लेखिका  : गायत्री ठाकुर व मिनी सिंह

Gen Z Special: जेनरेशन जेड यानी जेन जी अकेलेपन, डिजिटल लत और पहचान संकट से जूझ रही है जिस की जड़ें माता पिता की व्यस्तता व अनदेखी करने वाली परवरिश में हैं.

दरअसल जेन जी की असल समस्या उस खालीपन की है जिसे तकनीक ने तो जरूर भरा लेकिन भावनाओं ने नहीं. इसी खालीपन का एहसास उन्हें भटका रहा है.

भारत के अहम पड़ोसी देश नेपाल के काठमांडू में युवा इस कदर भड़के कि सियासी बवाल मच गया. काठमांडू में हिंसा सोशल मीडिया पर बैन, भ्रष्टाचार और आर्थिक मंदी को ले कर हुई. नेपाल सरकार की ओर से फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे 26 सोशल मीडिया अकाउंट्स पर प्रतिबंध लगाने से वहां के युवा भड़क गए. उन युवाओं ने 8 सितंबर को ‘जेनरेशन जेड रिवोल्यूशन’ के नाम से प्रदर्शन शुरू किया, जिस में 22 लोगों की जानें चली गईं और 200 के करीब घायल हुए.

नेपाल में जो प्रदर्शन हुए उसे जेन जी आंदोलन इसलिए कहा गया क्योंकि उस में सब से बड़ी भागीदारी युवाओं की थी, खासकर, 18 से 25 साल की उस पीढ़ी की जिसे जेनरेशन जेड यानी जेन जी कहा जाता है. नेपाल की जेन जी पीढ़ी इस बात से आक्रोशित थी कि सत्ता में बैठे लोग अपने बच्चों को तो ऐशोआराम वाली जिंदगी दे रहे हैं जबकि आम लोग बदहाली का जीवन बिताने को मजबूर हैं. जेन जी का कहना था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधि ईमानदार व पारदर्शी शासन का वादा कर के सत्ता में आते हैं लेकिन सत्ता पाने के बाद सारे वादे भूल जाते हैं.

जेन जी कौन?

आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह जेन जी या जेनरेशन जेड कौन सी पीढ़ी है जिस का जिक्र हर व्यक्ति की जबां पर है तो जेनरेशन जेड जिसे जूमर्स के रूप में भी जाना जाता है, यह वह पीढ़ी है जो 1997 से 2012 के बीच पैदा हुई है. इस पीढ़ी में 13 से 28 साल तक के युवा आते हैं. यह आधुनिक पीढ़ियों में सब से युवा और डिजिटल रूप में जन्मी पीढ़ी मानी जाती है.

यह पीढ़ी मिलेनियल्स (जेन वाई 1981-1996) के बाद आती है. जेनरेशन जेड को ‘डिजिटल नेटिव्स’ भी कहा जाता है. जेन जी वाले ऐसी दुनिया में पलेबढ़े हैं जिस में इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया हमेशा मौजूद रहे हैं. जेनरेशन जेड वाले कई मायनों में काबिल हैं. इन की सब से बड़ी खूबी यह है कि ये मल्टीटास्किंग, रचनात्मक, तकनीक प्रेमी हैं और सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रहते हैं. ये लोग सामाजिक मुद्दों पर खुल कर बात करते हैं और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ बोलने की ताकत रखते हैं. इसी वजह से जब नेपाल सरकार ने सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाई तो सब से ज्यादा नाराजगी जेन जी में दिखी.

जेन जी कई काम एकसाथ कर सकते हैं, जैसे वीडियो देखना, दोस्तों के साथ चैट करना और साथ में कोई अन्य कार्य भी. वर्तमान में देश में 35 करोड़ से ज्यादा लोग जेन जी, जूमर्स हैं जो टैक्नोलौजी फ्रैंडली हैं. ऐसे में अगर आप इन लोगों को हलके में लेते हैं तो आप गलती कर रहे हैं क्योंकि आज का समय टैक्नोलौजी का है और तकरीबन हर टैक्नोलौजी में परिवर्तन हो रहे हैं. जेनरेशन जेड वाले इस बदलाव को बहुत जल्दी सीख लेते हैं और इस का यूज वे पेशेवरों की तरह करते हैं.

