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कैसे करें लौकी की खेती और उचित देखभाल ?

ताजगी से भरपूर लौकी कद्दूवर्गीय सब्जी है. इस में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिज लवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं. लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से ले कर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती है. निर्यात के लिहाज से सब्जियों में लौकी खास है.

आबोहवा

लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गरम व आर्द्रता वाले रकबे मुनासिब होते हैं. इस की फसल जायद व खरीफ दोनों मौसमों में आसानी से उगाई जाती है. इस के बीज जमने के लिए 30-35 डिगरी सैंटीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है.

मिट्टी और खेत की तैयारी

बलुई, दोमट व जीवांश से?भरपूर चिकनी मिट्टी, जिस में पानी के सोखने की कूवत अधिक हो और जिस का पीएच मान 6.0-7.90 हो, लौकी की खेती के लिए मुनासिब होती है. पथरीली या ऐसी भूमि जहां पानी भरता हो और निकासी का अच्छा इतंजाम न हो, इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें. हर जुताई के बाद खेत में पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी व इकसार कर लेना चाहिए ताकि खेत में सिंचाई करते समय पानी बहुत कम या ज्यादा न लगे.

खाद व उर्वरक

अच्छी उपज हासिल करने के लिए

50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देनी चाहिए. बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा 4-5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए.

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बीज की मात्रा

सीधी बीज बोआई के लिए 2.5-3 किलोग्राम बीज 1 हेक्टेयर के लिए काफी होता है. पौलीथिन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त गृहों में नर्सरी उत्पादन करने के लिए प्रति हेक्टेयर 1 किलोग्राम बीज ही काफी होता है.

बोआई का समय

आमतौर पर लौकी की बोआई गरमी यानी जायद मौसम में 15 फरवरी से 25 फरवरी तक और बरसात यानी खरीफ मौसम में 15 जून से 15 जुलाई तक कर सकते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई मार्चअप्रैल माह में की जाती है.

बोआई की विधि

लौकी की बोआई के लिए गरमी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिश के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सैंटीमीटर चौड़ी  व 20 से 25 सैंटीमीटर गहरी नालियां बना लेते हैं. इन नालियों के दोनों किनारे पर गरमी में 60 से

75 सैंटीमीटर व बारिश में 80 से 85 सैंटीमीटर फासले पर बीजों की बोआई करते हैं. एक जगह पर 2 से 3 बीज 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए.

सिंचाई

खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर 10 से 15 दिनों के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

अधिक बारिश की हालत में पानी निकालने के लिए नालियों का गहरा व चौड़ा होना जरूरी है. गरमी में ज्यादा तापमान होने के कारण 4-5 दिनों के फासले पर सिंचाई करनी चाहिए.

निराई गुड़ाई

आमतौर पर खरीफ मौसम में या सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, लिहाजा उन को खुरपी की मदद से 25 से 30 दिनों में निराई कर के निकाल देना चाहिए.

पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 2 से 3 बार निराईगुड़ाई कर के जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में ब्यूटाक्लोरा रसायन की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम

कद्दू का लाल कीट रैड पंपकिन बीटल : इस कीट का प्रौढ़ चमकीले नारंगी रंग का होता है. इस की सूंड़ी व प्रौढ़ दोनों ही जमीन के अंदर पाए जाते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं. ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. सूंड़ी पौधों की जड़ काट कर नुकसान पहुंचाती है, वहीं प्रौढ़ कीट खासतौर पर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं. इस कीट के अधिक आक्रमण से पौधे पत्तीरहित हो जाते हैं.

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रोकथाम

* सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं, जिस से नुकसान कम होता है.

* जैविक विधि से रोकथाम के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5 से 10 मिलीलिटर या अजादीरैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिलीलिटर की दर से 2 या 3 बार छिड़कने से फायदा होता है.

* इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिलीलिटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल 0.5 मिलीलिटर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़कें.

फल मक्खी : इस कीट की सूंड़ी फसल को नुकसान पहुंचाती है. प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है. इस के सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं. प्रौढ़ मादा छोटे मुलायम फलों के अंदर अंडे देना पसंद करती है. अंडों से ग्रब्स सूंड़ी निकल कर फलों के अंदर का भाग खा कर खत्म कर देते हैं. ये कीट फल के जिस भाग पर अंडे देते हैं, वह भाग वहां से टेढ़ा हो कर सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है.

रोकथाम

* गरमी की गहरी जुताई या पौधे के आसपास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिस से फल मक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए.

* फल मक्खी द्वारा खराब किए गए फलों को इकट्ठा कर के खत्म कर देना चाहिए.

* नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल कीटनाशक डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबा कर 25 से 30 फंदे खेत में स्थापित कर देने चाहिए. कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी, 2 ग्राम प्रति लिटर पानी या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी को ले कर 10 फीसदी शीरा या गुड़ में मिला कर जहरीले चारे को 1 हेक्टेयर खेत में 250 जगहों पर इस्तेमाल करना चाहिए.

* प्रतिकर्षी 4 फीसदी नीम की खली का इस्तेमाल करें, जिस से जहरीले चारे की ट्रैपिंग की कूवत बढ़ जाए. जरूरत पड़ने पर कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 025 मिलीलिटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर का प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव कर सकते हैं.

खास रोग व रोकथाम

चूर्णिल आसिता : रोग की शुरुआत में पत्तियों और तनों पर सफेद या धूसर रंग पाउडर जैसा दिखाई देता है. कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्ण भरे हो जाते हैं. सफेद चूर्णी पदार्थ आखिर में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है. अधिक प्रकोप के कारण पौधे जल्दी बेकार हो जाते हैं. फलों का आकार छोटा रह जाता है.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए खेत में फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 0.05 फीसदी 1 लिटर पानी में घोल कर 7 दिनों के फासले पर छिड़काव करें. इस दवा के न होने पर फ्लूसिलाजोल 1 ग्राम प्रति लिटर पानी या हेक्साकोनाजोल 1.5 मिलीलिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता : ?यह रोग बारिश या गरमी वाली फसलों में बराबर लगता है. उत्तरी भारत में इस रोग का हमला ज्यादा होता?है. इस रोग की खास पहचान पत्तियों पर कोणीय धब्बे पड़ना है. ये कवक पत्ती के ऊपरी भाग पर पीले रंग के होते हैं और नीचे की तरफ रोएंदार बढ़वार करते हैं.

रोकथाम

* इस रोग के लिए बीजों को मैटालिक्सला नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए और मैंकोजेब 0.25 फीसदी का छिड़काव रोग की पहचान होने के तुरंत बाद फसल पर करना चाहिए.

* यदि संक्रमण भयानक हालत में हो तो मैटालैक्सिल व मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से या डाईमेयामर्फ का

1 ग्राम प्रति लिटर पानी व मैटीरैम का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से 7 से 10 दिनों के फासले पर 3 से 4 बार छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई व उपज

लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए. फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता है. फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए. तोड़ाई 4 से

5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगें. औसतन लौकी की उजप 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

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प्रेमी प्रेमिका के चक्कर में दुल्हन का हश्र: भाग 1

उत्तर प्रदेश के कासगंज जिला मुख्यालय से कोई 14 किलोमीटर दूर है गांव होडलपुर, जो सोरों थाना क्षेत्र में आता है. होडलपुर छोटा सा गांव है. यहां के बच्चे पढ़ाई के लिए सोरों और कासगंज जाते हैं. इसी होडलपुर गांव में डालचंद का परिवार रहता है. डालचंद खातापीता किसान है.

उस के 4 बेटे और 2 बेटियां हैं. 2 विवाहित बेटे विनोद और महेंद्र हिमाचल प्रदेश में नौकरी करते हैं. दोनों बेटियों की भी शादी हो गई है. अब घर में पत्नी सोमवती और 2 बेटे कुंवरपाल और रामनरेश रहते हैं.

