बेंगलुरु की 35 वर्षीया वैशाली अपने 70 वर्षीय पिता की देखभाल करने वाली इकलौती संतान है. मां अब इस दुनिया में नहीं है. पिता हाइपरटैंशन व क्रौनिक किडनी डिजीज के मरीज हैं. पिता के खानेपीने से ले कर, उन्हें अस्पताल ले जाना, उन की डायलिसिस कराना, उन के इलाज का खर्चा सबकुछ की जिम्मेदारी अकेली वैशाली की है. पिता की इस हालत और अकेली होने के कारण वह कोई अटैंडेंट रखना भी सुरक्षित नहीं समझती. सामाजिक तौर पर वह पूरी तरह अकेली है. आसपड़ोस से उसे ‘बेचारी’ का टैग मिलता है. रात को नींद में पिता की जरा सी आहट से वह जाग उठती है. वैशाली खुद नहीं जानती ऐसा कब तक चलेगा लेकिन उस ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया है और जो उस से हो सकता है वह करने की पूरी कोशिश करती है. पिता की इस हालत के आगे उस की अपनी खुशियां, अपनी चाहतें कहीं पीछे छूट गई हैं. उम्र के तीसरे दशक में वह रुकी सी जिंदगी जी रही है जहां उस का जीवन जटिलताओं से भरा हुआ है. उस के पास यह सोचने का भी समय नहीं है कि पिता के इस दुनिया से चले जाने के बाद वह अपनी रुकी जिंदगी को कैसे रफ्तार देगी.
वैशाली जैसी अनेक पीकूवादी बहू, बेटी के रूप में अपनी व्यक्तिगत जिंदगी, अपने कैरियर को परे रख कर अपने पिता, अपनी मां या सास की सेवा में लगी हैं. उन्होंने अपनी इच्छाओं, अपनी खुशियों को तिलांजलि दे दी है. उन्हें भी कोई ऐसा चाहिए जो उन की परेशानी, उन की घुटन को समझ सके. जिम्मेदारियों के लिए अपनी इच्छाओं को मारने वाले ये केयरगिवर हर पल निराशा व नकारात्मकता में जीते हैं. हाल ही में प्रदर्शित फिल्म ‘पीकू’ की कहानी भी वैशाली जैसी है. जहां खूबसूरत, तनावग्रस्त बेटी है, बीमार पिता है. जहां बेटी की जिंदगी का हर पल दवा, बीमारी, डाक्टरों में उलझा है, पिता की देखभाल में व्यस्त बेटी की कोई पर्सनल लाइफ नहीं है. वह मैडिकल एनसाइक्लोपीडिया बन चुकी है.
पीकू फिल्म से अनेक ऐसे सवाल उभरे हैं जिन की ओर समाज ने कभी ध्यान नहीं दिया. हमारे समाज में आम धारणा है कि बुजुर्गों की सेवा करनी चाहिए, बुजुर्गों का मानसम्मान करना उन की सेवा करना, बच्चों का कर्तव्य है. जो व्यक्ति मांबाप की सेवा करता है वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को पाता है. बुजुर्गों की सेवा सब से बड़ा धर्म है. इसी धर्म के चलते कितने युवाओं की इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन हो रहा है, इस ओर कोई क्यों ध्यान नहीं देता? क्या बच्चों की जिंदगी और उन की खुशी कोई महत्त्व नहीं रखती? विधुर वृद्ध पिता के साथ रहती अकेली कामकाजी युवती अपनी प्रोफैशनल जिम्मेदारियों व पारिवारिक जिम्मेदारियों को कैसे अकेले भला मैनेज करे? जब बुजुर्ग इमोशनल, फाइनैंशियल ब्लैकमेल करें तो वह क्या करे? कोई केयरगिवर के तनाव, निराशा व उस की कुंठित भावनाओं को क्यों नहीं समझता? आइए, कुछ उदाहरणों के जरिए ढूंढ़ते हैं इन्हीं सवालों के जवाब :
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बुजुर्गों की सनक
बुजुर्गों के इस स्वभाव को हम पीकू फिल्म के चरित्र भास्कोर के माध्यम से भी बखूबी समझ सकते हैं. भास्कोर अपनी बेटी पीकू की शादी नहीं कराना चाहता. वह लड़कों के सामने पीकू का परिचय कुछ इस प्रकार देता है, ‘‘पीकू इज नौट वर्जिन ऐंड शी इज फाइनैंशियली ऐंड सैक्सुअली इंडिपेंडैंट.’’ ऐसा इसलिए ताकि विवाह की बात आगे न बढ़ सके. सारी मैडिकल रिपोर्ट्स ठीक आने के बावजूद वह खुद को हमेशा बीमार समझता है, पीकू के औफिस, उस के दोस्तों के सामने सिर्फ अपनी बीमारी, अपनी कब्जियत का रोना रोता रहता है. वह हर बात पर अपनी चलाता है. मैडिकल नौनसैंस उस की हौबी है. अपने होमटाउन कोलकाता जाना भी भास्कोर का निर्णय होता है, प्लेन से नहीं कार से जाएंगे. यह भी उस का निर्णय होता है. तबीयत ठीक न होने के बावजूद पार्टी से आ कर डिं्रक करना, घर के नौकरों से, पड़ोसियों से बातबात पर बहस करना यह सब दर्शाता है कि वह सनकी, जिद्दी, स्वार्थी बुजुर्ग है जिसे बेटी की खुशियों से कोई लेनादेना नहीं है.
