करीब 20 साल के बाद बिहार की राजनीति ने करवट बदली है और पुराने साथी से सियासी दुश्मन बनने और फिर दोस्त बनने तक लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने लंबा सफर तय कर लिया है. कांगे्रस और रामविलास पासवान के साथ छोड़ने के बाद अकेले पड़े लालू और भाजपा से अलग होने के बाद अलगथलग पड़े नीतीश ने अपनेअपने सियासी वजूद को बचाने के लिए एकदूसरे से हाथ मिलाना मुनासिब समझा. जिस जंगलराज के खिलाफ आवाज उठा कर नीतीश सत्ता तक पहुंचे थे, अब उसी जंगलराज के जिम्मेदार दलों के साथ हाथ मिला कर सियासी नैया पार लगाने की उम्मीद पाल बैठे हैं.

पिछले दिनों हुए राज्यसभा उपचुनाव में जदयू, राजद, कांगे्रस और सीपीआई एक पाले में व भाजपा दूसरे पाले में साफतौर पर दिखाई दी. लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली भारी कामयाबी ने अपना सबकुछ लुटाने वाले दलों को एक मंच पर आने का मौका दे दिया है. नीतीश ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री की कुरसी छोड़ दी और एक अनजान से चेहरे जीतनराम मांझी को डमी मुख्यमंत्री बना दिया. इस मामले में भी नीतीश ने अपने पुराने सखा लालू यादव की ही नकल की है. साल 1996 में जब चारा घोटाले के मामले में फंस कर लालू के जेल जाने की नौबत आई तो उन्होंने अपनी बीवी को मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया और जेल से ही वे शासन करते रहे थे.

पिछले दिनों बिहार में राज्यसभा की 2 सीटों पर हुए चुनाव में नीतीश को अपने धुर विरोधी लालू यादव के सामने हाथ फैलाना पड़ा. लालू ने तो पहले नीतीश पर यह कहते हुए तंज कसा कि जब अपने घर में आग लगी तो नीतीश दमकल खोज रहे हैं. काफी मशक्कत के बाद आखिर जदयू के दोनों उम्मीदवार लालू की पार्टी के समर्थन से जीत गए. जदयू ने पवन कुमार वर्मा और गुलाम रसूल बलियावी को मैदान में उतारा था. वर्मा को 122 और बलियावी को 123 वोट मिले, जबकि जदयू के बागी उम्मीदवार अनिल शर्मा को 108 और साबिर अली को 107 वोट मिले. जदयू के 18, राजद के 3 और कांगे्रस के 2 विधायकों ने क्रौस वोटिंग कर लड़ाई को दिलचस्प बना दिया था.

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