बड़ों के लिए इस जेनरेशन को समझाना आसान नहीं रह गया है. बेंगलुरु के एक परिवार की 14 वर्षीया सोनम (बदला हुआ नाम) का कहना है कि उस के मातापिता दोनों सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं, उन के पास उसे देने के लिए

समय नहीं है. वह अपने अकेलेपन और तनाव को कम करने के लिए दिन में 8 से 10 घंटे सोशल मीडिया और ऑनलाइन गेम्स पर बिताती है.

दिल्ली के एक 16 वर्षीय किशोर आरव (बदला हुआ नाम) ने एक साक्षात्कार में बताया कि माता पिता दोनों कॉर्पोरेट नौकरियों में हैं, रात 9 बजे से पहले घर नहीं आते. वह अपनी समस्याएं दोस्तों या सोशल मीडिया पर साझ करता है, जिस के कारण उसे कई बार गलत सलाह मिली या साइबर बुलिंग का सामना करना पड़ा.

वर्ष 2023 के एक सर्वे में भारत के 70 फीसदी से ज्यादा जेन जी युवाओं का कहना है कि उन के माता पिता उन की मेंटल हेल्थ या कैरियर की चिंताओं को पूरी तरह नहीं समझते.

बेंगलुरु की ही 19 वर्षीया अनन्या (बदला हुआ नाम) का कहना है, ‘‘मेरे मातापिता रातभर फोन इस्तेमाल करने की अनुमति देते हैं, क्योंकि वे इसे आजकल का ट्रैंड मानते हैं.’’

2022 के एक सर्वे में जेनरेशन जेड के 60 फीसदी युवाओं ने स्वीकार किया कि वे अपने फोन के बिना खुद को खोया हुआ महसूस करते हैं और उन में यह लत अभिभावकों की निगरानी की कमी के कारण बढ़ रही है. सोशल मीडिया की लत से नींद की कमी, खराब शैक्षिक प्रदर्शन और सामाजिक अलगाव की समस्या बढ़ रही है.

एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारत में 60 फीसदी से अधिक माता पिता अपने बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताने में असमर्थ हैं क्योंकि वे अपने कैरियर और आर्थिक दबाव में इतना अधिक घिरे रहते हैं कि उन के पास बच्चों को देने के लिए योग्य वक्त ही नहीं रहता. परिणाम यह होता है कि जेन जेड के बच्चे भावनात्मक समर्थन और मार्गदर्शन के लिए माता पिता के बजाय सोशल मीडिया की ओर रुख कर लेते हैं. इस से उन में आत्मविश्वास की कमी, तनाव और असुरक्षा की भावना बढ़ी है.

अभिभावक अकसर बच्चों के सोशल मीडिया प्रयोग को नियंत्रित करने में असफल रहते हैं या फिर इसे पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं. जर्नल ऑफ चाइल्ड साइकोलॉजी 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि जिन परिवारों में अभिभावक बच्चों के ऑनलाइन समय की निगरानी नहीं करते, वहां डिजिटल व्यसन की संभावना 40 फीसदी अधिक होती है. भारत में कई माता पिता तकनीकी जागरूकता की कमी के कारण बच्चों को स्मार्टफोन दे देते हैं, बिना उचित दिशा निर्देश के.

जेन जी का सोशल मीडिया से गहरा नाता

‘जेनरेशन जेड’ वाले बच्चे सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहते हैं. जेन जी युवा अपने आसपास हमेशा इंटरनेट की उपलब्धता चाहते हैं, क्योंकि वे अपने हर सवाल का जवाब इंटरनेट के जरिए आसानी से खोज लेते हैं. कनेक्टिविटी इन के जीवन में व्याप्त है. दोस्ती से ले कर रिश्तों, समाचार, मनोरंजन, खरीदारी और यहां तक कि इन के बातचीत करने के तरीके तक बदल गए हैं.

