उज्जैन के राजीव ने अपनी बेटी की शादी ग्वालियर के एक इंजीनियर लड़के से तय की. दोनों परिवारों ने आपसी सहमति से सारी बातें तय कीं. शादी से एक दिन पहले संगीत के कार्यक्रम में वधू की बहन ने डांस परफौर्म करने के लिए वर पक्ष से एक गाना बजाने की डिमांड की. वधू की बहन के बारबार कहने पर भी जब गाना नहीं बजाया गया तो बात बड़ों तक पहुंची और बात बढ़तेबढ़ते इतनी बढ़ गई कि लड़की वालों ने शादी करने से इनकार कर दिया.
लड़की वालों का कहना था कि इतनी छोटी सी बात पर हमारा मान नहीं रखे जाने का मतलब है कि हमें ताउम्र नीचा दिखाया जाएगा. ऐसे परिवार में हम अपनी बेटी नहीं दे सकते, क्योंकि जिस घरपरिवार में अभी हमारी ही इज्जत नहीं वहां हमारी बेटी का भविष्य सुखद कैसे हो सकता है?
समाज में धीरेधीरे अपने पैर फैला रही सामाजिक क्रांति के इस दौर में लड़की देखने से ले कर विवाह के संपन्न होने तक अब समाज में लड़के वालों की तुनकमिजाजी असहनीय है. फिर चाहे बात दहेज की हो अथवा लड़की और लड़के के नजरिए में भिन्नता की, बेटी के परिवार के मानसम्मान अथवा शादी के अवसर पर होने वाली रस्मों की, अब मातापिता विवाह जैसे महत्त्वपूर्ण निर्णय में बेटी की राय और निर्णय को प्राथमिकता देने लगे हैं. अब जोरजबरदस्ती से नहीं, बल्कि बेटी की हां पर ही अभिभावक उस का विवाह तय करते हैं.
सम्मान को प्राथमिकता
आज की सदी की बेटियां केवल उसी परिवार में विवाह करने को प्राथमिकता दे रही हैं जहां उन के मातापिता और उन का उचित सम्मान हो. 18 साल पहले जब मैं ने बेटी को जन्म दिया तो हमारे कितने ही शुभचिंतकों ने हमें बेटी के लिए दहेज की सलाह दी थी. परंतु अब यह मिथक टूट रहा है. आज कितने ही अभिभावक इकलौती बेटी को ही संतान के रूप में पा कर खुश हैं.
आधुनिक मातापिता अपनी बेटियों को महज स्नातक या स्नातकोत्तर की डिगरी दिला कर विवाह करने की अपेक्षा उच्चशिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं. ऐसे में वरपक्ष की किसी भी प्रकार की तुनकमिजाजी को वधूपक्ष स्वीकार नहीं करता और करे भी क्यों? आज समानता का युग है, बेटियां किसी भी मामले में बेटों से कम नहीं हैं. वे जीवन की हर चुनौती को खुशीखुशी स्वीकार कर रही हैं.
बदलाव के कारण
सीमित परिवार : वर्तमान समय में परिवार का आकार एक अथवा अधिक से अधिक दो बच्चों तक सीमित हो कर रह गया है. कमरतोड़ महंगाई और महंगी शिक्षा के कारण आज अधिकांश दंपती
एक अथवा दो बच्चों वाले छोटे परिवार को ही प्राथमिकता देने लगे हैं. फिर चाहे वे एक या दो बेटियां ही क्यों न हों. ऐसे में प्रत्येक मातापिता अपनी बेटियों को पढ़ालिखा कर आत्मनिर्भर बनाना चाहता है. उन के लिए आज बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं है.