कुंवरपाल का मन पढ़ाई में बिलकुल नहीं लगता था. हाईस्कूल पास करने के बाद वह गांव के लोगों की भैंसें दूहने का काम करने लगा, जबकि रामनरेश इंटरमीडिएट पास कर चुका था.

कुल मिला कर डालचंद की जिंदगी ठीकठाक चल रही थी पर कुंवरपाल को ले कर वह पिछले कुछ समय से चिंतित था. दरअसल, इसी गांव की दूसरी गली में रामकिशोर अपनी 6 बेटियों और पत्नी के साथ रहता था.

रामकिशोर की दूसरे नंबर की  बेटी नेहा इंटरमीडिएट पास करने के बाद आगे की पढ़ाई कर के अपना भविष्य सुधारना चाहती थी. लेकिन अचानक उस के दिल के द्वार पर कुंवरपाल ने दस्तक दे दी थी. कुंवरपाल और नेहा एकदूसरे को पसंद करने लगे. धीरेधीरे आशिकी शुरू हुई, जिस ने जल्दी ही दीवानगी का रूप ले लिया. दोनों अपनी दुनिया बसाने के सपने देखने लगे.

दोनों की जाति एक ही थी, इसलिए उन्हें पूरा विश्वास था कि आगे चल कर ये रिश्ता परवान चढ़ जाएगा. नेहा और कुंवरपाल की लुकछिप कर मुलाकातें होने लगीं. मोबाइल के जरिए दोनों एकदूसरे के संपर्क में रहते थे, पर इश्क के दुश्मन तो हर जगह होते हैं. गांव में कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रेमी युगल की नजरों के भावों को भांप लिया.

इस के बाद गांव में उन के प्यार के चर्चे होने लगे. किसी ने यह बात रामकिशोर के चचेरे भाई कृष्णकुमार को बता दी कि उस की भतीजी नेहा का चक्कर कुंवरपाल से चल रहा है. कृष्णकुमार पेशे से डाक्टर है और उस ने गांव में ही अपना क्लिनिक बना रखा है, जो ठीकठाक चलता है.

कुंवरपाल के इस दुस्साहस पर उसे बहुत गुस्सा आया पर उस ने फिलहाल उस से कुछ नहीं कहा बल्कि एक दिन नेहा को ऊंचनीच समझाई और कहा कि वह जिस रास्ते पर जा रही है, वह ठीक नहीं है इसलिए उसे संभल जाना चाहिए.

नेहा ने चाचा से तर्क करना ठीक नहीं समझा, पर उसे चाचा की बात बिलकुल भी पसंद नहीं आई. वह जान चुकी थी कि उस के प्यार की बात उस के घर वालों तक पहुंच चुकी है, लिहाजा उस ने कुंवरपाल को फोन कर के सतर्क कर दिया.

लेकिन उस से बातचीत करनी बंद नहीं की. नेहा सोचती थी कि ये उस की अपनी जिंदगी है, इसे वो जैसे चाहेगी वैसे जिएगी. चाचा कौन होता है, उस की जिंदगी में दखल देने वाला.

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कहते हैं, इश्क और मुश्क कभी छिपाए नहीं छिपता, कुंवरपाल और नेहा की प्रेम कहानी भी छिपी नहीं रह सकी. उन के प्रेमिल संबंधों की चर्चा गांव की गलियों में फैल गई. हालांकि दोनों अपने घर में इस बात का जिक्र करना चाहते थे कि वे दोनों अपनी दुनिया बसा कर साथसाथ जीना चाहते हैं पर जब रामकिशोर को पता चला कि नेहा कुंवरपाल से लुकछिप कर मिलती है तो उसे बहुत बुरा लगा.

वह कुंवरपाल को बिलकुल भी पसंद नहीं करता था. इस की वजह यह थी कि कुंवरपाल न तो ज्यादा पढ़ालिखा था और न ही उस के पास कोई नौकरी थी. वैसे भी गांवों में ऐसी शादियां नहीं होतीं.

रामकिशोर ने अपनी पत्नी को हिदायत दे दी थी कि वह नेहा पर नजर रखे, नहीं तो किसी दिन वह हमें डुबो देगी. नेहा की मां भी बेटी के लिए परेशान हो गईं. उस ने नेहा को समझाने की भरसक कोशिश भी की लेकिन नेहा के सिर पर तो आशिकी की दीवानगी चढ़ी हुई थी.

एक दिन रामकिशोर ने डालचंद को रोक कर टोका, ‘‘देखो डालचंद, मैं तुम्हारी इज्जत करता हूं पर तुम्हें अपने लड़के कुंवरपाल को रोकना होगा. वह मेरी बेटी से मिलताजुलता है. तुम बेटे पर कंट्रोल रखो वरना अच्छा नहीं होगा.’’

रामकिशोर की धमकी से डालचंद परेशान हो गया. उस ने सोचा कि अगर कुंवरपाल की शादी कर दी जाए तो वह सुधर सकता है. अत: वह उसे शादी के बंधन में बांधने की कोशिश में लग गया. पिता का रुख देख कर कुंवरपाल के हौसले भी पस्त हो गए. इधर नेहा चाहती थी कि कुंवरपाल कुछ हिम्मत दिखाए और वे दोनों गांव की तंग गलियों से निकल कर कहीं दूर जा कर अपनी दुनिया बसा लें.

एक दिन उस ने कुंवरपाल से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है तुम्हारा, मैं अब घर वालों की बंदिशों से परेशान हो गई हूं. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती.’’

‘‘तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. तुम्हारे घर वाले हमें धमका रहे हैं. इस से पापा बहुत परेशान हो गए हैं.’’ कुंवरपाल बोला.

‘‘यह कोई नई बात नहीं है. प्यार करने वालों का हमेशा ही विरोध होता है. हमारा भी विरोध होगा, चलो हम यहां से भाग चलते हैं.’’ नेहा ने कहा.

‘‘लेकिन कहां जाएंगे, क्या करेंगे, क्या खाएंगे?’’ कुंवरपाल ने नेहा को समझाने का प्रयास किया, ‘‘तुम नहीं जानती नेहा, हम अगर चले गए तो पुलिस मेरे घर वालों को कितना परेशान करेगी. बेहतर यही होगा कि तुम अपने मम्मीपापा को इस रिश्ते के लिए राजी कर लो.’’

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नेहा परेशान हो गई. अपनी प्रेम कहानी को आगे ले जाने का उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. लेकिन समाज से छिप कर दोनों मिलते रहे.

इसी बीच एक मध्यस्थ के जरिए कुंवरपाल के लिए एटा जिले के गांव चांदपुर निवासी संतोष की बेटी का रिश्ता आया. संतोष गांव का खातापीता किसान था. उस की बेटी पूनम ने इंटर पास कर लिया था. हालांकि पूनम आगे भी पढ़ना चाहती थी पर संतोष ने कहा कि पढ़ाई तो तुम ससुराल में रह कर भी कर सकती हो.

संतोष को मध्यस्थ के जरिए पता चला कि सोरों के होडलपुर निवासी डालचंद का खातापीता परिवार है. वहां अगर बात बन गई तो पूनम सुखी रहेगी. बिचौलिया के जरिए बात का सिलसिला शुरू हुआ और दोनों पक्ष इस रिश्ते के लिए राजी हो गए.

क्रमश:

जानलेवा न बन जाए डायबिटिक फुट

डा. मधुकर एस भट्ट 

वर्षों बाद अचानक उसे अपने दवाखाने में एक रोगी के रूप में देख कर न तो मैं उसे पहचान पाया और न ही वह मुझे. लेकिन रोग के बारे में सुनने और जांच के दौरान मैं ने उसे पहचान लिया. चिकोटी काटते हुए पूछा, ‘‘क्यों रे, रहीम, पहचाना नहीं? और तुम्हारा मोटापा कहां चला गया?’’ तब तक उस ने भी मुझे पहचान लिया था और चेहरे पर फीकी मुसकराहट लाते हुए बोल पड़ा, ‘‘मेरा मोटापा तुम्हारे ऊपर चढ़ गया, बैलेंस बराबर रखना है न.’’ फिर तो हम दोनों डाक्टर और रोगी के रिश्ते को भूल कर एकदूसरे से लिपट गए और पुराने दिनों की याद में खो गए.