इन के सब से लोकप्रिय ऐप्स स्नैपचैट, इंस्टाग्राम और मैसेजिंग ऐप, किक आदि हैं. एक युवा किशोर के इंस्टाग्राम पर कम से कम 150 फॉलोअर्स होते हैं और वे स्नैपचैट पर लगभग आधा से एक घंटा बिताते हैं. जेन जी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर भी होते हैं जो वीडियो या पोस्ट को इंटरनेट की मदद से लोगों तक जानकारी पहुंचाते हैं और उन्हें प्रभावित करते हैं.

2023 के एक सर्वे में 30 फीसदी युवाओं ने बताया कि उन के माता पिता उन के सोशल मीडिया प्रयोग से अनजान हैं.

हिंदी के एक अखबार में ब्रिटिश वेबसाइट ‘डेली मेल’ में पब्लिश हुई एक स्टडी का जिक्र किया गया जिस में बताया गया कि आज की पीढ़ी का ब्रेन साइज 100 साल पहले पैदा हुए लोगों के मुकाबले ज्यादा बड़ा है, लेकिन युवा पीढ़ी के आईक्यू लेवल में पहले की पीढ़ियों के मुकाबले कमी देखने को मिली है. स्टडी में यह दावा किया गया कि युवा पीढ़ी के आईक्यू स्कोर में काफी गिरावट है (हालांकि ब्रेन के बड़े या छोटे साइज और आईक्यू लेवल का कोई संबंध नहीं है लेकिन स्कोर में गिरावट चिंता का विषय है). शोधकर्ताओं ने इस का कारण फोन और इंटरनेट पर अत्यधिक निर्भरता को बताया है.

जेन जी की उंगलियां दिमाग की तरह तेज दौड़ती हैं

जेनरेशन जेड वालों का दिमाग काफी तेज दौड़ता है. इंटरनेट की दुनिया में इन की उंगलियां मोबाइल और लैपटॉप पर ऐसे थिरकती हैं जैसे कीबोर्ड से इन का पुराना नाता हो. आज के युवा व किशोर मोबाइल या लैपटॉप पर कुछ सर्च या टाइप कर रहे होते हैं तो पलक झपकते ही ये इसे पूरी तरह से अपनी कमांड में ले लेते हैं लेकिन यह भी सच है कि इस पीढ़ी के बच्चे ज्यादा तनाव में रहते हैं. अकसर छोटी छोटी बातों से ये लोग तनाव में आ जाते हैं.

सिक्स सैकंड्स की स्टेट ऑफ द हार्ट रिपोर्ट 2024, जोकि दुनिया का सब से बड़ी भावनात्मक बुद्धिमत्ता पूर्ण है, को तैयार करने के लिए 129 देशों से डाटा लिया गया.

इस में पाया गया कि जेनरेशन जेड में भावनात्मक बुद्धिमत्ता के सभी 8 कौशलों में 2019 से 2023 तक महत्त्वपूर्ण गिरावट आई है. विशेष रूप से जेन जेड में बर्नआउट बढ़ा है, जो व्यक्तिगत बुद्धि की कमी (भावनाओं का प्रबंध न कर पाना) और पारस्परिक बुद्धि की कमी (टीमवर्क और संवाद में कठिनाई) से जुड़ा है. इस का कारण डिजिटल वातावरण, सोशल मीडिया का अधिक उपयोग और पारंपरिक सामाजिक कौशलों का अभाव है.

हौवर्ड गार्डनर ने अपने बहुबुद्धि सिद्धांत में 8 प्रकार की बुद्धि बताई हैं जिन में भाषाई बुद्धि, तार्किक बुद्धि, स्थानिक बुद्धि, शारीरिक गतिज बुद्धि, संगीतात्मक बुद्धि, पारस्परिक बुद्धि यानी दूसरों की भावनाओं व प्रेरणाओं को समझने की क्षमता, अंत: वैयक्तिक बुद्धि यानी अपनी भावनाओं, उद्देश्यों और इच्छाओं को समझने की क्षमता आदि शामिल हैं.

जनरेशन जेड में पारस्परिक बुद्धि – दूसरों की भावनाओं, प्रेरणाओं को समझने की क्षमता तथा अंत: वैयक्तिक बुद्धि- अपनी भावनाओं, उद्देश्यों और इच्छाओं को समझने की क्षमता में कमी पाई गई है.