यह फिल्म वास्तविक दुनिया से अलग नहीं है. हमारे, आप के आसपास अनेक ऐसे बेटेबेटियां हैं जिन के बुजुर्ग मातापिता अपने सनकपने, स्वार्थीपने के आगे बच्चों की इच्छाओं को अनदेखा कर रहे हैं. बातबात पर चिड़चिड़ाना, छोटीछोटी शारीरिक समस्याओं को बड़ा बना कर घर में तमाशा बना देना, खानेपीने, कहीं भी आनेजाने में अपनी जिद मनवाना आदि इन के स्वभाव में शामिल है. अगर ये बुजुर्ग फाइनैंशियली सैटल हैं तो वे बच्चों को आर्थिक रूप से भी ब्लैकमेल करते हैं. अपने पुराने गांव, अपनी जमीन से जुड़े रहने की जिद, उसे न बेचने की जिद बच्चों को परेशान करने का उन का एक अन्य तरीका होता है. वे सिर्फ अपनी परेशानी को बड़ा समझते हैं. उन की परेशानी के आगे बच्चों की परेशानी कोई माने नहीं रखती. उदाहरण के तौर पर समझें तो मातापिता की सेवा करने वाला एक बेटा या बेटी जो कामकाजी है उस के औफिस में बहुत टैंशन है, वर्कप्रैशर है, औफिस पौलिटिक्स का सामना कर रहा है लेकिन जब वह घर पहुंचता है तो घर में बैठा बुजुर्ग उस से उस की परेशानी पूछने, उस से सहानुभूति रखने के बजाय अपनी परेशानियों का रोना ले कर बैठ जाता है.
अपनी बीमारियों को बढ़ाचढ़ा कर बताने के पीछे बुजुर्गों का एक मनोविज्ञान काम करता है. वे पड़ोसियों, रिश्तेदारों के सामने अपनी बीमारी के बारे में बढ़ाचढ़ा कर बताते हैं ताकि वे अधिक से अधिक सहानुभूति बटोर सकें और उन के बच्चे उन पर अधिक ध्यान दें. वे बच्चों के उन के प्रति भावनात्मक जुड़ाव को ले कर उन्हें इमोशनली ब्लैकमेल करते हैं. उन्हें बच्चों के इमोशन से कोई लेनादेना नहीं होता. अगर बुजुर्गों को सचमुच अपने बच्चों से लगाव है तो उन्हें चाहिए कि वे बच्चों की इच्छाओं, परेशानियों को समझें. खुद बीमार हों तो औरों को बीमार न बनाएं.
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केयरगिवर की रुकी जिंदगी
40 वर्षीया मोनिका चार्टर्ड अकाउंटैंट है लेकिन मोनिका ने अपने सफल कैरियर को ताक पर रख कर अपनी जिंदगी को सास की सेवा में लगा दिया है. पति प्राइवेट कंपनी में कार्यरत हैं. मोनिका को अपने कैरियर को स्थगित करना पड़ा क्योंकि सास की सेवा वही कर सकती थी. मोनिका कहती है कि सास की देखभाल में रोज उसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सास डिमैंशिया रोग से पीडि़त हैं. मोनिका की सास कभीकभी तो इतनी अजीब तरह से पेश आती हैं कि मोनिका खुद डर जाती है और उस का तनाव व निराशा हद से अधिक बढ़ जाते हैं. कभीकभी सास जब आक्रामक हो जाती हैं और असभ्य ढंग से पेश आने लगती हैं तो समझ नहीं आता कि वह खुद को कैसे संभाले. सास की सेवा में उस का खुद का स्वास्थ्य नजरअंदाज हो रहा है. <span”>कहने को हमारे यहां संयुक्त प्रथा प्रणाली है. मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी घर के सभी सदस्यों की होती है लेकिन ऐसी मुश्किल घड़ी में घर के अधिकांश सदस्य पल्ला झाड़ लेते हैं. ऐसे में केयरगिवर की हालत पस्त हो जाती है. उस के लिए अकेले मरीज को संभालना, उस की दवाएं, खानापीना, डाक्टरों के पास ले जाना आदि संभव नहीं हो पाता. और वह झल्ला जाता है या खुद डिप्रैशन में चला जाता है. उस की पूरी जिंदगी दवाओं व बीमारी में उलझ कर रह जाती है. उस की कोई व्यक्तिगत व सामाजिक जिंदगी नहीं रह जाती. वह पूरी तरह अलगथलग पड़ जाता है.</span”>
ऐसे में जरूरत है सहायक संस्थाओं की, जिन के प्रशिक्षित काउंसलर केयरगिवर की परेशानी समझें और उन्हें सही सलाह भी दें. साथ ही, ट्रेंड केयरगिवर उपलब्ध करवाने की कोशिश भी करें ताकि उन की रुकी घुटनभरी जिंदगी को खुली हवा मिल सके.
