यादों के पिटारे में रख लिया कि जब मन हो पिटारा खोल कर देख लेगी. आखिर सुप्रिया पूरी तरह जमीन पर आ गई. इस की मुख्य वजह चेन्नै से अमित वापस आ गया था. आते ही उस ने फोन कर के यात्रा और अपने काम की सफलता की कहानी सुना कर पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या हाल है, कुछ नया सुनाओ?’’

‘‘कुछ खास नहीं, बस चल रहा है.’’

‘‘नथिंग एक्साइटिंग?’’

‘‘कुछ नहीं, यहां क्या एक्साइटिंग हो सकता है. बस सब पहले की तरह…’’ सुप्रिया ने कहा. कांटेस्ट जीतने की परीकथा उस के होंठों तक आ कर लौट गई. शायद मन में कुछ खटक रहा था.

‘थाटलेस और मीनिंगलेस… चीप इंटरटेनमेंट…’ अमित टीवी के ज्यादातर प्रोग्रामों के लिए यही कहता था. जबकि उस की इस मान्यता का सुप्रिया से कोई लेनादेना नहीं था.

‘‘क्यों कोई लेनादेना नहीं है. उस के साथ शादी करने जा रही है. पूछ तो सही उस से कि उस ने तेरे कार्यक्रम की डीवीडी देखी थी या नहीं? वह देखना चाहता है या नहीं? दुनिया ने उस प्रोग्राम को देखा है. ऐसा भी नहीं कि उसे पता न हो. तब इस में उस से छिपाना क्या?’’ नंदा ने पूछा.

देखा जाए, तो एक तरह से उस का कहना ठीक भी था. सुप्रिया बारबार खुद से पूछती थी कि आखिर उस ने अमित से इस विषय पर बात क्यों नहीं की? किसी न किसी ने तो उसे बताया ही होगा. यह कोई छोटीमोटी बात नहीं थी. चारों ओर चर्चा थी. फिर यह कौन सी चोरी की बात है, जो उस से छिपाई जाए. पर अमित ने भी तो उस से इस बारे में कुछ नहीं पूछा.

सुप्रिया ने सब को पार्टी दी. सभी इकट्ठे हुए. बड़ी दी ने सब का स्वागत किया. क्योंकि मम्मीपापा के बाद इस समय घर में वही सब से बड़ी थीं. धमालमस्ती में उन्होंने कोई रुकावट नहीं डाली थी. अमित को भी आना था, इसलिए सुप्रिया पूरी एकाग्रता से तैयार हुई थी.

‘‘गौर्जियस?’’

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