तनावग्रस्त और चिंतित पीढ़ी

जेनरेशन जेड वाले दुनियाभर में डिप्रेशन और चिंता का सामना कर रहे हैं. मिलेनियल्स की तुलना में जेन जी काफी उदास जनरेशन है. कई स्टडी में बताया गया है कि जेन जी युवा काफी तनाव में रहते हैं.

भारत की सब से बड़ी बीमा कंपनियों में से एक आईसीआईसीआई लोम्बार्ड की एक स्टडी में पता चला है कि जनरेशन जेड और मिलेनियल्स वाले भारतीयों के पिछली पीढ़ियों के मुकाबले ज्यादा तनाव व चिंता ग्रस्त होने का खतरा है.

जनरेशन जेड युवाओं की ऑनलाइन बातचीत में समय बिताने की मजबूरी उन के समाजीकरण की प्रक्रिया को कमजोर कर रही है. माता पिता के पास उन के लिए पर्याप्त समय नहीं है जिस से उन में सामाजिक और पारिवारिक अलगाव पैदा हो रहे हैं.

साइकोलॉजिकल एसोसिएशन की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फीसदी से अधिक जनरेशन जेड के किशोरों ने बताया कि वे अपने माता पिता के साथ खुल कर बात नहीं कर पाते क्योंकि माता पिता या तो काम में व्यस्त रहते हैं या फोन पर समय बिताते हैं. इस का जेनरेशन जेड के सेल्फ कॉन्सेप्ट पर भी असर पड़ा है, क्योंकि समाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक दुनिया में एकीकृत करने और उन के स्व अवधारणा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

दूसरी ओर खराब जीवनशैली ने उन की शारीरिक-गतिज बुद्धि, अपने शरीर का उपयोग कर के किसी कार्य को करने की क्षमता, जैसे डांस या खेल को प्रभावित किया है. रात को देर तक जागना, नींद की कमी और शारीरिक गतिविधि का अभाव उन के दिमाग और शरीर दोनों को प्रभावित कर रहा है.

एक स्टडी के मुताबिक, करीब 77 फीसदी लोगों में तनाव का कम से कम एक लक्षण देखा गया है. हर तीन में एक भारतीय युवा जेन जी, तनाव और घबराहट से जूझ रहा है. इस से यह स्पष्ट है कि युवा वर्ग इन मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ज्यादा प्रभावित है. रिपोर्ट में और कुछ चिंताजनक रुझन भी उजागर हुए हैं.

जनरेशन जेड और मिलेनियल्स में सहनशक्ति में कमी देखी गई है. ये किसी भी बात पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं, जिस से कई बार गलतफहमी पैदा हो सकती है. इस के अलावा कई बार ये बहुत ज्यादा रक्षात्मक रवैया अपना सकते हैं और असहमत होने पर निष्क्रिय रूप से आक्रामक बन जाते हैं. इन पीढ़ियों वाले सच बात बोलने से नहीं डरते और अपने हक के लिए लड़ना जानते हैं.

दुखी होने के कारण क्या?

जेन जी के दुखी होने के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सब से बड़ा कारण सोशल मीडिया और स्मार्टफोन है. जेन जी युवा अपना अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं. सोशल मीडिया पर वे रील्स, फोटोज, स्टोरीज, अपना लाइफस्टाइल शो ज्यादा अपलोड करते हैं.

अपलोड करने के बाद वे बार बार चेक करते हैं कि उन्हें कितने लाइक और कमैंट्स मिले, कितने व्यूज हुए और यह सिलसिला घंटों तक चलता है और जब परिणाम उन के मनमुताबिक नहीं आता तब वे निराशा से भर उठते हैं. फिर धीरे धीरे डिप्रेशन और एंग्जायटी के शिकार बनते चले जाते हैं. उन्हें फिर कुछ अच्छा नहीं लगता. उन्हें लगता है कि दूसरे लोगों की जिंदगी उन से ज्यादा बेहतर है. सोशल मीडिया पर वे अपनी तुलना लोगों से कर के दुखी होते हैं कि वे हम से ज्यादा खुश हैं.