हम दोनों 12वीं कक्षा तक साथ पढ़े थे. अपने भारीभरकम शरीर और मजाकिया स्वभाव के कारण कक्षा में वह बहुत लोकप्रिय था. हम दोनों में गहरी दोस्ती थी. मैं दुबलापतला था और मुझे उस मोटे के साथ देख कर अकसर सहपाठी कहा करते थे कि ये दोनों मिल कर धरती का बोझ बैलेंस कर रहे हैं. फिर मैं मैडिकल में चला आया और वह एग्रीकल्चर में. कुछ दिनों तक संपर्क बना रहा, फिर अपनेअपने पेशे में हम लोग उलझ कर रह गए.

स्कूली दिनों में बहुत आलसी था वह. खेलकूद में उसे कोई रुचि नहीं रहती थी. लेकिन हां, कार्यक्रमों में मिठाई बनवाने की जिम्मेदारी लेने में उसे बहुत आनंद आता था. उस का मानना था कि वार्षिक कार्यक्रम में खेलकूद के अलावा मिठाई खाने की भी एक प्रतियोगिता होनी चाहिए.

उस की मैडिकल जांच के दौरान मुझे पता चला कि डायबिटीज का रोग उसे विरासत में पिताजी से मिला था. उस ने माना कि दवा और खानेपीने के परहेज में लापरवाही के कारण डायबिटीज नियंत्रण में न आते देख, डाक्टरों ने उसे इंसुलिन लेने की सलाह दी, तो वह भाग खड़ा हुआ और लोगों के बहकावे में आ कर तरहतरह की अवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के प्रयोग में उलझ गया. फलस्वरूप, उस का रोग बहुत बढ़ गया और मधुमेह से जुड़ी अन्य जटिलताओं के लक्षण उत्पन्न होने लगे. तब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, और फिर सही चिकित्सा से स्थिति नियंत्रण में चल रही थी.

इधर, उस के पैरों में बहुत दर्द रहने लगा था और साथ ही बाएं अंगूठे पर एक घाव भी हो गया था, जिसे देख कर चिकित्सक ने उसे ‘डायबिटिक फुट’ हो जाने का अंदेशा जताते हुए शल्य चिकित्सक की सलाह लेने की नीयत से तुरंत मेरे पास भेज दिया. वह मेरे पास आया और बोला, ‘‘उन्होंने कहा है कि देर करने से पैर कटवाने की नौबत भी आ सकती है,’’ यह कहते हुए वह बिलखने लगा और पैर बचा लेने की गुहार करने लगा.

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मैं ने उसे अपने अस्पताल में भरती कर उचित चिकित्सा शुरू कर दी. उस का पैर तो बच गया लेकिन अंगूठा गंवाना पड़ा. अब वह मैडिकल सलाह के अनुसार दवा, खानपान, परहेज आदि सभी नियमपूर्वक निभा रहा है और पहले से बहुत अच्छी स्थिति में है.

हमारे देश में डायबिटीज या मधुमेह से पीडि़त रोगियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. कई रोगी जरूरत के मुताबिक उपचार नहीं करा पाते. फलस्वरूप, उन में इस रोग से जुड़ी गंभीर जटिलताएं उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है. लंबे समय तक कंट्रोल में न रहने पर मधुमेह शरीर के हर अंग या संस्थान (सिस्टम) पर बुरा असर डालता है, जैसे आंख, गुरदा, हृदय, लिवर, पाचनतंत्र, तंत्रिकातंत्र (नर्वस सिस्टम), रक्त वाहिनियां (वैस्कुलर सिस्टम), रोगनिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) इत्यादि.

इन्हीं कारणों से इन रोगियों में साधारण घाव भी जल्दी ठीक नहीं होता और कभीकभी विकराल रूप धारण कर पूरे अंग को सड़ा देता है. अनियंत्रित मधुमेह के रोगियों के पैर में इस प्रकार का जटिल घाव होने की संभावना बहुत रहती है, जिसे डायबिटिक फुट कहते हैं.

डायबिटिक फुट के कारण

मधुमेह के रोगियों में तंत्रिकातंत्र के कमजोर पड़ने से त्वचा की संवेदनशीलता कम हो जाती है जिस के कारण हलके आघात, खरोंच, छाले का पता नहीं चल पाता है. चोटिल होने की संभावना पैरों में सब से ज्यादा होने के कारण वहां इस तरह के घाव अकसर होते रहते हैं.

इस रोग के असर से रोगी की रक्तवाहिनियां संकुचित होने लगती हैं और उन में रक्त प्रवाह कम होने लगता है. हृदय से दूर होने के कारण पैरों के रक्तसंचार पर ज्यादा बुरा असर पड़ता है. फलस्वरूप, वहां की त्वचा और मांसपेशियों की कोशिकाओं में औक्सीजन के स्तर में कमी आ जाती है. कोशिकाएं मृत होने लगती हैं. कभीकभी तो पूरा पैर ही मृत सा हो जाता है. यह स्थिति पीप या मवाद बनाने वाले जीवाणुओं के पनपने के लिए बहुत ही अनुकूल होती है.

इन रोगियों में रोगनिरोधक क्षमता की कमी तथा कोशिकाओं में उच्च शर्करायुक्त वातावरण भी जीवाणुओं को तेजी से बढ़ने के लिए बहुत अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करता है.

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संक्रमण

पैर का साधारण घाव या आघात संक्रमित हो कर पीप बना देता है. शीघ्र ही यह पीप पूरे पैर में फैल कर सड़ांध उत्पन्न कर देती है और पैर मृत होने की हालत में आ जाता है. उपचार के अभाव में यह पीप रक्तप्रवाह के माध्यम से पूरे शरीर में फैल जाती है और पूरा शरीर संक्रमित हो जाता है. उस अवस्था में डायबिटीज के कारण पहले से ही कमजोर पड़े गुरदा और लिवर, जल्द ही क्रियाविहीन हो जाते हैं. फिर धीरेधीरे दूसरे अंग भी संक्रमित हो कर क्रियाविहीन होने लगते हैं. और तब, रोगी के जल्द ही मर जाने की पूरी संभावना बन जाती है.

डायबिटिक फुट के लक्षण

जिन रोगियों के पैरों में डायबिटीज का असर पहले से ही रहता है, उन में डायबिटिक फुट होने की संभावना या रुझान बना रहता है. कुप्रभाव का लक्षण एक या दोनों पैरों में कम या ज्यादा हो सकता है, जैसे प्रभावित पैर की त्वचा में संवेदनशीलता की कमी, रंग का काला पड़ना, शुष्कता, ठंडापन, घाव या अल्सर का जल्दी ठीक नहीं होना आदि. पैर की मांसपेशियों में भी रक्तप्रवाह की कमी के कारण दर्द रहने लगता है, जो शुरू में चलने पर उभरता है और आराम करने के बाद ठीक हो जाता है, परंतु बाद में साधारण से ले कर बहुत ज्यादा दर्द बराबर बना रहता है.

इलाज

यदि व्यक्ति को पहले से मधुमेह के रहने की जानकारी हो और उस के पैर में इस प्रकार का कोई लक्षण या आघात हो जाए तो वह फौरन अपने चिकित्सक से मिले. चिकित्सक रक्त शर्करा के स्तर की आवश्यकतानुसार पहले से चल रही दवाओं की मात्रा में फेरबदल कर सकते हैं या टेबलेट के स्थान पर इंसुलिन शुरू कर सकते हैं. एंटीबायोटिक की सुई भी लगानी पड़ सकती है. घाव को अतिशीघ्र पीप मुक्त करने और सड़े हुए या मृत भाग को हटाने के लिए शल्यक्रिया की आवश्यकता पड़ सकती है. अस्पताल में भरती रह कर इलाज करवाना पड़ सकता है.