आत्मनिर्भर होती बेटियां : आज बेटियों को भी बेटों के ही समान प्रत्येक क्षेत्र में नौकरियों के समान अवसर प्राप्त हैं. बोर्ड परीक्षा परिणाम आने पर बेटियां प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. निर्मला सीतारमण, हिमा दास, मिताली राज, इरा सिंघल, पी टी उषा, मैरी कौम जैसी अनेक हस्तियां आज विभिन्न क्षेत्रों में अपनी काबिलीयत का लोहा मनवा रही हैं. ऐसे उदाहरण समाज की लड़कियों के लिए प्रेरणास्रोत का काम करते हैं. आज बेटियां केवल शादी कर के घर बसाना नहीं, बल्कि अपने कैरियर को भी प्राथमिकता दे रही हैं, साथ ही, अभिभावक भी बेटियों को आत्मनिर्भर बना कर ही उन्हें विवाहबंधन में बांधना चाहते हैं.
बेटियां नहीं हैं पराई : कुछ समय पहले तक कहा जाता था कि बेटियां पराई होती हैं, उन्हें पढ़ालिखा कर बड़ा करो और फिर दूसरे परिवार में विदा कर दो. इस की अपेक्षा आज बेटियां मातापिता का अभिमान हैं. उन के बुढ़ापे की लाठी हैं. कितने ही मातापिता आज अपनी बेटियों के परिवार के साथ रहते हैं. अपने मातापिता के लिए आज की शिक्षित, आत्मनिर्भर बेटी कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहती है. बेटे द्वारा दी गई मुखाग्नि से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह मिथक अब टूट रहा है और बेटियां अपने मातापिता की अर्थी को कंधा देने से ले कर उन की चिता को मुखाग्नि तक दे रही हैं. सो, बेटियां अब किसी भी कीमत पर पराई नहीं रहीं.
अंतर्जातीय विवाह : लड़के वालों की तुनकमिजाजी को न सहने का सर्वप्रमुख कारण अंतर्जातीय विवाह है. पहले जहां दूसरी जाति में विवाह करने वाले लड़केलड़की को समाज से निष्कासित कर दिया जाता था और उन के मातापिता को हेय दृष्टि से देखा जाता था वहीं अब इस सामाजिक बदलाव को खुलेआम स्वीकार किया जाने लगा है. अब मातापिता स्वयं अपने बच्चों का अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं. वे अब जाति की अपेक्षा शिक्षा, नौकरी और परिवार को प्राथमिकता देने लगे हैं.
भावनात्मक जुड़ाव : 3 बेटों और एक बेटी की मां अविका मिश्रा कहती हैं, ‘‘3 बेटों की अपेक्षा हमारी बेटी हमें और हमारी जरूरतों को बहुत अच्छी तरह सम झती है.’’
वास्तव में बेटियों को अपने मातापिता से अत्यधिक भावनात्मक लगाव होता है. यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बेटियां अपने मातापिता की बेटों से अधिक चिंता और देखभाल करती हैं. मातापिता भी बेटों की अपेक्षा अपने बेटियों से अधिक खुल कर बातचीत कर पाते हैं.
वास्तव में आज की बेटियां किसी भी मामले में बेटों से कम नहीं हैं. आज बेटे और बेटी के पालनपोषण में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता है. उन की शिक्षा पर होने वाला खर्च समान है. वे अपने मातापिता की देखभाल करने में पूरी तरह सक्षम हैं. फिर क्यों लड़के वालों को उच्चतर सम झा जाए और क्यों लड़की को रिजैक्ट और ऐक्सैप्ट करने का अधिकार केवल उन्हें ही दिया जाए? क्यों शुरू में ही उन की बेबुनियादी बातों को माना जाए और क्यों उन की तुनकमिजाजी को स्वीकार किया जाए.
विवाह संबंध केवल वरवधू का ही नहीं, बल्कि 2 परिवारों का भी मिलन होता है, जिसे आपसी सुखद व्यवहार और मेलमिलाप से आदर्श बनाया जाना चाहिए. आज आवश्यकता इस बात की है कि लड़के के मातापिता और लड़का दोनों ही लड़की के मातापिता को उचित सम्मान दें और लड़का उन की भी अपने मातापिता की ही भांति देखभाल करें. तभी लड़की भी अपनी ससुराल वालों को उचित सम्मान दे पाएगी, क्योंकि लड़के के मातापिता की ही भांति उस के मातापिता भी उस की ही जिम्मेदारी हैं.