दिल्ली की एक किशोरी रिया ने बताया कि उस के माता पिता दोनों कॉर्पोरेट नौकरियों में व्यस्त रहते हैं और वह अपनी समस्याओं को इंस्टाग्राम पर दोस्तों के साथ साझ करती है क्योंकि उसे घर पर सुनने वाला कोई नहीं मिलता.

पहले घरों में किताबें, विश्वकोश और ज्ञान से भरे इनसाइक्लोपीडिया हुआ करते थे. बच्चे किताबों के बीच बड़े होते थे, जिस से उन की जिज्ञासा बढ़ती थी. आज के डिजिटल युग में देखें तो पेरेंट्स ने किताबों को घर से लगभग गायब सा कर दिया है.

आर्थिक और जॉब की भी चिंता

25 साल की मेघना को इस बात का तनाव है कि उस ने अपने कैरियर के लिए बहुत मेहनत की लेकिन उसे लगता है उस की मेहनत के अनुसार उसे परिणाम प्राप्त नहीं हुए. वहीं, उस के कई दोस्त, जो उस से पढ़ने में कम तेज थे, जिंदगी को एंजॉय भी कर रहे हैं और उस से ज्यादा सफल भी हैं.

26 साल के सचिन का कहना है कि उस की कालेज की ज्यादातर पढ़ाई कोरोना महामारी के दौरान हुई. जब सब ठीक होने लगा तो उस की जौब लग गई. अब उसे लगता है कि कार्यस्थल पर बहुत सारे लोग टौक्सिक हैं, जहां वह वर्कलाइफ संतुलन नहीं बना पा रहा है. उसे यह भी लगता है कि हरकोई उस से ज्यादा खुश और अच्छी जिंदगी जी रहा है.

24 वर्षीया स्नेहा, जो कालेज की छात्रा है, कहती है, ‘‘मेरी मां कहती हैं, मेरी उम्र में उन की शादी हो गई थी और बच्चे भी हो गए थे.’’ लेकिन स्नेहा शादी और बच्चे की झंझटों में नहीं उलझना चाहती क्योंकि उस ने अपनी मां को घरगृहस्थी में पिसते देखा है. उसे अपनी जिंदगी ऐसी नहीं बनानी है. इस बात के लिए अपने पेरेंट्स को वह कैसे समझए, उसे यह समझ नहीं आता.

अकसर लोग इस कुंठा में जीते हैं कि जैसा उस ने चाहा था, उसे मिल नहीं पाया, या जो मिला, वह उस के लिए बेहतर नहीं है. इस के अलावा युवा अकसर अपने दोस्तों, रिश्तेदारों या अपने किसी आदर्शों, जैसे नामी शख्सियत, इन्फ्लुएंसरों और बड़े लोगों से अपनी तुलना कर के अपने आप को कम आंकने लगते हैं या दुखी हो जाते हैं, जिस वजह से उन में स्वाभिमान की भावना कम होने लगती है और आत्मसम्मान कमजोर पड़ने लगता है.

स्मार्टफोन ने जितनी सुविधाएं दी हैं उन से कहीं ज्यादा यह डिवाइस जी का जंजाल बन चुका है. भारत से ले कर दुनियाभर में स्मार्टफोन और सोशल मीडिया की वजह से हो रहे नुकसान को ले कर स्टडीज और रिसर्च होती रहती हैं. एक्सपर्ट लगातार फोन और सोशल मीडिया के इस्तेमाल को ले कर अलर्ट करते रहते हैं.

12 अक्टूबर, 2024 को द लैंसेट जर्नल में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिस में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर द्वारा युवाओं के दिमाग और उन की मेंटल हेल्थ पर पड़ रहे बुरे असर को ले कर आगाह किया गया था. भारत में अजीबोगरीब रील्स बना रहे कुछ इन्फ्लुएंसर्स युवाओं के साथ साथ छोटे बच्चों की मेंटल हैल्थ के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं, जिस के चलते युवा न केवल नेगेटिव चीजों की तरफ बढ़ रहे हैं बल्कि उन में सुसाइड टेंडेंसी भी बढ़ रही है.