दोहरा मापदंड क्यों
पीकू फिल्म ने एक अन्य सवाल जो खड़ा किया वह यह है कि क्या मातापिता द्वारा बच्चों के पालनपोषण करने की बच्चों को इतनी बड़ी सजा मिलनी चाहिए कि बच्चे मातापिता के एहसान का बदला अपनी जिंदगी, अपने कैरियर की तिलांजलि दे कर चुकाएं? अगर बच्चों की मातापिता के स्वास्थ्य सेवा के प्रति जिम्मेदारी बनती है तो क्या मातापिता की बच्चों के भविष्य, उन के पारिवारिक जीवन में सैटल होने के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? बुजुर्ग मातापिता इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं कि वे अपनी खुशी, अपनी सोच के आगे बेटे या बेटी के भविष्य को दांव पर लगा दें. ऐसे अनेक उदाहरण समाज में देखने को मिलते हैं जहां एक बेटा या बेटी अपने बुजुर्ग मातापिता की सेवा के लिए अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा देता है, जिस उम्र में मातापिता को उन का विवाह कर के उन्हें जीवन की खुशियां देनी चाहिए उस उम्र में वे स्वार्थी हो कर कैसे बच्चों की व्यक्तिगत जिंदगी पर कुंडली जमा कर बैठ सकते हैं.
ऐसे बच्चे जब अपने आसपास दोस्तों, हमउम्र रिश्तेदारों को वैवाहिक जीवन की खुशियां बटोरते, कैरियर में ऊंचे मुकाम पाते देखते हैं तो वे पलपल अपनी इच्छाओं को मारते हैं और उन के पास तनावग्रस्त हो कर निराशा में डूबने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचता. आप उस लड़की या लड़के की मनोदशा का अंदाजा लगाइए जो पढ़ीलिखी आत्मनिर्भर है, खूबसूरत है लेकिन उसे मातापिता की सेवा के आगे अपनी खुशियों का त्याग करना पड़ता है. जब बच्चे मातापिता की खुशी, उन की देखभाल के बारे में सोचते हैं तो क्या मातापिता का फर्ज नहीं कि वे बच्चों की खुशियों, उन की इच्छाओं को तरजीह दें, प्राथमिकता दें?
खुद जिएं औरों को भी जीने दें
जिंदगी को खुद के लिए और बच्चों के लिए भी बोझ बनाते बुजुर्गों को सीख देती फारुख शेख व अन्य मंझे किरदारों द्वारा अभिनीत फिल्म ‘क्लब 60’ ऐसे बुजुर्गों को जीने की नई दिशा दिखाती है जो जीवन के 6 दशक देखने के बाद भी उम्र व परेशानियों की परवा नहीं करते. यह फिल्म (क्लब 60) ऐसे लोगों की कहानी है जिन की जिंदगी में उम्र या शारीरिक परेशानी कोई अड़चन नहीं है. वे आम लोगों की तरह दौड़धूप, भागदौड़, मौजमस्ती करते हैं और खुल कर जिंदगी जीते हैं. यह फिल्म भास्कोर जैसे बुजुर्गों को सिखाती है कि जिंदगी को पूरे उत्साह व उमंग के साथ जीभर जिएं और अपने बच्चों की जिंदगी को पीकू की जिंदगी जैसा न बनाएं. उन की जिंदगी को अपने कायदेकानूनों के अनुसार न चलाएं. माना कि बच्चों को आप से लगाव है, आप से भावनात्मक जुड़ाव है लेकिन इस जुड़ाव का आप गलत फायदा न उठाएं, उन्हें इमोशनली, फाइनैंशियली ब्लैकमेल न करें.
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हम यह कदापि नहीं कह रहे कि बच्चे मातापिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करें. मगर मातापिता को भी अपने बच्चों की खुशियों, इच्छाओं, भावनाओं को समझने की जरूरत है. वरना एक समय ऐसा आएगा जब जिंदगी के हर कदम पर दवाइयों, बीमारियों, परेशानियों में उलझे युवा अपने बुजुर्गों को ‘सैल्फिश’ यानी स्वार्थी कहने से नहीं चूकेंगे जैसे पीकू फिल्म के अंत में पीकू ने झल्ला कर अपने पिता भास्कोर, जिस से वह बेहद प्यार करती थी, से कहा है.