यदि पैर बचाना हो तो चिकित्सक की बात मानें वरना गंभीर परिणाम हो सकते हैं. पूरे पैर में पीप हो जाने या मृत हो जाने के बाद रोगी की जान बचाने के लिए पैर काट कर अलग करने के अलावा कोई उपाय नहीं रहता और उस से भी आगे, यदि संक्रमण पूरे शरीर में फैल चुका हो तो फिर मृत्यु से बचाना भी कठिन हो सकता है.

यदि रोगी को उस के डायबिटीज से ग्रसित होने का पहले से पता न हो और उस के पैर या किसी भी अंग पर फोड़ा, फुंसी, आघात आदि जल्दी ठीक न हों या उन में संक्रमण बहुत तेजी से फैलने लगे, तो उसे तुरंत चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए. कई बार इसी तरह की परिस्थिति में उसे मधुमेह होने का पता चलता है. ऐसे में तब चिकित्सक की सलाह के अनुसार आगे का उपचार करें.

 रोगी को इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

डायबिटीज जड़ से ठीक नहीं होती, बल्कि खानपान, व्यायाम व दवाओं के सेवन से नियंत्रण में रहती है. किसी के बहकावे में आ कर मनमाना इलाज न करें. नियमित और सुचारु रूप से वैज्ञानिक पद्धति द्वारा इलाज करवाते रहें. चिकित्सक की राय के अनुसार रक्त की जांच आदि करवाने में कोताही न करें. यदि डाक्टर इंसुलिन पर रखना आवश्यक समझते हों, तो इंसुलिन न लेने की जिद न करें.

कहा जाता है कि डायबिटीज के रोगी को अपने पैर की देखभाल चेहरे से ज्यादा करनी चाहिए. पैर को सदा साबुन, तेल आदि से साफ रखें. नाखून बढ़ने न दें, उन्हें बहुत सावधानी से काटें.

किसी एक पैर या दोनों पैरों में डायबिटिक फुट के रुझान या प्रवृत्ति का कोई लक्षण अनुभव हो या दिखे, तो अपने चिकित्सक से तुरंत परामर्श लें.

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चप्पल के स्थान पर मोजे और जूते का प्रयोग करें. ध्यान रहे कि जूते के अंदर गड़ने या चोट पहुंचाने वाली कील, कांटा या कंकड़ आदि न रहे.

पैर में किसी प्रकार का छोटे से छोटा घाव या आघात हो, तो उस की अनदेखी न करें, तुरंत चिकित्सक की सलाह लें.

बर्गर से कम नुकसानदेह है समोसा!

अगर आपके सामने समोसा और बर्गर दोनों रख दिये जाएं, तो आप क्या उठाएंगे? दोनों के लिए ही मुंह में पानी भर आएगा, मगर डायट कौन्शेस लोग जहां दोनों से ही तौबा कर लेंगे, वहीं चटोरे लोग तो दोनों ही खा जाएंगे. समोसा और बर्गर दोनों जंक फूड की श्रेणी में आते हैं. दोनों ही अनहेल्दी माने जाते हैं. मगर सेंटर फौर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट मानें तो हमारा देसी समोसा बर्गर के मुकाबले कम नुकसानदेह होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि समोसा बनाने के लिए मैदे से लेकर आलू तक ताजे ही इस्तेमाल किये जाते हैं और आपकी प्लेट तक पहुंचने से पहले ये लजीज स्पाइसी समोसा सीधा गर्म तेल से छनकर निकलता है. दूसरी ओर बर्गर बनाने के लिए प्रिजरवेटिव, ऐसिडिटी रेग्युलेटर, फ्रोजन पैटीज और मीट जैसी चीजों का इस्तेमाल होता है. रिपोर्ट के मुताबिक ताजा बने खाने में ऐसा कोई केमिकल मौजूद नहीं होता जैसा कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में होता है. गौरतलब है कि सीएसई ने ‘बॉडी बर्डन’ नाम से यह रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसके अनुसार भारत में होने वाली कुल मौतों में से 61 फीसदी केवल लाइफस्टाइल और गैर संचारी रोगों (नॉन कम्युनिकेबल डिजीज) की वजह से होती हैं.

कहां से आया समोसा?

शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा जिसे समोसा न पसंद हो. लेकिन आपने कभी सोचा है कि आपका यह पसंदीदा स्नैक समोसा आया कहां से है? ज्यादातर लोग मानते हैं कि समोसा भारतीय पकवान है, लेकिन आपको यह जानकार हैरानी होगी कि समोसा विदेशी व्यंजन है. जी हां, समोसा मीलों की दूरी तय करके भारत पहुंचा है. कहते हैं कि 1526 में मुगल अपने साथ समोसा लेकर भारत आये. उनके खानपान की चीजों में समोसा स्नैक के रूप में होता था. 16वीं शताब्दी में लिखा गया मुगल दस्तावेज ‘आइन-ए-अकबरी’ में समोसे का जिक्र मिलता है. समोसा फारसी भाषा के ‘संबुश्क’ से निकला है और इसका जिक्र ग्यारहवीं सदी में फारसी इतिहासकार अबुल फजल बेहाकी के लेखन में भी मिलता है. उन्होंने गजनवी साम्राज्य के शाही दरबार में पेश की जाने वाली ‘नमकीन’ चीज का जिक्र किया है, जिसमें कीमा और सूखे मेवे भरे होते थे. मध्य एशिया का यह अल्प आहार दक्षिण एशिया के लोगों के दिलों पर राज करने लगा. ‘संबुश्क’ आज पूरे एशिया में अलग-अलग नाम और कई अवतारों में पाया जाता है.

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मोरक्को के इतिहासकार इब्न बतूता लिखते हैं – दिल्ली की सल्तनत के संबुश्क बहुत तीखे थे. वह छोटी-छोटी कचौड़ियों जैसे थे, जिनके अंदर कीमा, बादाम, पिस्ता और अखरोट भरा होता था और इसे पुलाव के तीसरे कोर्स के पहले सर्व किया जाता था. पहले जहां समोसे में मीट भरा जाता था, वहीं 16वीं सदी में पुर्तगालियों के भारत में बटाटाा यानी आलू लाने के बाद समोसे में आलू भरा जाने लगा. आज ट्रेडिशनल समोसे में मसला हुआ आलू, हरी मटर, हरी मिर्च और अन्य मसाले भरे जाते हैं. समोसा चटनी के साथ बेहद लजीज लगता है.

पूर्वी भारत में समोसे को सिंघाड़ा कहते हैं और इसे बनाने का तरीका मध्य भारत से थोड़ा अलग है. सिंघाड़े का साइज थोड़ा छोटा होता है. बंगाल की बात करें तो यहां समोसे के आटे में हींग जरूर मिलायी जाती है और उबले हुए आलू को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर भरा जाता है. वहीं दक्षिण भारत में समोसे में लोकल मसालों के साथ प्याज, गाजर, पत्तागोभी और करी पत्ते भरे जाते हैं. इस तरह विदेश से आये इस शाही पकवान समोसे का आज भारत के हर कोने में लुत्फ उठाया जा रहा है.

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ऐसे करें सही करियर का चुनाव

10 वीं पास कर छात्र 12 वीं में एडमिशन को लेकर बड़ी उलझन मे पड़ जाता है. क्योंकि उसे जब तक यह पूरी तरह पता भी  नहीं होता की आगे चल कर उसे करना क्या है. कौन सा फील्ड उस के लिये ठीक रहेगा. कई बार बच्चे अपने पेरेंट्स द्वारा चुना गया विषय अपना लेते हैं तो कभी अपने दोस्त की होड़ कर उनकी पसंद के विषय चुन लेते हैं और यही बात वो कौलेज में भी करते हैं जो कि उन्हें सही करियर के रस्ते से भटका देती है कभी कभी उनकी यही गलती उन्हें भरी पड़ जाती है. कई बार हम नौकरी कर तो रहे होते हैं लेकिन सिर्फ पैसो के लिये. क्योंकि जो काम कर रहे  होते हैं उस मे उनकी रूचि नहीं होती.