रिपोर्ट के मुताबिक, 36 फीसदी से ज्यादा जेन जी युवा लगातार ऑनलाइन रहने के चलते बाहरी या अनजान लोगों के संपर्क में रहते हैं. 11 फीसदी में स्मार्टफोन या सोशल मीडिया का नशा जैसे लक्षण मिल रहे हैं. वहीं, इतने ही जेन जी युवा ऐसे हैं जो अगर सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं या कुछ देर भी अपने फोन से दूर रहते हैं तो उन में मूड ओफ या एंग्जाइटी के लक्षण दिखाई देते हैं.

10 से 24 साल के युवाओं में इलनैस का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है. फोन और सोशल मीडिया की वजह से परिवारों, दोस्तों यहां तक कि खाने की टेबल पर बैठे लोगों में भी कन्वर्सेशन की कमी देखी जा रही है क्योंकि वे सभी एक साथ फोन चलाते हैं.

अमेरिका के न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट मैथ्यू सोलिट कहते हैं कि मोबाइल पर बात करने की आदतों के चलते जेन जी पीढ़ी में फेस टू फेस बातचीत कम हो गई है. अब उन की आदत नहीं रही कि वे परिवार में भी किसी की आंख का इशारा समझ सकें. वे आमतौर पर किसी भी तरह के हावभाव को समझ नहीं पाते हैं. वैसे, इसे भावनाहीन होना तो नहीं कहेंगे लेकिन उन की आंखें हर तरह के भावों से उदासीन होने लगी हैं. ये डिजिटल प्रभाव अगली पीढ़ी ‘जेन-अल्फा’ में भयानक हो सकते हैं.

महामारी का भी असर

फोरेंसिक न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट और मनोविज्ञान प्रोफेसर जूडी, जोकि कैलिफोर्निया के पेप्परडाइन यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं, कहती हैं कि कोरोना महामारी ने भी गहरा असर छोड़ा है. जेनरेशन जेड के कई बच्चों ने एक साल तक हर दिन साथियों के साथ बातचीत करने के अवसर खो दिए थे, जो भावनात्मक सामंजस्य और सामाजिक आत्मविश्वास बनने के लिए जरूरी होते हैं. डा. जूडी के अनुसार, अध्ययनों से पता चला है कि महामारी ने जेन जेड में सामाजिक दूरी की दर को बढ़ा दिया है और उन्हें हर तरह की सामाजिक परिस्थितियों में पहले से अधिक असहजता का अनुभव हुआ है.

घूरती है जनरेशन जेड

जनरेशन जेड का खाली आंखों से देखना दुनियाभर में ‘जेन जी का घूरना’ टैगलाइन से ट्रैंड कर रहा है. सोशल मीडिया में इसे ले कर चर्चा छिड़ गई है कि जेन जी की आंखें हर बात के जवाब में सिर्फ घूरती क्यों हैं? मैथ्यू सोलिट कहते हैं कि डिजिटल पीढ़ी की आमने सामने की मुलाकातों में कमी आई है. कई युवा तो टेक्स्ट या इमोजी के जरिए अपनी बात कहने में ज्यादा सहज होते हैं. यह अगली पीढ़ी के लिए सामाजिक चिंता का एक बड़ा कारण हो सकता है.

जिम्मेदार माता पिता

द्य युवा और किशोर बच्चों में फोन की लत के जिम्मेदार काफी हद तक माता पिता भी हैं. अकसर देखा गया है कि पेरेंट्स अपने बच्चों की जिद पर उन्हें महंगे से महंगा फोन खरीद कर दे देते हैं. वे एक बार यह नहीं सोचते कि क्या सच में बच्चों को फोन की जरूरत है.

द्य माता पिता अपने बच्चों को बिजी करने के लिए फोन पकड़ा देते हैं. बच्चों को स्कूल में फोन ले जाने की मनाही होती है, फिर भी ले कर जाते हैं. सो, माता पिता को यह देखने की जरूरत है कि उन के बच्चे कर क्या रहे हैं. बच्चे देर रात तक फोन पर क्या देखते हैं, यह देखने की जिम्मेदारी माता पिता की ही तो है.