करियर का अर्थ

करियर का अर्थ है आपके मन की सन्तुष्टि. वो जौब या व्यवसाय  जिसे करके आपको  मन को सन्तुष्टि मिले. आपका मन उस काम से ऊबे नहीं बल्कि हर रोज कुछ नया करने का दिल करे. और आपका उस काम के प्रति उत्साह बना रहे . अगर ऐसा करियर हो तो आप अपने जीवन से बेहद खुश रहेंगे. आज हम आपको ऐसे ही कुछ टिप्स बता रहे हैं जिस के द्वारा आप अपना सही करियर चुनने मे सफल हो सकेंगे.

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अपनी दिलचस्पी को जानें

आपकी किस क्षेत्र  मे दिल चस्पी है पहले ये जान ले .कई लोगों को पेंटिंग का शौक होता है कुछ लोग नए नए एक्सपेरिमेंट करते रहते हैं तो कोई नेटवर्किंग का शौकीन होता है. ऐसे में करियर उसी चीज में चुने जिस में आपका शौक हो अपनी हौबीज को ध्यान मे रखते हुए ही अपने लिये करियर का चुनाव करना बहुत अच्छा रहता है. कई लोग अपनी हौबीज से ही अपना करियर बना लेते है, जिससे वो पूरी तरह  संतुस्ट भी रहते हैं.

किसी के दबाव में न आये

करियर के चयन के समय याद रखें कि आप किसी के दबाव में आकर चयन न करें. क्योंकि जिस चीज में आपकी रूचि न हो आप उसमे कभी सफलता  नहीं पा सकते.   कई बार छात्र अपने माता पिता  के दबाव में आकर गलत निर्णय  ले लेते हैं तो कई  दोस्तों के बहकावे  में आ जाते है. तो सुनो सब की, करो अपने मन की.. ‘जब निर्णय लेन का समय आय तो सुझाव सभी के लें. लेकिन करियर चुनते वक्त अपने मन की सुनें .

करियर कौंसलर से लें सलाह

अगर आप करियर को लेकर किसी प्रकार की दुविधा में  है तो जरूरी है कि आप किसी कौंसलर की मदद लें. इसके लिये कई मार्गदर्शन संस्थान खुली हुई है.  जिससे की आप करियर काउंसलर से बात करके करियर का चुनाव कैसे करें. इसके लिए सही सलाह पा सकते हैं . साथ ही आपको करियर विकल्प के बारे में भी पता चलेगा जो शायद आपकी जानकारी से भी बाहर होंगे . लेकिन सलाहकार सिर्फ सलाह दे सकते हैं. सही करियर का चुनाव आपको खुद ही करना होगा .

डर को करो खत्म

करियर को लेकर डरे नहीं. अगर आप सोचते हैं कि  जिस चीज को आप करना चाहते  हैं. उसमे मेंहनत बहुत है या संघर्ष बहुत ज्यादा करना होगा या आप उसमे कामयाब हो भी पाएंगे या  नहीं. डर इस बात का कि लोग क्या कहेंगे या फिर कम पैसों में गुजारा कैसे होगा. जिस दिन आप इस डर को निकाल देंगे. उस दिन आप अपने सपनों को पाने की पहली सीढ़ी पर चढ़ जाएंगे.

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इंटर्नशिप या स्वेच्छाकर्मी करें

जिस फील्ड मे आप जाना चाहते हैं. उस फील्ड के लोगों से बातचीत करें . उस के बारे मे  पूरी जानकारी लें, हो सके तो अगर आपको उस फील्ड मे पार्ट टाइम काम करने का मौका मिले  तो अवश्य करें. उस फील्ड से संबंधित कोई अभियान चल रहा हो तो उससे जुड़े  .जिससे आपको उस फील्ड में काम करने का अनुभव मिलेगा और आप समझ पाएंगे कि आप सही करियर चुन रहे हैं या नहीं.

मैं अपने पूरे करियर में फिल्म ‘‘दबंग’’को ही टर्निंग प्वाइंट मानता हूं: अरबाज खान

अभिनेता, निर्देशक, निर्माता और टौक शो संचालक अरबाज खान ने लगभग 24 वर्ष पहले यानी कि 1996 में फिल्म ‘‘दरार’’ से अपने अभिनय करियर की शुरूआत की थी. पहली फिल्म के साथ ही अरबाज खान ने इशारा कर दिया था कि वह लंबी रेस के घोड़े हैं. तब से अब तक वह कई यादगार फिल्मों में अभिनय करने के अलावा ‘दबंग’ फ्रेंचाइजी की तीन फिल्मों का निर्माण, ‘दबंग 2’ का निर्देशन, टौक शो का संचालन और वेब सीरीज ‘‘पौयजन’’ में अभिनय कर चुके हैं. इन दिनों वह 27 सितंबर को प्रदर्शित हो रही निर्माता महेंद्र सिंह नामदेव की क्राइम थ्रिलर फिल्म ‘‘मैं जरुर आउंगा’’ को लेकर चर्चा में है,जो कि पूर्णरूपेण स्विटजरलैंड में फिल्मायी गयी पहली भारतीय फिल्म है. इसके अलावा उन्होंने मलयालम सिनेमा में भी कदम रख दिया है.

प्रस्तुत है अरबाज खान के साथ हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश…

आपके 24 साल के करियर में टर्निंग प्वाइंट क्या रहे?

मैं अपने पूरे करियर में फिल्म ‘‘दबंग’’ को ही टर्निंग प्वाइंट मानता हूं. क्योंकि ‘दबंग’ मेरी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट था. उसने मुझे ओवरनाइट सक्सेस, ओवरनाइट पहचान दिलायी. ‘दंबग’ से मेरे करियर व जिंदगी को बहुत कुछ मिला फिल्म ‘दबंग’ ने मुझे अभिनेता व निर्माता दोनो स्तर पर उंचाइयां प्रदान की. उससे पहले भी मुझे छोटी-छोटी सक्सेस मिलती रही हैं. उन सफलताओं को भी मैं हलके से नहीं लेता. जैसे ‘दरार’, ‘प्यार किया तो डरना क्या’, ‘फैशन’, ‘मालामाल वीकली’, ‘मां तुझे सलाम’ जैसी फिल्मों में भी मेरे अभिनय को सराहा गया. और यह फिल्में भी कैरियर के लिए माइलस्टोन साबित हुईं. अब फिल्म‘‘मैं जरुर आउंगा’’ से कुछ अन्य रिकार्ड बन सकते हैं.

24 साल के करियर में आपने तमाम किरदार निभाएं. ऐसे में फिल्म‘‘मैं जरुर आउंगा’’करने के लिए किस बात ने आपको इंस्पायर किया?

यह फिल्म और मेरा किरदार दोनों काफी अलग है. मैंने अब तक इस तरह का किरदार नहीं किया. वैसे ऐसा नहीं होता है कि आप अपने करियर के 20-25 साल में जब हर साल चार पांच फिल्में करेंगे और उन्हे मल्टीप्लाई कर लीजिए और किरदार एक दूसरे से मेल खाता हो. अब यह समझाना मुश्किल होता है कि आपने कितने अलग- अलग किरदार किए हैं. यदि किरदार में हल्का सा,  किसी छोटी सी चीज का प्रेजेंटेशन अलग हो, कुछ भी अलग हो, करेक्टर का न्यूयांएश भी अलग हो, तो भी वह अलग होता है. मसलन पुलिस का किरदार ले लीजिए. तो कितने एक्टरों ने तो अब तक कम से कम 15 फिल्मों में पुलिस का किरदार निभाया है. पर हर बार पुलिस वाला निभाने के बाद भी वह अलग पुलिस वाला ही होता है. अगर हम गैंगस्टर या विलेन का कैरेक्टर निभाते हैं, तो उसमें भी अंतर होता है. हम तो 50 बार हम विलेन निभा चुके होंगे. फिर भी हमारी फिल्मों के अंदर पर हर बार कुछ तो अलग होता ही है. कोई सरफिरा गुंडा, तो कोई गली का गुंडा होता है. फिर उसके अंदर डायलौगबाजी का कीड़ा रहता है. तो कई वेरीएशन होते हैं. इसे अलावा हम कलाकार पर निभर्र होता है कि हर बार उसे कैसे नयापन दें. इसी तरह एक बिजनेसमैन के कैरेक्टर में भी वेरीएशन होते हैं. बिजनेसमैन हल्का सा मिडिल एज आदमी है या आशिक है या कथानक में किस तरह हंसता या रोता है, या उसके साथ जो कुछ होता है, उस पर उसका रिएक्शन किस तरह का होता है. कहने का अर्थ यह है कि एक ही किरदार में हमें हर बार अलग अलग इमोशंस के साथ उसे निभाते हुए नयापन देना होता है. उसी बात ने मुझे उत्साहित किया. इस नजरिए से मैं दावा करता हूं कि मैंने हर बार कुछ नया किरदार निभाया है और इस फिल्म में भी नयापन है.