द्य कोलकाता की 22 साल की अंकिता पर उस के परिवार ने शादी के लिए दबाव डाला क्योंकि उन के समाज में इस उम्र तक शादी हो जानी चाहिए. अंकिता का कहना है, ‘‘मैं अपने करियर और जिंदगी पर फोकस करना चाहती हूं जबकि पेरेंट्स शादी के लिए दबाव डाल रहे हैं.’’

द्य पेरेंट्स की यह मानसिकता जेन जेड को अपनी पहचान बनाने से रोकती है, उन्हें परंपराओं के नाम पर ऐसे नियम मानने पड़ते हैं जो आज के समय में प्रासंगिक नहीं हैं.

दिल्ली की 18 वर्षीया नेहा ने बताया कि उस के माता पिता की लगातार तुलना और टॉप रैंक की उम्मीद ने उसे तनावग्रस्त कर दिया.

लखनऊ की 20 वर्षीया प्रिया का कहना है कि उस के माता पिता ने उस के करियर, उस की महत्वाकांक्षाओं, फैशन डिजाइनिंग को खारिज कर दिया, क्योंकि वे लड़कियों के लिए इसे अनुचित मानते थे.

यूएनआईसीईएफ इंडिया 2023 की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि 35 फीसदी युवा अपने माता पिता की रूढ़िगत सोच से परेशान हैं.

इंडियन जर्नल ऑफ सोशल सायकेट्री 2022 में पाया गया कि माता पिता की रूढ़िगत अपेक्षाएं युवाओं में पहचान संकट को बढ़ा रही हैं.

भारत की सच्चाई यह है कि करीब 140 करोड़ की आबादी में 27.2 प्रतिशत 15 साल से 29 साल के युवा हैं. इन में से अधिकांश की स्मार्टफोन तक पहुंच है और उस के माध्यम से बेलगाम सोशल मीडिया तक.

जान जोखिम में डालते हैं

सोशल मीडिया पर रोजाना ऐसे कई वीडियो देखने को मिल जाते हैं जिन में किशोर व युवा अपनी जान जोखिम में डाल कर रील बनाते हैं. कोई ट्रेन की पटरियों के बीच लेट कर कर तो कोई हाईवे पर खतरनाक स्टंट कर के खुद को हीरो साबित करने पर तुला है, लेकिन कई बार इस से दूसरों की जान भी आफत में आ जाती है.

भारत में कई ऐसे चर्चित मामलों को उदाहरण के रूप में बताया गया है जिन में युवाओं व किशोरों की सोशल मीडिया की वजह से खौफनाक मौत हो चुकी है. कई युवा इंस्टाग्राम और सोशल मीडिया पर लाइव खुदकुशी कर के दिखाते हैं, क्योंकि किसी का प्यार में दिल टूट गया होता है तो कोई कम फॉलोअर्स और व्यूज के कारण दुखी होते हैं तो वहीं कोई जिंदगी से निराश हो चुका होता है. सो, वे खुद की मौत का लाइव वीडियो बना कर अपनी जान दे देते हैं.

सरकार कितनी जिम्मेदार?

भारत में जेनरेशन जेड में सोशल मीडिया के बढ़ते चलन के लिए केवल सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. यह एक बहुआयामी सामाजिक-तकनीकी परिवर्तन है लेकिन सरकार की नीतियां अप्रत्यक्ष रूप से इसे प्रभावित कर सकती हैं.

सोशल मीडिया के लोकप्रिय होने के मुख्य कारण इंटरनेट और स्मार्टफोन का व्यापक उपयोग, युवा पीढ़ी की डिजिटल साक्षरता और संचार व मनोरंजन की प्राथमिकता में बदलाव हैं. सरकार पर सोशल मीडिया के उपयोग को विनियमित करने और इस के नकारात्मक प्रभावों को कम करने की जिम्मेदारी है, न कि इस के प्रसार के लिए.

टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (टीआरएआई) के मुताबिक, भारत में इंटरनेट कनेक्शन के साथ स्मार्टफोन की संख्या 100 करोड़ से ज्यादा हो चुकी है. शहरी इलाकों में स्मार्टफोन का घनत्व आबादी के मुकाबले 128 फीसदी ज्यादा है तो ग्रामीण भारत में फरवरी 2024 तक यह 58 फीसदी तक पहुंच चुका था. Gen Z Special

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