इसके अलावा कई बार ऐसा होता है कि जिन लोगों के साथ काम करने की आपकी चाहत होती है, उनके साथ जब काम करने का अवसर मिलता है, तो यह बात भी काम करने के लिए उत्साहित करती है. कई बार जिन सब्जेक्ट पर आप काम करना चाहते हैं, वैसा सब्जेक्ट सामने आ जाए, तो आप इंस्पायर होते हैं. कई बार फिल्म जहां फिल्मायी जानी है, वह लोकेशन इंस्पायर करती है. तो किसी भी फिल्म से जुड़ने के पीछे कई वजहें होती हैं. फिल्म‘‘मैं जरुर आउंगा’’ के कथानक, किरदार में मौजूद नए तरह के शेड्स और स्विटजरलैंड की लोकेशन ने मुझे  मुझे इस फिल्म से जुड़ने के लिए उकसाया.

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फिल्म‘‘मैं जरुर आउंगा’’को लेकर क्या कहना चाहेंगें?

जिन लोगों ने फिल्म का ट्रेलर देखा है, उन्हें अहसास हो चुका होगा कि ‘‘मैं जरुर आउंगा’’ क्राइम थ्रिलर फिल्म है, जिसमें रोमांस, अपराध, बदला और विश्वासघात के साथ रोमांचक कथा है. इसमें भूत का भूत हत्यारों से बदला लेने के लिए वापस आता है, तो डरावने और भयावह रहस्यों का तूफान उठाता है. स्विटजरलैंड की बर्फीली ठंडी सफेद पृष्ठभूमि इसे और अधिक डरावना बना देती है. इसमें कन्नड़ अभिनेत्री अंद्रिता रे के अलावा विकास वर्मा व गोविंद नामदेव भी हैं.

फिल्म ‘‘मैं जरुर आउंगा’’ के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगे?

मैंने इसमें स्विट्जरलैंड में रह रहे एक प्रसिद्ध और सफल व्यवसायी यश मल्होत्रा का किरदार निभाया है. एक दिन यश की मुलाकात मौडल लिजा से होती है, दोनों में प्यार फिर शादी हो जाती है. उनका आनंदमय जीवन बीतने लगता है, मगर यश को इस बात का अहसास ही नहीं होता कि उसकी पत्नी लीजा के लिए उसका मौडलींग का करियर और उसका दोस्त व फोटोग्राफर पीटर ज्यादा मायने रखता है. हकीकत मे लिजा ने यश की संपत्ति देखकर ही शादी की थी. यश अपने जीवन व लिजा के साथ रिश्ते को मजबूती प्रदान करने के लिए एक बच्चा चाहते हैं, लेकिन लिजा मना कर देती है. एक दिन लिजा अपने मित्र व प्रेमी पीटर के साथ मिलकर यश की हत्या कर कब्रिस्तान में दफना देते हैं. पर सच कुछ और होता है. यश का भूत अब इन दोनों को परेशान करने लगता है. उधर यश का दोस्त व पुलिस अफसर शिव भी इनके पीछे पड़ गया है. इसके बाद क्या होता है, यह फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.

बतौर निर्माता फिल्म ‘‘दबंग 3’’ की क्या स्थिति हैं? इसको लेकर क्या कहना पसंद करेंगें ?

फिल्म ‘‘दबंग 3’’ की शूटिंग खत्म हो चुकी है. हम 20 दिसंबर को इसे सिनेमाघरों में पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं. मैं फिल्म को लेकर उत्साहित हूं और हम सभी इसे बनाते हुए काफी मस्ती कर रहे हैं. मुझे पता है कि लोग इस फ्रैंचाइजी को पसंद करते हैं और उन्हें चुलबुल पांडे का किरदार लोगों को बहुत पसंद है. अगर लोग उत्साहित नहीं होते हैं, तो यह चिंता का कारण होगा.

फिल्म‘‘मैं जरुर आउंगा’’के बाद किस फिल्म में नजर आएंगे?

मैं मलयालम फिल्मों के उत्कृष्ट निर्देशक सिद्दिकी की मलयालम फिल्म ‘‘बिग ब्रदर’’ में एक आईपीएस अधिकारी का किरदार निभाते हुए मलयालम सिनेमा में कदम रखने जा रहा हूं. यह आईपीएस अफसर मूलतः उत्तर भारत से हैं. इसमें मुझे मलयालम सिनेमा के मोहनलाल सहित कई दिग्गज कलाकारों के साथ अभिनय करने का अवसर मिला है. सिद्दीकी में की कार्यशैली किसी भी फिल्म को एक बड़ी हिट बनाने में माहिर है.मुझे पता है कि उनकी फिल्म निर्माण की शैली और जिस तरह से वह अपनी फिल्म की पटकथा लिखते हैं, वह काबिले तारीफ है. उनकी फिल्मों से बहुत सारी भावनाएं जुड़ी होती हैं. इसके अलावा एक फिल्म ‘‘श्रीदेवी बंगलो’’ की है. यह फिल्म भी लंदन में फिल्मायी गयी है.

इन दिनों बौलीवुड के कई कलाकार दक्षिण भाषी फिल्मों में अभिनय कर सफलता बटोर रहे हैं?

इसकी मूल वजह यह है कि सिनेमा भाषा का मोहताज नही है, इस बात को हम अब तक समझ नहीं पाए थे. अब तो दक्षिण की फिल्मों का बौलीवुड में और बौलीवुड की फिल्मों का दक्षिण भारत में रीमेक भी हो रहा हैं. दूसरी बात हम सभी कलाकार क्षेत्रीय भाषाओं में काम कर रहे हैं, क्योंकि हर उद्योग भारतीय सिनेमा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

तो अब दूसरी भाषा की फिल्में करते रहेंगें?

जी हां! हालांकि मैं लंबे समय से अभिनय कर रहा हूं, फिर भी मलयालम सिनेमा में ‘‘बिग ब्रदर’’ मेरी पहली फिल्म है. मैं दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा भी करना चाहता हूं.

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वेब सीरीज?

दो वेब सीरीज भी कर रहा हूं.अब तो फिल्में और वेब सीरीज की दुनिया एक साथ आगे बढ़ेगी.

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: कार्तिक और कायरव ने बिताया क्वालिटी टाइम

स्टार प्लस पर प्रसारित होने वाला मशहूर सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  में आपको लगातार महाट्विस्ट देखने को मिल रहे है. फिलहाल इस शो की कहानी कार्तिक, कायरव, नायरा और अखिलेश के आसपास घुम रही है. पूरा गोयनका परिवार कायरव के जाने से दुखी है. दूसरी तरफ अखिलेश के फोन से सुरेखा परेशान होती है. इधर नायरा दादी और बड़ी दादी से माफी मांगती है दोनों उसे माफ करके गले लगा लेती हैं.

इधर कार्तिक अपने बेटे की याद में खोया रहता है और वो रात को ही सिंहानिया हाउस कायरव से मिलने पहुंच जाता है. उधर कायरव को भी नींद नहीं आती है, वो नायरा से छिपकर बेड से उठ जाता है. और कार्तिक को फोन करके कहता है कि वो आ जाए, उसे उसकी बहुत याद आ रही है. कार्तिक उससे कहता है कि वो यहीं है दरवाजे के बाहर. तभी कायरव गेट खोलता है और दोनों एक दूसरे को देखकर बहुत खुश होते हैं. दोनों दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड करते हैं.

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गोयनका हाउस में कार्तिक को न देखकर पूरे घर घरवाले परेशान हो रहे होते हैं. कार्तिक के पापा नायरा को फोन करते हैं तो नायरा को पता चलता है कि कायरव भी बेड पर नहीं है. नायरा बाहर आती है रूम से और कायरव को आवाज देती है उसकी आवाज सुनकर बाकी घरवाले भी सामने आ जाते हैं. वहां कार्तिक और कायरव को साथ सोता देखकर सभी हैरान रह जाते हैं.

उधर वेदिका, नायरा को फोन करती है और पूछती है कि क्या नायरा गोयनका हाउस है? इस पर वेदिका फोन काट देती है. तो दूसरी ओर बड़ी दादी वेदिका को फोन करके समझाने की कोशिश करती हैं लेकिन वेदिका उनकी बात भी नहीं समझना चाहती. अब देखना ये होगा कि अपकमिंग एपिसोड में इस शो की कहानी क्या मोड़ लेती है.

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‘मैं कुछ भी कर सकती हूं’ महिलाओं की पसंद को सशक्त बनाने का दे रहा है संदेश

औरत की मर्जी (एक महिला की सहमति या पसंद) जैसे वैकल्पिक नैरेटिव के जरिए लोकप्रिय टेलीविजन शो ‘मैं कुछ भी कर सकती हूं’ परिवार नियोजन के फैसले में महिलाओं के अधिकार के महत्व को उजागर कर रहा है और दंपत्ति के बीच बातचीत को प्रोत्साहित कर रहा है. शो ‘मैं कुछ भी कर सकती हूं’, पौपुलेशन फाउंडेशन औफ इंडिया (पीएफआई) द्वारा परिवार नियोजन और महिला सशक्तिकरण के मुद्दों पर लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने और व्यवहार में बदलाव लाने के लिए एक पहल है.

सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि आठ में से तीन भारतीय पुरुष मानते हैं कि गर्भनिरोधक एक महिला की जिम्मेदारी है. परिवार नियोजन का भार महिलाओं पर पड़ता है और समाज में प्रचलित सामाजिक मानदंडों के तहाता, महिलाओं के पास प्रजनन निर्णय नहीं होते हैं. परिवार और समाज के भीतर रवैये में बदलाव महिलाओं के प्रजनन संबंधी फैसलों में समान महत्व देगा, मसलन कब और कितने बच्चे हों. “औरत की मर्जी” की अवधारणा एक महिला की पसंद और गरिमा को बढ़ाने में योगदान करती है और उन्हें अपने जीवन के बारे में मजबूत निर्णय लेने में सक्षम बनाती है.

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उदाहरण के लिए, शो में औरत की मर्जी का इस्तेमाल इंजेक्टेबल गर्भ निरोधकों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए किया गया है, जो महिलाओं को स्वतंत्रता प्रदान करती है, क्योंकि इसका प्रत्येक खुराक उन्हें तीन महीने तक अवांछित गर्भधारण से बचाता है. पहले भी  ‘औरत की मर्जी का दिन’ का इस्तेमाल किया गया था, जिसमें किसी एक खास दिन महिलाएं घरेलू कामों से मुक्त होती हैं और पुरुषों को घर और बच्चों की देखभाल करना होता है. पूनम मुत्तरेजा, कार्यकारी निदेशक, पीएफआई का कहना है, “एक समाज तभी स्वस्थ हो सकता है जब महिलाएं स्वस्थ और सशक्त हो. औरत की मर्जी को एक अवधारणा के रूप में लोकप्रिय बनाना हमें महिलाओं की पसंद और सहमति पर एक महत्वपूर्ण बातचीत शुरू करने की अनुमति देता है. यह न केवल परिवार नियोजन तक सीमित है, बल्कि शिक्षा, काम और घरेलू फैसलों जैसे अन्य पहलुओं के बारे में भी बात करती है.

शो ‘मैं कुछ भी कर सकती हूं’ पौपुलेशन फाउंडेशन औफ इंडिया की एक पहल है जो परिवार नियोजन और महिलाओं के सशक्तीकरण के मुद्दों पर लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने और व्यवहार को बदलने के लिए है. टेलीविजन कार्यक्रम के अलावा, इस शो में एक इंटरएक्टिव वायस रिस्पांस सिस्टम, सामुदायिक रेडियो, डिजिटल मीडिया और औन-ग्राउंड आउटरीच विस्तार भी शामिल हैं.

मैं कुछ भी कर सकती हूं एक युवा डौक्टर डा. स्नेहा माथुर की प्रेरक यात्रा के आसपास घूमती है, जो मुंबई में अपने आकर्षक कैरियर को छोड़ कर अपने गांव में काम करने का फैसला करती है. यह शो राष्ट्रीय प्रसारक दूरदर्शन के प्रमुख कार्यक्रमों में से एक है, जिसे 13 भारतीय भाषाओं में कई रिपीट टेलीकास्ट और किया गया. इसे देश के 216 औल इंडिया रेडियो स्टेशनों पर प्रसारित किया गया. शो के तीसरे सीजन का निर्माण आरईसी फाउंडेशन और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के समर्थन से किया गया है.

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‘रंगदारी‘ के ‘क्रास एफआईआर’ से बलात्कार पीड़ित जेल में  

‘समरथ को नहीं दोष गोंसाई’ धार्मिक ग्रंथों में लिखी इस लाइन का मतलब होता है कि जो शक्तिशाली होता है उसका कोई दोष नहीं होता है. भारतीय जनता पार्टी के नेता इस लाइन का मतलब बहुत अच्छी तरह से जानते और समझते हैं. यही वजह है कि उनको अपने नेताओं में कोई दोष कभी नजर नही आता है. उन्नाव में भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर की बात हो या हिन्दूवादी नेता, रामजन्मभूमि आन्दोलन के पुरोधा, संत और पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद हो. अगर जनता या कोर्ट के दबाव में इन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई करनी भी पड़ी तो उसके पहले बचाव का पूरा खाका तैयार कर लिया गया. पुलिस की जांच बलात्कार मामले में भले ही ना शुरू हुई हो रंगदारी मामले में पुलिस ने पूरे सबूत जुटाने और लड़की के खिलाफ पक्के सबूत होने की बात कही है.

चिन्मयानंद मामला इसका सीधा उदाहरण है. एलएलएम की कानूनी पढ़ाई करने वाली छात्रा ने जब स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ यौन षोषण और बलात्कार का आरोप लगाया तो सबसे पहले तो उसकी बात को पुलिस ने सुना नहीं. उल्टे लड़की के खिलाफ ही 5 करोड़ की रंगदारी मांगने का मुकदमा लिख कर जांच शुरू कर दी. पुलिस के न्याय ना पाने की हालत में लड़की ने उत्तर प्रदेश छोड़कर राजस्थान चली गई और सोशल मीडिया पर अपनी दास्तान सुनाई. इसके बाद जनता और कोर्ट ने मामले में लड़की का साथ दिया. तब लड़की ने दिल्ली में जाकर अपने साथ हुई घटना का मुकदमा लिखाया.

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सरकार ने कोर्ट के दबाव में स्पेशल इंवेस्टिीगेशन टीम एसआईटी ने जांच के बाद चिन्मयानंद को गिरफ्तार करने के साथ ही साथ लड़की के खिलाफ रंगदारी मामले में उसके 3 साथियों को पकड लिया. इसके कुछ दिन के बाद लड़की को भी जेल भेज दिया. लड़की को जेल भेजने की घटना के बाद पुलिस की नियत पर संदेह शुरू हो रहा है. लड़की को पकड़े जाने से साफ है कि पुलिस लड़की पर दबाव डाल का मामले को कमजोर करने के प्रयास में है. कानून के जानकार कहते हैं कि इस तरह की क्रास एफआईआर से विरोधी को कमजोर किया जाता है.

इस घटना से पता चलता है कि अगर सरकार आपके साथ है तो हर अपराध को आप अपने हिसाब से निपटा सकते है. उन्नाव कांड के बाद अब शाहजहापुर के चिन्मयानंद मामले में एक बार फिर से यह बात साबित होती नजर आ रही है. पूर्व केन्द्रीय मंत्री और स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ शोषण और बलात्कार मामले में मुकदमें लिखे जाने के पहले ही लड़की पर 5 करोड़ की रंगदारी मांगने का मुकदमा लिख लिया जाता है. जेल में रहने के बाद भी जांच के नाम पर स्वामी चिन्मयानंद को इलाज के लिये अस्पतालों में रखा जा रहा है.

चिन्मयानंद का रसूख कुलदीप सेंगर से ज्यादा प्रभावी है. वह रामजन्मभूमि आन्दोलन से जुड़े रहे है. केन्द्र में मंत्री रहने के साथ ही साथ संत समाज से आते है. संत समाज से आने के कारण वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भी करीबी रहे हैं. गोरखनाथ धाम के मंहत अवैद्यनाथ के साथ मंदिर आन्दोलन में काम किया है. ऐसे में जब उनके खिलाफ शिकायत करने वाली लड़की को रंगदारी के मामले में जेल भेजा जाता है तो घटना में साजिश की बू साफ दिखने लगती है. पीड़ित लड़की कहीं भाग कर नहीं जा रही कि जिसे पुलिस हिरासत में लेने की जरूरत पड़ गई. अपराध के जानने वाले जानते हैं कि पुलिस क्रास एफआईआर के दम पर पूरे मामले को कमजोर करने का प्रयास कर रही है.

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महंगी प्याज ने निकाले लोगों के आंसू

प्याज की आसमान छूती कीमतों ने आम आदमी की रसोई से इस सब्जी को गायब कर दिया. दिल्ली एनसीआर में प्याज की कीमत 80 रूपये प्रति किलो तक जा पहुंची है लेकिन हुकूमतों का इससे कोई नाता नहीं है. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा कि प्याज की कीमतें आसमान छू रही हों लेकिन हर बार ऐसा क्यों होता है यहां पर सवाल ये आ गया है. हालांकि सरकारें प्याज की बढ़ती कीमतों पर नकले कसने की तुरंत कोशिश में जुट जातीं हैं क्योंकि देश की आवाम ने कई सरकारों की गद्दी इसी वजह से छीन ली थी. इतिहास हमें सिखाता है. इसी इतिहास को देखते हुए राजनेता प्याज की दामों को कम करने की कवायद कर रहे हैं लेकिन इससे वो कुछ ही लोगों को लाभ पहुंचा सकते हैं. सबको नहीं. सरकार के पास न तो इतने स्टोर हैं कि हर व्यक्ति के पास आसानी से पहुंच सके न ही सरकार के पास किसी प्रकार की कोई व्यवस्था.

प्याज की ऐतिहासिकता पर हम चर्चा नीचे करेंगे लेकिन उससे पहले जरूरी है कि ये दाम बढ़ क्यों रहे हैं. इसके बाद कोई इसपर बात क्यों नहीं कर रहा है. हो सकता है खादी वालों के लिए इतने पैसे कोई मायने न रखते हों लेकिन ध्यान रहे गरीब की थाली में प्याज का तड़का लगते ही वो पांच सितारा होटल की नवरत्न थाली में तब्दील हो जाती है. देश में इस पर कोई खास चर्चा सुनने को नहीं मिल रही बस इतना ही सुनाई आ रहा है कि प्याज महंगी हो गई है. क्यों का जवाब भी दिलचस्प आता है कि हर साल बारिश के बाद ऐसा होता है. फेसबुकिया और व्हाट्सपिया ज्ञान से खुदा ही बचाए. यहां हर खेमे की अपनी एक अलग ही कहानी है. अब हम आते हैं सीधे फैक्ट्स पर.

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राजधानी दिल्ली सहित देश के दूसरे हिस्सों में प्याज की ऊंची कीमतों ने लोगों को रुलाना शुरू कर दिया है. देश के अधिकांश हिस्सों में प्याज का खुदरा भाव 70 से 80 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच चुका है. ऐसे में केंद्र सरकार प्याज व्यापारियों के भंडारण की सीमा तय करने पर विचार कर रही है.

देश के सबसे बड़े प्याज के बाजार लासलगांव (महाराष्ट्र) में इस समय प्याज पिछले 4 साल में सबसे महंगी हो गई है. मौजूदा समय में होलसेल में प्याज की कीमत 4500 रुपए प्रति क्विंटल है. यहां ध्यान देने वाली बात है कि पिछली बार 16 सितंबर 2015 को प्याज 4300 रुपए प्रति क्विंटल हुई थी और 22 अगस्त 2015 को प्याज ने 5700 रुपए प्रति क्विंकल का ऑल टाइम हाई का रिकौर्ड बनाया था. आपको बता दें कि होलसेल मार्केट में जब कीमतें इस लेवल पर पहुंच गई थीं, तो रिटेल बाजार में प्याज की कीमतें 80 रुपए प्रति किलो तक जा पहुंची थीं. एक बार फिर से रिटेल बाजार में प्याज की कीमतें 70-80 रुपए प्रति किलो हो गई हैं.

प्याज के दाम बढ़ने के दो प्रमुख कारण होते हैं पहला तो मौसम और दूसरा कालाबाजारी. सरकारें मौसम पर तो काबू नहीं पा सकती लेकिन कालाबाजारी रोकी जा सकती हैं. मौसम विभाग के अनुसार प्याज उत्पादन वाले अहम राज्यों खासकर महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भारी बारिश की वजह से प्याज की सप्लाई पर असर पड़ा है, जिसकी वजह से कीमतें बढ़ गई हैं. इस बात में कोई दोराय नहीं है कि मौसमी आपदाओं के कारण ही प्याज के दामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन ये कहना भी बेमानी है कि केवल यही एक कारण है.

आगे आने वाले त्योहारी सीजने को देखते हुए थोक व्यापारियों ने प्याज की सप्लाई बाजार में रोक दी है. इन व्यापारियों ने ये ऐसे वक्त किया है जबकि ज्यादातर राज्यों में भारी बारिश की वजह से किसान फसल ही नहीं काट पाया. जब नई फसल बाजार में आई ही नहीं और ऊपर से इन बड़े व्यापारियों ने स्टौक को जाम कर दिया. ऐसे में दाम बढ़ने को लाजिमी है. आलू और प्याज की कालाबाजारी सबसे ज्यादा होती है. ये दोनों सब्जियों के बिना रसोई अधूरी होती है और दूसरी बात की ये काफी दिनों तक टिक जाती हैं. हम देखते हैं कि कभी-कभी प्याज के दाम इतने गिर जाते हैं कि किसानों को उनकी लागत भी नहीं मिलती. आखिरकार इतनी अनिश्चता क्यों. सरकार को कालाबाजारी के खिलाफ कठोर कदम उठाने चाहिए.

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दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में प्याज की कीमतों को काबू में रखने के लिए केंद्र सरकार सस्ते प्याज मुहैया करा रही है. इसके लिए नाफेड और NCCF जैसी एजेंसियों के जरिए 22 रुपए प्रति किलो और मदर डेयरी के जरिए 23.90 रुपए प्रति किलो के भाव पर प्याज बेची जा रही है. आपको बता दें कि केंद्र के पास करीब 56 हजार टन का स्टौक है, जिसमें से 16 हजार टन बिक चुका है. सिर्फ दिल्ली में ही रोजाना करीब 200 टन प्याज सरकारी स्टौक से खत्म हो जाता है. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में कीमतों को बढ़ने से सरकार कैसे रोकती है.

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